इस बार प्रस्तुत है डॉ. कौशलेन्द्र मिश्रा की एक कविता और एक कहानी :
कविता
भारत की धरा पर हर कोई लिखता सफ़रनामा /
आया प्रेत 'माओ' का, यहाँ अब होश में चलना //
कभी गौरी, कभी गज़नी, कभी बाबर ने है लूटा /
कभी चंगेज़ ने काटा, कभी अंग्रेज़ ने लूटा //
गौतम बुद्ध के घर में, हैं बहती ख़ून की नदियाँ /
सहम कर देखते हैं सब, तड़पना और मर जाना //
माओवाद के सुर में, जहाँ रोकर भी है गाना /
पता बारूद की दुर्गन्ध से तुम पूछ कर आना //
बिना दीवारों का कोई किला ग़र देखना चाहो /
तो बस्तर के घने जंगल में चुपके से चले आना //
धुआँ बस्तर में उठता है तो बीज़िंग से नज़र आता /
हमारे ख़ून से लिखते हैं माओ का वे अफ़साना //
वे लिख दें लाल स्याही से तो ट्रेने भी नहीं चलतीं /
कंटीले तार के भीतर डरा सहमा पुलिस थाना //
ड्रेगन के इशारों पर कभी रुकना कभी चलना /
यहाँ तिल-तिल के है जीना यहाँ तिल-तिल के है मरना //
यहाँ इस देश की कोई हुक़ूमत है नहीं चलती /
कि बंदूकों से उगला हर हुकुम सरकार ने माना //
यहाँ जंगल धधकते हैं, वहाँ बादल बरसते हैं /
ये बादल मौसमी इनको गरज कर है गुज़र जाना //
जो रखवाले थे हम सबके, वो अब केवल उन्हीं के हैं /
नूरा कुश्तियों में ही ये बंटते अब ख़ज़ाने हैं //
हमने ज़िंदगी ख़ुद की ख़रीदी तो बुरा क्या है /
यहाँ सरकार भी उनको नज़र करती है नज़राना //
वो मंगल के बहाने से दंगल करने आते हैं /
जंगल को निगल कर वो हमें कंगाल करते हैं //
ये कैसी रहनुमाई है, ये कैसी बदनसीबी है /
जी भर खेलना मुझसे, कुचलकर फिर चले जाना //
तन के ग्राहकों ने कब किसी के मन को है जाना /
ये बस्तर है यहाँ केवल हमें खोना उन्हें पाना //
भरत का मर गया भारत, इसे अब इंडिया कहना /
लहू भी बन गया पानी, ये दुनिया भर ने है जाना //
चबाकर जी नहीं भरता, न भरता पीढ़ियाँ खाकर /
सुना है इंडिया ही है, बिछाती रात का बिस्तर //
सिसकता रात-दिन भारत, इंडिया मुस्कुराती है /
शरण जब माँगते हिन्दू, इंडिया खिलखिलाती है //
धर्म ने देश को बांटा, मगर फिर भी वो प्यारा है /
जिताने को चुनावों में, वही तो एक सहारा है //
चलो एक बार फिर से हम, उन्हें कुछ और हक़ देदें /
ये भारत जो बचा इतना, टुकड़े कुछ और फिर कर दें //
जो आये थे लुटेरे बन, वो हक़ से अब यहीं रहते /
किरण से माँगते हैं अब, अँधेरे भी हलफ़नामा //
कभी इतिहास लिखना हो, तो इतना काम कर लेना /
तुम, ढूँढते हुए हिन्दू , किसी टापू में आ जाना //
कहानी
बदलती हैं आस्थायें तो बदलती हैं प्रतिबद्धतायें
हमारे घर के ठीक पीछे एक झोपड़ी में रहती है मंगली। दुबली-पतली कंकाल सी मंगली, उसके तीन दुबले-पतले बच्चे और मर्द ...बस यही परिवार है मंगली का। कभी-कभी मंगली के घर से तालियाँ बजाने और भजन गाने की सामूहिक आवाज़ें आती हैं जो धीरे-धीर चीख में बदल जाती हैं। चीख रुदन में और फिर रुदन भयानक आर्तनाद में। बच्चे इस तरह चीखने लगते हैं जैसे कि कोई बाघ उन्हें ज़िन्दा चबाने लगा हो। पहली बार जब सुना तो मुझे निकल कर बाहर आना पड़ा, लगा जैसे भजन गाते-गाते कोई अनहोनी हो गयी है। आर्तनाद हृदयविदारक था। पूछने पर पता चला कि कि यह प्रार्थना की उच्चावस्था है। अब मैं अभ्यस्त हो गया हूँ।
पड़ोसियों ने बताया यह एक कैथोलिक परिवार है जो अभी कुछ ही साल पूर्व हिन्दू से ईसाई बना है। उनके घर प्रायः कुछ नन आती हैं जो अपनी केरली हिन्दी में उन्हें उपदेश देती हैं, उनकी चंगाई के लिये प्रार्थना करती हैं, सामूहिक भजन होता है और फिर आती है भजन की हृदयविदारक भयानक उच्चावस्था।
