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Tuesday, 27 November 2012

नारी पर केन्द्रित महागाथा लछमी जगार

देश का आदिवासी बहुल बस्तर अंचल अपनी सांस्कृतिक सम्पन्नता के लिए देश ही नहीं, अपितु विदेशों में भी चर्चित है। क्षेत्र चाहे रुपंकर कला का हो या कि प्रदर्शनकारी कलाओं या फिर मौखिक परम्परा का। प्रकृति के अवदान को कभी न भुलाने वाला बस्तर का जन मूलत: प्रकृति का उपासक है। उसके सभी पर्वों पर उसकी अनन्य उपासना, श्रद्धा, भक्ति और कृतज्ञता की स्पष्ट छाप दिखलायी पड़ती है। वर्ष भर कोई न कोई त्यौहार, कोई न कोई उत्सव। बीज-बोनी का उत्सव "बीजफुटनी", माँ धरती का त्यौहार "माटीतिहार", वसुन्धरा के श्रृंगार का पर्व "अमुसतिहार", नए अन्न का स्वागत "नवाखानी", गोधन की पूजा "दियारी", आम का स्वागत "आमा जोगानी", वर्षा की अभ्यर्थना "भिमाजतरा", ग्राम-देवी-देवताओं की वार्षिक पूजा-अर्चना का आयोजन "मँडई", "ककसाड़" या "खड़साड़" अथवा विभिन्न "पण्डुम" आदि।
               "धनकुल (तिजा जगार)" तथा "लछमी जगार" भी इसी तरह के महत्त्वपूर्ण लोकोत्सव हैं। जहाँ "धनकुल" में माहादेव-पारबती (महादेव-पार्वती) की कथा गायी जाती है वहीं "लछमीजगार" में माहालखी (महालक्ष्मी) और नरायन (नारायण) की। "लछमीजगार" की इस कथा को उसकी प्रकृति के अनुसार लोक महाकाव्य कहा जाना समीचीन होगा। उल्लेखनीय है कि "लछमीजगार" को कुछ लोग "जगार", कुछ लोग "लखीजगार" तथा कुछ लोग "लखीजग" और कुछ लोग "जग" कह देते हैं। "जगार" बस्तर अंचल की लोकभाषा "हल्बी" का शब्द है और यह हिन्दी के जागरण या जागृति अथवा यज्ञ शब्द का ही अपभ्रंश है। मूलत: हल्बी में गाए जाने वाले इस लोक महाकाव्य की भाषा में यदा-कदा भतरी (ओड़िया भाषा तथा बस्तर की लोकभाषा हल्बी के सम्मिश्रण से प्रादुर्भूत एक लोकभाषा, जो बस्तर अंचल के सीमावर्ती क्षेत्र में बोली जाती है) एवं छत्तीसगढ़ी लोक भाषाओं के भी शब्द प्रयुक्त हुए हैं। यह उत्सव प्राय: सामूहिक रूप से आयोजित किया जाता है, जिसे "गाँवजगार" कहा जाता है। कई बार मनौती मानने वाले व्यक्तिगत रूप से भी इसका आयोजन करते हैं। किन्तु आयोजन में भाग सभी लेते हैं। कम से कम पाँच तथा अधिकतम ग्यारह दिनों तक चलने वाले इस उत्सव के आयोजन-स्थल प्राय: "देवगुड़ी" अर्थात् मन्दिर होते हैं। आयोजन-स्थल को लीप-पोतकर सुन्दर ढंग से सजाया जाता है। दीवार पर भित्तिचित्र अंकित किए जाते हैं। इन चित्रों में "जगार" की कथा संक्षेप में अंकित होती है। पाट गुरुमायँ अर्थात् पट या प्रमुख गुरु माँ और चेली गुरुमायँ अर्थात् शिष्या या सहायिका गुरुमायँ इस आयोजन की सिरमौर होती हैं। यही दोनों हण्डी, धनुष, बाँस की पतली कमची तथा चावल फटकने का सूपा, जिन्हें क्रमश: "घुमरा हाँडी", "धनु", "छिरनी काड़ी" और "सूपा" कहा जाता है; के संयोजन से तैयार वाद्य-यन्त्र बजाती हुई "जगार" की कथा गीत रूप में सुनाती हैं। इस मौलिक एवं अनूठे वाद्य-यन्त्र को "धनकुल" कहा जाता है। "धनकुल" शब्द ओड़िया भाषा से आया हुआ है। धनुष का परिवर्तित स्वरूप है "धन" तथा कुला का परिवर्तित स्वरूप है "कुल"। ओड़िया में कुला का अर्थ है सूपा।
                 इस आयोजन में दिन में तो पूजा-अर्चना होती रहती है, दीपक अनवरत् जलता रहता है किन्तु कथा-गायन प्राय: रात में ही होता है। श्रद्धालु जन देर रात तक पलकें बिना झपकाए बैठे कथा का रस ले रहे होते हैं। "जगार" गीत वस्तुत: गीत नहीं, लोक महाकाव्य है। मौखिक महाकाव्य। अलिखित साहित्य। आश्चर्य होता है इन गुरुमाओं की स्मरण-शक्ति पर, जिन्हें लगभग एक-डेढ़ हजार पृष्टों में समाने वाला यह महाकाव्य कंठस्थ है। ऑस्ट्रेलिया के नृतत्वशास्त्री डॉ. क्रिस ग्रेगोरी इसे दुनिया का सबसे महत्त्वपूर्ण लोक महाकाव्य निरुपित करते हैं। वे कहते हैं "ओरल एपिक्स ऑफ इंडिया के सम्पादक स्टुअर्ट एच. ब्लैकबर्न ने अपनी इस किताब में कहा है कि भारत में ऐसा कोई लोक महाकाव्य "रिकार्ड" नहीं किया गया है, जिसे केवल महिलाएँ गाती हों। किन्तु अब इस महाकाव्य को हरिहर वैष्णव द्वारा रिकार्ड (ध्व िकिए जाने के कारण स्टुअर्ट एच. ब्लैकबर्न की उपर्युक्त स्थापना बदल जाती है।"
यह वह लोक महाकाव्य है जिसमें मृत्यु की नहीं अपितु जीवन की कहानी है। यह युद्ध और नायक प्रधान कथा नहीं है। यह नारी प्रधान लोक महाकाव्य है। नारी की, नारी द्वारा, नारी के लिए कही गयी महागाथा है यह "लछमी जगार"। यह सृजन की कथा है। इसमें साहित्य, कला, विज्ञान, इतिहास एवं भूगोल आदि का समावेश ही नहीं अपितु वृहद् एवं तथ्यात्मक विवरण है। ज्ञान का भण्डार है यह लोक महाकाव्य। इस महाकाव्य में पौराणिक नायक-नायिकाओं, यथा लक्ष्मी-नारायण एवं महादेव-पार्वती का लोक संस्कृतिकरण हुआ है। लछमी-नरायन (लक्ष्मी-नारायण) और माहादेव-पारबती (महादेव-पार्वती) नामकरण इसी लोक संस्कृतिकरण के परिणाम हैं। इस महाकाव्य के नायक-नायिका ईश्वर होते हुए भी लोक के अनुरूप आचरण और व्यवहार करते दिखलाई पड़ते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य जो इस उत्सव के विषय में रेखांकित किए जाने योग्य है, वह यह कि गुरुमायँ का किसी खास या तथाकथित ऊँची जाति की होना कतई आवश्यक नहीं है। यों तो प्राय: महिलाएँ ही गुरुमायँ होती हैं किन्तु अपवाद स्वरूप पुरुष भी यह भूमिका निभाते देखे गए हैं। बस्तर ग्राम के सुखदेव एवं जयदेव, कोंडागाँव के लुदरुराम कोराम और छेदीराम, काकड़गाँव के सुकलू राम पाँडे तथा बरकई के मस्सूराम सोनवानी ऐसे ही अपवादों में से हैं।
