Sunday, 6 October 2013

लोककथायें इतिहास को आगे ले जाती हैं : डॉ. कौशलेन्द्र मिश्र

इस बार बस्तर की लोक कथाओं के संकलन "बस्तर की लोक कथाएँ" पर डॉ. कौशलेन्द्र मिश्र जी का सारगर्भित आलेख प्रस्तुत है।

 

पुस्तक :- बस्तर की लोककथायें।सम्पादक द्वय :- लाला जगदलपुरी एवं हरिहर वैष्णव।प्रकाशन :- लोक संस्कृति और साहित्य श्रंखला के अंतर्गत नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया द्वारा प्रकाशित।पुस्तक का विशेष आकर्षण :- हरिहर वैष्णव का 26 पृष्ठीय निवेदन।


वागर्थाविव संप्रक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये। 
जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ॥ 

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवाशिष्यते।

   पुस्तक के प्रारम्भ में प्रस्तावना या प्राक्कथन के स्थान पर एक निवेदन प्रकाशित किया गया है जो निश्चित ही इस पुस्तक का एक विशेष आकर्षण है।  
   अविभाजित पूर्व बस्तर के वर्तमान सात जिलों के वनवासी अंचलों में प्रचलित आंचलिक भाषाओं, उन्हें बोलने वाले समुदायों, भाषायी विशेषताओं,आंचलिक भाषाओं के पारस्परिक संबन्धों-प्रभावों और इन आंचलिक भाषाओं की व्याकरणीय समृद्धता का विश्लेषण करता हुआ हरिहर जी का छब्बीस पृष्ठीय निवेदन अपने आप में एक संग्रहणीय आलेख हो गया है। लोककथाओं के इस संकलन में यदि यह प्राक्कथन न होता तो पुस्तक निष्प्राण सी रह जाती। न केवल भाषाप्रेमियों अपितु भाषाविज्ञानियों और शोधछात्रों के लिये भी यह प्राक्कथन बहुत ही उपयोगी बन गया है। बस्तर की लोकबोलियों में हमें द्रविणभाषा परिवार और भारोपीयभाषा परिवार के बीच एक सहज संबन्ध स्थापित होता हुआ स्पष्ट दिखायी देता है जो भाषा के जिज्ञासुओं के लिये आनन्ददायी है।  


