इस बार प्रस्तुत है यह कहानी :
सोनू बड़ा परेशान था। इधर पाठशाला के लगने का समय होता जा रहा था और उसकी माँ थी कि अभी तक ऊपर पारा से धान कूट कर लौटी ही नहीं। कभी-कभी उसे अपने ऊपर बहुत खीझ हो आती। यह भी कोई ज़िन्दगी है कि एक ढेकी तक नहीं है घर में। धान कूटना हो तो कोस भर दूर अपनी ही जाति के दूसरे किसी व्यक्ति के घर जाना विवशता ही है। गाँव के दूसरे ऊँची जात वाले लोगों के घर तो वो लोग जा ही नहीं सकते। कोई पीछे से आ रहा हो तो अपने को उनके लिए रास्ता छोड़ देना पड़ता है। पीने के लिये पानी दो कोस से भी अधिक दूरी पर बहती नदी से लाओ या फिर गाँव के गन्दे तालाब का पानी पियो। वह सोचता; क्या ऐसा नहीं हो सकता कभी कि उसके घर में भी ढेकी लगा ली जाए? परन्तु यह कैसे होगा! उसके बाबा गाँव के मुखिया और पटेल-सरपंच के लिए जब जंगल से गाड़ी भर-भर कर लकड़ी ला कर देते हैं तब तो नहीं पकड़ते ये पाइक लोग उन्हें। ...और अपने घर के लिए एकाध लकड़ी ले आएँ तो भला क्यों इन्कार? लेकिन नहीं! बाबा तो मानते ही नहीं। कहते हैं, पाइक लोगों को तुम नहीं जानते। गाँव के सब बड़े लोग उन्हें बहुत मानते हैं, इसलिए पाइक लोग भी इनका कोई काम नहीं रुकने देते। हम छोटे लोग हैं बेटा, करम से भी और धरम से भी।
ऐसे में सोनू को अपने से बड़ी चिढ़-सी हो आती। तब उसे अनायास ही अपने बोड़ू की याद आ जाती। भीमकाय देह, जैसे सागौन का भरा-पूरा पेड़। कन्धे पर हमेशा झूलता हुआ टँगिया और लाल-लाल आँखें; जैसे फरसा का फूल। गाँव तो गाँव, आली-पाली के लोग तक उनसे दबते थे। इसी पाठशाला की बात लें। कितनी उठा-पटक की थी गाँव के तथाकथित मुखियों ने। कमर कस ली थी पाठशाला के विरोध में। कहते थे, गाँव के बच्चों को ये गुरुजी लोग बिगाड़ डालेंगे। कामकाजी बच्चों को सारा दिन पाठशाला में बन्द कर रखने से हमारा भारी नुकसान होगा। उनकी देखा-देखी गाँव के अन्य लोग भी ऐसी ही बातें करने लगे थे। गुरुजी को मारपीट कर गाँव से भगाने की पूरी साज़िश भी रच डाली गयी थी। लेकिन ऐन वक़्त पर उसके बोड़ू सामने आ गये थे। सन् दस में हुए भुम्काल में सक्रिय रूप से भाग ले चुके थे। लाल बाबा के ख़ास आदमियों में से थे। उन्होंने दुनिया देखी थी। काफ़ी अनुभव था उनको। उन्होंने लोगों को समझाया था। उस दिन की एक धुँधली सी याद अभी भी है उसके मस्तिष्क में :
"क्यों दादा, पढ़ाई-लिखाई से क्या हो जाएगा भला?" सरपंच ने तब यथा सम्भव विनम्र होते हुए उनसे पूछा था।