                 "लछमी जगार" अन्न लक्ष्मी की पूजा का महोत्सव है। इस लोक महाकाव्य में सृष्टि की उत्पत्ति की कहानी है, धान की उत्पत्ति की कहानी है और इसमें वर्षा की भी कहानी है। इसमें वर्ण या रंग-भेद का कोई स्थान नहीं है। इस महाकाव्य के अनुसार मेंगराजा-मेंगिनरानी (मेघ राजा-मेघिन रानी) अर्थात् वर्षा के देवता की पुत्री हैं माहालखी। माहालखी यानी धान। माहादेव कृषक हैं। देवी पारबती को चिंता है मँजपुर यानी मृत्यु लोक के निवासियों की। वह उन्हीं के जीवन-यापन के लिए माहादेव को कृषि-कार्य हेतु प्रेरित करती हैं। माहादेव के अथक परिश्रम से होती है धान अर्थात् माहालखी की उत्पत्ति। माहालखी यानी धान नरायन राजा की बाईसवीं रानी हैं। उनकी इक्कीस रानियाँ हैं कोदो, कोसरा, सरसों, मूँग, अरहर, उड़द, राई, तिल, डेंगीतिल या परबत, चना, बटरा, मँडिया, अलसी, भदई, सावाँ, झुड़ँगा, काँदुल आदि तिलहनी एवं दलहनी फसलें। ये इक्कीस रानियाँ सौतियाडाह के चलते माहालखी को प्रताड़ित करती हैं। बहुत अधिक प्रताड़ित किये जाने के बावजूद माहालखी अपने पति का घर नहीं छोड़तीं किन्तु जब नरायन राजा द्वारा पाद-प्रहार किया जाता है तब वे इसे नारी की अस्मिता पर आघात मान कर पति का घर छोड़ देती हैं। उनके गृह-त्याग के बाद नरायन राजा और उनकी इक्कीस रानियों पर दुखों के पहाड़ टूट पड़ते हैं। वे दाने-दाने को मोहताज हो जाते हैं। अन्त में हार मान कर रानियाँ स्वयं ही नरायन राजा से माहालखी को खोज कर घर वापस लाने को कहती हैं। नरायन राजा बड़ी मुश्किलों के बाद माहालखी को खोज कर घर वापस लाते हैं।
लछमी जगार का आयोजन प्राय: नवाखानी के बाद आरम्भ हो जाता है किन्तु अगहन के महीने को इसके लिये सर्वाधिक उपयुक्त माना जाता है। अगहन का महीना लक्ष्मी का समय माना जाता है। महत्त्वपूर्ण दिन होता है बड़ा जगार का। यानी जगार का अन्तिम दिन। और यह अन्तिम दिन होता है गुरुवार। जगार चाहे पाँच दिन का हो या सात अथवा नौ या ग्यारह दिनों का। समाप्ति तो गुरुवार को ही होगी।
                        जिस स्थान पर लछमीजगार रखना हो, वहाँ परम्परानुसार दीवार पर भित्तिचित्र अंकित किए जाते हैं। इसे गड़ लिखना कहा जाता है। चित्रांकन का कार्य लोक चित्रकारों द्वारा किया जाता है। लोक चित्रकार को "लिखनकार" या "चितरकाल" कहते सुना गया है। जमीन पर चावल के आटे से बाधा या बाना लिखा जाता है। बाधा या बाना लिखना यानी जमीन पर चित्रांकन। इसे छत्तीसगढ़ी प्रभावित क्षेत्र में चौक पुरना कहते हैं। इसी बाधा या चौक के ऊपर पीढ़ा यानी लकड़ी का आसन रखा जाता है। इस पीढ़ा के ऊपर डुमर अर्थात् गुलर की लकड़ी से बनी पायली यानी धान-चावल नापने के उपयोग में लायी जाने वाली मापिका में धान भर कर रखा जाता है। इसे नये कपड़े में ढक कर उसके चारों ओर धागा और फूल लपेट दिया जाता है। यही है अन्न लक्ष्मी। पायली के समानांतर दूसरी ओर एक कलश स्थापित किया जाता है। इस कलश पर एक नारियल रखा जाता है। यह होता है देवाधिदेव भगवान नरायन का प्रतीक। फिर दोनों के सामने एक और कलश स्थापित किया जाता है। इस कलश पर दीपक रखा जाता है, जो उत्सव की समाप्ति तक अनवरत् जलता रहता है। पूजा के लिए सरई अर्थात् साल के पत्तों से बनी पतरी यानी पत्तल का उपयोग किया जाता है।
                     अन्तिम दिन जो हमेशा गुरुवार ही होता है, बहुत ही धूमधाम से सम्पन्न होता है। बस्तर में गुरुवार को लक्ष्मीजी का दिन माना जाता है। इसी आधार पर इस दिन का नामकरण लखिमबार या लखिनबार हुआ है। लछमी, लखी या माहालखी अर्थात् महालक्ष्मी। गुरुवार के दिन गाँव के सारे लोग नए कपड़ों में सज-धज कर जगार में एकत्र होते हैं। चूड़ी-फुँदड़ी, तेल-कंघी, हल्दी-चावल, पान-सुपारी, साड़ी आदि पूजा एवं श्रृंगार की सामग्री लेकर बाजे-गाजे के साथ लोगों का समूह खेतों की ओर जाता है। इसे गोपपुर कहा जाता है । खेत यानी गोपपुर में धान की पूजा-अर्चना की जाती है और थाली में धान की बालियाँ लेकर जगार-स्थल पर वापस आते हैं। यहाँ पहले से ही माँडो यानी मण्डप बना होता है। इसी माँडो के नीचे लछमी-नरायन या लखी-नरायन का विवाह धूमधाम के साथ किया जाता है। विवाह की सारी रस्में पूरी की जाती हैं। हल्दी-तेल से एक-दूसरे को सराबोर कर दिया जाता है। निसान, ढोल, तुड़बुड़ी और मोहरी आदि वाद्ययन्त्रों की लय-ताल पर युवक-युवतियाँ, बच्चे-बूढ़े-----सभी भाव विभोर हो कर नृत्य करते हैं। रात में पुन: कथा-गायन होता है और दूसरे दिन फूल-पत्ते आदि नदी या तालाब में विसर्जित कर दिये जाते हैं। विसर्जन के बाद जगार-स्थल पर आकर कपड़ों में ढकी धान की पायली को देखते हैं। धान की मात्रा बढ़ चुकी होती है। यही इनके विश्वास को और बल देता है।
                    लछमीजगार की कथा में प्राय: क्षेत्रीय भिन्नता है। जगदलपुर क्षेत्र में गाए जाने वाले जगार ओड़िया के लक्ष्मीपुराण से उद्भूत हैं, जबकि कोंडागाँव क्षेत्र में गाए जाने वाले लछमीजगार पर पुराण की कोई छाप नहीं है। कोंडागाँव की गुरुमायँ सुखदई कोराम लक्ष्मीपुराण से उद्भूत जगार को जमखँदा यानी यमशाखा तथा लक्ष्मीपुराण से इतर प्रचलित जगार को बेसराखँदा यानी बाजशाखा के रूप में वर्गीकृत करती हैं। ऊपर वर्णित कथा-सार बेसराखँदा यानी बाजशाखा से लिया गया है।
