इस बार अमृत संदेश, 30 अक्तूबर 1984 अंक में प्रकाशित यह रपट :
छोटे शहरों और शहराते हुए कस्बों में, जहाँ अभी टैक्सियों, आटोरिक्शों या ताँगों का प्रचलन (ताँगे तो वैसे भी इने-गिने शहरों में ही चल रहे हैं और उनके दिन भी अब लद गये हैं) शुरु नहीं हुआ है, स्थानीय ठिकानों तक जाने-आने के लिये रिक्शे ही आम साधन के रूप में इस्तेमाल किये जा रहे हैं। टैक्सी आज भी ऊँचे तबके के लोगों के लिये ही सुलभ है, जबकि रिक्शा हर आम-ओ-खास के लिये समान रूप से।
रायपुर में अधिकांश रिक्शा-चालक ओड़िसा प्रान्त या सीमावर्ती इलाक़ों से आये लोग ही हैं। कम से कम पन्द्रह और उधर अधिकतम आयु-सीमा 50 वर्ष तक के लोग रिक्शा चला कर अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं। रिक्शा वालों के विषय में यह आम धारणा है कि वे सवारियों से, विशेषत: नयी सवारियों से ज्यादा पैसे ऐंठते हैं और अपने पारिश्रमिक के मामले को लेकर झगड़ते भी हैं। लेकिन इसके पीछे सच क्या है, इस पर विचार करने की कोशिश हम नहीं करते।
रायपुर की एक घटना याद आती है। मुझे जिलाधीश कार्यालय से न्यू शांतिनगर (नंदा दीप के पास) अपने एक सम्बन्धी के यहाँ जाना था। वैसे भी मेरा रायपुर जाना कभी-कभार ही हो पाता है, इससे वहाँ के रिक्शों की दर के विषय में कुछ मालूमात नहीं थी मुझे। बहरहाल, मैंने एक रिक्शेवाले से पूछा तो वह बोला, बहुत दूर है साहब। चार रुपये लगेंगे। मैं बैठ गया। वहाँ पहुँच कर उसे मैंने पाँच का नोट थमाया तो वह अपने चार रुपये काट कर एक रुपया मुझे वापस देने लगा। मैंने कहा, रख लो भाई। चाय पी लेना। वह हतप्रभ हो उठा। उसकी निगाहें झुक गयीं। वह धीमे से बोला, "साब माफ कीजिये, मैं आपसे ज्यादा पैसे ले रहा था। मुझे आप केवल दो रुपये दे दीजिये।" अब मैं चकित! "क्यों भाई, अभी तो तुमने चार रुपये कहा था। अब अचानक दो रुपये कम कैसे बोल रहे हो?"
वह बोला, "क्या करें साहब, कई किस्म के लोगों से पाला पड़ता है। लोग चार-चार आने तक के लिये चिक-चिक करते हैं। रुपया बताओ तो आठ आना बोलते हैं। इसलिये हम सही रेट से कुछ ज्यादा ही बताते हैं। तब जाकर लोग हमारे सही रेट का पैसा देते हैं। और यदि हम सही रेट बताएँ तो हमें तो उसका आधा भी नहीं मिलेगा शायद। मैंने सोचा कि आप भी मोल-भाव करके दो-ढाई रुपया थमाओगे, इसलिये चार बोलना पड़ा था।"
मेरे काफी जिद करने पर भी उस रिक्शा-चालक ने दो रुपये से एक भी पैसा अधिक लेना मंजूर नहीं किया। वह एक युवक था। ओड़िसा से रोजी-रोटी की खोज में आया हुआ। मेरी उससे अधिक बातचीत भी नहीं हो पायी और मैं उस भले आदमी का नाम तक न पूछ सका। अब यह अलग बात है कि उतनी दूरी के लिये शायद निर्धारित दर उससे भी कम हो या उतनी ही।
अब प्रश्न उठता है कि क्या उस रिक्शा-चालक का कथन सही नहीं है? हम अपने भीतर झाँकें तो मालूम होगा कि वाकई उसका कहना एकदम ठीक है। दरअसल हम जरूरत से ज्यादा अव्यावहारिक हो चुके हैं। इतना ही नहीं, हमने अपना विश्वास भी खो दिया है। दूसरों पर आसानी से हम विश्वास भी नहीं करना चाहते। अब इसके पीछे कोई कारण नहीं है, ऐसी बात भी नहीं।
ठीक है कि हम पैसा देते हैं, इसलिये सवारी तो करना ही है। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि मानवीय दृष्टिकोण को हम एकदम ताक पर रख दें। ऐसी कई बातें इनके साथ होती हैं, जब सोचने पर विवश होना पड़ता है कि क्या ये लोग इन्सान नहीं? या कि हमारी ही इन्सानियत कहीं गहरे कूप में खो गयी है? कड़ाके की सर्दियों में भी ये लोग केवल एक-एक कपड़े में लिपटे रात में रिक्शा खींच रहे होते हैं, बरसात में छाता या रैनकोट के बगैर भी अपना काम कर लेते हैं। गर्मियों में जब हम-आप पंखे या कूलर की ठण्डी हवा ले रहे होते हैं, ये देह का पसीना भी नहीं पोंछ पाते और हमारा-आपका बोझ ढोने में लगे होते हैं। रात में भी चैन नहीं; कभी फुरसत नहीं। और फिर फुरसत या आराम का मतलब है खाने में उस दिन नागा होना। कौन चाहेगा ऐसी फुरसत जो उसे भूखा-प्यासा रखे? बस.....इसलिये युवक तो युवक, वृद्ध भी दिन-रात की चिन्ता किये बगैर लोगों का बोझ ढोने में लगे हैं।
अभी उस रोज का दृश्य मेरी आँखों के सामने उभर आया है.....
