Saturday 22 September 2012

व्यंग्य-कथा : आओ मिल कर खायें



       अभी हरिहर वैष्णव नामक इस महापुरुष के जागने का समय ही नहीं हुआ था और बलात् जगा दिया गया। इस महामना का इस दुनिया में यदि कोई दुश्मन है तो वह जो इसे बेवक्त यानी सवेरे साढ़े आठ बजे के पहले जगा दे। वह केवल दुश्मन नहीं बल्कि सबसे बड़ा दुश्मन है। ठीक वैसे ही जैसे इस देश के नेताओं का यदि कोई दुश्मन है तो वह, जो उसे पाँच साल के पहले यानी अगले चुनाव के पहले सोते से जगा दे। लेकिन नहीं। लोग हैं कि मानते ही नहीं। कोई न कोई, किसी न किसी बहाने जगाने पर आमादा रहता है साहब! उन्हें भी और मुझे भी। चैन की नींद सोने ही नहीं देते। ऐसे में जो कोफ्त होती है, उसकी तो पूछिये ही मत। यानी मेरा और नेताओं का दर्द एक-सा! वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाने रे। यदि मैं औरों की पीर न जानूँ तो भला वैष्णव किस बात का बाबा? आप न मानें तो मैं तेलगी वाले स्टाम्प पेपर पर लिख कर दे सकता हूँ कि इस दुनिया में मेरे अलावा दूसरा कोई है ही नहीं जो पराई पीर को जाने, समझे। 
       बहरहाल, अब ज्यादा रहस्य का सृजन न करते हुए बता ही दूँ कि मेरी प्यारी-प्यारी नींद में खलल डालने वाला कोई और नहीं बल्कि साधु-वेश में लिपटा और हाथ में वीणा लिये द्वार पर मेरा नाम ले-ले कर जोर-जोर से चीखने वाला एक अड़ियल किस्म का व्यक्ति था। मेरे घर वालों ने उसे भीख माँगने वाला समझ कर उसे भिक्षा "ऑफर" की किन्तु वह बिफर गया और कहने लगा कि वह भिखारी नहीं, देवर्षि नारद है और हरिहर वैष्णव नामक प्राणी से मिलने आया है। यह सुन कर मेरी श्रीमतीजी ने मुझे झकझोरते हुए उठाया और बड़े 'प्यार' से कहा,  "सुनते हो! एक भिखारी दूसरे भिखारी से मिलने आया है। उठो, और जा कर उसे विदा करो।" 
       अपनी प्राण-प्यारी का "प्यार भरा" आदेश पा कर मैं उठ कर सीधे दरवाजे की ओर भागा। मैंने उन्हें देखते ही पहचान लिया। वे सचमुच देवर्षि नारद ही थे। इसके पहले कि मैं उनसे कुछ कहता-सुनता, उन्होंने मुझे देखते ही गला फाड़ अन्दाज में गाना शुरु कर दिया : 
आओ मिल कर खायें
भैया, आओ मिल कर खायें।

जनता का पैसा है बाबा
मिल कर हम सब खायें
नहीं करें हम शर्म री माई
खायें और पचायें। 

पुल टूटें तो अपनी बला से
भवन गिरें गिर जायें
सड़कों पर गड्ढे पड़ने दो
हम तो मौज मनायें।

बाँध बहें बह जायें मितवा
पेड़ कटें कट जायें
चारा चर लें नेताजी तो
हम काहे खिसियायें? 


बाबू खायें साहब खायें
चपरासी भी खायें
मन्त्री खायें सन्त्री खायें
खाते वे न अघायें। 

कोई लुटे चाहे मिट जाये
हम ना मगज खपायें
हम तो भैया बड़े मजे से
लूट मचाये जायें। 

दुनिया जाये भाड़ में बन्धु
हम तो खाये जायें
खाने से डरने वाले जो
वे पाछे पछतायें। 

