कुछ महीनों, नहीं, नहीं। लगभग साल भर पहले की बात है। "डाइट" बस्तर में पदस्थ डॉ. (श्रीमती) आरती जैन मेरे पास आयी थीं, छत्तीसगढ़ एससीईआरटी (छत्तीसगढ़ राज्य शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद्) रायपुर द्वारा आरम्भ की गयी एक परियोजना के सन्दर्भ में। उन्हें बस्तर की वाचिक परम्परा के संकलन के सन्दर्भ में मुझसे सहायता चाहिये थी। बातों ही बातों में उनसे जानकारी मिली जगदलपुर के श्री विक्रम कुमार सोनी द्वारा हल्बी की लिपि के निर्माण की। नाम मुझे सुना-सुना सा लगा। फिर मुझे ध्यान आया, मेरे मित्र केसरी कुमार सिंह का। मैंने भाई केसरी कुमार जी के मुँह से ही कई बार श्री सोनी का नाम सुना था हल्बी-हिन्दी-अँग्रेजी शब्द-कोष एवं व्याकरण आदि के सन्दर्भ में। फिर यह भी ध्यान आया कि ये वही सोनी हैं, जिनकी आवाज हम आकाशवाणी जगदलपुर के हल्बी नाटकों और रूपकों में सुनते आये हैं। हल्बी नाटकों अथवा किसी भी कार्यक्रम में बाल चरित्रों के लिये जब भी स्वर कलाकार की आवश्यकता होती, आकाशवाणी के पास विक्रम कुमार सोनी का ही नाम होता। हल्बी-हिन्दी के नाटकों में मैं भी भाग लिया करता था। नाटकों और अन्य आलेखों की रिकार्डिंग के लिये भी कई बार आकाशवाणी केन्द्र जाना होता था किन्तु भाई विक्रम कुमार जी से कभी मुलाकात का संयोग ही नहीं बन पाया था। फिर अनायास ही यह भी ध्यान आया कि ये तो वही विक्रम कुमार सोनी हैं जिन्होंने भाई श्री रुद्रनारायण पाणिग्राही और भाई श्री नरेन्द्र पाढ़ी के साथ मिल कर पिछले वर्ष हल्बी-भतरी-गोंडी कविताओं का संकलन "चिड़खा" शीर्षक से प्रकाशित किया था। तब मैंने कम्प्यूटर पर पिछला रिकार्ड खँगाला और वह फाईल खोज निकाली जिसमें इन सभी महानुभावों की कविताएँ और इन सबके पते आदि थे। यह सामग्री मैंने हल्बी-भतरी-गोंडी आदि बस्तर की कुछ लोक भाषाओं के कवियों से जुटायी थी बिलासपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका "छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर" (सम्पादक : श्री नन्दकिशोर तिवारी) के लिये। इसमें भाई विक्रम सोनी का मोबाइल नम्बर मिला और मैंने तुरन्त उनसे बात की। बातचीत काफी लम्बी चली और फिर उन्होंने मुझे हल्बी वर्णमाला की हार्ड कॉपी अपने एक सहकर्मी मित्र के हाथों तथा हल्बी फोन्ट ईमेल से कृपा पूर्वक उपलब्ध करायी। इसके बाद एक दिन वे रायपुर से जगदलपुर जाते हुए मेरे अनुरोध पर थोड़ी देर के लिये कोंडागाँव रुक कर मुझसे भेंट करने के लिये घर तक आये।
मेरे मन में हल्बी लिपि के निर्माण को ले कर बहुत अधिक उत्सुकता बनी हुई थी और इस विषय में विस्तार से चर्चा करने की आवश्यकता मैं महसूस कर रहा था। सो उस दिन मैंने उनसे लम्बी बातचीत की।
इसके पहले कि मैं यहाँ लिपि-निर्माण को ले कर उनसे हुई बातचीत प्रस्तुत करूँ, उनका संक्षिप्त परिचय दे देना उपयुक्त जान पड़ता है।
01 फरवरी 1968 को जगदलपुर में जन्मे श्री विक्रम कुमार सोनी के पिता हैं श्री विजय सोनी और माता हैं श्रीमती सुलोचना सोनी। इन्होंने इतिहास में एम. ए. किया है और वर्तमान में जिला एवं सत्र न्यायालय, जगदलपुर में लिपिक के पद पर कार्यरत हैं। इनकी अभिरुचियों में सम्मिलित हैं भाषा-शिक्षा-साहित्य, कला-संस्कृति, पुरातत्व, प्रकृति और पर्यटन। रेडियो, रंगमंच और टीवी पर अभिनय के साथ-साथ हल्बी एवं हिन्दी में कविता तथा कहानी लेखन और "बोनसाई" बागवानी भी इनकी रुचि के विषय हैं।