"गियान मिलेगा। अपना नँगत-गिनहा बिचारने लायक दिमाक बनेगा।" बोड़ू ने कहा था। फिर ज़्यादा बहस न करते हुए अपना निर्णय सुना दिया था : "यहीं, थानागुड़ी के पास ही बनेगा इस्कुल। गाँव वाले मिल कर इस्कुल के लिए झोपड़ी बनाएँगे।" और वे बैठक से उठ गए थे। किसी में भी हिम्मत नहीं थी कि उनकी बात काट देता। आख़िर गाँव वालों को इस्कुल के लिए झोपड़ी बनानी ही पड़ी। गुरुजी के रहने के लिए बोड़ू ने अपने घर पर ही एक खोली दे दी थी। जब तक वे ज़िन्दा थे, गाँव में सुमता बना रहा। गाँव के किसी कमज़ोर आदमी के साथ न तो कोई मनमानी कर सकता था और न उनसे बेग़ारी करा पाने का किसी में साहस ही था। उनकी असमय मृत्यु के साथ ही गाँव की एकता भी बिखर गयी। गाँव के सम्पन्न लोगों और तथाकथित मुखियों को मनमानी करने की खुली छूट मिल गयी। बोड़ू ने अपने जीवन-काल में घर का सारा धान-पान समाज-सेवा में लगा दिया था। अन्याय तो वे पल भर को भी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। उनसे किसी का दु:ख नहीं देखा जाता था। जहाँ उसके बोड़ू निर्भीक और साहसी थे, वहीं उसके बाबा हद दर्ज़े तक दब्बू और असहाय क़िस्म के व्यक्ति।
उसने अतीत की यादों को एक झटका दिया और बाहर निकल कर आकाश की ओर ताका। सूरज ऊपर चढ़ रहा था। उसने चढ़ते सूरज से यह भाँप लिया था कि अब पाठशाला की पहली घण्टी बजने ही वाली है। बाबा को यों अकेले कराहते छोड़ कर जाने का वह मन नहीं बना पा रहा था। फिर उसने अपने-आप को सान्त्वना दी, "सिरहा तो अभी-अभी झाड़-फूँक कर गया है। थोड़ी-सी राहत तो मिल ही गयी होगी बाबा को। आया भी अब आती ही होगी। चलो, चल कर बाबा को समझा दूँ और पाठशाला चला चलूँ। देर होगी तो पाठ निकल जाएगा।" नहीं, नहीं वह एक भी पाठ नहीं छोड़ना चाहता। उसे पूरी लगन के साथ पढ़ना है। उसके बोड़ू और बाबा के सपने को साकार करना है।
वह भीतर आ गया। पिता के पास पहुँच कर उनका हाथ थाम लिया और धीरे से बोला : "बाबा, मैं पाठशाला जा रहा हूँ। बहुत देर हो गयी है।"
"हाँ बेटा, जा। अभी तक क्यों नहीं गया?" पिता ने अस्फुट-से स्वर में कहा। तभी बाहर से कोटवार की आवाज़ सुनायी पड़ी
"कौन है?" कहता वह बाहर निकल आया।
"तेरा बाप है, रे?" कोटवार लगभग चीख़ा।
"हाँ, हैं।"
"ज़रा बुला तो बाहर।"
"उन्हें तीन रोज़ से बुख़ार है। डसना में पड़े हैं। उठ नहीं पाते।" वह जल्दी-जल्दी बोला था।
लेकिन कोटवार ने जैसे सुना ही न हो। उसे परे धकेलते स्वयं ही झोपड़ी के भीतर घुस आया था। "क्यों? बहाना बना रहा है! चल उठ! बड़े साहेब का सामान दूसरे गाँव तक पहुँचाना है।" एक ही साँस में वह बोल गया था।
कथरी में से सिर निकाल कर उसके बाबा ने पहले तो उसे ताका, पहचाना, फिर मरी हुई आवाज़ में कहा : "तीन दिन से जर के मारे डसना पकड़े पड़ा हूँ। जाँगर में ताकत नहीं रह गयी है। नहीं चल पाऊँगा, कोटवार।"
"देख रे! यह बहाना फिर कभी बनाना। आज तो चलना ही पड़ेगा।" कोटवार हुज्जत पर उतर आया था।
"चाहो तो मार डालो, पर मैं नहीं जा पाऊँगा। माट्टी किरिया कोटवार। जाँगर थक गया है, एकदम।" उसके बाबा ने असहाय हो कर कह दिया।
"मैं अच्छी तरह जानता हूँ, तेरे बहाने को। किरिया खाने में तो ओस्ताज है रे तू।" कोटवार का स्वर विषैला प्रतीत हो रहा था।