       इससे पहले कि वे "लाँग प्ले" की तरह बिना रुके गाते चले जाते, मैंने उन्हें चुप कराना ही उचित समझा। दौड़ कर उन तक जा पहुँचा और साष्टांग दण्डवत् पड़ गया। वे मुझे ऐसा करते देख आग बबूला हो गये। आशीर्वाद देने की बजाय तमक कर बोले, "धिक्कार है तुम पर हरिहर! तुम अभी तक वही घोंघावसन्त हो। आज दुनिया कहाँ की कहाँ पहुँच गयी! लोग अपने माँ-बाप से भी हाथ मिला कर उनका अभिवादन करने लगे हैं; हाय-हैलो करने लगे हैं। माँ-बाप के साथ जाम टकराने लगे हैं। और एक तुम हो कि अभी भी वही चरण-स्पर्श करने की दकियानूसी परिपाटी निभाये चले जा रहे हो।" 
       मुझे काटो तो खून (वैसे तो यह मुहावरा है प्रभुवर! किन्तु सच कहूँ तो यदि आप मेरा शरीर चीर कर भी देख लें तो सचमुच मेरे इस पिद्दी शरीर में खून है ही) नहीं। बहरहाल, मुझ पर आशीर्वादों की झड़ी लगाते हुए उन्होंने अपना वजनी हाथ मेरे छोटे से मुण्डी पर रखा; फिर बोले, ""बेटा हरिहर! कई वर्षों, बल्कि दशकों से तुमसे भेंट नहीं हुई थी सो आज चला आया। इधर तुम्हारे देश का हाल पहले से भी बेहतर है, सिवा तुम्हारे।"" 
नारद जी ने ऐसे कहा, मानो मुझसे मिले बगैर उनके प्राण ही तो छूटे जा रहे थे! मैंने कहा, "प्रभुवर! यह क्या कह रहे हैं आप? मैं तो प्रभु की दया से भला-चंगा हूँ। हाँ, गुड़ाखू की दया से दो-चार दाँत जरूर टूट गये हैं। बाकी सब तो ठीक-ठाक ही है।" ऐसा कहते-कहते मुझे महासमुँद वाले भाई श्री चेतन आर्य जी याद आ जाते हैं, जिन्होंने मेरा नाम ही "गुड़ाखू वाला" रख रखा है।
       वे बोले, "क्या खाक ठीक है वत्स! तुम तो अभी भी वैसे ही फटेहाल हो। तुम्हारी देह पर मांस का तो नामोनिशान नहीं। केवल हड्डियाँ ही हड्डियाँ रह गयी हैं। कंकाल हो गये हो तुम तो। न मरते हो न मोटाते। कुछ लेते क्यों नहीं? कुछ लो। खाओ-पियो। लोग खा-खा कर साँड, बल्कि सुअर हुए जा रहे हैं और एक तुम हो कि बिना खाये सींक! यह बिल्कुल अच्छी बात नहीं है। खाओ, डट कर खाओ। बस! आज तुम्हें मैं यही सीख देने आया हूँ। अगली बार आऊँ तो खाते-पीते नजर आना। तब फिर फुर्सत में बातें होंगी।" और वे चले गये।            
       वे तो चले गये किन्तु मेरे हँसते-खेलते घर में आग लगा गये। भीतर मेरी पत्नीजी तक उनकी यह सीख पहुँची और फिर उन्होंने तो साहब मेरा जीना मुहाल कर दिया। कहने लगीं, ""देखा! मैं न कहती थी आपसे बारम्बार! लेकिन यहाँ मेरी सुनता ही कौन है? अब तो चेतो। नारदजी ने जैसा कहा है, वैसा करो। यदि नहीं कर सकते तो लो, मैं तो चली अपने मायके।"" 
       उनकी झिड़की सुन कर मैंने मन ही मन ठान लिया कि देवर्षि की बात अब तो मान ही ली जाये। आज से ही खाना शुरु कर देता हूँ। उनका गीत अब मेरा मार्ग दर्शन करने लगा था और मैं तलाश रहा था खाने की सम्भावनाएँ। 