एक नजर इनकी अब तक की उपलब्धियों की ओर भी। हिन्दी कविता के लिये द्विभाषी पत्रिका "भिलाई वाणी", जो भिलाई (छ.ग.) से हिन्दी और तेलुगु में प्रकाशित होती है, द्वारा 2010 में "भिलाई वाणी सम्मान" से विभूषित। स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रंगमंच में सक्रिय। छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्थानों के अतिरिक्त ओड़िशा के कटक, राउरकेला, टेन्सा, देवगढ़, कोटपाड़, पश्चिम बंगाल के बैरकपुर, बिहार के पटना, उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद और आगरा, राजस्थान के अलवर, हरियाणा के गुड़गाँव और उत्तराखण्ड के देहरादून में रंगमंच पर अभिनय। रंगमंच पर अभिनय के लिये इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश), देहरादून (उत्तराखण्ड), राउरकेला (ओड़िशा), अलवर (राजस्थान) तथा देवगढ़ (ओड़िशा) में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्र स्तरीय पुरस्कार प्राप्त। राजीव गांधी शिक्षा मिशन के लिये अन्य चार सहयोगियों के साथ मिल कर हल्बी-हिन्दी-अँग्रेजी शब्दकोश तैयार किया गया है। इसके अतिरिक्त प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा के प्रयोग के लिये कक्षा तीसरी, चौथी और पाँचवीं के लिये हल्बी पाठ्यक्रम के लेखक-मण्डल में भी सम्मिलित हैं। यह पाठ्यक्रम बस्तर जिले के बस्तर एवं तोकापाल विकास खण्डों में पढ़ाया जा रहा है।
1987 से "बोनसाई" निर्माण कला में सक्रिय। वर्ष 2001 में उद्यान विभाग द्वारा आयोजित दो दिवसीय संभाग स्तरीय प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ बोनसाई के लिये तीन पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।
भाषा, साहित्य एवं कला-संस्कृति में बचपन से ही उनकी रुचि रही है। हल्बी का व्याकरण लिखने के लिये उन्हें इसके भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता प्रतीत हुई और इस क्रम में भारतीय और विश्व की अन्य भाषाओं एवं उनकी लिपियों का भी उन्होंने अध्ययन किया। इस अध्ययन के फलस्वरूप उन्होंने पाया कि हिन्दी, मराठी और ओड़िया की मिली-जुली "बोली" (जिसे भाषा-वैज्ञानिक शब्दावली में "क्रियोल" कहा जाता है) होने पर भी हल्बी आज जिस स्वरूप में है, उसे पूरी तरह मराठी या हिन्दी या ओड़िया की बोली नहीं माना जा सकता अपितु इसे नेपाली की तरह एक पृथक् "भाषा" माना जाना चाहिये। वे आगे कहते हैं कि यह आवश्यक नहीं कि किसी बोली या उपभाषा को भाषा के रूप में विकसित करने के लिये पृथक् लिपि हो। वर्तमान किसी भी लिपि को इसके लिये स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु श्री सोनी ने पाया कि देवनागरी लिपि में लिखने पर हल्बी शब्दों के उच्चारणों के साथ न्याय नहीं हो पा रहा है। देवनागरी में हल्बी लिखने वालों पर हिन्दी वर्तनी का बहुत प्रभाव है। हल्बी उच्चारणों के अनुसार हल्बी शब्दों की वर्तनी (द्मद्रड्ढथ्थ्त्दढ़) लिखी जा रही है। अत: श्री सोनी को हल्बी शब्दों के वास्तविक उच्चारण लिखने के लिये भाषा-वैज्ञानिक आधार पर एक नयी लिपि तैयार करने की आवश्यकता महसूस हुई।