सोनू देहरी पर खड़ा-खड़ा सोच रहा था। ये वही लोग हैं जिन्हें उसके बोड़ू के रहते उनके सामने मुँह तक खोलने की हिम्मत नहीं होती थी। और आज कैसे बाघ बने दहाड़ रहे हैं...। सच! समय बदलते देर नहीं लगती।
"अच्छा, अच्छा ठीक है। ऐसा कर, तू न सही तेरे इस लेका को भेज दे। थोड़ा-सा ही तो सामान है। पहुँचा देगा।" कोटवार कह रहा था।
"वह, वह तो पढ़ने जा रहा है।" मरी हुई आवाज़ में उसके बाबा बोले।
"पढ़ने जा रहा है...?" शब्दों को चबाते हुए व्यंग्य पूर्वक बोला था कोटवार : "पढ़-लिख कर लाट साहब बनेगा क्या...? और फिर आज एक दिन के लिए इस्कुल नहीं भी गया तो क्या डोंगरी गिर जाएगा उसके ऊपर?"
उसके बाबा ने उसकी ओर असहाय दृष्टि से देखा। उसने हाथ में रखी स्लेट दीवार से सटा कर रख दी और कोटवार के साथ जाने को तैयार हो गया। कातर आँखों से ताकते उसके बाबा के मुँह से घरघराती आवाज़ निकली थी : "रहम करो कोटवार। यह नन्हा-सा लेका कैसे उठा पाएगा बड़े साहेब के सामान का बोझ...?"
कोटवार ने सुना तो बमक उठा : "क्यों बकवास कर रहा है, डोकरा? न ख़ुद जाने को तैयार है, न लड़के को जाने दे रहा है। यहाँ कौन तेरा बाप बैठा है, जो आएगा?" और उसे लगभग घसीटते हुए ले कर बाहर निकल गया। तब उसे लगा था, काश! वह थोड़ा बड़ा होता। बिल्कुल अपने बोड़ू की तरह फरसा उठा कर दौड़ पड़ता कोटवार के सिर पर। उसे अपने बाबा पर भी क्रोध आ रहा था। बोड़ू-सी मर्दानगी उनमें तिल भर भी नहीं थी। निरे कायर हो कर ही तो रह गए थे वे। सायगोन और सरगी की तरह छाती तान कर खड़े होने की बजाय लाजकुड़िन की तरह अपने आप में सिमट जाने का लिजलिजापन ही तो समा गया था उनमें।
रास्ते भर चुपचाप चलता रहा। थानागुड़ी पहुँच कर देखा, बड़े साहेब खाट पर बैठे सल्फी पी रहे थे। पटेल-सरपंच हाथ बाँधे एक ओर खड़े थे। मँगतू मामा की जवान लड़की सायती भीतर भोजन राँध रही थी। बड़े साहब रह-रह कर उधर ताक लेते और जाने कैसे-कैसे इशारे भी कर देते।
कोटवार ने उसे धकियाते हुए भीतर पहुँचा दिया और झापी की ओर इशारा करते हुए कहा : "वो देख, काँवड़ रखा हुआ है। सज कर और आगे-आगे निकल चल। नदी उस पार वाले गाँव में पहुँचाना है। सीधे थानागुड़ी में ही पहुँचाना। समझे?" वह सामान देख कर चौंक गया। किंतु कोटवार को इसका अहसास न होने दिया। ऊपर से कहा, "ठीक है।"
कोटवार बाहर आँगन में चला गया।
उसने काफी जोर लगा कर झापियाँ उठायी और काँवड़ सज कर लिया। लेकिन काँवड़ उठा पाना उसके लिए सम्भव नहीं हो पा रहा था। काफी जोर आजमाईश के बाद भी काँवड़ उससे न उठा। उसके नन्हे चेहरे पर सावन के महीने में भी पसीने की बूँदें छलछला आयीं। विवशता और आतंक के कारण उसकी आँखें भी भर आयी थीं। वह जानता था, कोटवार से कुछ कहने का कोई मतलब ही न होता। तभी कोटवार ने उसे पुकारा। वह काँवड़ वहीं छोड़ कर आँगन में निकल आया। बड़े साहब सल्फी के नशे में उससे पूछने लगे थे :
"क्या नाम है रे, तेरा?"
