Tuesday, 27 November 2012

नारी पर केन्द्रित महागाथा लछमी जगार

देश का आदिवासी बहुल बस्तर अंचल अपनी सांस्कृतिक सम्पन्नता के लिए देश ही नहीं, अपितु विदेशों में भी चर्चित है। क्षेत्र चाहे रुपंकर कला का हो या कि प्रदर्शनकारी कलाओं या फिर मौखिक परम्परा का। प्रकृति के अवदान को कभी न भुलाने वाला बस्तर का जन मूलत: प्रकृति का उपासक है। उसके सभी पर्वों पर उसकी अनन्य उपासना, श्रद्धा, भक्ति और कृतज्ञता की स्पष्ट छाप दिखलायी पड़ती है। वर्ष भर कोई न कोई त्यौहार, कोई न कोई उत्सव। बीज-बोनी का उत्सव "बीजफुटनी", माँ धरती का त्यौहार "माटीतिहार", वसुन्धरा के श्रृंगार का पर्व "अमुसतिहार", नए अन्न का स्वागत "नवाखानी", गोधन की पूजा "दियारी", आम का स्वागत "आमा जोगानी", वर्षा की अभ्यर्थना "भिमाजतरा", ग्राम-देवी-देवताओं की वार्षिक पूजा-अर्चना का आयोजन "मँडई", "ककसाड़" या "खड़साड़" अथवा विभिन्न "पण्डुम" आदि।
               "धनकुल (तिजा जगार)" तथा "लछमी जगार" भी इसी तरह के महत्त्वपूर्ण लोकोत्सव हैं। जहाँ "धनकुल" में माहादेव-पारबती (महादेव-पार्वती) की कथा गायी जाती है वहीं "लछमीजगार" में माहालखी (महालक्ष्मी) और नरायन (नारायण) की। "लछमीजगार" की इस कथा को उसकी प्रकृति के अनुसार लोक महाकाव्य कहा जाना समीचीन होगा। उल्लेखनीय है कि "लछमीजगार" को कुछ लोग "जगार", कुछ लोग "लखीजगार" तथा कुछ लोग "लखीजग" और कुछ लोग "जग" कह देते हैं। "जगार" बस्तर अंचल की लोकभाषा "हल्बी" का शब्द है और यह हिन्दी के जागरण या जागृति अथवा यज्ञ शब्द का ही अपभ्रंश है। मूलत: हल्बी में गाए जाने वाले इस लोक महाकाव्य की भाषा में यदा-कदा भतरी (ओड़िया भाषा तथा बस्तर की लोकभाषा हल्बी के सम्मिश्रण से प्रादुर्भूत एक लोकभाषा, जो बस्तर अंचल के सीमावर्ती क्षेत्र में बोली जाती है) एवं छत्तीसगढ़ी लोक भाषाओं के भी शब्द प्रयुक्त हुए हैं। यह उत्सव प्राय: सामूहिक रूप से आयोजित किया जाता है, जिसे "गाँवजगार" कहा जाता है। कई बार मनौती मानने वाले व्यक्तिगत रूप से भी इसका आयोजन करते हैं। किन्तु आयोजन में भाग सभी लेते हैं। कम से कम पाँच तथा अधिकतम ग्यारह दिनों तक चलने वाले इस उत्सव के आयोजन-स्थल प्राय: "देवगुड़ी" अर्थात् मन्दिर होते हैं। आयोजन-स्थल को लीप-पोतकर सुन्दर ढंग से सजाया जाता है। दीवार पर भित्तिचित्र अंकित किए जाते हैं। इन चित्रों में "जगार" की कथा संक्षेप में अंकित होती है। पाट गुरुमायँ अर्थात् पट या प्रमुख गुरु माँ और चेली गुरुमायँ अर्थात् शिष्या या सहायिका गुरुमायँ इस आयोजन की सिरमौर होती हैं। यही दोनों हण्डी, धनुष, बाँस की पतली कमची तथा चावल फटकने का सूपा, जिन्हें क्रमश: "घुमरा हाँडी", "धनु", "छिरनी काड़ी" और "सूपा" कहा जाता है; के संयोजन से तैयार वाद्य-यन्त्र बजाती हुई "जगार" की कथा गीत रूप में सुनाती हैं। इस मौलिक एवं अनूठे वाद्य-यन्त्र को "धनकुल" कहा जाता है। "धनकुल" शब्द ओड़िया भाषा से आया हुआ है। धनुष का परिवर्तित स्वरूप है "धन" तथा कुला का परिवर्तित स्वरूप है "कुल"। ओड़िया में कुला का अर्थ है सूपा।
