Thursday, 21 May 2020

बस्तर में बाल साहित्य और राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत


हरिहर वैष्णव



2002 में बाल साहित्य की दो पुस्तकें ("चलो, चलें बस्तर" और "बस्तर के तीज-त्यौहार") बस्तर सम्भाग हल्बी साहित्य परिषद् द्वारा प्रकाशित की गयीं, जिनके विषय में बस्तर के साहित्य ऋषि और बस्तर सम्भाग हल्बी साहित्य परिषद् के अध्यक्ष लाला जगदलपुरी जी ने अपने प्रकाशकीय में कहा था, ""इससे पहले तक बस्तर पर बाल-लेखन-प्रकाशन का नितान्त अभाव था।"" इन्हीं पंक्तियों में आगे उन्होंने इन दोनों पुस्तकों के लेखक का नाम लेते हुए जोड़ा था, "".....ने इस अभाव की पूर्ति की है। बातचीत की शैली में इस पुस्तिका के माध्यम से बस्तर सम्बन्धी आवश्यक जानकारियों का आकर्षक विवरण प्रस्तुत किया गया है।""
और संयोग देखिये कि उन्हीं लाला जगदलपुरी जी से मिलने राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत (नयी दिल्ली) में संपादक पंकज चतुर्वेदी जी और मैं जब 11 मार्च, 2013 को जगदलपुर जा रहे होते हैं कि वहीं रास्ते में हल्बी के अन्यतम कवि श्री सोनसिंह पुजारी जी के घर पर बैठे, उनसे चर्चा के दौरान ही बस्तर की लोक भाषाओं पर बाल साहित्य के सम्बन्ध में चर्चा होती है। चतुर्वेदी जी सुझाव रखते हैं कि क्यों न प्राथमिक प्रयास के रूप में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत द्वारा प्रकाशित बाल साहित्य का बस्तर की किसी एक लोक भाषा में अनुवाद का कार्य हाथ में लिया जाये? और फिर यह सुझाव केवल सुझाव नहीं रह जाता बल्कि ठोस रूप ले लेता है। पंकज जी इस परियोजना के पीछे ऐसी आत्मीयता से जुड़ जाते हैं कि पूरा कर के ही दम लेते हैं। उन्होंने न केवल इसी एक परियोजना पर काम किया बल्कि इसके बाद लगातार तीन और परियोजनाओं की
परिकल्पना की और उन्हें साकार भी किया। इन सभी परियोजनाओं से प्रतिभागियों के अलावा मैं भी किसी-न-किसी रूप में जुड़ा रहा। मुझे इस बात का गौरव है और प्रसन्नता भी। जगदलपुर के साथी रुद्रनारायण पाणिग्राही और विक्रम सोनी भी स्थानीय संयोजक के रूप में आरम्भ से न केवल जुड़े रहे बल्कि पूरी तरह सक्रिय बने रहे। इसी तरह मार्च 2016 में काँकेर में आयोजित पुस्तक-विमोचन-समारोह के स्थानीय संयोजक के रूप में काँकेर के साथी सुरेशचन्द्र श्रीवास्तव भी न्यास से जुड़े।

मुझे याद है, जब लाला जी और मेरे द्वारा सम्पादित पुस्तक "बस्तर की लोक कथाएँ" के विमोचन का कार्यक्रम जगदलपुर में रखने का सुझाव पंकज जी के द्वारा रखा गया था तो मैं अपने स्वास्थ्यगत कारणों से राजी नहीं हो पा रहा था। तब पंकज जी ने कहा था, "आपने मेरे साथ काम नहीं किया है वैष्णव जी, इसीलिये ऐसा कर रहे हैं। एक बार मेरे साथ काम कर लेंगे तो देखिये कितना आनन्द आता है।" और सच में बहुत आनन्द आया। विमोचन का वह कार्यक्रम ऐसा "हिट" रहा कि उसके बाद तो बस्तर की लोक भाषाओं पर केन्द्रित कुल चार कार्यशालाएँ लगातार हुईं और सफल रहीं। बस्तर की लोक भाषाओं में लिख रहे लोगों और यहाँ के लोक चित्रकारों को पहली बार इतना बड़ा मंच मिला वरना तो लोग "बस्तर" को उभरते देखना पसंद नहीं करते।

