छत्तीसगढ़, बस्तर अंचल और ओड़िसा में "मीत" यानी मित्र बनाने की सुदीर्घ परम्परा रही है। माहापरसाद (महाप्रसाद), सखी, फूल, तुलसीजल (तुलसीदल), भोजली, गंगाजल, गंगाबारु, बालीफुल, कोदोमाली, जँवारा,गजामुँग आदि विशेषणों से सुशोभित मित्र सम्भवत: इन्हीं अंचलों में बनाये जाते हैं। एक बार जब इन विशेषणों से युक्त मित्र बना लिये गये तो फिर यह मित्रता आजीवन बनी रहती है। कहीं कोई दुराव नहीं, कोई छल नहीं, कोई कपट नहीं। मनसा-वाचा-कर्मणा एक से। मित्रता की ऐसी मिसाल आप कहीं और तो पा ही नहीं सकते। एक बार मित्रता हुई और हुआ जीवन भर का साथ। साथ भी कैसा? बड़ा ही पवित्र! जीना-मरना साथ-साथ। चाहे वह सुख हो या कि दु:ख! साथ देंगे बराबर। पीढ़ी-दर-पीढ़ी मित्रता का मान रखना सम्भवत: इन्हीं अंचलों के लोग जानते हैं। जाति, धर्म, सम्प्रदाय.....कोई रोक-टोक नहीं। उल्लेखनीय है कि प्राय: उच्च एवं कुलीन वर्ग के लोग निम्न और अछूतों से करते हैं मित्रता। इस मित्रता में जाति-धर्म-सम्प्रदाय.......कुछ भी तो आड़े नहीं आता। है न यह बहुत बड़ी बात! मनुवादी संस्कृति के बीच क्या आप पा सकते हैं ऐसा कोई उदाहरण कहीं और......? बस्तर में निम्न और अछूतों से मित्रता की परिपाटी का उद्भव यहाँ प्रचलित और बहुश्रुत लोक महाकाव्य "लछमी जगार" से हुआ माना जाता है। प्रसंग कुछ इस तरह है :
नरायन (नारायण) राजा की इक्कीस रानियों से प्रताड़ित और अन्तत: अपने पति स्वयं नरायन राजा से भी प्रताड़ित नरायन राजा की नयी-नवेली बाईसवीं पत्नी लछमी (लक्ष्मी) जब नरायन राजा का घर छोड़ कर अन्यत्र चली जाती हैं तब नरायन राजा और उनकी इक्कीस रानियाँ निर्धनता झेलने लगती हैं। वे भूख से व्याकुल हो जाती हैं। स्वयं नरायन राजा भी भूखे-प्यासे निढाल हो जाते हैं। तब वे लछमी की खोज में यहाँ-वहाँ भटकने लगते हैं। तभी उन्हें आत्म-ज्ञान होता है कि जब तक वे किसी निम्न वर्ग के व्यक्ति के साथ मित्रता स्थापित कर लछमी की खोज नहीं करेंगे, तब तक उन्हें लछमी की प्राप्ति नहीं होगी। वे तत्क्षण एक अछूत व्यक्ति से मित्रता कर लेते हैं और उस व्यक्ति के साथ लछमी की खोज में निकल पड़ते हैं। दैवयोग से उन्हें लछमी का पता मिल जाता है और वे अपने उसी मित्र द्वारा सुझाये गये उपाय से ही लछमी को पुन: प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।
बहरहाल, यह तो बात हुई मानव मित्रों की। बस्तर में वनवासी वृक्षों से भी ऐसी ही अभिन्न मित्रता स्थापित करते दिखलायी पड़ते हैं। मित्रता के लिये चुने जाने वाले वृक्षों में ऐसा ही एक पेड़ है कुल्लू। छत्तीसगढ़ी परिवेश में यह कराट के नाम से जाना जाता है और इसका वानस्पतिक नाम है स्टरकुलिया यूरेन्स। नीचे से ऊपर तक झक् सफेद और एकदम चिकना-लम्बा यह पेड़ प्राय: चट्टानी इलाकों में पाया जाता है। इस पेड़ से निकलने वाला गोंद जिसे हल्बी जनभाषा में "लसा" कहा जाता है, सबसे महँगा एवं प्रथम श्रेणी का होता है और स्वास्थ्य के लिये परम हितकारी। दन्तरक्षक औषधियों एवं सामग्री में इसका उपयोग प्रमुखत: होता है। इतना ही नहीं, बस्तर के वनवासी विभिन्न पूजा आदि में इस गोंद की लाई बना कर प्रसाद रूप में खाते-खिलाते हैं। प्रसूति के बाद प्रसूता महिलाओं को यह गोंद औषधि के रूप में अनिवार्यत: खिलाया जाता है ताकि शीघ्र ही उनका स्वास्थ्य-वर्धन हो सके।
बस्तर के वनवासियों के बीच मान्यता है कि इस वृक्ष से मीत या सखी बदने पर पैरों में बिवाई नहीं होती। एड़ियाँ इसी वृक्ष की तरह स्वच्छ, सुघड़ और चिकनी होती हैं। इसी मान्यता के तहत यहाँ के वनवासी इस वृक्ष से विधि-विधान पूर्वक मित्रता करते हैं। उसे नारियल, फूल, चावल, धूप, कपड़ा आदि भेंट करते हैं तथा उधर से आते-जाते उसे "सीताराम मीत" कह कर नमस्कार करते हैं। इतना ही नहीं, किसी उत्सव विशेष या तीज-त्योहार में भी अपने इस मीत से नियम पूर्वक भेंट करने जाते हैं और नारियल, फूल, चावल, कपड़े आदि उपहार स्वरूप अर्पित करते हैं।
क्या खूब मिताई.
ReplyDeleteइस नयी जानकारी के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद ,जल्दी ही छतीसगढ़ आउंगी इसे देखने
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