               सरगीपालपारा (कोंडागाँव) की गुरुमायँ सुकदई कोराम, गागरी कोराम, सोमारी, रामदई और पलारी की गुरुमायँ कमला कोराम, घोड़सोड़ा की गुरुमायँ सनमती तथा बम्हनी की गुरुमायँ आसमती एवं जानकी द्वारा गाए जाने वाले लछमी जगार तथा डोंगरीगुड़ा (कोंडागाँव) की गुरुमायँ अम्बिका वैष्णव एवं मुलमुला की गुरुमायँ मँदनी पटेल द्वारा गाए जाने वाले लछमी जगार की कथा में बहुत अन्तर है। सरगीपालपारा एवं पलारी की उपर्युक्त गुरुमाओं द्वारा गाए जाने वाले लछमी जगार की कथा का उद्गम कोई भी पुराण या शास्त्र नहीं है। यह पूरी तरह मौलिक है। इसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं है। जबकि डोंगरीगुड़ा एवं मुलमुला की गुरुमाओं द्वारा गाए जाने वाले लछमी जगार में पौराणिकता का पुट है। ये गुरुमाएँ कहती हैं कि इनके द्वारा गायी जाने वाली कथा का उद्गम ओड़िया के लक्ष्मी पुराण से हुआ है। खोरखोसा, बस्तर, सिंगनपुर (जगदलपुर) आदि गाँवों में गाए जाने वाले लछमी जगार की कथा भी ओड़िया के लक्ष्मी पुराण से अनुप्राणित है। यह बात अलग है कि यत्र-तत्र पौराणिकता से इतर आख्यान भी इसमें जुड़ गए हैं तथापि कथा का उत्स तो ओड़िया का लक्ष्मी पुराण ही है। किन्तु रोचक तथ्य यह है कि संस्कृत में रचित पुराणों की सूची में लक्ष्मी पुराण का कोई उल्लेख नहीं मिलता। वस्तुत: निम्न 18 मुख्य एवं 2 अन्य, इस तरह कुल 20 पुराण बतलाए गए हैं : 1.विष्णु पुराण, 2.नारद पुराण, 3.भागवत् पुराण, 4.गरुड़ पुराण, 5.पद्म पुराण, 6.वराह पुराण, 7.मत्स्य पुराण, 8.कूर्म पुराण, 9.लिंग पुराण, 10.शिव पुराण, 11.स्कन्द पुराण, 12.अग्नि पुराण, 13.ब्रह्म पुराण, 14.ब्रह्मंड पुराण, 15.ब्रह्मवैवर्त पुराण, 16.मार्कण्डेय पुराण, 17.भविष्य पुराण, 18.वामन पुराण, 19.वायु पुराण, 20.हरिवंश पुराण। ओड़िया में प्रचलित लक्ष्मी पुराण (लख्मी पुराण) वस्तुत: ओड़िया साहित्यकार इन्द्रमणि साहू की रचना है। लगभग 150 पृष्ठों की इस पुस्तक का प्रकाशन 1965 ई.में शारदा प्रेस, कटक (ओड़िसा) से हुआ था। दरअसल रचनाकार ने 46 अध्यायों में संयोजित अपनी इस रचना का आधार या तो स्कन्द पुराण या फिर विष्णु पुराण को बनाया है, यह कहा जा सकता है। इधर हाल ही में ओड़िया का एक और लक्ष्मी पुराण देखने में आया है, जिसके लेखक का नाम इस पुस्तक में नहीं दिया गया है।
                      सरगीपालपारा एवं पलारी की गुरुमाओं की गुरु थीं सरगीपालपारा (कोंडागाँव) की आयती एवं दुआरी। आयती एवं दुआरी की गुरु थीं बम्हनी (कोंडागाँव) की मिरगान जाति की एक महिला। संयोग से ये सभी गुरुमाएँ अछूत वर्ग से ही सम्बन्ध रखती थीं।
                         इन गुरुमाओं द्वारा गायी जाने वाली कथा में इस अन्तर का एक कारण जो मेरी समझ में आ रहा है, वह यह हो सकता है कि चूँकि सरगीपालपारा, पलारी एवं घोड़सोड़ा की गुरुमाएँ अछूत वर्ग की हैं अत: पुराणों तक इनकी पहुँच न होने के कारण इनकी कथा में कोई भी पौराणिक तथ्य नहीं हैं। इसी तरह डोंगरीगुड़ा की गुरुमायँ अम्बिका वैष्णव, मुलमुला की गुरुमायँ मँदनी पटेल, खोरखोसा की गुरुमायँ रैमती, गनमती एवं सरसती तथा बस्तर के सुकदेव और जयदेव एवं सिंगनपुर की आसाबाई आदि गुरुमाएँ सवर्ण वर्ग से सम्बन्धित होने के कारण पुराणों तक इनकी पहुँच सहज थी, इसलिए इनकी कथा में पौराणिकता की स्पष्ट छाप दिखलायी पड़ती है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पुरातन काल में अछूत वर्ग के लिए न केवल शास्त्रों का अध्ययन अपितु उनका श्रवण भी वर्जित था। इससे यह तथ्य भी उभर कर सामने आता है कि कथा तो इनकी अपनी है किन्तु पात्र पौराणिक हैं। मेरी इस धारणा की पुष्टि बाँजाराजा नामक एक हल्बी लोककथा से भी होती है। इस कथा के नायक-नायिका के नाम अलग-अलग वर्ग के कथा-वाचकों की कथाओं में आश्चर्य जनक रूप से भिन्न-भिन्न हैं। बाँजाराजा नामक इस लोककथा में नायिका मँजपुर (मृत्यु लोक) के एक सन्तानहीन राजा (बाँजाराजा) के रूप पर मोहित हो कर अपने पति का त्याग कर उस बाँजाराजा के साथ भाग जाती है। कथा वही है किन्तु अछूत वर्ग द्वारा कही गयी इस कथा में नायिका का नाम लछमी (लक्ष्मी) और नायक का नाम नरायन (नारायण) है, जबकि सवर्णों द्वारा कही गयी इसी कथा में नायिका का नाम सुँदरी बाबी तथा नायक का नाम धनुरजय है। इस लोककथा से दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली यह कि, अछूत वर्ग के बीच लछमी और नरायन उस वर्ग के आचरण के अनुरूप आदर्श पात्र हैं। दूसरी बात यह कि निम्न वर्ग की सामाजिक सोच रूढ़िवादिता से कोसों दूर है। उनके विचारों में खुलापन है। वहाँ नारी स्वतन्त्र है। किन्तु साथ ही एक प्रश्न भी कि क्या यही स्वतन्त्रता है या कि स्वच्छन्दता?
                   इस महाकाव्य से बस्तर के इतिहास पर भी दृष्टिपात किया जा सकता है। दरअसल इसे एक कहानी के रूप में न देख कर इतिहास के रूप में देखना चाहिए। और इस महाकाव्य के माध्यम से इतिहास यही बतलाता है कि इस अंचल में युद्ध की स्थिति नहीं के बराबर ही रही होगी। कहने का तात्पर्य यह कि यह अंचल शान्तिप्रिय रहा होगा। यह महाकाव्य यह तथ्य भी प्रकाशित करता है कि इस अंचल में बहु पत्नी प्रथा रही है और यह भी कि सौतियाडाह से यह अंचल भी अछूता नहीं रहा। नरायन राजा की इक्कीस रानियों द्वारा नयी रानी माहालखी पर ढाए गए जुल्म-ओ-सितम यही तो बतलाते हैं।
                आइये, देखते हैं इस समृद्ध विरासत की एक छोटी-सी झलक। इसका आयोजन एवं अभिलेखन मेरे द्वारा 2008 में अपने निवास पर किया गया था। आयोजन के लिये संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ के पुरातत्व एवं सस्कृति संचालनालय से आर्थिक अनुदान प्राप्त हुआ था, जिसके लिये मैं संचालनालय का आभारी हूँ। विशेषत: संचालनालय के तत्कालीन आयुक्त श्रद्धेय प्रदीप पंत जी तथा उप संचालक श्री राहुल कुमार सिंह जी का। गुरुमायें थीं कोपाबेड़ा की स्व. बरातिन पटेल और बुधनी पटेल तथा जामकोट पारा की देवती पटेल : 






Tuesday, 6 November 2012

भादवँ जातरा


क्षमा करें। प्रमाद वश यह पोस्ट अगस्त में नहीं जा सका था। बहरहाल, देर आयद दुरुस्त आयद की तर्ज पर नवम्बर में सही, लेकिन पोस्ट को तो जाना ही है। 
बुधवार, 15 अगस्त (2012) की रात 10 बजे के आसपास बहीगाँव निवासी भाई घनश्याम सिंह नाग जी का फोन आता है, "पीना-खाना हो गे, गा (पीना-खाना हो गया, क्या)?" 