कोंडागाँव की बात है। एक सज्जन काफी भारी डील-डौल के थे और जंगल विभाग के किसी नीलाम में जा रहे थे। एक काफी बूढ़ा रिक्शा-चालक उनके भारी शरीर को लिये उसे चढ़ाव की ओर नहीं खींच पा रहा था। पानी काफी जोरों से बरस रहा था। उन सज्जन के पास छाता तो था, किन्तु वे उसे न तो रिक्शा-चालक को दे रहे थे न स्वयं नीचे उतर रहे थे। हार कर बूढ़े रिक्शा-चालक ने उनसे विनती की कि वे थोड़ी देर के लिये रिक्शे से उतर जायें, तब तक बरसात भी थोड़ी थम जाएगी और वह भी जरा देर सुस्ता लेगा। किन्तु यह देख कर आश्चर्य हुआ कि वे सज्जन (?) उस बूढ़े पर बिगड़ पड़े। उल्टी-सीधी गाली दी और बोले, "पैसा हराम का देते हैं क्या हम? जब रिक्शा नहीं चलाया जाता तो छोड़ क्यों नहीं देते यह काम?" बूढ़ा कुछ न बोला। उसके दयनीय चेहरे पर गजब की करुणा उभर आयी थी। अचानक पता नहीं उसमें कहाँ से इतनी ताकत आ गयी कि वह पूरा जोर लगाता, पानी में भीगता रिक्शा खींचने लगा। लेकिन अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद वह उसे अधिक दूर न खींच सका तो वह महाशय उतरे और उसे पैसे दिये बगैर ही चलने लगे। बूढ़ा चिल्लाने लगा। हमने रिक्शे वाले का पक्ष लिया तो वे धर्मावतार पहले तो हम पर बिगड़े, फिर बड़ी मुश्किल से एक रुपये का नोट सड़क पर फेंक कर आगे बढ़ गये। यह है हमारी इन्सानियत.....! और मजे की बात ये कि ये लोग इस किस्म के शोषण की शिकायत भी नहीं कर सकते। और करें भी तो किससे? पुलिस से.....? उस पुलिस से, जिसके पास आम आदमी की समस्याओं को दूर करना तो दूर की बात है, सुनने की भी फुरसत नहीं। रिक्शे वालों की शिकायत है कि रिक्शे की सवारी करके, बाद में पैसे न देना, गाली-गलौज करना और बात-बेबात परेशान करना, नजराना वसूलना एक आम बात है। ये बेचारे रिक्शे वाले, जो अपनी रात-दिन की हाड़तोड़ मेहनत के बाद औसतन पन्द्रह रुपये प्रतिदिन कमा पाते हैं; अपने परिवार का पेट पालें या इन्हें नजराना दें?
पिछले दिसम्बर में एक हवलदार के दुव्र्यवहार को लेकर यहाँ के रिक्शा-चालकों ने एक दिन की हड़ताल कर दी थी। किन्तु नागरिकों और प्रशासन के हस्तक्षेप से यह हड़ताल वापस ले ली गयी। फिर प्रश्न यह भी उठता है कि हड़ताल से स्वयं रिक्शा-चालकों के अलावा और किसका नुकसान हो सकता था भला....?
