Saturday 11 April 2020

हल्बी की आद्य कृति "हल्बी भाषा-बोध"
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हरिहर वैष्णव
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बस्तर में साहित्य-सृजन और वह भी हल्बी लोक-भाषा में साहित्य-सृजन! यह अभूतपूर्व घटना थी 1937 की। हल्बी के पहले साहित्यकार होने का गौरव अर्जित किया था (स्व.) ठाकुर पूरन सिंह जी ने। उन्होंने "हल्बी भाषा-बोध" कृति की रचना की थी। इसके बाद एक और कृति प्रकाश में आयी थी, "देबी पाठ", जिसके रचनाकार थे (स्व.) पं. गणेश प्रसाद सामन्त। इस विषय में श्री लाला जगदलपुरी जी लिखते हैं, ""साहित्य के नाम पर इधर केवल मनोरंजनार्थ लोक-साहित्य का ही अस्तित्व ध्वनित होता आ रहा था। बोलियाँ केवल मौखिक परम्परा तक सिमट कर रह गयी थीं। क्षेत्र की किसी भी बोली में लिखित साहित्य के लिये मानसिकता नहीं बन पायी थी। बस्तर की सम्पर्क भाषा हल्बी में पहली बार सन् 1937 में लिखित साहित्य की शुरुआत हुई थी। "हल्बी भाषा-बोध" और "देबी पाठ" नामक दो कृतियाँ बस्तर स्टेट पिं्रटिंग प्रेस, जगदलपुर से मुद्रित हो कर लेखकों द्वारा प्रकाशित की गयी थीं। "हल्बी भाषा-बोध" के लेखक थे ठाकुर पूरन सिंह और "देबी पाठ" के रचनाकार थे पं. गणेश प्रसाद सामन्त। "हल्बी भाषा-बोध" के प्रकाशन का प्रमुख उद्देश्य था तत्कालीन सरकारी अफ़सरों और कर्मचारियों को हल्बी के सम्पर्क में लाना, क्योंकि उन दिनों यहाँ हल्बी एक ऐसी बोली थी, जो अंग्रेजी और हिन्दी के बाद बस्तर रियासत के राज-काज में काम आती थी। "देबी पाठ" एक छोटी-सी भजन पुस्तिका थी। जाहिर है कि उन दिनों उधर राज्याश्रयी और पारम्परिक गतिविधियाँ ही स्वीकृत हुआ करती थीं।""
श्री लालाजी ने यद्यपि 1936 से साहित्य-सृजन आरम्भ कर दिया था किन्तु तब वह सृजन केवल हिन्दी में था। हल्बी-लेखन की शुरुआत उन्होंने सन् 1940 में की थी। वे कहते हैं कि अध्ययन हेतु लोकोक्तियों की खोज के दौरान उनका ध्यान "हल्बी भाषा-बोध" की ओर गया। "हल्बी भाषा-बोध" में देखने पर उदाहरणार्थ कुल चौदह कहकुक (कहावतें) और बारह धंदे (पहेलियाँ) ही प्राप्त हुए। लोकोक्तियों के अन्तर्गत मुहावरे भी आते हैं। लालाजी कहते हैं कि उन्हें उसमें मुहावरे नहीं मिले। वे आगे कहते हैं, ""वैसे, "हल्बी भाषा-बोध" आज भी अपनी उपयोगिता सिद्ध करने में सक्षम सिद्ध हो सकता है, यदि उसका पुनप्र्रकाशन हो सके। ठाकुर पूरन सिंह हल्बी के प्रथम गद्यकार और गीति-प्रणेता थे। राष्ट्रीय भावना से युक्त "भारत माता चो कहनी" शीर्षक उनकी एक हल्बी कविता और कई उद्बोधक हल्बी गीत स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् प्रकाशित हुए थे।""
इस तरह 1937 में हल्बी में साहित्य-सृजन का जो अलख (स्व.) ठाकुर पूरन सिंह जी ने जगाया वह भले ही मन्थर गति से, किन्तु आगे बढ़ता गया और आज की स्थिति में हल्बी में उल्लेखनीय सृजन हो रहा है। कविताएँ, गीत, कहानियाँ, एकांकी, नाटक और यहाँ तक कि उपन्यास भी लिखे जा रहे हैं। इसीलिये कहा जा सकता है कि हल्बी को न केवल लिखित स्वरूप में लाने बल्कि इस जनभाषा में साहित्य-सृजन आरम्भ करने में (स्व.) ठाकुर पूरन सिंह जी का ऐतिहासिक योगदान उल्लेखनीय है। वे निर्विवाद रूप से हल्बी के पहले साहित्यकार कहे जा सकते हैं। ठीक उसी तरह, जिस तरह बस्तर अंचल में हिन्दी साहित्य के प्रणेता के रूप में पण्डित केदारनाथ ठाकुर जाने जाते हैं, जिनका बहुचर्चित ग्रंथ "बस्तर-भूषण" 1908 में प्रकाशित हुआ था। इस ग्रंथ की चर्चा आज भी होती है और यह बस्तर के भूगोल, इतिहास तथा यहाँ की आदिवासी एवं लोक संस्कृति के विषय में सम्पूर्ण विवरण उपलब्ध कराने वाला ग्रंथ सिद्ध होता आ रहा है। शोधार्थियों के लिये ये दोनों ही कृतियाँ बहुमूल्य साबित होती रही हैं।