दूसरी बात, वे आगे कहते हैं, बस्तर आदिकाल से एक पृथक् जनपद या अंचल रहा है। इसकी भौगोलिक और ऐतिहासिक पृथकता ने इसकी जन-भाषाओं और संस्कृति को भी पड़ोसी अंचलों से पृथक् किया है। किन्तु पड़ोसी भाषाओं की तुलना में लिखित धार्मिक-लौकिक साहित्य और उदात्त "साहित्यिक संस्कृति" की कमी उन्हें हमेशा खटकती रही है। उन्होंने देखा कि अभी सौ वर्षों के भीतर ही संथाली, सँवरा, गोण्डी इत्यादि के लिये नयी लिपियाँ तैयार की गयी हैं। मणिपुरी के लिये 1980 में बंगला लिपि के स्थान पर उसकी विलुप्त लिपि "मेइतेइ" को पुन: स्वीकृत किया गया। इन सब तथ्यों ने श्री सोनी को हल्बी के लिये पृथक् लिपि बनाने के लिये प्रेरित किया।
वे हल्बी के लिये लिपि तैयार करने के दो कारण बताते हैं, एक भाषा-वैज्ञानिक और दूसरा साहित्यिक-सांस्कृतिक। बहरहाल, हल्बी के लिये पृथक् लिपि तैयार करने के पूर्व उन्होंने वर्तमान भारतीय लिपियों के साथ ही भारतीय लिपियों से विकसित मध्य एशियाई, तिब्बती, दक्षिण एशियाई, दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों की वर्तमान और प्राचीन लिपियों का अध्ययन किया। यूरोपीय तथा अफ्रीकी लिपियों का भी अध्ययन किया। उत्तर भारतीय, तिब्बती एवं दक्षिण-पूर्वी एशियाई लिपियों के अध्ययन से उन्हें ज्ञात हुआ कि इन सभी लिपियों को मूल ब्राह्मी लिपि में कुछ परिवर्तन कर विकसित किया गया है और इसी कारण ये सभी लिपियाँ थोड़ा प्रयास करने पर सीखी जा सकती हैं। इस तरह श्री सोनी ने निर्णय लिया कि हल्बी की लिपि भी इसी प्रकार की होगी। उन्होंने देवनागरी लिपि में ही थोड़ा परिवर्तन कर नयी लिपि बनाने का प्रयास लगभग दस वर्ष पहले आरम्भ किया। 2006 में उन्होंने इसे लोगों के सामने रखा। "वर्णमाला-पुस्तिका" हाथ से तैयार कर लोगों के बीच बाँटते फिरते और उनके विचार सुनते गये। उन्होंने जन साधारण और बुद्धिजीवी, दोनों ही वर्गों के विचार एवं सुझाव प्राप्त किये। कुछ लोगों ने इस विचार को स्वीकार नहीं किया तो कुछ को रोचक लगा और कुछ ने इसे बस्तर की आवश्यकता कहा। इसमें कुछ संशोधन किये गये और अन्तत: 2011 में इसके फोन्ट भी तैयार हुए और अब यह लिपि सबके सामने है।
श्री सोनी ने जब हल्बी व्याकरण लिखना आरम्भ किया तो उनके इस कार्य को देख कर उनके सहकर्मी और मित्र डॉ. योगेन्द्र सिंह राठौर ने उन्हें पहले भाषा-विज्ञान पढ़ने का सुझाव दिया। तब उन्होंने व्याकरण लिखना स्थगित कर भाषा-विज्ञान पढ़ना आरम्भ किया। हल्बी में अनुसंधान और लेखन के चलते उन्हें अपने ही जैसे अभिरुचि वाले कुछ लोग मिले। इनमें से एक श्री बाबू थॉमस भी हैं, जो स्वयं हल्बी और भाषा-विज्ञान के अच्छे ज्ञाता हैं। उन्होंने श्री सोनी को भाषा-विज्ञान की अँग्रेजी की कुछ पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद का काम सौंपा। इस कार्य को करते हुए श्री सोनी को भाषा-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का गहराई से अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ। इन दो लोगों के सुझाव और समय-समय पर विचार-विमर्श ने श्री सोनी को उनके विचार को सुदृढ़ करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। इसके साथ-साथ उनके रंगकर्मी और साहित्यकार साथी द्वय श्री रुद्रनारायण पाणिग्राही और श्री नरेन्द्र पाढ़ी ने उन्हें