मैं जवाब देता हूँ, "हो गे भइया। पी-खा के एदे अब्भी च उठे हववँ अउ बुता म जोता गे हों (हो गया, भैया। पी-खा कर अभी ही उठा हूँ और काम में लग गया हूँ)।"
"पी-खा के काय बुता ला करत हस गा? कवि सम्मेलन म कविता सुने बर नइँ आवस? (पी-खा कर कौन-सा काम कर रहे हो? कवि-सम्मेलन में कविता सुनने के लिये नहीं आओगे)?" घनश्याम नाग जी कहते हैं।
"पीये-खाये के पाछू च्च साहित्त के बुता ह होथे, तेला तैं नइँ जानस जी? तहूँ त साहित्तकार आस काय, भाई? अउ कवि सम्मेलन म आतेवँ के नइँ आतेवँ, तैं ह तो मोला नेवता च्च नइँ दे हवस भाई। अब अतेक रात कुन कोंडागाँव ले केसकाल पहुँचना तो "टेढ़ी खीर" हे गा मोर बर (पीने-खाने के बाद ही साहित्य का काम होता है, इसे आप नहीं जानते, जी? आप भी तो साहित्यकार हैं न, भाई? और फिर मैं कवि-सम्मेलन में आता या नहीं, आपने तो मुझे न्यौता ही नहीं दिया है, भाई। अब इतनी रात में कोंडागाँव से केसकाल पहुँचना तो मेरे लिये टेढ़ी खीर है)।" मेरा जवाब।
"पहिली बात तो ये आय कि मैं ह कइसे नेवता देहूँ गा तुम्हर गाँव के कवि-सम्मेलन बर? अरे बबा! मैं तो खुदे नेवता पा के आये हववँ गा। तोरे गाँव म तो होवत हावे कवि सम्मेलन ह। कोंडागाँव के टाऊन हाल म। तैं नइँ जानस काय (पहली बात तो यह है कि मैं भला आपके गाँव में हो रहे कवि-सम्मेलन का न्यौता कैसे दे सकता हूँ? अरे बाबा! मैं तो स्वयं ही न्यौता पा कर आया हुआ हूँ। आपके ही गाँव में हो रहा है कवि-सम्मेलन। कोंडागाँव के टाऊन हाल मे। आप नहीं जानते क्या)?" नाग जी कहते हैं। और इस तरह हास-परिहास से भरे बातचीत से पता चलता है कि स्वतन्त्रता-दिवस के अवसर पर प्रति वर्ष की भाँति इस वर्ष भी शासकीय आयोजन के तहत नगर के "टाऊन हॉल" में कवि सम्मेलन आयोजित है। इसी दरम्यान वे बताते हैं कि केसकाल घाट में प्रतिष्ठित "देवी माँ तेलीन सत्ती" से सम्बन्धित उनकी बहु प्रतीक्षित पुस्तिका का विमोचन शनिवार, 18 अगस्त 2012 को केसकाल के श्रीमाँ भंगाराम देवी के मन्दिर-प्रांगण में होना है। और इसके पहले कि और कुछ बात हो पाती, उनका फोन कट जाता है। 
फिर शनिवार, 18 अगस्त 2012 को अपरान्ह 11 बजे के आसपास फिर से उनका फोन आता है। फोन पर वे मुझे विमोचन कार्यक्रम में सम्मिलित होने का न्यौता देते हैं और कोंडागाँव के साहित्यकारों तथा साहित्य-प्रेमियों, संस्कृतिकर्मियों आदि के मोबाइल नम्बर पूछते हैं ताकि वे उन सब को भी आमन्त्रित कर सकें। मैं उन्हें सभी के नम्बर यहाँ-वहाँ से खोज-खोज कर देता हूँ। लेकिन नम्बर देना इतना सहज नहीं होता। बारम्बार मोबाइल "डिस्कनेक्ट" हो जाता। फिर वे मुझसे कहते हैं कि "डिस्कनेक्टीविटी" के इस आलम में उन्हें नहीं लगता कि वे सभी को यथासमय आमन्त्रित कर पायेंगे। इसलिये वे मुझसे आग्रह करते हैं कि मैं उनकी ओर से यहाँ के लोगों को आमन्त्रण दे दूँ। मैं उनकी आज्ञा का पालन करते हुए सभी से सम्पर्क करता हूँ। कुछ लोग लगातार हो रही भारी बारिश के कारण तो कुछ लोग कुछ अन्य कार्यों में व्यस्तता के कारण जाने में असमर्थता जताते हैं। किसी तरह सर्वश्री महेश पाण्डे जी (कवि), खेम वैष्णव (लोकचित्रकार), रमेश नायडू (छायाकार), रामेश्वर शर्मा जी (साहित्य-प्रेमी) और मैं तैयार हो जाते हैं। एक गाड़ी की आनन-फानन में व्यवस्था होती है और हम लोग 03.00 बजे कोंडागाँव से चल पड़ते हैं। बारिश अभी भी जस की तस झमाझम हो रही है। कोई मुरव्वत नहीं। गाड़ी छोटी है और उसमें चालक को मिला कर कुल छह लोग। मुझे छोड़ कर बाकी सभी ड्योढ़े-दुगुने। चालक के साथ वाली सीट पर मेरे साथ रमेश नायडू ठस जाते हैं। फिर वे देखते हैं कि उनके कारण मुझे परेशानी हो रही है तो वे कुछ इस तरह बैठ जाते हैं कि मेरी परेशानी कुछ कम हो जाये। बहरहाल, हम कोंडागाँव से चल पड़ते हैं। अभी हम कोंडागाँव से कुछ ही दूर चले होंगे कि महेश पाण्डे जी अपनी एक कविता सुनाना चाहते हैं। इस पर मैं परिहास करते हुए कह उठता हूँ, "ठीक है। आप अपनी कविता सुनाइये और मैं यहीं रास्ते में ही गाड़ी से उतर जाता हूँ।" भाई रामेश्वर शर्मा मेरे इस कथन को गम्भीरता से लेते हैं और वे मुझसे निवेदन करने लगते हैं कि मैं ऐसा न करूँ। दरअसल शर्मा जी को यह नहीं पता था कि महेश पाण्डे जी और मेरे बीच कुछ इसी तरह के हास-परिहास के सम्बन्ध हैं। थोड़े से परिहास के बाद महेश पाण्डे जी अपनी कविता सुनाने लगते हैं। कविता हास्य-व्यंग्य-विनोद से परिपूर्ण है। सभी को उसमें आनन्द आता है। कविता में कुछ ऐसी पंक्तियाँ भी हैं कि बीच-बीच में बेसाख़्ता ठहाके भी लगने लगते हैं। 50 से 65 आयु वर्ग के हम लोगों में पता नहीं किधर से लड़कपन आ घुसता है। गम्भीरता न जाने कहाँ मुँह छिपा लेती है और बचकानी हरकतें सिर उठाने लगती हैं। हमारे साथ-साथ वाहन-चालक भी मजे लेने लगता है। ऐसे में मुझे लगने लगता है कि इस तरह के कार्यक्रम बीच-बीच में बनते रहने चाहिये। इससे एकरसता टूटती है। दिन-रात काम... काम... और काम। ये भी क्या बात हुई! 