मुझे लगता है कि यहाँ उस प्रसंग का जिक्र अवश्य ही होना चाहिये जिसके चलते बस्तर की विभिन्न लोक भाषाओं में बाल-साहित्य पर इतने बड़े पैमाने पर सार्थक काम हुआ और आगे भी होते रहने की आशा है। तो चलिये, संक्षेप में उस प्रसंग का जिक्र हो ही जाये। वह प्रसंग इस तरह है :
11 फरवरी 2013। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत (नयी दिल्ली) में संपादक (हिंदी) पंकज चतुर्वेदी जी का ईमेल पर एक संदेश आता है। संदेश सुखद और आश्चर्यचकित कर देने वाला है। उन्होंने अपने इस संदेश में सूचना दी कि लाला जी और मेरे संयुक्त सम्पादन में "बस्तर की लोक कथाएँ" पुस्तक का प्रकाशन हो गया है।  और वे चाहते हैं कि हम मार्च महीने के किसी एक दिन एक दिवसीय आदिवासी साहित्य उत्सव का आयोजन जगदलपुर में करें। इस आयोजन में "बस्तर की लोक कथाएँ" तथा हरिराम मीणा जी की पुस्तक "आदिवासी दुनिया" का लोकार्पण हो। इसके लिये शहर के किसी स्थान से सौ-पचास लिखने-पढ़ने वाले लोग लाला जी के दरवाजे तक चलें। वहाँ उन्हें पुस्तकें भेंट कर उनका सम्मान किया जाये और वहीं उन पुस्तकों पर विमर्श और रचना-पाठ का दिन भर का आयोजन हो। इस कार्यक्रम में यदि किसी को बाहर से बुलाना हो तो उसका तथा स्थानीय आयोजन का समस्त व्यय नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया द्वारा वहन किया जायेगा। उनका यह संदेश पढ़ कर मैंने तत्काल जगदलपुर-निवासी एक कवि एवं रंगकर्मी मित्र को फोन लगाया। उनसे सारी बातें हुईं। वे आयोजन के संयोजन एवं प्रबंध हेतु सहमत हो गये। फिर इसके बाद मैंने लाला जी के अनुज श्री के. एल. श्रीवास्तव जी को फोन लगाया ताकि लाला जी की वर्तमान स्थिति की जानकारी मिल जाये और उस हिसाब से कार्यक्रम की रूप-रेखा तैयार हो। फोन लगाने पर श्रीवास्तव जी ने बताया कि लालाजी की शारीरिक और मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। इसीलिये इस आयोजन में उन्हें सम्मिलित करना सम्भव नहीं हो पायेगा। मेरे लिये यह सूचना हृदयविदारक थी। मैंने विवशता में पंकज चतुर्वेदी जी को यह सूचना दे दी। पंकज चतुर्वेदी जी के मन में लाला जी के प्रति सम्मान का भाव रहा है और इसी भावना के चलते वे यह कार्यक्रम जगदलपुर में आयोजित करना चाहते थे। बहरहाल। अन्तत: तय यह हुआ कि यह कार्यक्रम अब जगदलपुर की बजाय कोंडागाँव में हो। और इस तरह 10 मार्च को यह कार्यक्रम कोंडागाँव में आयोजित हुआ। और इसके अगले दिन यानी 11 मार्च को हम दोनों जगदलपुर गये थे लाला जी से मिलने। बहरहाल।

जैसा कि पहले ही उल्लेख हो चुका है, पंकज जी ने सबसे पहले भतरी में अनुवाद कार्यशाला करने का मन बनाया। चूँकि जगदलपुर और इसके आसपास का पूर्वी इलाका ही भतरी-भाषी है अत: इसके लिये हमने जगदलपुर के साथियों से सम्पर्क किया और कोंडागाँव में कार्यशाला आयोजित करने की बात कही किन्तु वहाँ के अधिसंख्य साथी जगदलपुर में ही कार्यशाला रखने के पक्ष में थे। इस तरह यह त्रिदिवसीय कार्यशाला जगदलपुर में जुलाई 2013 में आयोजित हुई। इस कार्यशाला में राष्ट्रीय  पुस्तक न्यास, भारत द्वारा प्रकाशित हिन्दी की निम्न पुस्तकों का भतरी में अनुवाद सम्पन्न हुआ : 01. सारी दुनिया-प्यारी दुनिया (भतरी : सबू सँवसार मयार सँवसार, अनुवादक : शम्भूनाथ कश्यप)े, 02. खरगोश और कछुए की दौड़ (भतरी : लमाहा