Tuesday 4 September 2012

बस्तर के साहित्य-मनीषी लाला जगदलपुरी जी को पद्मश्री से अलंकृत किया जाये

मित्रो!
मैंने पिछले वर्ष बस्तर के तमाम विधायकों, सांसदों, मन्त्रियों, संसदीय सचिवों के साथ-साथ माननीय मुख्यमन्त्री, संस्कृति मन्त्री, गृह मन्त्री, बस्तर सम्भाग के आयुक्त, बस्तर जिले के कलेक्टर तथा माननीय प्रधान मन्त्री जी को पत्र लिख कर बस्तर के जीवित किंवदन्ती और चलते-फिरते विश्वकोश कहे जाने वाले श्रद्धेय लाला जगदलपुरी जी को पद्मश्री से अलंकृत किये जाने के लिये अपने-अपने स्तर पर प्रयास करने का विनम्र निवेदन किया था किन्तु मुझे केवल आयुक्त बस्तर सम्भाग और प्रधान मन्त्री कार्यालय के अतिरिक्त कहीं से भी कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला था। मैं इन दोनों का हृदय से आभारी हूँ। 
इसी तरह का प्रयास काँकेर से डॉ. कौशलेन्द्र जी ने भी किया था किन्तु उन्हें भी कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला था। जगदलपुर के साहित्यकार बन्धुओं के प्रयासों को भी कोई तवज्जो नहीं दी गयी।



इस वर्ष अभी 21.08.12 को केन्द्रीय गृह मन्त्रालय से इस सम्बन्ध में मेरे पास एक पत्र आया जिसके द्वारा गृह मन्त्रालय ने आदरणीय लाला जी से सम्बन्धित जानकारी मुझसे माँगी थी। उनके द्वारा चाही गयी जानकारी मैंने सुसंगत अभिलेखों के साथ उन्हें भेज दी है। इस सम्बन्ध में मेरा मार्गदर्शन करने के लिये मैं आदरणीय श्री राहुल सिंह जी का हृदय से कोटिश: आभारी हूँ। 


किन्तु बात इतने से नहीं बनती। इसके लिये मुझे लगता है कि हम सबका समवेत प्रयास अत्यन्त आवश्यक है। यदि आप मेरी बातों से सहमत हों और समझते हों कि आदरणीय लाला जी पद्मश्री के सही हकदार हैं, तो मेरी आपसे विनम्र प्रार्थना है कि आप भी अपने-अपने स्तर पर, व्यक्तिगत अथवा संस्थागत पत्र गृह सचिव, भारत सरकार, नार्थ ब्लॉक, नयी दिल्ली 110001 को भेज कर मेरे प्रस्ताव का समर्थन करने का कष्ट करें। इसके साथ ही, आप नीचे दिये लिंक पर भी क्लिक कर श्री विश्व दीपक जी द्वारा छेड़े गये हस्ताक्षर अभियान में सम्मिलित हो सकते हैं। उन्होंने अब तक कुल 92 हस्ताक्षर जुटा लिये हैं। इसके लिये मैं श्री विश्व दीपक जी और आदरणीय श्री गिरीश पंकज जी तथा भाई राजीव रंजन प्रसाद का कोटिश: आभारी हूँ। भाई राजीव रंजन प्रसाद ही वे व्यक्ति हैं जिन्होंने मेरे मन में यह आग लगायी है जो तब तक सुलगती रहेगी जब तक कि लाला जी को पद्मश्री से अलंकृत नहीं कर दिया जाता।




 वैसे तो लाला जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं तो भी यहाँ संक्षेप में उनका जीवन परिचय तथा उनके साहित्यिक अवदान की चर्चा करना आवश्यक जान पड़ता है :
जीवन वृत्त

नाम : लाला जगदलपुरी
जन्म : 17 दिसम्बर, 1920; जगदलपुर (बस्तर) में।
पिता : स्व. रामलाल श्रीवास्तव।
माता : स्व. जीराबाई श्रीवास्तव।
शिक्षा : आत्म-निर्माण। 
1936 से लेखन रत। अपने धरातल के लोक-जीवन और उससे सम्बद्ध सर्वांगीण गतिविधियों पर चिन्तन, लेखन। 1939 से निरन्तर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन। अनेक मिले-जुले संग्रहों में रचना-सहयोग। कविता के साथ-साथ साहित्य की अन्यानेक विधाओं और बाल-साहित्य-लेखन में भी समान रूप से दखल। हिन्दी के साथ-साथ छत्तीसगढ़ी तथा बस्तर की लोकभाषा हल्बी एवं भतरी में भी लेखन-प्रकाशन। अतीत का थोड़ा समय साहित्यिक पत्रकारिता को समर्पित रहा था। हल्बी में प्रकाशित एक साप्ताहिक के माध्यम से आंचलिक पत्रकारिता के एक सफल प्रयोग में चर्चित। कतिपय पाठ्य-पुस्तकों में भी रचना-सहयोग।                                                         