बहरहाल, इस तरह हँसी-ठिठोली करते हम पहुँच जाते हैं केसकाल। वहाँ भी बारिश का वही आलम। लेकिन तेज बारिश के बावजूद श्रीमाँ भंगाराम मन्दिर की ओर जाने वाली सड़क पर भारी भीड़ है। गाँव-गाँव से लोग अपने देवी-देवताओं के प्रतीकों के साथ वहाँ पहुँच रहे हैं। डोलियाँ, आँगा, छतर, लाट-बैरक, डँगई, तरास आदि लिये लोगों का रेला। सिरहों पर देवियाँ आरूढ़ हैं और वे हिलते-डोलते, खेलते-कूदते श्रीमाँ भंगाराम देवी के मन्दिर की ओर बढ़े चले जा रहे हैं। चाहे भारी बारिश हो या आँधी-तूफान! ये आस्था को नहीं डिगा सकते। यदि डिगा पाते तो शायद यहाँ इक्के-दुक्के लोग ही पहुँचते। किन्तु ऐसा नहीं था। भीड़ इतनी थी कि हम अपनी गाड़ी मन्दिर से लगभग एक किलोमीटर पहले ही छोड़ने को विवश हो गये थे। मन्दिर पहाड़ी की तलहटी पर है। हम सभी उधर चल पड़ते हैं। रमेश नायडू फोटो खींचना चाहते हैं किन्तु बारिश की वजह से उन्हें परेशानी हो रही है। तो भी किसी तरह वे दो-चार फोटो ले ही लेते हैं।
हम किसी तरह भीड़ में से रास्ता बनाते हुए पहुँच जाते हैं मन्दिर में और वहाँ हमारी निगाहें भाई घनश्याम सिंह नाग और "बस्तर-बन्धु" (काँकेर) के सम्पादक श्री सुशील शर्मा जी को खोजने लगती हैं। किन्तु चारों ओर छाते ही छाते और देवी-देवताओं के प्रतीकों के बीच उन्हें खोज पाना हमारे लिये कठिन हो जाता है। मैं और मेरे अनुज खेम मोबाइल पर इन दोनों से सम्पर्क करने का प्रयास करते हैं किन्तु "टावर" की अनुपलब्धता के कारण सफल नहीं हो पाते। तब खेम हम बाकी लोगों को मन्दिर के दाहिने ओर बने एक शेड में छोड़ कर नाग भाई और शर्मा जी को खोजने निकल पड़ते हैं। बड़ी मुश्किल से उनकी उनसे भेंट होती है और फिर वे वापस हम तक आ कर हमें कार्यक्रम-स्थल तक ले जाते हैं, जहाँ भाई घनश्याम सिंह नाग की पुस्तिका "बस्तर के केसकाल क्षेत्र की धार्मिक आस्था और विश्वास की प्रतीक देवी माँ तेलीन सत्ती" का विमोचन होना था।
इस पुस्तिका के विमोचन के लिये यह बड़ा ही अच्छा अवसर था। कारण, आज यहाँ का प्रसिद्ध "भादवँ जातरा" था। और इसी "भादवँ जतरा" तथा इससे जुड़े अन्य प्रसंगों पर ही यह पुस्तिका केन्द्रित है। तय कार्यक्रम के अनुसार पुस्तिका का विमोचन देवी-देवताओं की गरिमामयी उपस्थिति में क्षेत्रीय विधायक श्री सेवक राम नेताम के हाथों हुआ। कुल मिला कर 36 पृष्ठीय इस पुस्तिका में सम्मिलित विवरण को देख कर "गागर में सागर" मुहावरा चरितार्थ होता दिखायी पड़ता है। आर्ट पेपर पर कलात्मक रूप से छपी इस पुस्तिका, जिसका मूल्य महज 20 रुपये है, को प्रकाशित किया है "श्रीमाँ भंगाराम देवी समिति" केसकाल ने और इसके सह प्रकाशक हैं "बस्तर-बन्धु", काँकेर के सम्पादक सुशील शर्मा। 
विधायक केसकाल श्री नेताम ने मुख्य अतिथि की आसन्दी से उपस्थित जन को सम्बोधित करते हुए कहा कि यह पुस्तिका निश्चित रूप से बस्तर की संस्कृति को प्रकाश में लाने का महत्त्वपूर्ण प्रयास है। उन्होंने इसके लेखन के लिये लेखक घनश्याम सिंह नाग तथा प्रकाशन के लिये "श्रीमाँ देवी भंगाराम समिति" एवं "बस्तर बन्धु" के सम्पादक सुशील शर्मा का आभार व्यक्त किया। 
अब यदि "भादवँ जातरा" अथवा श्रीमाँ भंगाराम देवी के विषय में बात न की जाये तो बात अधूरी न रह जायेगी? तो चलिये, बात करते हैं "भादवँ जातरा" की भी और श्रीमाँ भंगाराम देवी की भी। केसकाल स्थित श्रीमाँ भंगाराम देवी को नौ परगनों के देवी-देवताओं का मुखिया (राजा) और न्यायाधीश होने का गौरव प्राप्त है। नौ परगनों के जिस किसी भी देवी अथवा देवता ने लोगों के लिये किसी भी तरह की परेशानी खड़ी की तो उसे दण्डित करने का अधिकार केवल और केवल श्रीमाँ भंगाराम देवी को ही है। प्रति वर्ष भाद्रपद मास में केसकाल में आयोजित होने वाला यह "भादवँ जातरा" दरअसल उसी वार्षिक न्यायालय के लगने का अवसर होता है।
विस्तार में न जाते हुए इस 36 पृष्ठीय पुस्तिका का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है :

रवाना 






किसी गाँव में या परिवार विशेष में कोई दैवीय प्रकोप होता है तब देवता बिठा कर सिरहा के सिर पर अपने इष्ट देव को आमन्त्रित कर उनके द्वारा यह ज्ञात किया जाता है कि पूरे गाँव वालों को या किसी परिवार विशेष को कौन देव परेशान कर रहा है। जिस देवता का नाम सामने आता है उस देवता को विधान-पूर्वक श्रीमाँ भंगाराम देवी की ओर रवाना कर दिया जाता है। रवाना में सम्बन्धित देवी के प्रतीक-चिन्ह (लाट, डोली या अन्य सामग्री) को सम्बन्धित गाँव की सरहद के बाहर निकाल दिया जाता है। इसी को "रवाना" कहा जाता है। दूसरे गाँव के निवासी जिसकी सरहद में "रवाना" आया है, वे उस "रवाना" को अपने गाँव की सरहद के बाहर पहुँचा देते हैं। फिर तीसरे गाँव, चौथे गाँव वाले यही प्रक्रिया अपनाते हैं और "रवाना"-सामग्री उपर्युक्त प्रक्रिया से केसकाल घाट स्थित श्रीमाँ भंगाराम देवी तक पहुँच जाती है। मान्यता है कि जो भी देवी-देवता रवानगी से भंगाराम माई के दरबार तक पहुँच जाते हैं, वे फिर कभी किसी को नहीं सताते। कारण, श्रीमाँ भंगाराम देवी उन्हें कठोर नियन्त्रण में रखती हैं। "रवाना" में कभी-कभी मुर्गा-बकरा, सुअर या बछिया आदि जीव-जन्तु भी होते हैं जिन्हें गाँव की सरहद के पार बाँध दिया जाता है और उपर्युक्त प्रक्रिया से गुजरते हुए वे जीव-जन्तु भी श्रीमाँ भंगाराम देवी के दरबार तक पहुँच जाते हैं। 
परेशान करने वाले देवी-देवता को किसी सामग्री या जीव-जन्तु के माध्यम से ही श्रीमाँ भंगाराम देवी के दरबार तक पहुँचाया जाता है। कभी यह सामग्री सोना-चाँदी, तांबा, सिक्के आदि के रूप में होती है तो कभी पत्थर की चक्की, आभूषण के रूप में। यहाँ तक कि बैलगाड़ी भी "रवाना"-सामग्री हो सकती है। उपर्युक्त रवाना-सामग्री को भादवँ जातरा के दिन मंदिर के पास एक निर्धारित स्थान में विधान-पूर्वक फेंक दिया जाता है। जो जीव-जन्तु रवाना के रूप में लाये जाते हैं उन्हें भी यहाँ जीवित फेंक दिया जाता है। उनकी बलि नहीं दी जाती। काँसे की थाली, लोटा, चाँदी के पुराने सिक्के, पुराने सिक्कों की माला, मंगल-सूत्र आदि सोना-चाँदी के अनेक कीमती आभूषण अब भी इस निर्धारित स्थान पर फेंक दिये जाते हैं, जिन्हें ग्रामीण दुबारा छूने से भी डरते हैं। 
जैसा की पूर्वोक्त है, श्रीमाँ भंगाराम देवी को पूरे नौ परगनों के देवी-देवताओं का मुखिया माना जाता है। इसलिये इन नौ परगनों में कहीं भी देवी-देवताओं से सम्बन्धित विवाद उत्पन्न होने पर उसका फैसला राजा अर्थात् श्रीमाँ भंगाराम देवी को ही करना पड़ता है। उल्लेखनीय है कि इस देवी का फैसला सभी देवी-देवता, सिरहा-पुजारी एवं आम जनता को मान्य होता है। 