आवरी कचिमर हारा-जिता,  अनुवादक : रुद्र नारायण पाणिग्राही), 03. तितली और उम्मीदों का संगीत (भतरी : फिलफिली आवरी आसार गीत-गोबिंद, अनुवादक : शम्भूनाथ कश्यप)े, 04. छोटा-सा मोटा-सा लोटा (भतरी : सुरु माहा ठोसोर माहा कसेला, अनुवादक : डॉ. रूपेन्द्र कवि), 05. मोर पंख (भतरी : मँजुर पाखी, अनुवादक : तुलसी राम पाणिग्राही)े, 06. मुत्थु के सपने (भतरी : लुदुर सपना,  अनुवादक : नरेन्द्र पाढ़ी)े, 07. लाल पतंग और लालू (भतरी : लाल पतंग आवरी लयखन, अनुवादक : रुद्र नारायण पाणिग्राही), 08. नेवला भी राजा (भतरी : नेवरा बले राजा आय, अनुवादक : डॉ. रूपेन्द्र कवि)े, 09. हमारा प्यारा मोर (भतरी : आमर मयार मँजुर, अनुवादक : पीताम्बर दास वैष्णव), 10. मीता और उसके जादुई जूते (भतरी : नीला आवरी तार जादु बिती पनही, अनुवादक : तुलसी राम पाणिग्राही)े, 11. मेरी कहानी (भतरी : मोर कहनी, अनुवादक : पीताम्बर दास वैष्णव)।
इस कार्यशाला की सफलता ने राष्ट्रीय पुस्तक न्यास को, विशेषत: पंकज चतुर्वेदी जी को, और भी उत्साहित किया और केवल एक महीने बाद सितम्बर 2013 में बस्तर की ही प्रमुख और बहुसंख्यक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा "हल्बी" में भी एक त्रिदिवसीय अनुवाद कार्यशाला जगदलपुर में ही आयोजित की गयी, जिसमें बस्तर, कोंडागाँव एवं नारायणपुर जिले के साथी सम्मिलित हुए। इस कार्यशाला में न्यास द्वारा प्रकाशित हिन्दी की निम्न पुस्तकों का हल्बी में अनुवाद किया गया : 01. परियों का खेल (अनुवादक : रुद्र नारायण पाणिग्राही), 02. झाड़ू लगाने वाला राजा (अनुवादक : नरेन्द्र पाढ़ी), 03. राजा जो कंचे खेलता था (अनुवादक : विक्रम कुमार सोनी), 04. चंदा गिनती भूल गया (अनुवादक : विक्रम कुमार सोनी), 05. मेंढक और साँप (अनुवादक : यशवंत गौतम), 06. जंगल के दोस्त (अनुवादक : शिवकुमार पाण्डेय), 07. पूँछ की पूछ (अनुवादक : सुभाष पाण्डेय), 08. नौ नन्हें पक्षी (अनुवादक : शोभा राम नाग), 09. रूपा हाथी (अनुवादक : नरेन्द्र कुमार मण्डन), 10. क्या हुआ? (अनुवादक : कु. वर्षा कुँवर)।
इस कार्यशाला में, जो बस्तर के साहित्य ऋषि लाला जगदलपुरी को समर्पित था, बाल-साहित्य-विशेषज्ञ के रूप में दिल्ली से सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार और "परिंदे" पत्रिका की सम्पादक कुसुम लता सिंह जी उपस्थित थीं। इनके साथ ही स्थानीय भाषा के जानकारों के रूप में बाबू थॉमस, बी. एल. झा और शशि पाण्डेय की भी उपस्थिति रही। कार्यक्रम के दौरान सुभाष पाण्डेय ने वरिष्ठ साहित्यकारों रामसिंह ठाकुर और गणेश प्रसाद पाणिग्राही जी को याद किया।
ये दोनों कार्यशालाएँ इतनी सफल सिद्ध हुईं कि न्यास और पंकज जी का उत्साह कई गुना बढ़ गया। अब बारी थी गोंडी, दोरली और धुरवी लोक भाषाओं की। जनवरी 2014 में इन तीनों भाषाओं में अनुवाद की एक त्रिदिवसीय कार्यशाला जगदलपुर में ही आयोजित की गयी, जिसमें दन्तेवाड़ा, सुकमा और बस्तर जिलों के साथियों बी.आर.