Thursday, 19 September 2013

...और नहीं रहे बस्तर मोगली चेंदरू


चेंदरू। पूरा नाम चेंदरू राम मण्डावी। आज से 54 वर्ष पहले 1959 में बस्तर का नाम अपनी कला से पूरी दुनिया में रोशन करने वाले चेन्दरू पक्षाघात से निरन्तर लड़ते हुए अन्तत: 18 सितम्बर 2013 की शाम 4 बजे इस दुनिया से चले गये। सुप्रसिद्ध स्वीडिश फिल्मकार अर्ने सक्सडॉर्फ़ ने चेंदरू और उसके पालतू शेर को ले कर एक फिल्म बनायी, "ए जंगल टेल" जिसने सारी दुनिया में धूम मचा थी। वहीं उनकी पत्नी और सुप्रसिद्ध स्वीडिश शोधकर्ता स्टेन बर्ग़मैन की पुत्री ऑस्ट्रिड सक्सडॉर्फ़ ने उसी दरम्यान इसी शीर्षक से पुस्तक लिखी। इस पुस्तक का सर्वप्रथम प्रकाशन 1960 में फ्रान्स से "चेंदरू एट सन टाइगर" शीर्षक से तथा सुविख्यात अँग्रेजी लेखक विलियम सैनसम द्वारा अँग्रेजी में किया गया अनुवाद यूनाइटेड स्टेट्स (हैरकोर्ट, ब्रेस एंड कम्पनी, न्यू यॉर्क) से "चेंदरू : द बॉय एंड द टाइगर" शीर्षक से हुआ। यह पुस्तक 60 खूबसूरत रंगीन चित्रों से सुसज्जित थी। इस फिल्म तथा पुस्तक दोनों ही के केन्द्र में थे चेंदरू और उनका शेर। 
मुझे याद है 1982 का यही सितम्बर-अक्टूबर का महीना था जब हम यानी मैं, मेरे अनुज लोक चित्रकार एवं लोक संगीतकार खेम वैष्णव, सुप्रसिद्ध धातुशिल्पी भाई जयदेव बघेल और हल्बी-हिन्दी के कवि यशवंत गौतम गढ़बेंगाल पहुँचे थे। वहाँ की सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बने हुए बेलगुर और स्वीडिश फिल्म "ए जंगल टेल" के नायक चेन्दरु से हमारी मुलाकात हुई थी। बेलगुर वैसे तो बहुत प्रसन्न थे कि उनके यहाँ कई देशी-विदेशी लोग अक्सर आते रहते हैं और बख्शीश के रूप में उन्हें और उनके दल को कुछ रुपये मिल जाते हैं। लेकिन बातचीत के दौरान उनके दल के कुछेक सदस्यों के मन की वितृष्णा स्पष्टत: उभर कर सामने आयी थी। आभास हुआ था कि शोषण का यह चक्र यहाँ भी उसी तरह चलता आ रहा है। चंद रुपयों के प्रलोभन से हम उनकी अक्षुण्ण संस्कृति की खरीद-फरोख्त करने में मसरूफ हैं; पूरी तरह से किसी पूर्व नियोजित षड्यंत्र के तहत।
चेंदरू वैसे तो बहुत कम बोलने वाले और प्राय: गुमसुम-से रहने वाले थे, किन्तु उन्होंने बहुत थोड़े से शब्दों में ही सही, अपने क्षोभ को प्रगट कर ही दिया था, "इतने दिनों तक हम लोगों ने अपनी रोजी तक को ताक पर रख कर उस फिल्म के लिये काम किया, लेकिन हमें मेहनताना केवल दो रुपये प्रतिदिन के हिसाब से दिया गया। हाँ, इतना जरूर है कि मुझे उन लोगों ने कुछेक खिलौने (दूरबीन, अलबम आदि) दिये थे, जो कम से कम हमारे काम के तो थे ही नहीं। उन्हें भी आपके कोंडागाँव के एक ठेकेदार ने, जिसका काम गढ़बेंगाल के पास चल रहा था; हथिया लिया।"