नौ परगनों के गाँव में किसी भी बीमारी या प्राकृतिक संकट का निवारण यदि स्थानीय देवी-देवता नहीं कर पाते तो श्रीमाँ भंगाराम देवी के पास कष्ट-निवारण हेतु गुहार लगाते हैं। यह बीमारी अथवा दैवीय प्रकोप व्यक्तिगत, पारिवारिक या सामुदायिक अथवा ग्राम्य-स्तरीय भी हो सकता है। 
यदि किसी व्यक्ति, परिवार या गाँव को कोई दुष्ट प्रवृत्ति का देवता परेशान करता है तो उसे श्रीमाँ भंगाराम देवी के दरबार में पहुँचा दिया जाता है। मान्यता है कि श्रीमाँ भंगाराम देवी उस दुष्ट प्रवृत्ति के देवी-देवता को अपने नियन्त्रण में रखती हैं। यदि किसी परिवार की कुल-देवी अपने ही आराधकों को कष्ट देती हैं तो उसके लिये भी श्रीमाँ भंगाराम देवी से गुहार की जाती है। तब श्रीमाँ भंगाराम देवी उस देवी अथवा देवता को उसके अपराध के अनुसार 05 या 10 वर्ष अथवा अनिश्चित काल के लिये कारागार में डाल देती हैं। 
कारागार में बंद देवी अथवा देवता का दण्ड-काल समाप्त होने पर वे इसकी सूचना जिस कुल की वह देवी या देवता है, उस परिवार को देती हैं तब सम्बन्धित परिवार के सदस्य श्रीमाँ भंगाराम देवी के पास पुन: आ कर अपने देवी-देवता को वापस ले जाते हैं और उसे घर में स्थापित कर विधि-विधान के साथ उसकी पूजा-अर्चना करते हैं। क्षेत्र में नये देवी-देवता का जन्म होने पर उसे श्रीमाँ भंगाराम देवी को अपना परिचय देना पड़ता है। न केवल इतना अपितु उसे परीक्षा की प्रक्रिया से भी गुजरना पड़ता है। परीक्षा में सफल सिद्ध हो जाने पर उस देवी को श्रीमाँ भंगाराम देवी द्वारा उपयुक्त मान लिये जाने पर ही उस देवी अथवा देवता की पूजा विधान-पूर्वक की जाती है तथा उसे देवताओं के समूह में शामिल माना जाता है।
इस पुस्तिका की प्राप्ति के लिये लेखक से उनके मोबाइल नम्बर 9424277354 (बहीगाँव), तथा सह प्रकाशक सुशील शर्मा (काँकेर) से उनके मोबाइल नम्बर 9425259049 पर सम्पर्क किया जा सकता है। इसके साथ ही यह पुस्तिका केसकाल घाट में स्थित तेलिन सती माँ के मन्दिर एवं मन्दिर-परिसर में स्थित नारियल-फूल-अगरबत्ती की सभी दुकानों में भी विक्रय हेतु उपलब्ध है। 


Thursday, 25 October 2012

हल्बी लिपि का निर्माण






कुछ महीनों, नहीं, नहीं। लगभग साल भर पहले की बात है। "डाइट" बस्तर में पदस्थ डॉ. (श्रीमती) आरती जैन मेरे पास आयी थीं, छत्तीसगढ़ एससीईआरटी (छत्तीसगढ़ राज्य शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद्) रायपुर द्वारा आरम्भ की गयी एक परियोजना के सन्दर्भ में। उन्हें बस्तर की वाचिक परम्परा के संकलन के सन्दर्भ में मुझसे सहायता चाहिये थी। बातों ही बातों में उनसे जानकारी मिली जगदलपुर के श्री विक्रम कुमार सोनी द्वारा हल्बी की लिपि के निर्माण की। नाम मुझे सुना-सुना सा लगा। फिर मुझे ध्यान आया, मेरे मित्र केसरी कुमार सिंह का। मैंने भाई केसरी कुमार जी के मुँह से ही कई बार श्री सोनी का नाम सुना था हल्बी-हिन्दी-अँग्रेजी शब्द-कोष एवं व्याकरण आदि के सन्दर्भ में। फिर यह भी ध्यान आया कि ये वही सोनी हैं, जिनकी आवाज हम आकाशवाणी जगदलपुर के हल्बी नाटकों और रूपकों में सुनते आये हैं। हल्बी नाटकों अथवा किसी भी कार्यक्रम में बाल चरित्रों के लिये जब भी स्वर कलाकार की आवश्यकता होती, आकाशवाणी के पास विक्रम कुमार सोनी का ही नाम होता। हल्बी-हिन्दी के नाटकों में मैं भी भाग लिया करता था। नाटकों और अन्य आलेखों की रिकार्डिंग के लिये भी कई बार आकाशवाणी केन्द्र जाना होता था किन्तु भाई विक्रम कुमार जी से कभी मुलाकात का संयोग ही नहीं बन पाया था। फिर अनायास ही यह भी ध्यान आया कि ये तो वही विक्रम कुमार सोनी हैं जिन्होंने भाई श्री रुद्रनारायण पाणिग्राही और भाई श्री नरेन्द्र पाढ़ी के साथ मिल कर पिछले वर्ष हल्बी-भतरी-गोंडी कविताओं का संकलन "चिड़खा" शीर्षक से प्रकाशित किया था। तब मैंने कम्प्यूटर पर पिछला रिकार्ड खँगाला और वह फाईल खोज निकाली जिसमें इन सभी महानुभावों की कविताएँ और इन सबके पते आदि थे। यह सामग्री मैंने हल्बी-भतरी-गोंडी आदि बस्तर की कुछ लोक भाषाओं के कवियों से जुटायी थी बिलासपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका "छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर" (सम्पादक : श्री नन्दकिशोर तिवारी) के लिये। इसमें भाई विक्रम सोनी का मोबाइल नम्बर मिला और मैंने तुरन्त उनसे बात की। बातचीत काफी लम्बी चली और फिर उन्होंने मुझे हल्बी वर्णमाला की हार्ड कॉपी अपने एक सहकर्मी मित्र के हाथों तथा हल्बी फोन्ट ईमेल से कृपा पूर्वक उपलब्ध करायी। इसके बाद एक दिन वे रायपुर से जगदलपुर जाते हुए मेरे अनुरोध पर थोड़ी देर के लिये कोंडागाँव रुक कर मुझसे भेंट करने के लिये घर तक आये। 
मेरे मन में हल्बी लिपि के निर्माण को ले कर बहुत अधिक उत्सुकता बनी हुई थी और इस विषय में विस्तार से चर्चा करने की आवश्यकता मैं महसूस कर रहा था। सो उस दिन मैंने उनसे लम्बी बातचीत की। 
इसके पहले कि मैं यहाँ लिपि-निर्माण को ले कर उनसे हुई बातचीत प्रस्तुत करूँ, उनका संक्षिप्त परिचय दे देना उपयुक्त जान पड़ता है। 
01 फरवरी 1968 को जगदलपुर में जन्मे श्री विक्रम कुमार सोनी के पिता हैं श्री विजय सोनी और माता हैं श्रीमती सुलोचना सोनी। इन्होंने इतिहास में एम. ए. किया है और वर्तमान में जिला एवं सत्र न्यायालय, जगदलपुर में लिपिक के पद पर कार्यरत हैं। इनकी अभिरुचियों में सम्मिलित हैं भाषा-शिक्षा-साहित्य, कला-संस्कृति, पुरातत्व, प्रकृति और पर्यटन। रेडियो, रंगमंच और टीवी पर अभिनय के साथ-साथ हल्बी एवं हिन्दी में कविता तथा कहानी लेखन और "बोनसाई" बागवानी भी इनकी रुचि के विषय हैं। 