कवासी, बचनू राम भोगामी, जोगाराम कश्यप, दादा जोकाल (चारों गोंडी), कट्टम सीताराम, आस मुकेश, मड़कम साहेब, कोड़े राकेश (चारों दोरली), दुरषन कुमार नाग, शिव कुमार नाग, बुधराम कश्यप और शोभा राम कश्यप (चारों धुरवी) ने सहभागिता दर्ज करायी। इन साथियों में से गोंडी वाले चार साथियों ने क्रमश: उषा जोशी की पुस्तक "इन्द्रधनुष", अनूप राय की पुस्तक "जब आये पहिये", कंगसम केंगलांग की पुस्तक "जैसे को तैसा" और गीतिका जैन की पुस्तक "जंगल में धारियाँ" का गोंडी में अनुवाद किया। इसी तरह दोरली वाले चार साथियों ने अशोक दाबर की पुस्तक "फल और मधुमक्खी", दिलीप कुमार बरुआ की पुस्तक "धनेश के बच्चे ने उड़ना सीखा", युद्धजीत सेन गुप्ता की पुस्तक "तितली का बचपन" और जयंती मनोकरण की पुस्तक "कितनी प्यारी है यह दुनिया" को दोरली में अनूदित किया। धुरवी के चार साथियों ने धुरवी में सैयद असद अली की पुस्तक "गोरा काला", जगदीश जोशी की पुस्तक "पहेली", का. सेखाराम की पुस्तक छोटे पौधे-बड़े पौधे" और रवी परांजपे की पुस्तक "पानी ही पानी" का अनुवाद किया।
इन कार्यशालाओं की लगातार सफलता ने न केवल न्यास को और पंकज जी को बल्कि बस्तर के सृजनधर्मियों को भी उत्साहित किया। सभी अब न्यास से जुड़ने को लालायित थे। पंकज जी  के मस्तिष्क में अब अनुवाद से एक कदम और आगे की बात आयी। उन्होंने बस्तर की इन भाषाओं में मौलिक लेखन की ओर रुख किया। इसकी खास बात यह थी कि लेखक भी बस्तर के हों, विषय भी बस्तर के और यहाँ तक कि चित्रकार भी बस्तर के ही। रूप-रेखा कुछ इस तरह थी कि मूल पुस्तक का तीन अलग-अलग भाषाओं में अनुवाद भी स्थानीय साथी ही प्रस्तुत करें। जैसे कि मूल गोंडी में लिखी पुस्तक का अनुवाद हल्बी, भतरी और हिन्दी में भी प्रस्तुत किया जाये। गजब की कार्य योजना थी। इस पर काम शुरु किया गया। पहले चरण में गोंडी, हल्बी और भतरी के साथियों से पाण्डुलिपि माँगी गयी। चर्चाएँ की गयीं। उन्हें प्रारूप दिया गया ताकि वे उसके हिसाब से पाण्डुलिपि तैयार कर सकें। कड़ी मेहनत के बाद लगभग 15-20 पाण्डुलिपियाँ आयीं, जिनमें से 10 का प्रकाशन करना तय किया गया। तय होते ही इन 10 पुस्तकों  के अनुवाद भी तैयार करवाये गये। इसके बाद इन पुस्तकों के चित्रांकन के लिये बस्तर के ही लोक चित्रकारों से सम्पर्क किया गया और मार्च 2014 में एक त्रिदिवसीय चित्रांकन कार्यशाला कोंडागाँव में आयोजित की गयी। दो पुस्तकों, घनश्याम सिंह नाग की हल्बी पुस्तक "मेंडका बिहाव" और अंजनी मरकाम की गोंडी पुस्तक "पदला उरसनाँद" के चित्र अन्त तक सम्बन्धित चित्रकारों द्वारा बनाये नहीं जा सके। फलत: इन दोनों पुस्तकों का प्रकाशन नहीं हो सका। इस कार्यशाला में बाल-साहित्य-विशेषज्ञ के रूप में दिल्ली से सुप्रसिद्ध साहित्यकार और "परिंदे" पत्रिका की सम्पादक कुसुम लता सिंह जी ने भी शिरकत की। प्रकाशन के बाद इन पुस्तकों का लोकार्पण एक भव्य कार्यक्रम में काँकेर में 20 मार्च 2016 को किया गया :
01- नना मुया (गोंडी) : जयमती कश्यप द्वारा लिखी इस पुस्तक के हल्बी, भतरी और हिन्दी अनुवाद भी किये गये। हल्बी में नरपति राम पटेल ने "मयँ घुलघुली आयँ" शीर्षक से, भतरी में नन्दिता वैष्णव ने "मयँ झाप आयँ" शीर्षक से और हिन्दी में हरिहर वैष्णव के सहयोग से पकज चतुर्वेदी द्वारा "घुँघरू" शीर्षक से अनुवाद किये गये। इस पुस्तक के चित्रांकन तैयार किये गये बड़े कनेरा (कोंडागाँव) के चित्रकार अशोक कुमार ठाकुर द्वारा। 