हमने उत्सुकता से पूछा था, "नाम जानते हैं आप, उस ठेकेदार का?"
"जी नहीं, नाम तो नहीं जानता।"  चेंदरू बोले थे। हमने गौर किया था, वे जानते हुए भी अनजान बन रहे थे। क्यों? पता नहीं।
"आपने तो उन्हें बेचा होगा न?"
"नहीं साहब। बेचा नहीं। पता नहीं उन्हें कैसे मालूम हुआ कि ये चीजें मेरे पास हैं। वे एक दिन मेरे पास आये और उन चीजों को देखने की इच्छा व्यक्त की। देखने के बाद बोले, "मैं इन्हें अपने साथ ले जा रहा हूँ। बाद में तुम्हें वापस कर दूँगा।" मैंने विश्वास कर हामी भर दी। आज कई बरस हो गये किन्तु उन्होंने वापस नहीं किया। एक-दो बार मेरे कहने पर यह कह कर डाँट दिया कि तुम्हारे पास क्या सबूत है कि ये सामान तुम्हारे हैं? मैंने कभी कोई चीज तुमसे नहीं ली है। मैं क्या करता साहब, चुप रह गया।"
इसी बीच, मध्यप्रदेश शासन, संस्कृति विभाग के अधीन स्थापित भारत-भवन के अन्तर्गत आधुनिक कला संग्रहालय रूपंकर के निदेशक और प्रख्यात चित्रकार जे. स्वामीनाथन अपने सहयोगियों सुरेन्द्र राजन, अकबर पदमसी तथा प्रयाग शुक्ल के साथ आदिवासी एवं लोक कलाओं के संग्रहण के सिलसिले में बस्तर-भ्रमण पर आये थे। इस दौरान गढ़बेंगाल में उन्होंने काफी समय व्यतीत किया था। तभी उनकी मुलाकात चेंदरू जी से भी हुई थी। मुझे याद आया, बातचीत के दौरान स्वामी जी ने बड़ी ही आत्मीयता से चेन्दरु जी को आश्वस्त किया था। चेन्दरु आगे बताने लगे थे, "हाल ही में पाँच-सात माह पहले एक आदमी आया था। अपने-आप को नागपुर के किसी समाचार-पत्र का संवाददाता बता रहा था। उसने गाँव के लोगों के बीच कुछ कपड़े बाँटे थे। फिर एक दिन मेरी किताब (ए जंगल टेल) कुछ दिनों में वापस करुँगा, कह कर ले गया। किन्तु आज तक वापस नहीं किया है।" वे फिर थोड़ी देर रुके, फिर बताने लगे, "फटे नोट भी बदलवा कर नए नोट ला दूँगा, कह कर ले गया है।"
चेंदरू जी की चिकित्सा के लिये छत्तीसगढ़ शासन आगे आया। विशेषत: नारायणपुर से विधायक और मन्त्री केदार कश्यप जी ने अपनी ओर से सार्थक प्रयास किये। इसके लिये वे धन्यवाद के पात्र हैं। आईबीसी-24 टीवी चैनल लगातार अपने दर्शकों को चेंदरू जी के स्वास्थ्य के विषय में समाचारों के माध्यम से जानकारी देता रहा। इसके लिये यह चैनल भी धन्यवाद का पात्र है। "आमचो बस्तर" उपन्यास के लेखक भाई राजीव रंजन प्रसाद की पुस्तक "बस्तर के जननायक" में एक अध्याय चेंदरू जी (और कीर्ति-शेष लाला जगदलपुरी) पर भी है। राजीव जी के हम आभारी हैं। 
कला की दुनिया में बस्तर का नाम आधी सदी पहले रोशन करने वाले बस्तर-मोगली कीर्ति-शेष चेंदरू जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।





