एक नजर इनकी अब तक की उपलब्धियों की ओर भी। हिन्दी कविता के लिये द्विभाषी पत्रिका "भिलाई वाणी", जो भिलाई (छ.ग.) से हिन्दी और तेलुगु में प्रकाशित होती है, द्वारा 2010 में "भिलाई वाणी सम्मान" से विभूषित। स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रंगमंच में सक्रिय। छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्थानों के अतिरिक्त ओड़िशा के कटक, राउरकेला, टेन्सा, देवगढ़, कोटपाड़, पश्चिम बंगाल के बैरकपुर, बिहार के पटना, उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद और आगरा, राजस्थान के अलवर, हरियाणा के गुड़गाँव और उत्तराखण्ड के देहरादून में रंगमंच पर अभिनय। रंगमंच पर अभिनय के लिये इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश), देहरादून (उत्तराखण्ड), राउरकेला (ओड़िशा), अलवर (राजस्थान) तथा देवगढ़ (ओड़िशा) में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्र स्तरीय पुरस्कार प्राप्त। राजीव गांधी शिक्षा मिशन के लिये अन्य चार सहयोगियों के साथ मिल कर हल्बी-हिन्दी-अँग्रेजी शब्दकोश तैयार किया गया है। इसके अतिरिक्त प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा के प्रयोग के लिये कक्षा तीसरी, चौथी और पाँचवीं के लिये हल्बी पाठ्यक्रम के लेखक-मण्डल में भी सम्मिलित हैं। यह पाठ्यक्रम बस्तर जिले के बस्तर एवं तोकापाल विकास खण्डों में पढ़ाया जा रहा है। 
1987 से "बोनसाई" निर्माण कला में सक्रिय। वर्ष 2001 में उद्यान विभाग द्वारा आयोजित दो दिवसीय संभाग स्तरीय प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ बोनसाई के लिये तीन पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। 
भाषा, साहित्य एवं कला-संस्कृति में बचपन से ही उनकी रुचि रही है। हल्बी का व्याकरण लिखने के लिये उन्हें इसके भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता प्रतीत हुई और इस क्रम में भारतीय और विश्व की अन्य भाषाओं एवं उनकी लिपियों का भी उन्होंने अध्ययन किया। इस अध्ययन के फलस्वरूप उन्होंने पाया कि हिन्दी, मराठी और ओड़िया की मिली-जुली "बोली" (जिसे भाषा-वैज्ञानिक शब्दावली में "क्रियोल" कहा जाता है) होने पर भी हल्बी आज जिस स्वरूप में है, उसे पूरी तरह मराठी या हिन्दी या ओड़िया की बोली नहीं माना जा सकता अपितु इसे नेपाली की तरह एक पृथक् "भाषा" माना जाना चाहिये। वे आगे कहते हैं कि यह आवश्यक नहीं कि किसी बोली या उपभाषा को भाषा के रूप में विकसित करने के लिये पृथक् लिपि हो। वर्तमान किसी भी लिपि को इसके लिये स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु श्री सोनी ने पाया कि देवनागरी लिपि में लिखने पर हल्बी शब्दों के उच्चारणों के साथ न्याय नहीं हो पा रहा है। देवनागरी में हल्बी लिखने वालों पर हिन्दी वर्तनी का बहुत प्रभाव है। हल्बी उच्चारणों के अनुसार हल्बी शब्दों की वर्तनी (द्मद्रड्ढथ्थ्त्दढ़) लिखी जा रही है। अत: श्री सोनी को हल्बी शब्दों के वास्तविक उच्चारण लिखने के लिये भाषा-वैज्ञानिक आधार पर एक नयी लिपि तैयार करने की आवश्यकता महसूस हुई। 
दूसरी बात, वे आगे कहते हैं, बस्तर आदिकाल से एक पृथक् जनपद या अंचल रहा है। इसकी भौगोलिक और ऐतिहासिक पृथकता ने इसकी जन-भाषाओं और संस्कृति को भी पड़ोसी अंचलों से पृथक् किया है। किन्तु पड़ोसी भाषाओं की तुलना में लिखित धार्मिक-लौकिक साहित्य और उदात्त "साहित्यिक संस्कृति" की कमी उन्हें हमेशा खटकती रही है। उन्होंने देखा कि अभी सौ वर्षों के भीतर ही संथाली, सँवरा, गोण्डी इत्यादि के लिये नयी लिपियाँ तैयार की गयी हैं। मणिपुरी के लिये 1980 में बंगला लिपि के स्थान पर उसकी विलुप्त लिपि "मेइतेइ" को पुन: स्वीकृत किया गया। इन सब तथ्यों ने श्री सोनी को हल्बी के लिये पृथक् लिपि बनाने के लिये प्रेरित किया। 
वे हल्बी के लिये लिपि तैयार करने के दो कारण बताते हैं, एक भाषा-वैज्ञानिक और दूसरा साहित्यिक-सांस्कृतिक। बहरहाल, हल्बी के लिये पृथक् लिपि तैयार करने के पूर्व उन्होंने वर्तमान भारतीय लिपियों के साथ ही भारतीय लिपियों से विकसित मध्य एशियाई, तिब्बती, दक्षिण एशियाई, दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों की वर्तमान और प्राचीन लिपियों का अध्ययन किया। यूरोपीय तथा अफ्रीकी लिपियों का भी अध्ययन किया। उत्तर भारतीय, तिब्बती एवं दक्षिण-पूर्वी एशियाई लिपियों के अध्ययन से उन्हें ज्ञात हुआ कि इन सभी लिपियों को मूल ब्राह्मी लिपि में कुछ परिवर्तन कर विकसित किया गया है और इसी कारण ये सभी लिपियाँ थोड़ा प्रयास करने पर सीखी जा सकती हैं। इस तरह श्री सोनी ने निर्णय लिया कि हल्बी की लिपि भी इसी प्रकार की होगी। उन्होंने देवनागरी लिपि में ही थोड़ा परिवर्तन कर नयी लिपि बनाने का प्रयास लगभग दस वर्ष पहले आरम्भ किया। 2006 में उन्होंने इसे लोगों के सामने रखा। "वर्णमाला-पुस्तिका" हाथ से तैयार कर लोगों के बीच बाँटते फिरते और उनके विचार सुनते गये। उन्होंने जन साधारण और बुद्धिजीवी, दोनों ही वर्गों के विचार एवं सुझाव प्राप्त किये। कुछ लोगों ने इस विचार को स्वीकार नहीं किया तो कुछ को रोचक लगा और कुछ ने इसे बस्तर की आवश्यकता कहा। इसमें कुछ संशोधन किये गये और अन्तत: 2011 में इसके फोन्ट भी तैयार हुए और अब यह लिपि सबके सामने है। 
श्री सोनी ने जब हल्बी व्याकरण लिखना आरम्भ किया तो उनके इस कार्य को देख कर उनके सहकर्मी और मित्र डॉ. योगेन्द्र सिंह राठौर ने उन्हें पहले भाषा-विज्ञान पढ़ने का सुझाव दिया। तब उन्होंने व्याकरण लिखना स्थगित कर भाषा-विज्ञान पढ़ना आरम्भ किया। हल्बी में अनुसंधान और लेखन के चलते उन्हें अपने ही जैसे अभिरुचि वाले कुछ लोग मिले। इनमें से एक श्री बाबू थॉमस भी हैं, जो स्वयं हल्बी और भाषा-विज्ञान के अच्छे ज्ञाता हैं। उन्होंने श्री सोनी को भाषा-विज्ञान की अँग्रेजी की कुछ पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद का काम सौंपा। इस कार्य को करते हुए श्री सोनी को भाषा-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का गहराई से अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ। इन दो लोगों के सुझाव और समय-समय पर विचार-विमर्श ने श्री सोनी को उनके विचार को सुदृढ़ करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। इसके साथ-साथ उनके रंगकर्मी और साहित्यकार साथी द्वय श्री रुद्रनारायण पाणिग्राही और श्री नरेन्द्र पाढ़ी ने उन्हें लगातार प्रोत्साहन और सुझाव दिये। उनके सहकर्मी भी उन्हें लगातार प्रोत्साहित करते रहे। वे कहते हैं, "अब तो स्थिति यह है कि श्री पाणिग्राही जी और श्री पाढ़ी जी ने मुझसे हिन्दी में बातें करना ही छोड़ दिया है। वे अब सिर्फ और सिर्फ हल्बी में ही मुझसे बातें करते हैं।" श्री पाणिग्राही जी ने ही हल्बी का फोण्ट-निर्माता खोजा। श्री सोनी कहते हैं कि फिलहाल फोण्ट-निर्माता का नाम उन्हीं के अनुरोध पर सार्वजनिक करना उपयुक्त नहीं है। समय आने पर उनका नाम बहुत ही सम्मान के साथ सबके सामने होगा। 