लगातार प्रोत्साहन और सुझाव दिये। उनके सहकर्मी भी उन्हें लगातार प्रोत्साहित करते रहे। वे कहते हैं, "अब तो स्थिति यह है कि श्री पाणिग्राही जी और श्री पाढ़ी जी ने मुझसे हिन्दी में बातें करना ही छोड़ दिया है। वे अब सिर्फ और सिर्फ हल्बी में ही मुझसे बातें करते हैं।" श्री पाणिग्राही जी ने ही हल्बी का फोण्ट-निर्माता खोजा। श्री सोनी कहते हैं कि फिलहाल फोण्ट-निर्माता का नाम उन्हीं के अनुरोध पर सार्वजनिक करना उपयुक्त नहीं है। समय आने पर उनका नाम बहुत ही सम्मान के साथ सबके सामने होगा।
एक प्रश्न के उत्तर में कि क्या उन्होंने इस लिपि के सम्बन्ध में शासन से कोई सम्पर्क किया, वे कहते हैं, "नहीं, अब तक नहीं। हाँ, कॉपीराइट एक्ट के अन्तर्गत इस लिपि के पंजीयन की कार्यवाही जारी है।"
वे बताते हैं कि हल्बी लिपि का फोण्ट बनवाने के लिये उन्होंने इन्टरनेट के माध्यम से बहुत से फोण्ट-निर्माताओं से सम्पर्क किया। भारत में चेन्नई, बंगलौर जैसे शहरों की संस्थाओं से ले कर संयुक्त राज्य अमेरिका के फोण्ट-निर्माताओं और सॉफ्टवेयर निर्माताओं से उन्होंने सम्पर्क किया किन्तु उनमें से अधिसंख्य लोग तैयार ही नहीं थे। एक अमेरिकी फोण्ट निर्माता ने इस लिपि के विषय में पूरी जानकारी प्राप्त करने के बाद यह उत्तर दिया कि यह एक "छोटा प्रोजेक्ट" है और वे "छोटा प्रोजेक्ट" नहीं लेते। सौभाग्य से श्री सोनी के मित्र श्री रुद्रनारायण पाणिग्राही जी को एक फोण्ट निर्माता का पता लगा और उनसे फोण्ट बनवाया गया। श्री सोनी कहते हैं कि वे फोण्ट निर्माता अभी अपना परिचय नहीं देना चाहते। वे कभी सहमत हुए तो वे उनका परिचय सब को देंगे। वे आगे कहते हैं कि जिन भाषा-विदों ने इस लिपि को देखा, वे इस लिपि की वैज्ञानिकता से सहमत है। एक प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं कि इस लिपि को प्रचलन में लाने के लिये शासकीय सहयोग प्राप्त करने का प्रयास फिलहाल नहीं किया गया है। वे कहते हैं कि उनकी मंशा है कि वे पहले हल्बी जानने वालों से इस लिपि की स्वीकृति प्राप्त कर लें।
उनकी अपेक्षा है और वे अपनी अपेक्षा के सन्दर्भ में बस्तर अथवा बस्तर से बाहर रहने वाले प्रत्येक हल्बी भाषी या हल्बी के जानकार लोगों से अनुरोध करते हैं कि वे सभी इस लिपि को सीखें। वे कहते हैं कि उनके द्वारा तैयार की गयी हल्बी लिपि बहुत सरल और वैज्ञानिक लिपि है। इसीलिये वे चाहते हैं कि लोग इसे सीखें और प्रयोग में लाना प्रारम्भ करें। वे हल्बी साहित्यकारों से निवेदन भी करते हैं कि वे अपनी रचनाएँ हल्बी तथा देवनागरी दोनों ही लिपियों में प्रकाशित कराने का प्रयास करें ताकि हल्बी साहित्य पढ़ने वाले पाठकों को हल्बी लिपि सीखने का अवसर मिले। वे कहते हैं कि वे बस्तरिया समाज का बौद्धिक उन्नयन करना चाहते हैं। वे आगे यह भी स्पष्ट करते हैं कि उनकी मातृभाषा हल्बी नहीं होने के बावजूद वे हल्बी की स्थिति और महत्ता को देखते हुए इसके विकास के लिये हरसम्भव प्रयास करने को तत्पर हैं।
गजब का शोध
ReplyDeleteलिपि का कॉपीराइट?, बात मजेदार और रोचक लगी. कोरबा के एक सज्जन ने छत्तीसगढ़ी की लिपि बनाने का दावा करते हैं. इस सवाल पर गंभीर विचार हो सकता है कि संपूर्ण लिपि और स्वर-व्यंजनों के लिए, चिह्न में क्या समानता और फर्क होगा.