   भौगोलिक दूरियों के विस्तार के साथ-साथ उच्चारण में विभिन्न सामुदायिक और आंचलिक भिन्नताओं के कारण भाषाओं और बोलियों के स्वरूप में परिवर्तन होते रहते हैं। विभिन्न समुदायों के पारस्परिक सामाजिक संबन्ध जहाँ भाषाओं को प्रभावित करते हैं वहीं उन्हें समृद्धता भी प्रदान करते हैं। बस्तर की सीमायें आन्ध्रप्रदेश, ओड़िसा और महाराष्ट्र की सीमाओं को स्पर्श करती हैं इसी कारण बस्तर की बोलियों पर हिन्दी, पूर्वी, तेलुगु, मराठी, उड़िया और संस्कृत आदि भाषाओं के प्रभाव तो हैं ही प्रवासी विद्वानों, व्यापारियों, घुमंतू बंजारों, विभिन्न राजवंशी शासकों, राजसेवकों और विदेशी आक्रमणकारियों के सतत सम्पर्क के कारण तमिल, राजस्थानी, अरबी, फ़ारसी और अंग्रेज़ी आदि सुदूर प्रांतों एवं राष्ट्रों की भाषाओं के भी स्पष्ट प्रभाव देखे जा सकते हैं।
  संस्कृति, सभ्यता और परम्पराओं के संवहन की मौलिक विधा के रूप में वाचिक और श्रवण परम्पराओं ने लोककथाओं को जन्म दिया है। लिपि के विकास से बहुत पहले अपने अनुभवों, सन्देशों और शिक्षाओं के सम्प्रेषण तथा मनोरंजन के लिये पूरे विश्व के मानवसमाज ने लोककथाओं की मनोरंजक विधा को अपनी-अपनी बोलियों में गढ़ा और विकसित किया। निश्चित ही लोककथाओं का उद्देश्य केवल मनोरंजन न होकर समाज की बुराइयों और शिक्षाओं को वाचिक परम्परा के माध्यम से अगली पीढ़ियों को सौंपना भी था। इसीलिये, इन लोककथाओं में मनुष्य की स्वार्थ और धूर्तता जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियों के विरुद्ध बुद्धिमत्तापूर्ण उपायों से किये जाने वाले संघर्षों से प्राप्त होने वाली विजय की कामना के साथ-साथ आंचलिक विविध समस्याओं के समाधान के लिये भी कहानियाँ गढ़ी जाती रही हैं।
    कहानियाँ अपने अंचल और समुदाय का प्रतिनिधित्व करती हैं। बस्तर की लोककथाओं के माध्यम से बस्तर के जनजीवन, उनकी सरल परम्पराओं,जीवनचर्या और समस्याओं को प्रतिबिम्बित किया गया है। बस्तर की लोककथाओं की विशेषता इन कथाओं के भोलेपन और कथा कहने की शैली में दृष्टिगोचर होती है। इस नाते ये कथायें बस्तर के वनवासीसमाज की अकिंचन जीवनशैली, उनकी सोच, और उनकी परम्पराओं का एक लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं।
    इन सरल कहानियों के पात्र आम वनवासी के बीच से उठकर आते हैं इसीलिये कोस्टी लोककथा लेड़गा का राजकुमार भी शहर घूमने की इच्छा करता है और सम्पन्न होते हुये भी जीवन की आम समस्याओं से दो-चार होता है। लोककथाओं में ऐसा भोलापन अकिंचन समाज से ही स्रवित होकर आ पाता है। राजघरानों की कुटिलताओं के किस्से भी आमआदमी के पास तक पहुँचते-पहुँचते हल्बी लोककथा राजा आरू बेल-कयना एवं पनारी लोककथा राजा चो बेटीके किस्सों की तरह कोई न कोई चमत्कारिक समाधान खोज ही लेते हैं। यह लोकजीवन की सरलता और जीवन में सुख की आकांक्षा का प्रतीक है। अतीन्द्रिय शक्तियों में आस्था, दैवीय चमत्कार, तंत्र-मंत्र और जादू-टोना पर विश्वास आदिम मनुष्य की भौतिक सामर्थ्य सीमा के अंतिम बिन्दु से प्रकट हुये वे उपाय हैं जो किसी न किसी रूप में सुसंस्कृत, सुसभ्य और अत्याधुनिक समाज में आज भी अपना स्थान बनाये हुये हैं। अबूझमाड़ी कथा गुमजोलाना पिटोऔर दोरली कथा देवत्तुर वराम् के माध्यम से वनवासी समूहों द्वारा अतीन्द्रिय शक्तियों में आस्था प्रकट की गयी है जो मनुष्य को उसकी सीमित शक्तियों की आदिम अनुभूति की विनम्र स्वीकृति है।             
    मानव समाज में धूर्तों के कारण मिलने वाले दुःखों और उनसे मुक्ति के लिये युक्ति तथा दैवीय न्याय की स्थापना हेतु पशु-पक्षियों के माध्यम से मनोरंजक शैली में सतूर कोलियाल जैसी सरल-सपाट कहानियाँ गढ़ी गयी हैं जो बच्चों को मनोरंजन के साथ-साथ कुछ सीख भी देती हैं।   