एक प्रश्न के उत्तर में कि क्या उन्होंने इस लिपि के सम्बन्ध में शासन से कोई सम्पर्क किया, वे कहते हैं, "नहीं, अब तक नहीं। हाँ, कॉपीराइट एक्ट के अन्तर्गत इस लिपि के पंजीयन की कार्यवाही जारी है।" 
वे बताते हैं कि हल्बी लिपि का फोण्ट बनवाने के लिये उन्होंने इन्टरनेट के माध्यम से बहुत से फोण्ट-निर्माताओं से सम्पर्क किया। भारत में चेन्नई, बंगलौर जैसे शहरों की संस्थाओं से ले कर संयुक्त राज्य अमेरिका के फोण्ट-निर्माताओं और सॉफ्टवेयर निर्माताओं से उन्होंने सम्पर्क किया किन्तु उनमें से अधिसंख्य लोग तैयार ही नहीं थे। एक अमेरिकी फोण्ट निर्माता ने इस लिपि के विषय में पूरी जानकारी प्राप्त करने के बाद यह उत्तर दिया कि यह एक "छोटा प्रोजेक्ट" है और वे "छोटा प्रोजेक्ट" नहीं लेते। सौभाग्य से श्री सोनी के मित्र श्री रुद्रनारायण पाणिग्राही जी को एक फोण्ट निर्माता का पता लगा और उनसे फोण्ट बनवाया गया। श्री सोनी कहते हैं कि वे फोण्ट निर्माता अभी अपना परिचय नहीं देना चाहते। वे कभी सहमत हुए तो वे उनका परिचय सब को देंगे। वे आगे कहते हैं कि जिन भाषा-विदों ने इस लिपि को देखा, वे इस लिपि की वैज्ञानिकता से सहमत है। एक प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं कि इस लिपि को प्रचलन में लाने के लिये शासकीय सहयोग प्राप्त करने का प्रयास फिलहाल नहीं किया गया है। वे कहते हैं कि उनकी मंशा है कि वे पहले हल्बी जानने वालों से इस लिपि की स्वीकृति प्राप्त कर लें। 
उनकी अपेक्षा है और वे अपनी अपेक्षा के सन्दर्भ में बस्तर अथवा बस्तर से बाहर रहने वाले प्रत्येक हल्बी भाषी या हल्बी के जानकार लोगों से अनुरोध करते हैं कि वे सभी इस लिपि को सीखें। वे कहते हैं कि उनके द्वारा तैयार की गयी हल्बी लिपि बहुत सरल और वैज्ञानिक लिपि है। इसीलिये वे चाहते हैं कि लोग इसे सीखें और प्रयोग में लाना प्रारम्भ करें। वे हल्बी साहित्यकारों से निवेदन भी करते हैं कि वे अपनी रचनाएँ हल्बी तथा देवनागरी दोनों ही लिपियों में प्रकाशित कराने का प्रयास करें ताकि हल्बी साहित्य पढ़ने वाले पाठकों को हल्बी लिपि सीखने का अवसर मिले। वे कहते हैं कि वे बस्तरिया समाज का बौद्धिक उन्नयन करना चाहते हैं। वे आगे यह भी स्पष्ट करते हैं कि उनकी मातृभाषा हल्बी नहीं होने के बावजूद वे हल्बी की स्थिति और महत्ता को देखते हुए इसके विकास के लिये हरसम्भव प्रयास करने को तत्पर हैं। 


Sunday, 3 June 2012

जहाँ पेड़ से भी होती है मित्रता

छत्तीसगढ़, बस्तर अंचल और ओड़िसा में "मीत" यानी मित्र बनाने की सुदीर्घ परम्परा रही है। माहापरसाद (महाप्रसाद), सखी, फूल, तुलसीजल (तुलसीदल), भोजली, गंगाजल, गंगाबारु, बालीफुल, कोदोमाली, जँवारा,गजामुँग आदि विशेषणों से सुशोभित मित्र सम्भवत: इन्हीं अंचलों में बनाये जाते हैं। एक बार जब इन विशेषणों से युक्त मित्र बना लिये गये तो फिर यह मित्रता आजीवन बनी रहती है। कहीं कोई दुराव नहीं, कोई छल नहीं, कोई कपट नहीं। मनसा-वाचा-कर्मणा एक से। मित्रता की ऐसी मिसाल आप कहीं और तो पा ही नहीं सकते। एक बार मित्रता हुई और हुआ जीवन भर का साथ। साथ भी कैसा?  बड़ा ही पवित्र! जीना-मरना साथ-साथ। चाहे वह सुख हो या कि दु:ख! साथ देंगे बराबर। पीढ़ी-दर-पीढ़ी मित्रता का मान रखना सम्भवत: इन्हीं अंचलों के लोग जानते हैं। जाति, धर्म, सम्प्रदाय.....कोई रोक-टोक नहीं। उल्लेखनीय है कि प्राय: उच्च एवं कुलीन वर्ग के लोग निम्न और अछूतों से करते हैं मित्रता। इस मित्रता में जाति-धर्म-सम्प्रदाय.......कुछ भी तो आड़े नहीं आता। है न यह बहुत बड़ी बात! मनुवादी संस्कृति के बीच क्या आप पा सकते हैं ऐसा कोई उदाहरण कहीं और......? बस्तर में निम्न और अछूतों से मित्रता की परिपाटी का उद्भव यहाँ प्रचलित और बहुश्रुत लोक महाकाव्य "लछमी जगार" से हुआ माना जाता है। प्रसंग कुछ इस तरह है :
नरायन (नारायण) राजा की इक्कीस रानियों से प्रताड़ित और अन्तत: अपने पति स्वयं नरायन राजा से भी प्रताड़ित नरायन राजा की नयी-नवेली बाईसवीं पत्नी लछमी (लक्ष्मी) जब नरायन राजा का घर छोड़ कर अन्यत्र चली जाती हैं तब नरायन राजा और उनकी इक्कीस रानियाँ निर्धनता झेलने लगती हैं। वे भूख से व्याकुल हो जाती हैं। स्वयं नरायन राजा भी भूखे-प्यासे निढाल हो जाते हैं। तब वे लछमी की खोज में यहाँ-वहाँ भटकने लगते हैं। तभी उन्हें आत्म-ज्ञान होता है कि जब तक वे किसी निम्न वर्ग के व्यक्ति के साथ मित्रता स्थापित कर लछमी की खोज नहीं करेंगे, तब तक उन्हें लछमी की प्राप्ति नहीं होगी। वे तत्क्षण एक अछूत व्यक्ति से मित्रता कर लेते हैं और उस व्यक्ति के साथ लछमी की खोज में निकल पड़ते हैं। दैवयोग से उन्हें लछमी का पता मिल जाता है और वे अपने उसी मित्र द्वारा सुझाये गये उपाय से ही लछमी को पुन: प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।
बहरहाल, यह तो बात हुई मानव मित्रों की। बस्तर में वनवासी वृक्षों से भी ऐसी ही अभिन्न मित्रता स्थापित करते दिखलायी पड़ते हैं। मित्रता के लिये चुने जाने वाले वृक्षों में ऐसा ही एक पेड़ है कुल्लू। छत्तीसगढ़ी परिवेश में यह कराट के नाम से जाना जाता है और इसका वानस्पतिक नाम है  स्टरकुलिया यूरेन्स। नीचे से ऊपर तक झक् सफेद और एकदम चिकना-लम्बा यह पेड़ प्राय: चट्टानी इलाकों में पाया जाता है। इस पेड़ से निकलने वाला गोंद जिसे हल्बी जनभाषा में "लसा" कहा जाता है, सबसे महँगा एवं प्रथम श्रेणी का होता है और स्वास्थ्य के लिये परम हितकारी। दन्तरक्षक औषधियों एवं सामग्री में इसका उपयोग प्रमुखत: होता है। इतना ही नहीं, बस्तर के वनवासी विभिन्न पूजा आदि में इस गोंद की लाई बना कर प्रसाद रूप में खाते-खिलाते हैं। प्रसूति के बाद प्रसूता महिलाओं को यह गोंद औषधि के रूप में अनिवार्यत: खिलाया जाता है ताकि शीघ्र ही उनका स्वास्थ्य-वर्धन हो सके।
बस्तर के वनवासियों के बीच मान्यता है कि इस वृक्ष से मीत या सखी बदने पर पैरों में बिवाई नहीं होती। एड़ियाँ इसी वृक्ष की तरह स्वच्छ, सुघड़ और चिकनी होती हैं। इसी मान्यता के तहत यहाँ के वनवासी इस वृक्ष से विधि-विधान पूर्वक मित्रता करते हैं। उसे नारियल, फूल, चावल, धूप, कपड़ा आदि भेंट करते हैं तथा उधर से आते-जाते उसे "सीताराम मीत" कह कर नमस्कार करते हैं। इतना ही नहीं, किसी उत्सव विशेष या तीज-त्योहार में भी अपने इस मीत से नियम पूर्वक भेंट करने जाते हैं और नारियल, फूल, चावल, कपड़े आदि उपहार स्वरूप अर्पित करते हैं।