 प्रकाशित पुस्तकें : 
01- कविता/गजल संग्रह : 01- मिमियाती जिंदगी दहाड़ते परिवेश (1983, आन्दोलन प्रकाशन, जगदलपुर), 02- पड़ाव-5 (1992, पड़ाव प्रकाशन, भोपाल), 03- हमसफ़र (1986, पल्लव साहित्य समिति, भोपालपटनम, सम्पादित), 04- आंचलिक कविताएँ (2006, "आकृति", जगदलपुर द्वारा प्रकाशित), 05- जिंदगी के लिये जूझती गजलें (2005, "आकृति", जगदलपुर द्वारा प्रकाशित),     06- गीत-धन्वा (2011, प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, रायपुर, छ.ग. द्वारा प्रकाशित)
02- इतिहास-संस्कृति : 01- बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति (1994, म.प्र.हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल), 02- बस्तर-लोक : कला-संस्कृति प्रसंग (2003, आकृति संस्थान, जगदलपुर), 03- बस्तर की लोकोक्तियाँ (2000, राष्ट्रीय प्रकाशन मन्दिर, लखनऊ), 04- बस्तर की लोकोक्तियाँ (2008, छ.ग.राज्य हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, रायपुर-छ.ग.)
03- लोक कथा संग्रह : 01- हल्बी लोक कथाएँ (1972, लोक चेतना प्रकाशन, जबलपुर),    02- वनकुमार और अन्य लोक कथाएँ (1990, नवभारती प्रकाशन, इलाहाबाद), 03- बस्तर की मौखिक कथाएँ (1991, बस्तर सम्भाग हल्बी साहित्य परिषद्, कोंडागाँव), 04- बस्तर की लोक कथाएँ (1989, सरस्वती प्रतीक संस्थान, भोपाल)
04. अनुवाद : 01- प्रेमचंद चो बारा कहनी (1984, वन्या प्रकाशन, भोपाल), 02- बुआ चो चिठी मन (1988, वन्या प्रकाशन, भोपाल), 03- रामकथा (1991, वन्या प्रकाशन, भोपाल), 04- हल्बी पंचतन्त्र (1971, इन्द्रावती प्रकाशन, जगदलपुर)

मिले-जुले संग्रहों में प्रकाशन : 01- "समवाय" (छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन, रायपुर), 02- "पूरी रंगत के साथ" (पड़ाव प्रकाशन, भोपाल), 03- "लहरें" (सागर), 04- "इन्द्रावती" (प्राची प्रकाशन, दिल्ली), 05- "सापेक्ष" ग़ज़ल विशेषांक (दुर्ग), 06- "हिन्दी का बाल-गीत साहित्य" (उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ), 07- "सुराज" (भोपाल), 08- "चुने हुए बाल-गीत" (प्रभात प्रकाशन, दिल्ली),  09- "छत्तीसगढ़ी काव्य संकलन" (रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर  विगत पाठ्य पुस्तक), 10- "छत्तीसगढ़ के माटी चंदन" (चित्रोत्पला कला परिषद्, रायपुर), 11- "छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह" (ज्योति प्रेस, रायपुर), 12- "गुलदस्ता" (आन्ध्र संस्करण, मैकमिलन एंड कं- मद्रास। नौवीं कक्षा की तृतीय भाषा हिन्दी शिक्षण हेतु आन्ध्र प्रदेश सरकार द्वारा स्वीकृत सन् 1964 का प्रकाशन), 13- "स्वर संगम" (राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रमानुसार भाग-4, बंसल पब्लिकेशन लि., सहारनपुर), 14- "गीत हमारे कण्ठ तुम्हारे" (बाल-गीत संग्रह, हीरोज क्लब, इलाहाबाद), 15- "बालगीत" भाग-4 (उपर्युक्तानुसार), 16- "बालगीत" भाग-5 (उपर्युक्तानुसार), 17- "बालगीत" भाग-7 (उपर्युक्तानुसार), 18- "हम चाकर रघुवीर के" (भोपाल), 19- "मध्यप्रदेश की लोक कथाएँ" (भोपाल), 20- "स्पन्दन" (म.प्र.ले.संघ, बीना इकाई, जिला सागर (म.प्र.) द्वारा प्रकाशित), 21- "चौमासा" (मध्यप्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद्, भोपाल), 22- "रंगायन" (भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर), 23- "ककसाड़" (ककसाड़ प्रकाशन, कोंडागाँव, बस्तर-छ.ग.) आदि....