                 इस आयोजन में दिन में तो पूजा-अर्चना होती रहती है, दीपक अनवरत् जलता रहता है किन्तु कथा-गायन प्राय: रात में ही होता है। श्रद्धालु जन देर रात तक पलकें बिना झपकाए बैठे कथा का रस ले रहे होते हैं। "जगार" गीत वस्तुत: गीत नहीं, लोक महाकाव्य है। मौखिक महाकाव्य। अलिखित साहित्य। आश्चर्य होता है इन गुरुमाओं की स्मरण-शक्ति पर, जिन्हें लगभग एक-डेढ़ हजार पृष्टों में समाने वाला यह महाकाव्य कंठस्थ है। ऑस्ट्रेलिया के नृतत्वशास्त्री डॉ. क्रिस ग्रेगोरी इसे दुनिया का सबसे महत्त्वपूर्ण लोक महाकाव्य निरुपित करते हैं। वे कहते हैं "ओरल एपिक्स ऑफ इंडिया के सम्पादक स्टुअर्ट एच. ब्लैकबर्न ने अपनी इस किताब में कहा है कि भारत में ऐसा कोई लोक महाकाव्य "रिकार्ड" नहीं किया गया है, जिसे केवल महिलाएँ गाती हों। किन्तु अब इस महाकाव्य को हरिहर वैष्णव द्वारा रिकार्ड (ध्व िकिए जाने के कारण स्टुअर्ट एच. ब्लैकबर्न की उपर्युक्त स्थापना बदल जाती है।"
यह वह लोक महाकाव्य है जिसमें मृत्यु की नहीं अपितु जीवन की कहानी है। यह युद्ध और नायक प्रधान कथा नहीं है। यह नारी प्रधान लोक महाकाव्य है। नारी की, नारी द्वारा, नारी के लिए कही गयी महागाथा है यह "लछमी जगार"। यह सृजन की कथा है। इसमें साहित्य, कला, विज्ञान, इतिहास एवं भूगोल आदि का समावेश ही नहीं अपितु वृहद् एवं तथ्यात्मक विवरण है। ज्ञान का भण्डार है यह लोक महाकाव्य। इस महाकाव्य में पौराणिक नायक-नायिकाओं, यथा लक्ष्मी-नारायण एवं महादेव-पार्वती का लोक संस्कृतिकरण हुआ है। लछमी-नरायन (लक्ष्मी-नारायण) और माहादेव-पारबती (महादेव-पार्वती) नामकरण इसी लोक संस्कृतिकरण के परिणाम हैं। इस महाकाव्य के नायक-नायिका ईश्वर होते हुए भी लोक के अनुरूप आचरण और व्यवहार करते दिखलाई पड़ते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य जो इस उत्सव के विषय में रेखांकित किए जाने योग्य है, वह यह कि गुरुमायँ का किसी खास या तथाकथित ऊँची जाति की होना कतई आवश्यक नहीं है। यों तो प्राय: महिलाएँ ही गुरुमायँ होती हैं किन्तु अपवाद स्वरूप पुरुष भी यह भूमिका निभाते देखे गए हैं। बस्तर ग्राम के सुखदेव एवं जयदेव, कोंडागाँव के लुदरुराम कोराम और छेदीराम, काकड़गाँव के सुकलू राम पाँडे तथा बरकई के मस्सूराम सोनवानी ऐसे ही अपवादों में से हैं।