   रक्त संबन्धों में विवाह किया जाना किसी भी विकसित और सभ्य समाज के लिये अकल्पनीय है तथापि कुछ जाति समूहों में रक्त सम्बन्धों में विवाह की परम्परा उन-उन समाजों द्वारा मान्य होकर स्थापित है। अबूझमाड़ की जनजातियों में ऐसे सम्बन्धों पर चिंता प्रकट करते हुये अबूझमाड़ी गोंडी लोककथाऐलड़हारी अनी तम दादाल के माध्यम से एक सुखद एवं वैज्ञानिक सन्देश देने का प्रयास किया गया है। रक्त सम्बन्धों में विवाह की वर्जना न केवल नैतिक और सामाजिक अपितु सुस्थापित वैज्ञानिक तथ्यों का भी शुभ परिणाम है। विषमगोत्री विवाह जातक के न केवल बौद्धिक और शारीरिक विकास की उत्कृष्टता के लिये अपितु जातियों को विनाश से बचाने के लिये भी अपरिहार्य है। जेनेटिक डिसऑर्डर, म्यूटेशन और ऑटोइम्यून डिसऑर्डर जैसी विनाशक व्याधियों से बचने के लिये नयीपीढ़ी को वैज्ञानिक सन्देश देने वाली ऐसी कहानी गढ़ने के लिये लोककथाकार निश्चित ही साधुवाद के पात्र हैं।
    रात में सोते समय दादी-नानी की सीधी-सरल कहानियाँ छोटे-छोटे बच्चों के लिये न केवल मनोरंजक होती हैं अपितु बालबुद्धि में संस्कारों का बीजारोपण भी करती हैं। मनोरंजन के आधुनिक साधनों ने हमारी नयी पीढ़ी को संस्कारों से वंचित कर दिया है, पारिवारिक आत्मीय सम्बन्धों की बलि ले ली है और समाज को दिशाहीन स्थिति में छोड़ दिया है। आधुनिक संसाधनों और सिमटती भौगोलिक सीमाओं के कारण विभिन्न सभ्यताओं के पारस्परिक सन्निकर्ष के परिणामस्वरूप हमारी प्राचीन विरासतें समाप्त होने के कगार पर हैं। हम अपनी नयीपीढ़ियों को कुछ बहुत अच्छा नहीं दे पा रहे हैं, ऐसे में लोककथाओं के संकलन के माध्यम से अपनी विरासत के संरक्षण का प्रयास निश्चित ही कई दृष्टियों से प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है। सम्पादक द्वय से हमारा विनम्र अनुरोध है कि बस्तर अंचल की सभी बोलियों में प्रचलित लोककथाओं का एक बार पुनः संकलन कर बस्तर की प्रतिनिधि लोककथाओं का एक और अंक निकालने के सद्प्रयास का कष्ट करें।
    लोकसाहित्य समाज की सहज और भोली अभिव्यक्ति ही नहीं है वह लोकजागरूकता का भी प्रतीक है। आधुनिक जीवनशैली और जीवन को सुविधायुक्त बनाने वाले संसाधनों ने हमारी सामाजिक संवेदनाओं को कुंठित कर दिया है जिसका सीधा दुष्प्रभाव लोकसाहित्य पर पड़ा है। हम पुराने का संकलन भर कर रहे हैं, नवीन का सृजन नहीं कर पा रहे। यह एक दुःखद और निराशाजनक स्थिति है। छोटे-छोटे बच्चे जो अभी पुस्तकें पढ़ने के योग्य नहीं हुये हैं उनके लिये तो लोककथायें और लोकगीत ही उनकी जिज्ञासाओं का रुचिकर समाधान कर सकने और संस्कारों का बीजारोपण कर पाने में सक्षम हो पाते हैं। इसीलिये मेरा स्पष्ट मत है कि आज नयी पीढ़ी में संस्काराधान के लिये नये सन्दर्भों में लोकसाहित्य के नवसृजन की महती आवश्यकता है।   
    बस्तर की लोककथाओं के इस संकलन में गुण्डाधुर और गेंदसिंह जैसे भूमकाल के महानायकों की निष्फल तलाश अपने उन पाठकों को निराश करती है जो तत्कालीन शासन व्यवस्था द्वारा किये जाने वाले शोषण के विरुद्ध वनवासी समाज में स्वस्फूर्त उठे विद्रोह और उनकी वीरता की कथाओं में न केवल रुचि रखते हैं अपितु अपने अतीत में अपने पूर्वजों के गौरव को भी तलाश करते हैं। लोककथायें इतिहास को आगे ले जाती हैं, हमें गुण्डाधुर और गेंदसिंह को ज़िन्दा रखना ही होगा।     
    यद्यपि, प्रत्येक कहानी के अंत में हिंदी के पाठकों के लिये हिन्दी अनुवाद दिया गया है किंतु इस संकलन को और भी उपयोगी बनाने की दृष्टि से अगले संस्करण में मूल कहानी के प्रत्येक पैराग्राफ़ के बाद उसका हिन्दी में अनुवाद दिया जाना उन स्वाध्यायी भाषाप्रेमियों के लिये सुविधाजनक होगा जो नयी-नयी भाषाओं को सीखने में रुचि रखते हैं।
   कथाओं के साथ-साथ इस पुस्तक में यदि बस्तर के जनजीवन को प्रदर्शित करने वाले सन्दर्भित रेखाचित्र भी दिये गये होते तो बस्तर से दूर रहने वाले पाठकों को बस्तर और भी उभर कर दिखायी दिया होता।
   त्रुटिहीन प्रकाशन और मुखपृष्ठ की साजसज्जा ने पुस्तक में चारचाँद लगा दिये हैं जिसके लिये नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया साधुवाद का पात्र है। लोककथा के इस संकलन के लिये आदरणीय लाला जगदलपुरी जी एवं हरिहरवैष्णव जी का सद्प्रयास अनुकरणीय है।