(स्व.) ठाकुर पूरन सिंह जी द्वारा रचित कुछ और हल्बी कृतियों का उल्लेख मिलता है। ये कृतियाँ हैं, "भारत माता चो कहनी" और "छेरता तारा गीत"। "हल्बी भाषा-बोध" के विषय में कहा जाता है कि यह पुस्तक राजकीय अमले को हल्बी भाषा सिखाने के लिये लिखी गयी थी। उन्हीं के सहयोग से मेजर आर. के. एम. बेट्टी ने 1945 में "ए हल्बी ग्रामर" की रचना की थी। 1950 में पं. गंभीर नाथ पाणिग्राही रचित कविता-संग्रह "गजामूँग" प्रकाशित हुआ था। पं. वनमाली कृष्ण दाश ने भी साहित्य-सृजन किया था किन्तु उनकी किसी प्रकाशित पुस्तक का उल्लेख नहीं मिलता ("बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति" : लाला जगदलपुरी, 1994, प्रकाशक : मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल (मध्य प्रदेश)। (स्व.) पं. देवीरत्न अवस्थी जी "करील" ने हिन्दी के साथ-साथ हल्बी में भी काव्य-रचना की। उनका 1910 में बस्तर में हुई सशस्त्र क्रान्ति (भूमकाल) के सन्दर्भ में लिखा हल्बी गीत "इलो-इलो" तथा एक अन्य गीत "बास्तानारिन बाई" चर्चित रहे हैं। "बास्तारिन बाई" गीत बैंसवाड़ी लोकभाषा में भी स्वयं उन्हीं के द्वारा अनूदित है।
श्री लाला जगदलपुरी जी ने 1940 से हल्बी में साहित्य-सृजन आरम्भ किया। उन्होंने कुछ हिन्दी पुस्तकों का हल्बी में अनुवाद भी प्रस्तुत किया। उनके द्वारा हल्बी में अनूदित पुस्तकें हैं, "प्रेमचन्द चो बारा कहनी", "बुआ चो चिठी मन", "रामकथा" और "हल्बी पंचतन्त्र"।
लाला जी के समकालीनों में (स्व.) पं. रघुनाथ प्रसाद महापात्र जी हल्बी-भतरी के बहुचर्चित कवि रहे थे। उनकी पुस्तक "फुटलो दसा, बिलई उपरे मुसा" ने बस्तर की सीमाएँ लाँघ कर ओड़िसा तक में धूम मचा दी थी। (स्व.) ठाकुर पूरन सिंह जी की साहित्यिक विरासत को आगे बढ़ाया उन्हीं के सुयोग्य पुत्र श्री रामसिंह ठाकुर जी ने। उन्होंने हल्बी गीत-कविता-कहानी और निबन्ध के साथ-साथ श्री रामचरित मानस को हल्बी में प्रस्तुत करने का उल्लेखनीय और स्तुत्य कार्य किया। उन्हीं के द्वारा हल्बी में अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता का प्रकाशन 2014 में राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली द्वारा किया गया है। हल्बी में श्रेष्ठ कविताएँ लिखीं श्री सोनसिंह पुजारी जी ने। श्री पुजारी जी ने यद्यपि बहुत कम, कुल मिला कर केवल 27 कविताएँ लिखीं किन्तु वे सभी चर्चित हुईं। उनकी इन 27 कविताओं का संग्रह "अन्धकार का देश" 2015 में देश की अग्रणी साहित्यिक संस्था साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली से प्रकाशित हुआ है।
इसी काल में पं. काशीनाथ सामन्त, पं. गणेश प्रसाद पाणिग्राही, जॉन वेलेजली "चिराग" आदि ने भी हल्बी साहित्य-सृजन के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया।
हल्बी लोक-भाषा-साहित्य को प्रकाश में लाने का श्रेय निर्विवाद रूप से दिया जाना चाहिये "दण्डकारण्य समाचार" और "बस्तरिया" समाचार पत्रों को तथा आकाशवाणी के जगदलपुर केन्द्र को। इन तीनों ने हल्बी लोक-भाषा के लिखित तथा अलिखित दोनों ही प्रकार के साहित्य को प्रकाश में लाने का यथासम्भव प्रयास किया, उर्वर भूमि तैयार की, बीजारोपण किया, सिंचित-पल्लवित और पुष्पित-फलित भी।
जैसा कि "हल्बी भाषा-बोध" के पुनप्र्रकाशन के सम्बन्ध में श्री लाला जगदलपुरी जी के उद्गार का उल्लेख ऊपर हुआ है, यह बहुत ही प्रसन्नता का विषय है कि स्व. ठाकुर पूरन सिंह जी के सुयोग्य पौत्र श्री विजय सिंह ने इस पुस्तक का पुनप्र्रकाशन किया है। ऐसा कर के उन्होंने हम सभी बस्तरवासियों पर जो उपकार किया है, सम्भवत: वे उससे अनजान नहीं हैं। उनका आभार और अनन्त मंगलकामनाएँ।

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