प्राप्त प्रमुख सम्मान : 01- 28 अक्टूबर 1972 को "चंदैनी-गोंदा" के धमतरी मंच पर सम्मानित, 02- धमतरी में ही स्थानीय साहित्य समिति द्वारा 03 बार 1977, 1990 एवं उससे पूर्व सम्मानित, 03- म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ के जगदलपुर अधिवेशन में 29 अक्टूबर 1982 को सम्मानित, 04- कानपुर में अखिल भारतीय बाल-साहित्यकारों के साथ बाल-कल्याण संस्था द्वारा 17 फरवरी 1983 को सम्मानित-पुरस्कृत, 05- 07 सितम्बर 1985 को जगदलपुर स्थित "दण्डकारण्य समाचार" प्रेस द्वारा सम्मानित, 06- "पारम्परिक बस्तर शिल्पी परिवार" संस्था कोंडागाँव द्वारा 18 दिसम्बर 1987 को सम्मानित, 07- छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा 1988 में रायपुर में सम्मानित-पुरस्कृत, 08- "सूत्र" द्वारा 1992 में जगदलपुर में सम्मानित, 09- छत्तीसगढ़ी भाषा साहित्य प्रचार समिति, रायपुर द्वारा 14 फरवरी 1993 को जगदलपुर में सम्मानित, 10- पड़ाव प्रकाशन, भोपाल द्वारा हिन्दी भवन, भोपाल में 30 मई 1992 को सम्मानित, 11- भोपाल में ही एक साहित्यिक संस्था "समय" की गोष्ठी में 1992 में सम्मानित, 12- मध्यप्रदेश लेखक संघ, भोपाल द्वारा 15.07.1995 को "अक्षर आदित्य" सम्मान से अलंकृत, 13- 08 मार्च 1998 को "बख्शी सृजन पीठ", भिलाई द्वारा जगदलपुर में सम्मानित, 14- 2004 में छत्तीसगढ़ शासन के पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मान से अलंकृत, 15- उपर्युक्त के अतिरिक्त अन्यानेक सम्मान।
सम्पर्क : कवि-निवास, डोकरीघाट पारा, जगदलपुर 494001, बस्तर-छत्तीसगढ़। 



श्री लाला जगदलपुरी को पद्मश्री से सम्मानित किये जाने के लिये आधार  


92 वर्षीय श्री लाला जगदलपुरी जी पिछले 75 वर्षों से पूर्णत: समर्पित भाव से साहित्य-सृजन में लगे रहे हैं। उन्होंने उस समय बस्तर में साहित्य लेखन आरम्भ किया जब इस पिछड़े कहे जाने वाले आदिवासी बहुल अंचल में कोई साहित्यिक माहौल नहीं था। उन्होंने मात्र 16 वर्ष की आयु (1936) से लेखन-कर्म आरम्भ किया और 19 वर्ष की आयु (1939) से उन्हें "वेंकटेश्वर समाचार", "चाँद" "विश्वमित्र", "सन्मार्ग", "पाञ्चजन्य", "मानवता", "कल्याण", "नवनीत", "कादम्बिनी", "नोंकझोंक", "रंग", "ठिठोली" जैसे राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन मिलने लगा।