                 "लछमी जगार" अन्न लक्ष्मी की पूजा का महोत्सव है। इस लोक महाकाव्य में सृष्टि की उत्पत्ति की कहानी है, धान की उत्पत्ति की कहानी है और इसमें वर्षा की भी कहानी है। इसमें वर्ण या रंग-भेद का कोई स्थान नहीं है। इस महाकाव्य के अनुसार मेंगराजा-मेंगिनरानी (मेघ राजा-मेघिन रानी) अर्थात् वर्षा के देवता की पुत्री हैं माहालखी। माहालखी यानी धान। माहादेव कृषक हैं। देवी पारबती को चिंता है मँजपुर यानी मृत्यु लोक के निवासियों की। वह उन्हीं के जीवन-यापन के लिए माहादेव को कृषि-कार्य हेतु प्रेरित करती हैं। माहादेव के अथक परिश्रम से होती है धान अर्थात् माहालखी की उत्पत्ति। माहालखी यानी धान नरायन राजा की बाईसवीं रानी हैं। उनकी इक्कीस रानियाँ हैं कोदो, कोसरा, सरसों, मूँग, अरहर, उड़द, राई, तिल, डेंगीतिल या परबत, चना, बटरा, मँडिया, अलसी, भदई, सावाँ, झुड़ँगा, काँदुल आदि तिलहनी एवं दलहनी फसलें। ये इक्कीस रानियाँ सौतियाडाह के चलते माहालखी को प्रताड़ित करती हैं। बहुत अधिक प्रताड़ित किये जाने के बावजूद माहालखी अपने पति का घर नहीं छोड़तीं किन्तु जब नरायन राजा द्वारा पाद-प्रहार किया जाता है तब वे इसे नारी की अस्मिता पर आघात मान कर पति का घर छोड़ देती हैं। उनके गृह-त्याग के बाद नरायन राजा और उनकी इक्कीस रानियों पर दुखों के पहाड़ टूट पड़ते हैं। वे दाने-दाने को मोहताज हो जाते हैं। अन्त में हार मान कर रानियाँ स्वयं ही नरायन राजा से माहालखी को खोज कर घर वापस लाने को कहती हैं। नरायन राजा बड़ी मुश्किलों के बाद माहालखी को खोज कर घर वापस लाते हैं।
लछमी जगार का आयोजन प्राय: नवाखानी के बाद आरम्भ हो जाता है किन्तु अगहन के महीने को इसके लिये सर्वाधिक उपयुक्त माना जाता है। अगहन का महीना लक्ष्मी का समय माना जाता है। महत्त्वपूर्ण दिन होता है बड़ा जगार का। यानी जगार का अन्तिम दिन। और यह अन्तिम दिन होता है गुरुवार। जगार चाहे पाँच दिन का हो या सात अथवा नौ या ग्यारह दिनों का। समाप्ति तो गुरुवार को ही होगी।
                        जिस स्थान पर लछमीजगार रखना हो, वहाँ परम्परानुसार दीवार पर भित्तिचित्र अंकित किए जाते हैं। इसे गड़ लिखना कहा जाता है। चित्रांकन का कार्य लोक चित्रकारों द्वारा किया जाता है। लोक चित्रकार को "लिखनकार" या "चितरकाल" कहते सुना गया है। जमीन पर चावल के आटे से बाधा या बाना लिखा जाता है। बाधा या बाना लिखना यानी जमीन पर चित्रांकन। इसे छत्तीसगढ़ी प्रभावित क्षेत्र में चौक पुरना कहते हैं। इसी बाधा या चौक के ऊपर पीढ़ा यानी लकड़ी का आसन रखा जाता है। इस पीढ़ा के ऊपर डुमर अर्थात् गुलर की लकड़ी से बनी पायली यानी धान-चावल नापने के उपयोग में लायी जाने वाली मापिका में धान भर कर रखा जाता है। इसे नये कपड़े में ढक कर उसके चारों ओर धागा और फूल लपेट दिया जाता है। यही है अन्न लक्ष्मी। पायली के समानांतर दूसरी ओर एक कलश स्थापित किया जाता है। इस कलश पर एक नारियल रखा जाता है। यह होता है देवाधिदेव भगवान नरायन का प्रतीक। फिर दोनों के सामने एक और कलश स्थापित किया जाता है। इस कलश पर दीपक रखा जाता है, जो उत्सव की समाप्ति तक अनवरत् जलता रहता है। पूजा के लिए सरई अर्थात् साल के पत्तों से बनी पतरी यानी पत्तल का उपयोग किया जाता है।