सभी छायाचित्र : राजीव रंजन प्रसाद के सौजन्य से। 


11 comments:

  1. मर्मस्पर्शी आलेख। चेन्द्रू पास उपलब्ध उसकी पहचान जिस तरह से नष्ट होती रही यह दु:खद है लेकिन हम बस्तरियों के दिल मे उनके लिये जो जगह है वह अमिट है। अलविदा चेन्द्रू। विनम्र श्रद्धांजलि।

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  2. बेहद उपयोगी आलेख। मैंने भी 90 के दशक में चेंद्रू पर रिपोर्टिंग की थी। उसके पास तब एक किताब भी थी, उसके पन्ने बिखरे हुए थे। वह किताब मैं भी मांग कर लाया था। उसकी तस्वीरों की स्कैनिंग हमने रायपुर में देशबन्धु कार्यालय में आलोक पुतुल के साथ मिलकर की थी। फिर मैने और पुतुलजी ने किताब को नये सिरे से बाइंड कराया। किताब के जीर्णोद्धार के बाद मैंने वापस नारायणपुर के लिए बस पकड़ी। थोड़ी देर कमल शुक्ला के घर ठहरा, हरीश शर्मा जी ने मेरी एक पेज की रिपोर्ट को फोटोफ्रेम कराकर रखा था। उन्होंने मुझे वह फ्रेम देते हुए कहा-केवल भाई, नारायणपुर जा रहे हैं तो इसे मेरी ओर से चेंद्रू को दे देना। मैं नारायणपुर पहुंचा तो वहां चेंदरू नहीं मिला। वह शायद उसकी मां थी, जो आंगन में कुछ फुन रही थी। उसके हाथों में मैंने वह किताब सौंपी। इसके बाद जहां तक मुझे याद आ रहा है कि वह किताब चेंदरू के पास ही थी। उसे कौन ले गया...भयानक अपराध। अक्षम्य। हरिहरजी थोड़ा स्पष्ट कीजिए कि चेंद्रू ने किताब न होने की शिकायत कब की थी।

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  3. कमल शुक्ला के घर यानी कांकेर में ठहरा

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  4. कमल शुक्ला के घर यानी कांकेर में ठहरा

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  5. कालखंड स्पष्ट कीजिएगा हरिहर जी.....

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    2. यदि फोटो सेंड करने का आप्शन होता तो मैं कुछ अखबारों की कटिंग भेजता। चेंद्रू की मौत के बाद किसी ने उसकी सामग्री लौटाई है, ऐसा पता चलता है। वो कौन है, यह भी गोलमोल हैhttps://www.facebook.com/photo.php?fbid=451789454935122&set=at.113057415474996.17198.100003122153428.100000876807624&type=1&theater

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  8. केवल कृष्ण जी, आपने शायद पोस्ट में उल्लेखित काल-खण्ड की ओर ध्यान नहीं दिया। यह बात थी सितम्बर-अक्तूबर 1982 की। सही तिथि याद नहीं। किताब ले जाने वाले महानुभाव ने बाद में किताब चेंदरू जी को वापस की होगी। कारण, इस और इस जैसे कई प्रकरणों से सम्बन्धित मेरा एक रिपोर्ताज रायपुर से प्रकाशित होने वाले दैनिक "नवभारत" के 29 अक्तूबर 1982 के अंक में प्रकाशित हुआ था। शीर्षक था, "बस्तर के गीत-संगीत और कलाकारों की व्यथा-कथा"। रिपोर्ताज के प्रकाशन के बाद इसकी प्रतिक्रिया भी हुई थी। बहरहाल, 1982 के बाद मेरी फिर कभी चेंदरू जी से मुलाकात नहीं हो सकी। 2003 में भी, जब मैं उनसे मिलने विशेष रूप से गढ़ बेंगाल गया था। हाँ, पण्डीराम मण्डावी तथा बेलगुर मण्डावी जी से अवश्य ही भेंट हुई थी और मैंने इन दोनों के साथ काफी समय भी वहाँ बिताया था किन्तु उपर्युक्त प्रसंग पर कोई बातचीत नहीं हुई थी।

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  9. हां, हां. आप सही कह रहे हैं, जब चेंदरु के पास किताब या कोई भी यादगार चीजें न होने की खबरें आई तो मैं भी अचंभित था। शायद चेंदरु के साथ बार-बार ऐसा होता रहा। लोग चीजें ले जाते रहे और फिर काफी विलंब से लौटाया उन्होंने। अब की बार तो चीजें उनकी मौत के बाद लौटकर आई। चलिए आई तो सहीं। हरिहरजी आप जैसे जागरुक लोककर्मियों से ही तो हम पत्रकारों को खबरें और सूत्र मिलते हैं।

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