Sunday, 27 May 2012

नन्हें कन्धों पर जीवन का बोझ


आज नवभारत, 26 जुलाई 1984 अंक में प्रकाशित यह रपट : 


आज जब सारे के सारे जंगल काट लिये जा रहे हैं, न केवल बड़े शहरों में बल्कि सुदूर गाँवों में भी ईंधन के लिये लकड़ी की भारी कमी से लोगों को दो-चार होना पड़ रहा है। हालांकि शहरी इलाक़ों में टाल, फ्युल डिपो और निस्तार डिपो आदि की व्यवस्था की गयी है, किन्तु फिर भी यह समस्या मुँह बाए खड़ी है। जंगल के कानून कठोर से कठोरतम हो गये हैं। स्वयं जंगल विभाग के लोगों को भी जलाऊ के लिये काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। वहीं यह भी सत्य है कि इस इलाके से आन्ध्रप्रदेश के लिये रोजाना काफी कीमतों पर जलाऊ के ट्रक जा रहे हैं। जिनके पास साधन हैं, उन्हें तो खैर इसकी कोई विशेष चिन्ता नहीं है, किन्तु जो लोग अल्प आय वाले हैं, उन्हें पाँच रुपये (कांकेर में तो दस रुपये) काँवड़ में जलाऊ खरीदना काफी महँगा पड़ रहा है। जलाऊ की किल्लत को देखते हुए लोगों ने प्रेशर कुकर या गोबर गैस संयत्र आदि का प्रयोग करना शुरु कर दिया है। किन्तु यह सुविधा भी हर आदमी नहीं मोल ले पाता और अब उसकी परेशानी निरन्तर बढ़ती जा रही है।
उपभोक्ता की परेशानी तो अपनी जगह है ही, किन्तु उनसे भी अधिक कष्ट है तो लकड़हारों को। विशेषत: उन मासूम लकड़हारों के लिये यह एक जानलेवा समस्या बन गयी है जो कम उम्र के हैं और अभी जिनके खेलने-खाने के दिन हैं। बाहर की बात मैं नहीं जानता, किन्तु यहाँ, बस्तर में, आप देखेंगे आठ-नौ वर्ष की उम्र के बच्चों से ले कर पचास-साठ वर्ष के बूढ़े तक इस व्यवसाय से गहरे जुड़े हैं। यही इनकी आजीविका का प्रमुख साधन है। आदिवासी, जो जंगलों में रहते हैं, अपनी आजीविका के लिये या तो वनोपज संग्रहण करते हैं या फिर जलाऊ बेचने का काम। बहुत से लोगों को यह काम विरासत में ही मिल जाता है। वनोपज-संग्रहण में इनका जितना शोषण हमने किया है, वह इतना स्याह है कि चाह कर भी वे हमें कभी माफ नहीं कर सकते।
बस्तर के कुल आदिवासी-हरिजनों में से लगभग बीस फीसदी लोग जलाऊ इकट्ठा करने से बेचने के काम में लगे हैं। इसमें भी 8 से 15 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों की तथा 45 से 50 वर्ष के लोगों की संख्या ज्यादा है। युवक या तो हमाली या अन्य निर्माण-कार्यों में लगे हुए हैं तथा अधिसंख्य युवतियाँ अन्य विभागीय निर्माण-कार्यों, जैसे लोग निर्माण विभाग, वन विभाग या सिंचाई विभाग के अन्तर्गत कार्य करती हैं। प्रौढ़ एवं वृद्धाएँ सालबीज, महुआ, टोरा आदि वनोपज के संग्रहण में लगी हैं। खेती के काम में भी ये लोग दखल रखते हैं, किन्तु अधिकांश लोगों के पास उनकी खुद की खेती नहीं है। वे दूसरों (अमूमन गैर आदिवासियों) के खेतों में मजूरी करते हैं।
पिछली बार, सम्भवत: 1981-82 में किसी शासकीय योजना के तहत लकड़हारों को अधिकतम लाभ दिलाने के विचार से उन्हें शासकीय काष्ठागारों से 7 रुपये प्रति Ïक्वटल की दर पर बिना चिरी जलाऊ लकड़ी उपलब्ध करायी जा रही थी। योजना यह थी कि लकड़हारे उस लकड़ी को फाड़ कर उपभोक्ताओं को बेचें और शाम को लकड़ी की कीमत 7 रुपये काष्ठागार प्रभारी को अदा कर दें। शेष लाभ लकड़हारों का होगा। किन्तु इस प्रक्रिया से भी लकड़हारों को कोई उल्लेखनीय लाभ, जैसा कि सोचा गया था, नहीं हुआ और लकड़हारे पुन: जंगल से ही लकड़ी ला कर बेचने लगे।