यहाँ के रिक्शा-चालकों ने अपना एक संघ भी बना लिया है। स्वरोजगार योजना के तहत सहायता प्राप्त सत्रह लोगों ने मुख्य संगठन के नीचे एक शाखा बना ली है। इस शाखा के अध्यक्ष हैं रघुनाथ, जबकि मुख्य संगठन के अध्यक्ष सुरितराम साहू हैं। कोषाध्यक्ष हैं सुकलुराम और सचिव हैं नंदलाल साहू। ये सत्रह लोग जिन्हें उक्त योजना के अन्तर्गत रिक्शा खरीदने के लिये सहायता मिली है, सरकार के प्रति आभारी हैं। उनके विषय में संघ के अध्यक्ष रघुनाथ बतलाते हैंै : हमारे कुछ साथियों को सरकार ने सहायता दी है। इनमें कोदीराम, मोहन, सुरितराम आदि हैं। इनको एक रिक्शा सोलह सौ रुपये में पड़ा। लेकिन रुपये एकमुश्त नहीं देना है, धीरे-धीरे करके चुकाएँगे। यह बड़ी सहूलियत है। जब पूरा पैसा पट जाएगा तब ये रिक्शे इनके खुद के हो जाएँगे। आगे उन्होंने बताया, इस सहायता को प्राप्त करने में थोड़ा समय तो लगा, परेशानियाँ भी आयीं, किन्तु मिल गयी; इसका सन्तोष है।
तुलाराम की उम्र है 15 वर्ष। यह अभी साल भर से ही रिक्शा चला रहा है। पढ़ रहा था। चौथी कक्षा तक पढ़ने के बाद स्कूल जाना बन्द कर दिया। अपना और परिवार का पेट पालने के लिये कोई न कोई काम करना ज़रूरी था ही। किराये का रिक्शा ले कर चलाता है। कुछ ज्यादा कमाई नहीं हो पाती, क्योंकि रिक्शे का किराया भी इसी में से देना पड़ता है। खुद का रिक्शा लेना चाहता है, किन्तु पास में पैसे नहीं हैं और आजकल रिक्शे की कीमत भी काफी हो गयी है। हाँ, सरकार से सहायता मिलने पर जरूर खरीदेगा।
"इतना भारी वजन ढोते तुम्हें तकलीफ नहीं होती?"
"तकलीफ कैसे नहीं होगी? लेकिन क्या करें, पेट के लिये करना ही पड़ता है। नहीं करेंगे तो कौन मुफ्त में खाना-कपड़ा लाकर देगा?"
"क्या रात में भी रिक्शा चलाते हो?"
"हाँ, रात में भी चलाना पड़ता है। जोहन भी चलाता है रात को।"
"आगे भी यही काम करते रहोगे, या कोई दूसरा काम करने का इरादा है?"
"कोई भी काम करो, मतलब तो एक ही है। पेट तो पालना ही है किसी तरह।"
"हफ्ते में किसी दिन छुट्टी मनाते हो कि नहीं?"
"कोई छुट्टी नहीं। रोज कमाते हैं, तब तो खाते हैं। छुट्टी मनाएँगे तो खाएँगे क्या.....?"