"ज् ज् ज् जी सोनू।" वह हकलाता हुआ बोला।
"तेरा बाप क्यों नहीं आया रे.....?" साहब ने कड़े स्वर में पूछा था।
"जी, वो बीमार हैं।" उसने हकलाते हुए, दीन स्वर में जवाब दिया।
"क्यों, क्या हो गया है?" साहब ने सल्फी का गिलास खाली करते हुए लापरवाही से पूछा।
"बुखार है साहब, तीन दिन से।" उसका स्वर रुआँसा हो गया था।
"तू उठा पाएगा काँवड़.....?" साहब ने मुर्गे की टँगड़ी चबाते, अविश्वास से पलकें झपकाते हुए पूछा था।
".............." वह सिर नीचा कर चुप हो गया। कुछ बोलते नहीं बना उससे।
"अरे, बोलता क्यों नहीं। गूँगा है क्या.....?" बड़ी तीखी आवाज थी साहब की। इसके पहले कि सोनू कुछ बोलता, कोटवार बोल उठा था, "उठा लेगा साहब। यही काम करते चले आ रहे हैं ये लोग।"
सरपंच को सोनू के बोड़ू की याद आ गयी थी। व्यंग्य से बोला था : "यह तो साहब बनने के सपने देख रहा है, हजूर। इस्कुल में पढ़ता है....। इसके बोड़ू ने बनवाया था न।"
उसे लगा था, सरपंच के मन में बरसों से जमा मैल बाहर निकल रहा है।
"अच्छा.....! पढ़ता है.....?" साहब भी व्यंग्य से मुस्कराए थे, "क्या करेगा रे पढ़ कर.....?"
"तसिलदार बनूँगा।" उसके मुँह से जाने कैसे यकायक निकल गया। सभी ही-ही करके हँसने लगे। उसे लगा, वह गलत बोल गया है। उसके बोड़ू उससे यही कहा करते थे, "तुझे पढ़ा-लिखा कर तसिलदार बनाऊँगा।" शायद उसके अवचेतन में रह गयी वही बात आज फूट पड़ी थी। वह उन्हें हँसता देख वहाँ से हट गया था। तब से लगातार सोचता रहा और मन ही मन दुहराता रहा, "मैं तसिलदार बनूँगा।"
"अब वहाँ खड़ा-खड़ा क्या मुँह ताक रहा है? चल जल्दी से काँवड़ उठा और भाग।" कोटवार उसकी ओर बाज की तरह झपटा था।
वह कमरे में वापस पहुँचा तो वही भारी-भरकम बोझ सामने था। जानता था, "नहीं" कहा और कोटवार उसके देव-धामी तक को नहीं छोड़ेगा। थोड़ी देर खड़ा रहा, फिर पिछला दरवाजा धीरे से खोल कर घर की राह भाग लिया। वहाँ से भागा तो जरूर लेकिन उसका डर बढ़ गया था कि कोटवार उसे और प्रताड़ित करेगा। हुआ भी वही। अभी उसे घर पहुँचे कुछ ही पल बीते थे, कि कोटवार डण्डा फटकारता उसके घर पहुँच गया था। वह धान-ढुसी के पीछे जा छिपा था। उसने वहीं से सुना, कोटवार गरिया रहा था : "अरे ठगों की औलाद! हुकुम उदूली करने की हिम्मत कहाँ से पा गये? बाहर निकल रे।"
उत्तर में उसके बाबा की घरघराती आवाज़ सुनायी दी थी : "क्या बात है कोटवार, किसलिए नाराज हो रहे हो?"