ज़िस्म और रूह के रिश्ते को समझने का जितना दावा किया गया, रूह उतनी ही दूर होती गयी। ज़िस्म क़रीब ...और क़रीब आता गया ...और सब कुछ उसी पर आकर ठहर गया।
रूह स्वच्छन्द है, और ज़िस्म किसी का ग़ुलाम। दोनो के बीच पीरबाबा हैं या भैरमदेव या ईसा या साईंबाबा या कोई और। मंगली अब भी झूमती है, उस के ज़िस्म पर आती है एक रूह ....लोग उसे ईसा कहते हैं। बिसरू के ऊपर आते हैं भैरमदेव। सब कुछ वैसा ही है ..बदला है तो सिर्फ़ वह जिसे कोई देख नहीं पाया आज तक। लोग रूह कहते हैं उसे ..जिसके कुछ ठेकेदार हैं जो बड़ी मुस्तैदी से अपने काम को अंजाम देते आ रहे हैं।
इन रूहों की पसन्द हैं ग़रीबों के बीमार ज़िस्म, इन रूहों की पसन्द हैं दो जून की रोटी के लिये खटते इंसान, इन रूहों की पसन्द हैं अशिक्षित लोगों के दिमाग। ज़िस्म और रूहों के बीच के ठेकेदार शांति, सुख और समृद्धि दिलाने का ठेका लेते हैं, बस! आप रूह का विभाग भर बदलने की इज़ाज़त दे दीजिये; और यह इज़ाज़त लेने वाले ठेकेदार ऐन-केन-प्रकारेण ले ही लेते हैं इसे।
जगदलपुर में चर्चों की भरमार है। कुछ् चर्चों में रविवार के दिन भक्तों की उन्मादपूर्ण चीखें सुनी हैं मैंने। पादरियों के उत्तेजक भाषण सुने हैं। मुझे सब कुछ भयानक और अशांत सा लगता है। उपदेश सौम्य भाषा में नहीं हो सकता क्या? मैं अक्सर ख़ुद से पूछता रहता हूँ। आराधना स्थल में जाकर तो शांति की अनुभूति होनी चाहिये ...पर यहाँ यह क्या होता है? जगदलपुर में प्रति रविवार को चर्चों की ओर उमड़ती भीड़ मुझे ज़वाब देती है कि सब कुछ ठीक चल रहा है ...वे ख़ुश हैं ...उनकी प्रार्थनायें क़ुबूल हो रही हैं।
मैं उनके घरों में गया हूँ, सबकी प्रार्थनायें क़ुबूल हो गयी हों ऐसा नहीं लगता। दुःख, बीमारियाँ, कलह, ग़रीबी, अशिक्षा, जादू-टोना, रूह का ज़िस्म पर आना, अन्धविश्वास ...सब कुछ वैसा ही है ...जैसा पहले था। सिर्फ़ उनकी आस्था का डिपार्टमेंट बदला है, भैरमदेव की जगह प्रभु यीशु की आत्मा उनके ज़िस्म पर सवार हो जाती है। मथुरा और अयोध्या का स्थान येरुशलम और बेथहेलम ने ले लिया है। उनकी प्रतिबद्धतायें बदल गयी हैं। यीशु को बुरी तरह चीख-चीख कर रोते-बिलखते लोगों की प्रार्थनायें ही क़ुबूल होती हैं। मैंने एक से पूछा, जब सब कुछ वैसा ही है तो डिपार्ट्मेंट बदलने से क्या लाभ? उत्तर मिला, हमारा गॉड सच्चा है, हिन्दुओं का भगवान झूठा है। हमें हमारा प्यारा यीशु शांति देता है जो आपका भगवान कभी नहीं दे सकता।
मैं अक्सर सोचा करता हूँ क्या हमारे बीच के वंचित और उपेक्षित लोग भगवानों के डिपार्टमेंट्स की राजनीति को कभी समझ भी सकेंगे, ....और यदि नहीं समझ सकेंगे तो यह समझाने का उत्तरदायित्व किसका है?
मैं आज तक नहीं समझ नहीं सका कि कोई व्यक्ति धरनिरपेक्ष कैसे हो सकता है? वैज्ञानिक युग का यह कितना बड़ा प्रतिष्ठित झूठ है जो मान्यताप्राप्त है। आस्थायें बदलें और प्रतिबद्धतायें न बदलें ऐसा सम्भव है क्या?
सुन्दर चित्रण...उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteकविता और कहानी दोनो ही उम्दा हैं। शुभकामनाएं
ReplyDeletesundar
ReplyDeleteएकदम हक़ीक़त है।मिश्र जी चिंतन जमीन से जुड़ा है।बधाई।
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