02- यशवंत गौतम द्वारा हल्बी में लिखी पुस्तक "सरगी-रुख" का भतरी में "सरगी-रुक" शीर्षक से नन्दिता वैष्णव ने, "हरगी ता मड़ा" शीर्षक से गोंडी में उग्रेश चन्द्र मरकाम ने और हिन्दी में "सरगी का पेड़" शीर्षक से हरिहर वैष्णव के सहयोग से पंकज चतुर्वेदी ने अनुवाद किया। इस पुस्तक के चित्रांकन किये रागिनी वैष्णव (कोंडागाँव) ने। 03- "चेंदरू आरू बाग पिला" शीर्षक हल्बी पुस्तक के लेखक थे नारायणपुर के शिवकुमार पाण्डेय। इस पुस्तक का अनुवाद भतरी में नन्दिता वैष्णव द्वारा "चेंदरू आवरी बाग पिला" शीर्षक से, गोंडी में "चेंदरू अरीन डुवाल पिला" शीर्षक से उग्रेश चन्द्र मरकाम ने और हिन्दी में हरिहर वैष्णव के सहयोग से पंकज चतुर्वेदी ने "बस्तर का मोगली : चेंदरू" शीर्षक से किया। इस पुस्तक के चित्रांकन तैयार किये कोंडागाँव के राजेन्द्र राव राऊत ने। 04- महेश पाण्डे की हल्बी पुस्तक "बस्तर चो तिहार" का नन्दिता वैष्णव ने भतरी में "बस्तरर तिहार" शीर्षक से, उग्रेश चन्द्र मरकाम ने "बस्तेर ना तिआर" शीर्षक से गोंडी में और हरिहर वैष्णव के सहयोग से पंकज चतुर्वेदी ने हिन्दी में "बस्तर के त्यौहार" शीर्षक से अनुवाद प्रस्तुत किया। चित्रांकन तैयार किये अंचल के सुप्रसिद्ध लोकचित्रकार खेम वैष्णव (कोंडागाँव) ने। 05- हल्बी में नरपति राम पटेल ने "अमुस तिहार" शीर्षक से, गोंडी में "अमुस तिआर" शीर्षक से उग्रेश चन्द्र मरकाम ने और हिन्दी में हरिहर वैष्णव के सहयोग से पंकज चतुर्वेदी ने "बस्तर की अमावस्या" शीर्षक से पीताम्बर दास वैष्णव की भतरी पुस्तक "अमुस तिहार" का अनुवाद प्रस्तुत किया। चित्रांकन किया कोंडागाँव के लोक चित्रकार सुरेन्द्र कुलदीप ने। 06- जगदलपुर के डॉ. रूपेन्द्र कवि लिखित भतरी पुस्तक "टेंडका आवरी मेंडका" का हल्बी में "टेंडका आउर मेंडका" शीर्षक से कोंडागाँव के नरपति राम पटेल ने, गोंडी में "डोके अरीन पने" शीर्षक से उग्रेश चन्द्र मरकाम ने और हिन्दी में "गिरगिट और मेंढक" शीर्षक से पंकज चतुर्वेदी ने हरिहर वैष्णव के सहयोग से अनुवाद किया। चित्रांकन किया खेम वैष्णव ने। 07- "बालमतिर भइँस" शीर्षक सोनिका कवि की भतरी पुस्तक का हल्बी में "बालमती चो भइँस" शीर्षक से नरपति राम पटेल ने, "बालमति ता अड़मी" शीर्षक से गोंडी में उग्रेश चन्द्र मरकाम ने और हिन्दी में पंकज चतुर्वेदी ने हरिहर वैष्णव के सहयोग से "बालमती की भैंस" शीर्षक से अनुवाद प्रस्तुत किया। चित्रांकन किये लतिका वैष्णव ने। 08- गोंडी में उग्रेश चन्द्र मरकाम द्वारा लिखित पुस्तक "जाने कियानाँद अपुना मीत तून" का हल्बी में "आपलो सँगवारी के चितावा" शीर्षक से नरपति राम पटेल ने ने किया और इस पुस्तिका के चित्र तैयार किये सरला यादव ने।
शकुन्तला तरार सम्भवत: ऐसी प्रथम साहित्यकार हैं जिन्होंने हल्बी में बाल साहित्य की रचना की है। उनकी हल्बी में प्रकाशित दो पुस्तिकाएँ "बस्तर चो सुँदर माटी" और "बस्तर चो फुलबाड़ी" (दोनों बाल-गीत-संग्रह) हैं। इसके साथ ही बाल साहित्य के अन्तर्गत प्रकाशित उनकी अन्य पुस्तकें हैं, "बेटियाँ छत्तीसगढ़ की", "प्रफुल्ल कुमारी देवी" और "बस्तर की लोक कथाएँ"।
आशा की जानी चाहिये कि भविष्य में भी इस तरह के स्तुत्य प्रयास न्यास द्वारा किये जाते रहेंगे।

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