"एकाएक
नहीं होता कुछ
भी"
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मेरे काव्य-संग्रह "एकाएक नहीं होता कुछ भी" की समीक्षा कौशलेन्द्रजी ने की है और यह "बस्तर-मित्र" नामक ई-पेपर पर प्रकाशित भी हुआ है। वह समीक्षा मैं यहाँ अविकल रूप में दे रहा हूँ। सम्भवत: आप इसे पढ़ना चाहें : https://www.bastarmitr.com/2020/04/blog-post_830.html
एकाएक
नहीं होता
कुछ भी
(कविता संग्रह).
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ब्यूरो
चीफ- दीपक
चौहान, बस्तर
मित्र
16.04.2020
एकाएक
नहीं होता
कुछ भी
(कविता संग्रह)
रचनाकार
– हरिहर वैष्णव
प्रकाशक
– यश पब्लिकेशन,
दिल्ली
मूल्य
– रु. 250.00
हरिहर
वैष्णव रचित
छोटी-छोटी
छियालीस कविताओं
का यह
संग्रह जंगल
में एकाकी
खिले हुये
उस पुष्प
की तरह
है जिसे
सजे सँवरे
पार्क में
खिलखिलाना कतई पसंद नहीं है
। खड़ी
बोली के
साथ ठेठ
बस्तरिया शब्दों
के मनके
पिरोकर रची
गयी कवितायें
जहाँ पाठक
को बस्तर
की धरती
की सुवास
से जोड़ती
हैं वहीं
गुम होते
लोकशब्दों को अपने आँचल में
छिपाती भी
हैं ।
हरिहर वैष्णव
की कविताएँ
कहीं अल्हड़
हैं, कहीं
शर्मीली हैं
तो कहीं
क्रांति की
चिनगारी सी
फूँकती नज़र
आती हैं
...शायद
उन्हें भीड़भाड़
वाले शहर
में जाना
अच्छा नहीं
लगता ।
सचमुच, वहाँ
बहुत प्रदूषण
है, हवा
में भी,
पानी में
भी, विचारों
में भी
और हँसी
में भी
।
संग्रह
की पहली
कविता “शुक्र
करो” में
सभी धर्मग्रंथों
के आदि
मंत्रों का
सार है
। उसने
सोचा और
वैसा ही
हो गया
–
...सभी
धर्मग्रंथों में सृष्टि की कहानी
यहीं से
प्रारम्भ होती
है ।
हरिहर वैष्णव
ने सृष्टि
रचना की
जटिल प्रक्रिया
में वनवासी
जीवन की
सरलता के
दर्शन किए
और फिर
एक भोली
सी चेतावनी
- “शुक्र करो
कि / कहा
नहीं है
उसने / गुस्सा”
के साथ
पाठकों के
समक्ष परोस
दिया ।
यह
कहना कि
इस संग्रह
की कविताएँ
वनवासी जीवन
के आसपास
घूमती हैं,
न्यायपूर्ण नहीं होगा। वास्तव में
इस संग्रह
की सभी
कविताएँ वनवासी
जीवन के
भीतर से
निकलकर रिसती
हैं और
औचक ही
पूछ बैठती
हैं – “बोलो/
क्या तब
भी/ कर
पाओगे मुझसे
प्यार” ? इस
रिसाव में
वनवासी जीवन
के कई
रस पहाड़ी
नदी की
तरह बहते
से दिखायी
देते हैं । पहाड़ी नदी
कभी मंथर
गति से
बहती है,
कभी ठिठक
कर चारों
ओर देखने
लगती है
तो कभी
हिरणी सी
छलाँग़ मारती
हुयी
भागने लगती है । वनवासी
के मन
में सुलगते
अंगारे देखकर
पहाड़ी नदी
क्रांति करती
है, और
कभी-कभी
अपने किनारों
को भी
तोड़ देती
है ।
तमाम सरकारी
आँकड़ों और
नियमों के
बाद भी
बस्तर के
वनवासी जीवन
को वर्गभेद
का सामना
करना पड़ता
है ।
“बस
में सफर”
करने के
लिए घुसे
बस्तरिया को
बस की
सभी सीट्स
भरी दिखाई
देती हैं,
“एक को
छोड़कर” जो
उसके लिए
कभी नहीं
हुआ करती
। दर्द
की पर्तें
जमती रहती
हैं एक
पर एक
...सुलगती रहती हैं भीतर ही
भीतर ...फिर
होता है
एक दिन
विस्फोट, या
अंकुरित होता
है एक
बीज, एकाएक
नहीं होता
कुछ भी
। क्रांति
भी एकाएक
नहीं होती,
प्रतिपल होती
रहती है
थोड़ी-थोड़ी
...भीतर ही
भीतर ।
घोटुल
के बिना
बस्तर हो,
बस्तर की
कविता हो
और उसमें
पलाश न
हो, गुलमोहर
न हो,
चिड़िया न
हो, नेता
न हो
...तो
कविता का
कलेवर और
बनेगा कहाँ
से! दूर
दिल्ली में
बैठकर बस्तर
को स्वप्न
में देखने
की अनुभूति
में दामिनी
की द्युतितो
हो सकती
है किंतु
अनुभूति में
बस्तर की
ख़ुश्बू नहीं
होती, हो
ही नहीं
सकती ।
रचनाकार हरिहर
वैष्णव का
पूरा जीवन
बस्तर के
जंगलों में
खपता रहा,
तपता रहा
...और कविता
बनकर निखरता
रहा ।
महानगरों में
रहकर जिन
लोगों को
बैठ-बैठे
बस्तर देखना
हो उनके
लिए इस
काव्य संग्रह
का अवलोकन
सुखद होगा
।
- कौशलेंद्र
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