भगवानेक आसेदसग्र आर्तमा ssत्मनां विभुः।
                              आत्मेच्छानुगतावात्मा नानामत्युपलक्षणः॥

इस टिप्पणी के साथ, अन्त में आज ही दूरभाष पर अकलतरा निवासी और फिलहाल दिल्ली में कार्यरत श्री सुमेर शास्त्री जी की टिप्पणी भी देना उपयुक्त जान पड़ता है। श्री शास्त्री जी की टिप्पणी है कि उन्हें मूल में जो आनन्द आया वह अनुवाद में नहीं। उनका सुझाव है कि अगले संस्करण में इस ओर ध्यान दिया जाये तो बेहतर होगा। उनके इस सुझाव के लिये मैं उनका हार्दिक धन्यवाद ज्ञापन करता हूँ और आश्वस्त करता हूँ कि अगले संस्करण (यदि आया तो) में इस कमी को दूर करने का भरसक प्रयास करूँगा। 
-हरिहर वैष्णव 




Thursday, 19 September 2013

...और नहीं रहे बस्तर मोगली चेंदरू


चेंदरू। पूरा नाम चेंदरू राम मण्डावी। आज से 54 वर्ष पहले 1959 में बस्तर का नाम अपनी कला से पूरी दुनिया में रोशन करने वाले चेन्दरू पक्षाघात से निरन्तर लड़ते हुए अन्तत: 18 सितम्बर 2013 की शाम 4 बजे इस दुनिया से चले गये। सुप्रसिद्ध स्वीडिश फिल्मकार अर्ने सक्सडॉर्फ़ ने चेंदरू और उसके पालतू शेर को ले कर एक फिल्म बनायी, "ए जंगल टेल" जिसने सारी दुनिया में धूम मचा थी। वहीं उनकी पत्नी और सुप्रसिद्ध स्वीडिश शोधकर्ता स्टेन बर्ग़मैन की पुत्री ऑस्ट्रिड सक्सडॉर्फ़ ने उसी दरम्यान इसी शीर्षक से पुस्तक लिखी। इस पुस्तक का सर्वप्रथम प्रकाशन 1960 में फ्रान्स से "चेंदरू एट सन टाइगर" शीर्षक से तथा सुविख्यात अँग्रेजी लेखक विलियम सैनसम द्वारा अँग्रेजी में किया गया अनुवाद यूनाइटेड स्टेट्स (हैरकोर्ट, ब्रेस एंड कम्पनी, न्यू यॉर्क) से "चेंदरू : द बॉय एंड द टाइगर" शीर्षक से हुआ। यह पुस्तक 60 खूबसूरत रंगीन चित्रों से सुसज्जित थी। इस फिल्म तथा पुस्तक दोनों ही के केन्द्र में थे चेंदरू और उनका शेर। 
मुझे याद है 1982 का यही सितम्बर-अक्टूबर का महीना था जब हम यानी मैं, मेरे अनुज लोक चित्रकार एवं लोक संगीतकार खेम वैष्णव, सुप्रसिद्ध धातुशिल्पी भाई जयदेव बघेल और हल्बी-हिन्दी के कवि यशवंत गौतम गढ़बेंगाल पहुँचे थे। वहाँ की सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बने हुए बेलगुर और स्वीडिश फिल्म "ए जंगल टेल" के नायक चेन्दरु से हमारी मुलाकात हुई थी। बेलगुर वैसे तो बहुत प्रसन्न थे कि उनके यहाँ कई देशी-विदेशी लोग अक्सर आते रहते हैं और बख्शीश के रूप में उन्हें और उनके दल को कुछ रुपये मिल जाते हैं। लेकिन बातचीत के दौरान उनके दल के कुछेक सदस्यों के मन की वितृष्णा स्पष्टत: उभर कर सामने आयी थी। आभास हुआ था कि शोषण का यह चक्र यहाँ भी उसी तरह चलता आ रहा है। चंद रुपयों के प्रलोभन से हम उनकी अक्षुण्ण संस्कृति की खरीद-फरोख्त करने में मसरूफ हैं; पूरी तरह से किसी पूर्व नियोजित षड्यंत्र के तहत।