श्री लाला जी मूलत: कवि हैं। किन्तु इतना भर कह देना शायद अधूरा होगा यदि यह न कहा जाये कि वे केवल कवि नहीं बल्कि श्रेष्ठ कवि हैं।  उनकी कविताएँ, चाहे वे छान्दिक हों या छन्द-मुक्त, कथ्य और शिल्प की दृष्टि से जहाँ ऊँचाइयों को छूती हैं, वहीं भाषा और व्याकरण पर भी उनका गजब का अधिकार रहा है। उन्होंने कविताओं के अलावा गजलें भी लिखीं। उनकी गजलों में भी हमें उन्हीं ऊँचाइयों के दर्शन होते हैं।

वे एक सफल और श्रेष्ठ कवि होने के साथ-साथ एक सफल और श्रेष्ठ गद्य-लेखक भी रहे हैं। गद्य-लेखन में उन्होंने इसकी अनेक विधाओं पर कलम चलायी। ललित निबंध, नाटक, व्यंग्य उनकी प्रिय विधायें रही हैं। रेडियो के लिये लिखे गये उनके नाटकों और रूपकों ने अखिल भारतीय स्तर पर प्रसारण पाया है।

श्री लाला जी ने ललित निबंध आदि के अलावा शोध परक लेख भी लिखे। ऐसे लेख  जिसकी प्रामाणिकता पर कोई भी प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकता। कारण, उन्होंने विषय की तह तक जाने का भरसक प्रयास किया और वे अपने इस प्रयास में काफी हद तक सफल भी रहे हैं।

उन्होंने जब बस्तर के इतिहास पर कलम चलायी तो विश्वसनीय सूत्रों को आधार बनाया और प्रामाणिकता को बरकरार बनाये रखा।

इसी तरह जब बस्तर की संस्कृति पर लिखा तो उसे सही नज़रिये से देखा और उसी रूप में प्रस्तुत किया। लाला जी के लेखन से पूर्व बस्तर से बाहर के लोग बस्तर की संस्कृति को बहुत ही संकुचित रूप में देखा करते थे। वे इसे एल्विन, ग्रियर्सन, ग्रिग्सन और ग्लासफर्ड के नजरिये से देखा करते थे किन्तु जब लाला जी का लेखन प्रकाश में आया तो लोगों की धारणा बदल गयी और बस्तर की समृद्ध संस्कृति को उसकी समग्रता में समझने-बूझने का मौका मिला।

श्री लाला जी ने बस्तर की आदिवासी एवं लोक-कलाओं के विषय में गम्भीर लेखन किया। इतना ही नहीं अपितु वाचिक परम्परा के लुप्त होते जाने के खतरे को समय पर भाँप कर उन्होंने यहाँ प्रचलित जगारों (लोक महाकाव्यों) में से दो लोक महाकाव्यों ("लछमी जगार" और "तीजा जगार") के एक-एक अध्यायों का संकलन कर उनका प्रकाशन कराया।
वाचिक परम्परा के सहारे पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते आ रहे लोक साहित्य को सहेजने के प्रयास में उन्होंने बस्तर की अन्यानेक लोक कथाओं, मिथ कथाओं, लोक गीतों, कहावतों, मुहावरों और पहेलियों का भी संकलन कर उनका प्रकाशन कराया।
बस्तर की गोंड जनजाति की संस्था "घोटुल" पर लोगों ने ऊलजलूल लिखा और बस्तर की इस महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर के विषय में भ्रामक प्रचार किया। उसे लांछित किया। किन्तु लालाजी ने घोटुल की आत्मा को समझा और सच्चाई लिखी।

यह कहने में किसी को कोई संकोच नहीं हो सकता कि बस्तर के प्रति समर्पित लालाजी ने इस अंचल की आदिवासी एवं लोक संस्कृति को हिन्दी साहित्य जगत के समक्ष बड़ी ही शिद्दत के साथ प्रस्तुत किया है। वे 1908 में प्रकाशित पुस्तक "बस्तर-भूषण" के लेखक पंडित केदार नाथ ठाकुर के बाद ऐसे पहले लेखक हैं जिन्होंने बस्तर की संस्कृति को उसकी समग्रता में अपनी कई पुस्तकों में पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया है। इस तरह 1908 के बाद 2012 के बीच श्री लाला जगदलपुरी जी के अतिरिक्त और किसी ने भी इस तरह का गम्भीर लेखन-प्रकाशन नहीं किया।