                     अन्तिम दिन जो हमेशा गुरुवार ही होता है, बहुत ही धूमधाम से सम्पन्न होता है। बस्तर में गुरुवार को लक्ष्मीजी का दिन माना जाता है। इसी आधार पर इस दिन का नामकरण लखिमबार या लखिनबार हुआ है। लछमी, लखी या माहालखी अर्थात् महालक्ष्मी। गुरुवार के दिन गाँव के सारे लोग नए कपड़ों में सज-धज कर जगार में एकत्र होते हैं। चूड़ी-फुँदड़ी, तेल-कंघी, हल्दी-चावल, पान-सुपारी, साड़ी आदि पूजा एवं श्रृंगार की सामग्री लेकर बाजे-गाजे के साथ लोगों का समूह खेतों की ओर जाता है। इसे गोपपुर कहा जाता है । खेत यानी गोपपुर में धान की पूजा-अर्चना की जाती है और थाली में धान की बालियाँ लेकर जगार-स्थल पर वापस आते हैं। यहाँ पहले से ही माँडो यानी मण्डप बना होता है। इसी माँडो के नीचे लछमी-नरायन या लखी-नरायन का विवाह धूमधाम के साथ किया जाता है। विवाह की सारी रस्में पूरी की जाती हैं। हल्दी-तेल से एक-दूसरे को सराबोर कर दिया जाता है। निसान, ढोल, तुड़बुड़ी और मोहरी आदि वाद्ययन्त्रों की लय-ताल पर युवक-युवतियाँ, बच्चे-बूढ़े-----सभी भाव विभोर हो कर नृत्य करते हैं। रात में पुन: कथा-गायन होता है और दूसरे दिन फूल-पत्ते आदि नदी या तालाब में विसर्जित कर दिये जाते हैं। विसर्जन के बाद जगार-स्थल पर आकर कपड़ों में ढकी धान की पायली को देखते हैं। धान की मात्रा बढ़ चुकी होती है। यही इनके विश्वास को और बल देता है।
                    लछमीजगार की कथा में प्राय: क्षेत्रीय भिन्नता है। जगदलपुर क्षेत्र में गाए जाने वाले जगार ओड़िया के लक्ष्मीपुराण से उद्भूत हैं, जबकि कोंडागाँव क्षेत्र में गाए जाने वाले लछमीजगार पर पुराण की कोई छाप नहीं है। कोंडागाँव की गुरुमायँ सुखदई कोराम लक्ष्मीपुराण से उद्भूत जगार को जमखँदा यानी यमशाखा तथा लक्ष्मीपुराण से इतर प्रचलित जगार को बेसराखँदा यानी बाजशाखा के रूप में वर्गीकृत करती हैं। ऊपर वर्णित कथा-सार बेसराखँदा यानी बाजशाखा से लिया गया है।
               