चेंदरू वैसे तो बहुत कम बोलने वाले और प्राय: गुमसुम-से रहने वाले थे, किन्तु उन्होंने बहुत थोड़े से शब्दों में ही सही, अपने क्षोभ को प्रगट कर ही दिया था, "इतने दिनों तक हम लोगों ने अपनी रोजी तक को ताक पर रख कर उस फिल्म के लिये काम किया, लेकिन हमें मेहनताना केवल दो रुपये प्रतिदिन के हिसाब से दिया गया। हाँ, इतना जरूर है कि मुझे उन लोगों ने कुछेक खिलौने (दूरबीन, अलबम आदि) दिये थे, जो कम से कम हमारे काम के तो थे ही नहीं। उन्हें भी आपके कोंडागाँव के एक ठेकेदार ने, जिसका काम गढ़बेंगाल के पास चल रहा था; हथिया लिया।"
हमने उत्सुकता से पूछा था, "नाम जानते हैं आप, उस ठेकेदार का?"
"जी नहीं, नाम तो नहीं जानता।"  चेंदरू बोले थे। हमने गौर किया था, वे जानते हुए भी अनजान बन रहे थे। क्यों? पता नहीं।
"आपने तो उन्हें बेचा होगा न?"
"नहीं साहब। बेचा नहीं। पता नहीं उन्हें कैसे मालूम हुआ कि ये चीजें मेरे पास हैं। वे एक दिन मेरे पास आये और उन चीजों को देखने की इच्छा व्यक्त की। देखने के बाद बोले, "मैं इन्हें अपने साथ ले जा रहा हूँ। बाद में तुम्हें वापस कर दूँगा।" मैंने विश्वास कर हामी भर दी। आज कई बरस हो गये किन्तु उन्होंने वापस नहीं किया। एक-दो बार मेरे कहने पर यह कह कर डाँट दिया कि तुम्हारे पास क्या सबूत है कि ये सामान तुम्हारे हैं? मैंने कभी कोई चीज तुमसे नहीं ली है। मैं क्या करता साहब, चुप रह गया।"
इसी बीच, मध्यप्रदेश शासन, संस्कृति विभाग के अधीन स्थापित भारत-भवन के अन्तर्गत आधुनिक कला संग्रहालय रूपंकर के निदेशक और प्रख्यात चित्रकार जे. स्वामीनाथन अपने सहयोगियों सुरेन्द्र राजन, अकबर पदमसी तथा प्रयाग शुक्ल के साथ आदिवासी एवं लोक कलाओं के संग्रहण के सिलसिले में बस्तर-भ्रमण पर आये थे। इस दौरान गढ़बेंगाल में उन्होंने काफी समय व्यतीत किया था। तभी उनकी मुलाकात चेंदरू जी से भी हुई थी। मुझे याद आया, बातचीत के दौरान स्वामी जी ने बड़ी ही आत्मीयता से चेन्दरु जी को आश्वस्त किया था। चेन्दरु आगे बताने लगे थे, "हाल ही में पाँच-सात माह पहले एक आदमी आया था। अपने-आप को नागपुर के किसी समाचार-पत्र का संवाददाता बता रहा था। उसने गाँव के लोगों के बीच कुछ कपड़े बाँटे थे। फिर एक दिन मेरी किताब (ए जंगल टेल) कुछ दिनों में वापस करुँगा, कह कर ले गया। किन्तु आज तक वापस नहीं किया है।" वे फिर थोड़ी देर रुके, फिर बताने लगे, "फटे नोट भी बदलवा कर नए नोट ला दूँगा, कह कर ले गया है।"
चेंदरू जी की चिकित्सा के लिये छत्तीसगढ़ शासन आगे आया। विशेषत: नारायणपुर से विधायक और मन्त्री केदार कश्यप जी ने अपनी ओर से सार्थक प्रयास किये। इसके लिये वे धन्यवाद के पात्र हैं। आईबीसी-24 टीवी चैनल लगातार अपने दर्शकों को चेंदरू जी के स्वास्थ्य के विषय में समाचारों के माध्यम से जानकारी देता रहा। इसके लिये यह चैनल भी धन्यवाद का पात्र है। "आमचो बस्तर" उपन्यास के लेखक भाई राजीव रंजन प्रसाद की पुस्तक "बस्तर के जननायक" में एक अध्याय चेंदरू जी (और कीर्ति-शेष लाला जगदलपुरी) पर भी है। राजीव जी के हम आभारी हैं। 
कला की दुनिया में बस्तर का नाम आधी सदी पहले रोशन करने वाले बस्तर-मोगली कीर्ति-शेष चेंदरू जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।





