और अब ऐसा नहीं रह गया है कि गाँव के आसपास किसी जंगल से लकड़ियाँ चुनीं और लाकर बेची जा सकें। अब तो लकड़हारों की जान साँसत में पड़ गयी है। आसपास जंगल कहीं नजर ही नहीं आते। साथ में पेज का तुम्बा या बासी भात की पोटली लेकर दूर-दराज के जंगलों में जाना पड़ता है। सुबह जो आदमी जंगल जाता है वह इकट्ठे शाम को ही वापस आ पाता है। जो जल्दी लौट गया वह तो शाम को ही अपनी लकड़ी बेच कर फुरसत पा लेता है, किन्तु जो अँधेरा होने के साथ-साथ या उसके बाद वापस होते हैं, वे दूसरे दिन सुबह ही उसे बेच पाते हैं। फिर सरकारी नुमाइन्दों के उन पर पड़ने वाले दबाव का भय भी उन्हें हमेशा सताता रहता है। कभी काँवड़ की लकड़ी उतार कर घर पर रखवा ली जाती है और कभी कुल्हाड़ी छीन कर उनकी पिटाई तक कर दिये जाने की घटना एक आम बात है। 
आइये, जलाऊ बेचने वाले चंद कम उम्र लकड़हारों से बातचीत करने के बहाने इनकी जिंदगी में झाँकने का प्रयास करें और सोचें कि जब हम इन कम उम्र बच्चों को डरा-धमका कर इनके काँवड़ जबरन उतरवा लेते हैं और उनकी मेहनत के अनुपात में उन्हें कम पैसे थमा कर आत्मतुष्टि महसूसते हैं तब हम कितने मानवीय रह जाते हैं? और तब हमारा सोचना और भी लाजमी हो जाता है जब हमें यह मालूम हो जाए कि ये अधिकांश बच्चे मातृ-हीन या पितृ-हीन हैं और उनके जीवन की एक यही बड़ी भारी कमी ही उन्हें अपनी और अपने परिवार की आजीविका के लिये अपने नन्हें कन्धों पर भारी बोझ ढोने को बाध्य करती है।
संतूराम की उम्र है 12 वर्ष। घर में और तीन भाई तथा एक बहन है। संतूराम के पिता की मृत्यु हो चुकी है। वह तीसरी कक्षा में पढ़ता है। छुट्टी के दिनों में जंगल से लकड़ी ला कर बेचता है। एक काँवड़ जलाऊ की कीमत है पाँच रुपये।
"तुम लकड़ी क्यों बेचते हो?"
"हमारे पास खेती-बाड़ी नहीं है। मेरे पिता भी नहीं हैं। घर का खर्च चलाने के लिये मैं लकड़ी बेचता हूँ।" संतू बतलाता है।
"तुम स्कूल भी जाते हो, तब लकड़ी बेचने के काम से तुम्हारी पढ़ाई नहीं रुकती?"
"नहीं। मैं स्कूल के दिन लकड़ी नहीं बेचता। छुट्टी के दिन जंगल से लकड़ी ला कर बेचता हूँ।"
"अच्छा, लकड़ी लेने वाले मोल-भाव करते हैं या तुम्हारे बताए भाव पर ही लकड़ी ले लेते हैं?"
संतू कहता है, "हमें बच्चा समझ कर भाव कम कराते हैं। लेकिन हमें रुचता नहीं। लोग तो साढ़े तीन-चार रुपये में दो, कहते हैं। कहते हैं कि गट्ठा छोटा है, लकड़ी भी कम है। कई लोग डराते भी हैं। यहाँ तक कि जबरदस्ती काँवड़ खींच कर उतार लेते हैं।" कहते हुए वह रुँआसा हो उठता है।
"तो क्या तुम चुपचाप उन्हें लकड़ी दे देते हो?"
"नहीं, हम वहाँ से हटते ही नहीं। लेकिन ज्यादा डराने पर, वे जितना पैसा दें उसे लेकर चुपचाप चला आना भी पड़ता है।"
"तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें लकड़ी बेचने से मना नहीं करते?"
"मना क्यों करेंगे? हम तो उस पैसे को घर में देते हैं। उससे दाल-चावल लिया जाता है न!"
संतूराम गर्मियों और दशहरा-दीपावली आदि की छुट्टियों का पूरा उपयोग लकड़ी बेचने में ही करता है।
तेलंगू नामक एक बालक भी, जिसकी उम्र 10 वर्ष के आसपास है, पितृहीन है। घर में उसकी माँ के अलावा एक भाई और एक बहिन है। वह स्वयं तो पढ़ाई नहीं कर रहा है किन्तु उसका छोटा भाई गाँव के स्कूल में पढ़ने जाता है। वह कहता है कि वह अपने छोटे भाई को "आगे तक" पढ़ाएगा। यह कुछ कम वजन की लकड़ियों का काँवड़ लाता है और चार रुपये में बेचता है।
"तुम जो लकड़ी लाते हो, उसे अपने गाँव में बेचते हो या यहाँ, कोंडागाँव में?"