सरगीपालपारा (कोंडागाँव) की गुरुमायँ सुकदई कोराम, गागरी कोराम, सोमारी, रामदई और पलारी की गुरुमायँ कमला कोराम, घोड़सोड़ा की गुरुमायँ सनमती तथा बम्हनी की गुरुमायँ आसमती एवं जानकी द्वारा गाए जाने वाले लछमी जगार तथा डोंगरीगुड़ा (कोंडागाँव) की गुरुमायँ अम्बिका वैष्णव एवं मुलमुला की गुरुमायँ मँदनी पटेल द्वारा गाए जाने वाले लछमी जगार की कथा में बहुत अन्तर है। सरगीपालपारा एवं पलारी की उपर्युक्त गुरुमाओं द्वारा गाए जाने वाले लछमी जगार की कथा का उद्गम कोई भी पुराण या शास्त्र नहीं है। यह पूरी तरह मौलिक है। इसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं है। जबकि डोंगरीगुड़ा एवं मुलमुला की गुरुमाओं द्वारा गाए जाने वाले लछमी जगार में पौराणिकता का पुट है। ये गुरुमाएँ कहती हैं कि इनके द्वारा गायी जाने वाली कथा का उद्गम ओड़िया के लक्ष्मी पुराण से हुआ है। खोरखोसा, बस्तर, सिंगनपुर (जगदलपुर) आदि गाँवों में गाए जाने वाले लछमी जगार की कथा भी ओड़िया के लक्ष्मी पुराण से अनुप्राणित है। यह बात अलग है कि यत्र-तत्र पौराणिकता से इतर आख्यान भी इसमें जुड़ गए हैं तथापि कथा का उत्स तो ओड़िया का लक्ष्मी पुराण ही है। किन्तु रोचक तथ्य यह है कि संस्कृत में रचित पुराणों की सूची में लक्ष्मी पुराण का कोई उल्लेख नहीं मिलता। वस्तुत: निम्न 18 मुख्य एवं 2 अन्य, इस तरह कुल 20 पुराण बतलाए गए हैं : 1.विष्णु पुराण, 2.नारद पुराण, 3.भागवत् पुराण, 4.गरुड़ पुराण, 5.पद्म पुराण, 6.वराह पुराण, 7.मत्स्य पुराण, 8.कूर्म पुराण, 9.लिंग पुराण, 10.शिव पुराण, 11.स्कन्द पुराण, 12.अग्नि पुराण, 13.ब्रह्म पुराण, 14.ब्रह्मंड पुराण, 15.ब्रह्मवैवर्त पुराण, 16.मार्कण्डेय पुराण, 17.भविष्य पुराण, 18.वामन पुराण, 19.वायु पुराण, 20.हरिवंश पुराण। ओड़िया में प्रचलित लक्ष्मी पुराण (लख्मी पुराण) वस्तुत: ओड़िया साहित्यकार इन्द्रमणि साहू की रचना है। लगभग 150 पृष्ठों की इस पुस्तक का प्रकाशन 1965 ई.में शारदा प्रेस, कटक (ओड़िसा) से हुआ था। दरअसल रचनाकार ने 46 अध्यायों में संयोजित अपनी इस रचना का आधार या तो स्कन्द पुराण या फिर विष्णु पुराण को बनाया है, यह कहा जा सकता है। इधर हाल ही में ओड़िया का एक और लक्ष्मी पुराण देखने में आया है, जिसके लेखक का नाम इस पुस्तक में नहीं दिया गया है।
                      सरगीपालपारा एवं पलारी की गुरुमाओं की गुरु थीं सरगीपालपारा (कोंडागाँव) की आयती एवं दुआरी। आयती एवं दुआरी की गुरु थीं बम्हनी (कोंडागाँव) की मिरगान जाति की एक महिला। संयोग से ये सभी गुरुमाएँ अछूत वर्ग से ही सम्बन्ध रखती थीं।
                         इन गुरुमाओं द्वारा गायी जाने वाली कथा में इस अन्तर का एक कारण जो मेरी समझ में आ रहा है, वह यह हो सकता है कि चूँकि सरगीपालपारा, पलारी एवं घोड़सोड़ा की गुरुमाएँ अछूत वर्ग की हैं अत: पुराणों तक इनकी पहुँच न होने के कारण इनकी कथा में कोई भी पौराणिक तथ्य नहीं हैं। इसी तरह डोंगरीगुड़ा की गुरुमायँ अम्बिका वैष्णव, मुलमुला की गुरुमायँ मँदनी पटेल, खोरखोसा की गुरुमायँ रैमती, गनमती एवं सरसती तथा बस्तर के सुकदेव और जयदेव एवं सिंगनपुर की आसाबाई आदि