सभी छायाचित्र : राजीव रंजन प्रसाद के सौजन्य से। 


Friday, 30 August 2013

हाशिये पर रहे साहित्य-ऋषि लाला जगदलपुरी


साहित्य-सेवा को तन-मन-धन से समर्पित, यहाँ तक कि इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये चिर कुमार रहे लालाजी (लाला जगदलपुरी) का देहावसान साहित्य-जगत के लिये एक अपूरणीय क्षति बन कर रह गयी है। अपने लेखन ही नहीं अपितु अपने मौखिक ज्ञान और अनुभव से साहित्यकारों की नयी-पुरानी पीढ़ी को सींचते उन्होंने लेखन के क्षेत्र में जीवन के लगभग आठ दशक व्यतीत कर दिये किन्तु समाज ने उन्हें उनकी साहित्य-साधना और तपस्या के लिये क्या दिया? ऐसा नहीं है कि साहित्य-जगत के पुरोधा उन्हें नहीं जानते। जानते सभी हैं। सभी ने उनके बस्तर सम्बन्धी ज्ञान और अनुभव का भरपूर लाभ भी लिया और अपने-अपने तरीके से उसका उपयोग भी किया किन्तु जिस तपस्वी से सब-कुछ पाया वे उसे ही हाशिये पर धकेलने में लगे रहे। जब कभी बस्तर सम्बन्धी कोई जानकारी लेने का समय आया, लालाजी सभी को याद आये किन्तु जब कभी सम्मान या पुरस्कार देने का समय आया, वे किसी को भी याद नहीं आये। नाम गिनाना यानी घाव को कुरेदना है। इसलिये बिना नाम लिये कहना होगा कि बस्तर की बात आते ही लालाजी को याद करने वाले महारथियों ने भी लालाजी के प्रति सदाशयता नहीं दिखायी। यह तो भला हो श्री रमेश नैय्यर जी,  श्री मुकुन्द हम्बर्डे जी और श्री अशोक पारख जी का कि 2004 के पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मान (राज्य सम्मान) के लिये निर्णायक मण्डल में सम्मिलित इन महानुभावों ने लालाजी का नाम सर्वसम्मति से तय किया अन्यथा शायद यह सम्मान भी उनके हिस्से में नहीं आता। बस्तर का जन इन सभी का हृदय से आभारी है। हम आभारी हैं बस्तर विश्वविद्यालय के यशस्वी कुलपति प्रोफेसर (डॉ.) एन. डी. आर. चन्द्र जी के भी जिन्होंने लालाजी को डी. लिट्. की मानद उपाधि से अलंकृत करवाने के प्रयास अपने स्तर पर किये। यह अलग बात है कि यह उपाधि उन्हें उनके जीवन-काल में नहीं मिल पायी। पद्मश्री के लिये न तो शासन स्तर पर कोई प्रयास हुए और न ही स्वनामधन्य साहित्यिक संस्थाओं अथवा जनप्रतिनिधियों की ओर से कभी कोई पहल की गयी।