"वहाँ कौन खरीदेगा लकड़ी? गाँव में तो सभी लोग अपने-अपने लिये खुद ही ले आते हैं। इसलिये हमें यहीं कोंडागाँव में ही बेचने के लिये आना पड़ता है।"
"तो आराम से बिक जाती है या काफी घुमाना-फिराना पड़ता है?"
"नहीं। ज्यादा घूमना नहीं पड़ता। लेकिन सही भाव न मिलने पर किसी-किसी रोज बहुत भटकना पड़ता है।"
"तुम पढ़ने क्यों नहीं जाते...तुम्हारे गाँव में तो स्कूल है न?"
"हाँ, स्कूल तो है। मेरे एक-दो साथी पढ़ते भी हैं। परन्तु मैं नहीं पढ़ता।"
"क्यों?"
"घर वाले गाली देते हैं। हमारे पास खेती-बाड़ी भी नहीं है।"
"कितने साल से यह काम कर रहे हो?"
"दो साल हो गये।"
"रोज लाते हो?"
"हाँ, रोज लाता हूँ तभी तो घर का खर्च चलता है।"
सुदूराम के साथ भी यही समस्या है। उसके भी पिता नहीं हैं। दो वर्ष पहले उनकी मृत्यु हो गयी। तब से वह लकड़ी बेचने का काम कर रहा है। माँ और एक भाई है। वह पढ़ रहा है। दूसरी कक्षा में है। लेकिन वर्ष में आधे से अधिक दिनों तक वह स्कूल जा ही नहीं पाता। जलाऊ के काँवड़ लिये कोंडागाँव आना उसकी विवशता है। वह बतलाता है कि पहले वह छुट्टी के दिनों में ही लकड़ी बेचा करता था। किन्तु जब उसके घर की आर्थिक स्थिति काफी प्रतिकूल हो गयी तब उसे स्कूल से भाग कर भी जलाऊ बेचने के लिये विवश होना पड़ा।
"क्या तुम्हारी माँ कोई काम नहीं करती?"
"करती तो है। मजदूरी करती है। लेकिन उससे क्या होता है?" वह कहता है।
"तुम स्कूल से भाग कर लकड़ी बेचते हो। गुरुजी तुम्हें डाँटते नहीं?" प्रश्न सुन कर वह चुप हो जाता है। उसकी चुप्पी का स्पष्ट अर्थ है, उसकी स्वीकृति। किन्तु डाँट के भय से पेट की भूख न भाग सकती है और न भगाई ही जा सकती। वह कहता है कि ज्यादा गाली-वाली देने पर स्कूल कभी नहीं जाएगा और पढ़ाई छोड़ देगा। केवल पढ़ाई-लिखाई से ही तो काम नहीं चलेगा। पेट भी तो भरना है, न!
फूलचंद की उम्र है 9-10 वर्ष के आसपास। यानी इन सभी बच्चों में सब से कम उम्र का है यह। छोटा भाई पढ़ता है परन्तु वह स्वयं पढ़ाई नहीं कर रहा है। लकड़ी बेचना इसका रोज का काम है।
"तुम्हारा छोटा भाई पढ़ता है। तुम क्यों नहीं पढ़ते?"
"घर वाले मना करते हैं। कहते हैं, दो-दो जने पढ़ कर क्या करोगे? तुम लकड़ी बेचो।"
"तुम्हारे पिता तो काम करते होंगे न?"
"नहीं। वो कोई काम नहीं करते। बस, शराब पी कर झगड़ते हैं खूब। माँ काम पर जाती है। एक बार गाँव के लोग पिताजी को खूब डाँटे तब पिछली बार वो ईंट बनाने का काम कर रहे थे। लेकिन वह भी कुछ दिनों तक ही।"
"तुम यह काम कब से कर रहे हो?"
"एक साल से।"
"तो पूरा पैसा तुम घर में ही दे देते हो?"
"हाँ। कभी-कभी दवाई वगैरह भी खरीद कर ले जाना पड़ता है। अभी भी आठ आने की दवाई ले जाना है। किसी-किसी रोज दो-चार आने की मिठाई भी खा लेता हूँ।"
"कौन सी मिठाई खाते हो?"
"चना-लाई या फिर बिस्कुट-पिपरमेंट।"
"कभी खेलते-वेलते भी हो या नहीं?"