गुरुमाएँ सवर्ण वर्ग से सम्बन्धित होने के कारण पुराणों तक इनकी पहुँच सहज थी, इसलिए इनकी कथा में पौराणिकता की स्पष्ट छाप दिखलायी पड़ती है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पुरातन काल में अछूत वर्ग के लिए न केवल शास्त्रों का अध्ययन अपितु उनका श्रवण भी वर्जित था। इससे यह तथ्य भी उभर कर सामने आता है कि कथा तो इनकी अपनी है किन्तु पात्र पौराणिक हैं। मेरी इस धारणा की पुष्टि बाँजाराजा नामक एक हल्बी लोककथा से भी होती है। इस कथा के नायक-नायिका के नाम अलग-अलग वर्ग के कथा-वाचकों की कथाओं में आश्चर्य जनक रूप से भिन्न-भिन्न हैं। बाँजाराजा नामक इस लोककथा में नायिका मँजपुर (मृत्यु लोक) के एक सन्तानहीन राजा (बाँजाराजा) के रूप पर मोहित हो कर अपने पति का त्याग कर उस बाँजाराजा के साथ भाग जाती है। कथा वही है किन्तु अछूत वर्ग द्वारा कही गयी इस कथा में नायिका का नाम लछमी (लक्ष्मी) और नायक का नाम नरायन (नारायण) है, जबकि सवर्णों द्वारा कही गयी इसी कथा में नायिका का नाम सुँदरी बाबी तथा नायक का नाम धनुरजय है। इस लोककथा से दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली यह कि, अछूत वर्ग के बीच लछमी और नरायन उस वर्ग के आचरण के अनुरूप आदर्श पात्र हैं। दूसरी बात यह कि निम्न वर्ग की सामाजिक सोच रूढ़िवादिता से कोसों दूर है। उनके विचारों में खुलापन है। वहाँ नारी स्वतन्त्र है। किन्तु साथ ही एक प्रश्न भी कि क्या यही स्वतन्त्रता है या कि स्वच्छन्दता?
                   इस महाकाव्य से बस्तर के इतिहास पर भी दृष्टिपात किया जा सकता है। दरअसल इसे एक कहानी के रूप में न देख कर इतिहास के रूप में देखना चाहिए। और इस महाकाव्य के माध्यम से इतिहास यही बतलाता है कि इस अंचल में युद्ध की स्थिति नहीं के बराबर ही रही होगी। कहने का तात्पर्य यह कि यह अंचल शान्तिप्रिय रहा होगा। यह महाकाव्य यह तथ्य भी प्रकाशित करता है कि इस अंचल में बहु पत्नी प्रथा रही है और यह भी कि सौतियाडाह से यह अंचल भी अछूता नहीं रहा। नरायन राजा की इक्कीस रानियों द्वारा नयी रानी माहालखी पर ढाए गए जुल्म-ओ-सितम यही तो बतलाते हैं।
                आइये, देखते हैं इस समृद्ध विरासत की एक छोटी-सी झलक। इसका आयोजन एवं अभिलेखन मेरे द्वारा 2008 में अपने निवास पर किया गया था। आयोजन के लिये संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ के पुरातत्व एवं सस्कृति संचालनालय से आर्थिक अनुदान प्राप्त हुआ था, जिसके लिये मैं संचालनालय का आभारी हूँ। विशेषत: संचालनालय के तत्कालीन आयुक्त श्रद्धेय प्रदीप पंत जी तथा उप संचालक श्री राहुल कुमार सिंह जी का। गुरुमायें थीं कोपाबेड़ा की स्व. बरातिन पटेल और बुधनी पटेल तथा जामकोट पारा की देवती पटेल : 