"कामचोर! पूछता है, नाराज क्यों हो रहा हूँ? तेरा लेका सामान छोड़ कर थानागुड़ी से भाग गया.....नहीं जानता क्या? चल उठ, सीधे से सामान अमरा दे। नहीं तो आज...!" कहते कोटवार फड़की ठेल कर भीतर आ गया था और डण्डे से उसके बाबा के शरीर को कोंच रहा था। उसके बाबा से तो उठा नहीं जा रहा था। नहीं उठ सके तो कोटवार ने कस कर उनकी पिटाई कर दी और हाँफते-गरियाते हुए बाहर निकल गया।
सोनू ने जब देखा कि कोटवार अब जा चुका है, तो वह भीतर से निकल कर अपने बाबा के पास आया। देखा, सारे शरीर पर डण्डे के निशान उभरे हुए थे और बाबा अचेत-से हो गये थे। वह किंकत्र्तव्यविमूढ़-सा हो गया था। अपने बाबा से चिपट कर रोता रहा। रोते-रोते उसे कब नींद आ गयी, पता ही नहीं चला। उसकी नींद तब टूटी जब उसकी आया ने उसे जगाया। उसने देखा, उसकी आया बाबा की सिंकाई कर रही थी और सिसक-सिसक कर कोटवार को सरापती भी जा रही थी। उसके मन में संकल्प भर उठा था, "बदला लूँगा। बोड़ू जैसा ही बनूँगा...बोड़ू जैसा ही बनूँगा।" वह बुदबुदाने लगा था, "बोड़ू! मुझे आशीर्वाद दो, मुझे ताक़त दो बोड़ू अपनी तरह। मुझे शक्ति दो....मुझे शक्ति दो....मुझे शक्ति दो।" और उसकी निगाह छत पर खोंस कर रखे गये बोड़ू के पैने टँगिये की ओर स्वत: ही उठ गयी। लगा, एक और भुम्काल का बीज बो दिया गया है।
टिप्पणी :
ढेकी : धान कूटने का ग्रामीण संयन्त्र।
पाइक : सरकारी मुलाज़िम।
बोड़ू : ताऊ।
टँगिया : कुल्हाड़ी।
फरसा : पलाश।
आली-पाली : आसपास।
भुम्काल : जनक्रान्ति।
लाल बाबा : बस्तर में सन् 1910 में हुई जन-क्रान्ति के सूत्रधारों में से एक और राज परिवार से सम्बद्ध लाल कालेन्द्रसिंह (कालीन्द्र सिंह)।
नँगत-गिनहा : अच्छा-बुरा।
सुमता : सुमति।
सिरहा : वह व्यक्ति जिस पर देवी आती है।
आया : माँ।
डसना : बिस्तर।
जर : ज्वर।
जाँगर देह।
माट्टी कीरिया : माटी की सौगंध।
ओस्ताज : उस्ताद।
लेका : लड़का।
डोंगरी : पहाड़।
डोकरा : बूढ़ा।
फरसा : परशु।
सायगोन-सरगी : सागौन और साल के पेड़।
लाजकुड़िन : लाजवन्ती।
काँवड़ : काँवर।
सल्फी : ताड़ प्रजाति के सल्फी नामक पेड़ से निकलने वाला मादक रस।
झापी : बाँस से बना गोल और बड़ा सा सन्दूक।
सज : तैयार।
धान-ढुसी : धान भण्डारण के लिये पैरा (पुआल) से बनी रस्सी को गोल-गोल लपेट कर बनाया गया पात्र।
तसिलदार : तहसीलदार।
फड़की : बाँस से बना दरवाजा।
अमरा : पहुँचा।
सरापती : शाप देती (सराप : शाप)।
इन्ही अत्याचारों और बेगारी ने भुम्काल को जन्म दिया। बहुत अच्छी कहानी है।
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