रघुनाथ की उम्र है पैंतीस से अड़तीस वर्ष के बीच। वह पिछले 15 वर्षों से रिक्शा चला रहा है। पहले वह किराये का रिक्शा चलाया करता था, फिर लगभग दस-बारह वर्ष पूर्व उसने कोंडागाँव के पास सम्बलपुर नामक गाँव के एक व्यक्ति से सात सौ पचास रुपये में रिक्शा खरीद लिया। वह बतलाता है कि उसे सरकार से कोई सहायता नहीं मिली थी। रिक्शे की कीमत उसने धीरे-धीरे करके अपनी कमाई से ही पैसे बचा कर चुकायी है। रघुनाथ के बाल-बच्चे नहीं हैं। वह और उसकी पत्नी है केवल। वृद्ध पिता और भाई-बहन भी हैं। पिता अभी भी मजदूरी करते हैं। दो भाई, मनीराम और रतन भी उसके साथ रिक्शा चलाने का काम करते हैं। रघुनाथ का कहना है कि वह सुबह 8 बजे से शाम 6-7 बजे तक ही काम करता है। बाद में सीधे घर जाकर आराम करता है। दो ही जने तो हैं कुल मिला कर। "क्या करना है ज्यादा हाय-हाय करके भी?" वह कहता है।
सुकलू की उम्र 55 से 60 के बीच होगी। ये पिछले कई सालों से रिक्शा चला रहे हैं। इन्होंने भी रघुनाथ की ही तरह, किन्तु कम कीमत में, यानी सात सौ रुपये में सात वर्ष पूर्व रिक्शा खरीद लिया था। रुपये धीरे-धीरे करके चुकाये। इनके तीन लड़के हैं। तीनों ही मजदूरी करते हैं। सुबह 8 बजे से शाम पाँच-साढ़े पाँच बजे तक ही ये रिक्शा चलाते हैं। अधिक परेशानी मोल लेना इन्हें भी नहीं रुचता।
प्रतिदिन की आय के बारे में इन लोगों का कहना है कि वे लोग औसतन पन्द्रह रुपये तो कमा ही लेते हैं। हाँ, कभी-कभी आमद कम होकर दस रुपये तक भी उतर जाती है और बाजार के दिनों में दस से बढ़ कर पचीस तक भी पहुँच जाती है। पन्द्रह रुपये में से दस रुपये तो रोज खर्च हो ही जाते हैं। बड़ा परिवार हुआ तो सारे के सारे रुपये खर्च हो जाते हैं और खाने को भी पूरा नहीं पड़ता। ऐसे में अपने आराम की चिंता किये बगैर रात में भी रिक्शा चलाना पड़ता है। सारा खर्च चलाने के लिये ज़रूरी है। कुछ पैसे कपड़ों के लिये भी बचा कर रखना पड़ता है। कभी कोई सगा-सम्बन्धी आ जाए तो ये पैसे खर्च भी हो जाते हैं। शाम को थकान दूर करने के लिये शराब का सहारा लेना ये अपनी विवशता बताते हैं।
"क्यों रघु, तुम नहीं जानते कि शराब से कितना नुकसान होता है शरीर को?" मैं यह पिटा-पिटाया प्रश्न करता हूँ रघुनाथ से, तो उत्तर देते हैं सुकलू : "नुकसान तो बाद में होगा, बाबू। सभी जानते हैं यह बात। लेकिन दिन भर की थकान को कैसे मिटाएँ? शाम को थोड़ी सी पी लेते हैं तो बदन का दर्द कम हो जाता है और नींद भी आ जाती है।"
"तो क्या रोज पीते हो?"
"हाँ, रोज ही पीना पड़ता है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इतना पी लें कि आदमी ही न रह जाएँ। नहीं, नहीं ऐसे नशा से भी क्या फायदा? दवा के रूप में थोड़ी सी पी ली.....बस।"
"सवारियों की, विशेषकर बाहर से आने वालों की शिकायत है कि कोंडागाँव के रिक्शा-चालक काफी ज्यादा पैसे लेते हैं। क्या यह सही है?" मैं उनका ध्यान इस ओर खींचता हूँ।
रघुनाथ कहता है : "कहने को तो कुछ भी कह देते हैं लोग। जबकि सही बात यह है कि हम निर्धारित दर ही लेते हैं। और यह जो आप कह रहे हैं न, वो बात हर कोई तो नहीं बोलता। कुछ लोग जरूर ऐसा कहते हैं, क्योंकि वे स्वयं ही निर्धारित दर से भी कम पैसे देते हैं। जब हम दर की बात करते हैं तो उन्हें वह ज्यादा लगती है।"
"अच्छा, और ये झगड़े वाली बात?"
"कौन से झगड़े की?"
"यही कि रिक्शेवाले सवारियों से झगड़ा करते हैं।"
"नहीं। आप गलत कह रहे हैं। झगड़ा हम करते नहीं, करने को मजबूर किये जाते हैं। और बात होती है वही दर की। लेकिन हर कोई झगड़ा नहीं करता। कुछ लोग जो उसी प्रवृत्ति के होते हैं, वे ही परेशान करते हैं। और फिर हमारी मेहनत की सही कीमत हमें न मिले तो क्या हमें बुरा नहीं लगेगा? अच्छा, फिर अगर आपको रिक्शों की दर ही कम कराना है तो पहले जो महँगाई बढ़ गयी है न, उसे तो कम कराइये। चावल-दाल, कपड़ा-लत्ता सब कितने महँगे हो गये हैं....क्या आप लोग नहीं जानते? हमें भी तो जीना-खाना है, बाबू। बड़े-बड़े सेठ-साहूकारों को तो कोई कुछ नहीं कहता, हम छोटे लोगों को डराना सब जानते हैं।" सुकलू का आक्रोश मुखर होता है।
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