10 comments:

  1. साहित्‍य, परम्‍परा और सभ्‍यता का गौरवशाली पड़ाव.

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  2. 30.11.2012 को डॉ. सी. जया शंकर बाबू (संपादक : युग मानस) ने ईमेल पर लिखा :

    आदरणीय हरिवर वैष्णव जी,
    नमस्कार ।
    सूचना देने के लिए हार्दिक आभार । आपका ब्लाग बहुत अच्छा है । बस्तर के विभिन्न आयामों पर जानकारी के लिए यह एक सशक्त मंच है । युग मानस के पाठकों की सूचना के लिए आपकी सूचना मैंने युग मानस पर दी है । देखने के लिए कृपया यहाँ क्लिक कीजिए ।
    सादर
    डॉ. सी. जय शंकर बाबु
    संपादक, ‘युग मानस’
    ई-मेल – yugmanas@gmail.com
    दूरभाष – 09843508506

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  3. 30.11.2012 को डॉ. रूपेन्द्र कवि (जगदलपुर) ने ईमेल पर लिखा :

    Sadar namaskar.
    Bahut bhut dhanyavad
    aapne wakai bastar bol raha hai ke madhyam se Jagar va jo joli sunakar punah Gurumay se sakchhatkar karwaya our hamari basik cultur ko sunne,dekhne,,our sochne ke liye prerit kiya...Sadhuwad ke sath aapka..Dr rupendra Kavi,,Jagdalpur..Bastar.

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    1. sadar namaskar,, sdaiv hame prerit karte rahiye

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    2. बहुत ही बढ़िया ब्लॉग है सर मुझे आपके ब्लॉग से नित नए ऊर्जा के साथ प्रेरित करने वाला जोश मिलता है जय माँ दंतेश्वरी

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  4. Marilyn Stafford zizicat@ntlworld.com ने लंदन से दिनांक 29.11.2012 को ईमेल के जरिये लिखा :
    DEAR HARIHAR,

    PLEASE EXCUSE THIS LATE REPLY...AGAIN MY COMPUTER HAS BEEN AT THE REPAIR SHOP SO I WAS UNABLE TO LOOK UP YOUR BLOG UNTIL THE COMPUTER CAME BACK.

    IN FACT I HAVE FOUND, BY "GOOGLING" THAT YOU HAVE MANY VERY INTERESTING AND INFORMATIVE SITES REGARDING YOUR IMPORTANT WORK AND THAT IS MOST IMPRESSIVE. I WAS UNABLE TO GET A GOOD TRANSLATION ON MY SYSTEM FROM YOUR BLOG. THE COMPUTER TRANSLATION IS RIDICULOUS....EACH WORD IS TRANSLATED WITHOUT CONTEXT AND IT IS VERY DIFFICULT TO REALLY UNDERSTAND. BUT I AM SURE WHAT YOU ARE WRITING IS WELL WRITTEN AND MOST INTERESTING. WHAT YOU ARE DOING IS ADMIRABLE AND I KNOW THAT YOU WILL CONTINUE WITH IT HAVING MUCH SUCCESS.

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    PLEASE DO KEEP ON WITH YOUR WORK...IT IS VERY IMPORTANT.

    MANY WARM REGARDS ON A VERY COLD AND FROSTY DAY
    MARILYN

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  5. adarniya vaishanav ji "Laxmi jagar wale" kaha jaye to atisyokti na hoga,,mai is informative lekh sun va padh kar labhanvit hua

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आपका हार्दिक स्वागत है, आपकी सार्थक टिप्पणियाँ मेरा मार्गदर्शन करेगी