Friday, 30 August 2013

हाशिये पर रहे साहित्य-ऋषि लाला जगदलपुरी


साहित्य-सेवा को तन-मन-धन से समर्पित, यहाँ तक कि इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये चिर कुमार रहे लालाजी (लाला जगदलपुरी) का देहावसान साहित्य-जगत के लिये एक अपूरणीय क्षति बन कर रह गयी है। अपने लेखन ही नहीं अपितु अपने मौखिक ज्ञान और अनुभव से साहित्यकारों की नयी-पुरानी पीढ़ी को सींचते उन्होंने लेखन के क्षेत्र में जीवन के लगभग आठ दशक व्यतीत कर दिये किन्तु समाज ने उन्हें उनकी साहित्य-साधना और तपस्या के लिये क्या दिया? ऐसा नहीं है कि साहित्य-जगत के पुरोधा उन्हें नहीं जानते। जानते सभी हैं। सभी ने उनके बस्तर सम्बन्धी ज्ञान और अनुभव का भरपूर लाभ भी लिया और अपने-अपने तरीके से उसका उपयोग भी किया किन्तु जिस तपस्वी से सब-कुछ पाया वे उसे ही हाशिये पर धकेलने में लगे रहे। जब कभी बस्तर सम्बन्धी कोई जानकारी लेने का समय आया, लालाजी सभी को याद आये किन्तु जब कभी सम्मान या पुरस्कार देने का समय आया, वे किसी को भी याद नहीं आये। नाम गिनाना यानी घाव को कुरेदना है। इसलिये बिना नाम लिये कहना होगा कि बस्तर की बात आते ही लालाजी को याद करने वाले महारथियों ने भी लालाजी के प्रति सदाशयता नहीं दिखायी। यह तो भला हो श्री रमेश नैय्यर जी,  श्री मुकुन्द हम्बर्डे जी और श्री अशोक पारख जी का कि 2004 के पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मान (राज्य सम्मान) के लिये निर्णायक मण्डल में सम्मिलित इन महानुभावों ने लालाजी का नाम सर्वसम्मति से तय किया अन्यथा शायद यह सम्मान भी उनके हिस्से में नहीं आता। बस्तर का जन इन सभी का हृदय से आभारी है। हम आभारी हैं बस्तर विश्वविद्यालय के यशस्वी कुलपति प्रोफेसर (डॉ.) एन. डी. आर. चन्द्र जी के भी जिन्होंने लालाजी को डी. लिट्. की मानद उपाधि से अलंकृत करवाने के प्रयास अपने स्तर पर किये। यह अलग बात है कि यह उपाधि उन्हें उनके जीवन-काल में नहीं मिल पायी। पद्मश्री के लिये न तो शासन स्तर पर कोई प्रयास हुए और न ही स्वनामधन्य साहित्यिक संस्थाओं अथवा जनप्रतिनिधियों की ओर से कभी कोई पहल की गयी।

17 दिसम्बर 1920 को जगदलपुर में जन्मे, 1936 से लेखन प्रारम्भ करने वाले लालाजी की रचनाएँ 1939 से देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। स्तरीय और प्रामाणिक लेखन, जिसकी कोई सानी नहीं। जीवन के 93 वें वर्ष में 14 अगस्त 2013 की शाम 7.00 बजे उन्होंने इस संसार से विदा ले ली। उनके देहावसान की खबर को न तो प्रिन्ट मीडिया ने और न इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने ही तवज्जो दी। यह शिकायत नहीं कड़वी सच्चाई है जिसे भोगना साहित्यकार की नियति है। विशेषत: बस्तर जैसे "पिछड़े" अंचल के साहित्यकारों को तो यह भोगना ही पड़ेगा; कारण चाहे जो हों। तभी मैं कई बार सोचने लगता हूँ, "साहित्यकार! तेरी क्या बिसात?" साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहा जाता रहा है। साहित्यकार को "ओपिनियन मेकर" कहा जाता रहा है। बेकार बात है यह। फालतू है यह कहना और सोचना। कौन पूछता है साहित्यकार को? हाँ, फर्जी और जुगाड़ू तथाकथित साहित्यकारों की बात अलग है। उनकी पूछ-परख उनकी चाटुकारिता की वजह से हर जगह होती है। उनके प्रायोजित सम्मान भी होते हैं। किन्तु हमें गर्व है कि लालाजी न तो फर्जी और जुगाड़ू साहित्यकार थे और न प्रायोजित सम्मान में सहभागी। ऐसे स्वाभिमानी और सच्चे साहित्यकार को, ऐसे युगपुरुष को, ऐसे साहित्य-ऋषि को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि। मेरा शत-शत् नमन। 
छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद् की कोंडागाँव जिला इकाई ने पिछले दिनों स्व. लालाजी की पुण्य स्मृति में बस्तर सम्भाग के साहित्यकारों को प्रतिवर्ष "इन्द्रावती सम्मान" से अलंकृत करने की घोषणा की है, जिसका हार्दिक स्वागत है। क्या राज्य शासन या प्रादेशिक स्तर पर गठित और संचालित तथाकथित स्वनामधन्य महान साहित्यिक संस्थाएँ लालाजी की पुण्य स्मृति में कोई राज्य स्तरीय सम्मान या किसी शोध अथवा सृजन पीठ की स्थापना करना उचित समझेंगी? क्या कोई लालाजी की कृतियों के समुचित मूल्यांकन के लिये आगे आने का प्रयास करेगा? 

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