"खेलते हैं न। खो-खो, कबड्डी या गिल्ली-डंडा वगैरह खेल लेते हैं।"
पीलाराम के माता-पिता दोनों हैं। एक भाई भी है। वह अपने पिता के रहते हुए भी लकड़ी बेचता है। इसकी उम्र है लगभग 12 वर्ष। वह बतलाता है कि उसे लकड़ी बेचने में खुशी होती है और वजन ढोना भी अच्छा लगता है। पढ़ाई में न उसकी रुचि है और न उसके घरवालों की। उसके यहाँ पाँच एकड़ खेती है और वह स्वयं भी हल चला लेता है। खाने को तो उनकी खेती और माँ-बाप की कमाई से पूरा पड़ जाता है किन्तु कपड़ों के लिये उसका काम करना ज़रूरी है। इसलिये वह इस काम में लगा हुआ है।
सरादू की उम्र है दस साल। वह अपने पाँच भाई-बहनों और माँ-बाप के साथ रहता है। उसके सभी भाई मजदूरी करते हैं। माँ और बहनें भी करती हैं किन्तु पिता कोई काम नहीं करता। वह बतलाता है कि लकड़ी बेच कर पैसा कमाना उसके लिये इसलिये ज़रूरी है क्योंकि उसके घरवाले कहते हैं कि इतना बड़ा लड़का क्या बिना काम किए, बैठे-बैठे खाएगा? भाई लोग जो कमाते हैं, वह उनके अपने लिये ही पूरा नहीं पड़ता। हालांकि वह पूरे वर्ष भर लकड़ी नहीं बेचता, स्कूल में पढ़ता भी है। तीसरी कक्षा में है। छुट्टी के दिनों में लकड़ी बेचता है।
वह कहता है, "जंगल से लकड़ी लाने पर नाकेदार लोग डराते हैं। टँगिया (कुल्हाड़ी) छीन लेते हैं। मुफ्त में लकड़ी देने को कहते हैं।" 
इसी तरह बारह वर्षीय रैसिंग भी पढ़ाई करने के साथ-साथ छुट्टी के दिनों में यह काम करता है। इस साल वह तीसरी कक्षा में पढ़ रहा है। उसके माँ-बाप तो हैं ही, दो भाई भी हैं। एक घर पर रह कर मजदूरी करता है और दूसरा काष्ठागार में हमाली। 
ये सभी बाल लकड़हारे कोंडागाँव के पास सम्बलपुर नामक गाँव के हैं। सम्बलपुर से कोंडागाँव तक 5-6 किलोमीटर की दूरी अपने नन्हें कन्धों पर भारी वजन लिये तय करते हैं और अपनी, अपने परिवार की आजीविका जुटाते हैं। चाहे कड़कड़ाती ठण्ड हो, चिलचिलाती धूप या घनघोर बरसात, इनका यह काम निरन्तर जारी है और शायद ये आजीवन यही काम करते रहेंगे। इस काम से केवल सरादू, रैसिंग, फूलचंद, पीलाराम, सुदू, तेलंगु या संतूराम ही नहीं जुड़े हैं, बल्कि और भी कई बच्चे हैं जो लगभग इन्हीं की आयु-वर्ग के हैं। ये बच्चे हैं लखमू, मंगतू, चंदरु, मंगिया, सोनधर, कमलू, चैतन और बहुत सारे अन्य लोग। लगभग सभी के साथ एक सी समस्या है। अधिकांश बच्चों के माता-पिता में से कोई एक नहीं है और कई बच्चों के तो न माँ है न पिता। कितनी बड़ी त्रासदी से गुजर रहे हैं ये बालधन! एक दिन में केवल एक काँवड़ जलाऊ बेच कर चार से पाँच रुपये तक प्रति दिन कमाते हैं और अपने परिवार के भरण-पोषण में किसी प्रौढ़ की तरह जी-जान से जुटे हुए हैं। इस उम्र में इतनी प्रौढ़ता इन्हीं विपरीत परिस्थितियों ने ही पैदा की है जो कम से कम हमारे बच्चों में, जो अनेक सुविधाओं के जाल में अँटे पड़े हैं; कभी भी नहीं आ सकती। किन्तु यह भी सत्य है कि बाल-सुलभ चंचलता और हँसमुखता का इस तरह लोप हो जाना भी इन कामकाजी बच्चों के भविष्य के प्रति आशंकाएँ ही पैदा करता है। तब प्रश्न यह पैदा होता है कि आदिवासियों के विकास के लिये जी-जान से जुटी सरकार को क्या पहले इन आदिवासी बच्चों के लिये नहीं सोचना चाहिये? क्या यह एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा नहीं है? और यह भी कि अन्तर्राष्ट्रीय बाल-वर्ष ने इन्हें क्या सौगात दी.....? 

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