लालाजी के अतीत का थोड़ा-सा समय साहित्यिक पत्रकारिता को भी समर्पित रहा था। वे जगदलपुर से प्रकाशित साप्ताहिक "अंगारा" में सम्पादक, रायपुर से प्रकाशित "देशबन्धु" में सहायक सम्पादक,  महासमुंद से प्रकाशित "सेवक" में सम्पादक और जगदलपुर से बस्तर की लोक भाषा "हल्बी" में प्रकाशित साप्ताहिक "बस्तरिया" में सम्पादक रहे। वे इस साप्ताहिक के माध्यम से आंचलिक पत्रकारिता के सफल प्रयोग में चर्चित रहे हैं।
मूलत: हिन्दी के कवि होने के साथ-साथ उन्होंने छत्तीसगढ़ी और बस्तर अंचल की लोक-भाषाओं हल्बी तथा भतरी में भी समान रूप से और अधिकार पूर्वक लिखा।
लाला जी ने बाल साहित्य में भी गुणात्मक योगदान दिया। उनके लिखे बाल साहित्य (गद्य एवं पद्य दोनों) विभिन्न कक्षाओं की पाठ्य-पुस्तकों में सम्मिलित हुए हैं।
मौलिक लेखन के साथ-साथ उन्होंने हिन्दी की कुछ पुस्तकों का हल्बी में अनुवाद भी प्रस्तुत किया। इस तरह उन्होंने हिन्दी साहित्य की श्री वृद्धि के साथ-साथ हल्बी लोक-भाषा साहित्य की भी श्री वृद्धि में अपना अमूल्य एवं स्तुत्य योगदान दिया है।
यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय है कि उनका सम्पूर्ण लेखन चाहे वह गद्य हो या पद्य, ललित हो या शोधात्मक निबंध; आरम्भ से ही चर्चित होता रहा है।
कुछ दिनों तक बस्तर से बाहर रह कर उन्होंने मातृ-भूमि छोड़ने का ऐसा दंश भोगा कि दुबारा अपनी जन्म-भूमि बस्तर को छोड़ने के विषय में वे कभी सोच ही नहीं पाये। यदि वे बस्तर से बाहर निकल गये होते तो निश्चित ही आज बात ही कुछ और होती। सुप्रसिद्ध कथाकार-उपन्यासकार शानी और आलोचना के शिखर पुरुष कहे जाने वाले प्रोफेसर (डॉ.) धनंजय वर्मा जैसे उनके शिष्यों को भी तभी पहचान और प्रसिद्धि मिली जब वे बस्तर से निकल कर बाहर चले गये।
श्री लाला जी बहुत ही स्वाभिमानी हैं। उन्होंने आज तक कभी भी किसी भी पुरस्कार या सम्मान अथवा आर्थिक सहायता के लिये "आवेदन" नहीं किया। आत्म-प्रचार-प्रसार और साहित्यिक गुटबाजी से वे हमेशा कोसों नहीं बल्कि योजनों दूर रहे। और यही कारण है कि अनेक सम्मानों से विभूषित लाला जी उन पुरस्कारों/सम्मानों से वंचित होते रहे हैं, जिनके वे सही मानों में हकदार हैं।
यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि श्री लाला जगदलपुरी जी एक जीवित किम्वदन्ती हैं। उन्हें दण्डक वन का ऋषि भी कहा जाता है। पूरे बस्तर अंचल में  हाल ही में बस्तर पर केन्द्रित एक उपन्यास के उपन्यासकार द्वारा अपने उपन्यास-लेखन के सिलसिले में कराये गये सर्वेक्षण में पाया गया कि इनका नाम बस्तर अंचल के 84 प्रतिशत शिक्षित/अशिक्षित दोनों ही प्रकार के लोग भली प्रकार जानते हैं।
अत: उपर्युक्त युक्तियुक्त कारणों एवं आधार पर श्री लाला जगदलपुरी जी पद्मश्री से अलंकृत किये जाने के सर्वथा योग्य हैं।

विनीत:
हरिहर वैष्णव