ReplyDeleteआप बिल्कुल सही कह रहे हैं। क्या ही उपयुक्त हो कि हल्बी और छत्तीसगढ़ी लिपि पर व्यापक विचार-विमर्श हो और कोई ठोस निष्कर्ष निकाला जाये। इसके लिये दोनों लिपि-निर्माताओं को एक मंच पर आ कर छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग तथा शासन स्तर पर कार्यवाही के लिये सार्थक प्रयास करना होगा। इनके प्रयास को हम सभी का बल मिलना चाहिये अन्यथा इनकी वर्षों की अथक मेहनत व्यर्थ चली जायेगी।
ReplyDeleteपोस्ट में भाई विक्रम सोनी जी के सम्पर्क-सूत्र का उल्लेख न करने की त्रुटि मुझसे हो गयी थी। उनका सम्पर्क-सूत्र है :
श्री विक्रम कुमार सोनी, हिकमी पारा, जगदलपुर 494001, बस्तर - छत्तीसगढ़
मोबा. : 94077 74839, ईमेल : vkrm.soni@rediffmail.com
हल्बी लिपि का सृजन! प्रारम्भ तो अच्छा है ....यह कार्य बहुत ही परिश्रम और समय की अपेक्षा करता है। एक प्रश्न यह भी है कि जब लोग देवनागरी के स्थान पर रोमन लिपि में हिन्दी लिखने के पक्षधर हो रहे हों तब इस नयी आँधी में क्या लोग इस नयी लिपि को अपना सकेगें?
ReplyDeleteप्रयास सराहनीय है। आज सभी भारतीय भाषायें संक्रांति काल से गुज़र रही हैं। क्षेत्रीय बोलियों को यदि लिसी भी तरह अपने मूल रूप मीं बनाये रखा जाय तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। शुभकामनायें!
हल्बी पुस्तक चाहिए हमें
ReplyDeleteKripya iske liye Shri Vikram Soni ji se unke mobile no. 9407774839ya unke email ID vkrm.soni@rediffmail.com par sampark karne ka kasht karein.
ReplyDeleteपुस्तक डिपो में मिल सकता है या नही
ReplyDeletePustak ka prakashan abhii nahin huaa hai. Aap kripya iske liye Shri Vikram Soni ji se unke mobile no. 9407774839 ya unke email ID vkrm.soni@rediffmail.com par sampark karne ka kasht karein.
ReplyDeleteसोनी जी का प्रयास सराहनीय है।
ReplyDeleteसोनी जी का प्रयास सराहनीय है।
ReplyDeleteहल्बी बोलने और समझने वालों की जनसँख्या आंकड़ा मिल सकता है क्या सर?? जनगणना वाले??
ReplyDeleteआदरणीय श्री विक्रम सोनी जी आप बस्तर के शान हो मैं अनिल कुमार यादव बड़े कनेरा कोण्डागांव से बोल रहा हूं
ReplyDelete