17 दिसम्बर 1920 को जगदलपुर में जन्मे, 1936 से लेखन प्रारम्भ करने वाले लालाजी की रचनाएँ 1939 से देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। स्तरीय और प्रामाणिक लेखन, जिसकी कोई सानी नहीं। जीवन के 93 वें वर्ष में 14 अगस्त 2013 की शाम 7.00 बजे उन्होंने इस संसार से विदा ले ली। उनके देहावसान की खबर को न तो प्रिन्ट मीडिया ने और न इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने ही तवज्जो दी। यह शिकायत नहीं कड़वी सच्चाई है जिसे भोगना साहित्यकार की नियति है। विशेषत: बस्तर जैसे "पिछड़े" अंचल के साहित्यकारों को तो यह भोगना ही पड़ेगा; कारण चाहे जो हों। तभी मैं कई बार सोचने लगता हूँ, "साहित्यकार! तेरी क्या बिसात?" साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहा जाता रहा है। साहित्यकार को "ओपिनियन मेकर" कहा जाता रहा है। बेकार बात है यह। फालतू है यह कहना और सोचना। कौन पूछता है साहित्यकार को? हाँ, फर्जी और जुगाड़ू तथाकथित साहित्यकारों की बात अलग है। उनकी पूछ-परख उनकी चाटुकारिता की वजह से हर जगह होती है। उनके प्रायोजित सम्मान भी होते हैं। किन्तु हमें गर्व है कि लालाजी न तो फर्जी और जुगाड़ू साहित्यकार थे और न प्रायोजित सम्मान में सहभागी। ऐसे स्वाभिमानी और सच्चे साहित्यकार को, ऐसे युगपुरुष को, ऐसे साहित्य-ऋषि को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि। मेरा शत-शत् नमन। 
छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद् की कोंडागाँव जिला इकाई ने पिछले दिनों स्व. लालाजी की पुण्य स्मृति में बस्तर सम्भाग के साहित्यकारों को प्रतिवर्ष "इन्द्रावती सम्मान" से अलंकृत करने की घोषणा की है, जिसका हार्दिक स्वागत है। क्या राज्य शासन या प्रादेशिक स्तर पर गठित और संचालित तथाकथित स्वनामधन्य महान साहित्यिक संस्थाएँ लालाजी की पुण्य स्मृति में कोई राज्य स्तरीय सम्मान या किसी शोध अथवा सृजन पीठ की स्थापना करना उचित समझेंगी? क्या कोई लालाजी की कृतियों के समुचित मूल्यांकन के लिये आगे आने का प्रयास करेगा? 

साहित्य-ऋषि लाला जगदलपुरी की स्मृति में इन्द्रावती सम्मान


साहित्य-जगत में बस्तर के पर्यायवाची बन चुके साहित्य-ऋषि लाला जगदलपुरी की पुण्य स्मृति में प्रतिवर्ष इन्द्रावती सम्मान दिये जाने की घोषणा 25 अगस्त को यहाँ आयोजित एक भव्य कार्यक्रम में की गयी। अवसर था बस्तर के वरिष्ठतम व्यंग्यकार चित्तरंजन रावल की व्यंग्य रचनाओं के संग्रह "व्यंग्य रचनाएँ" के विमोचन का। विमोचन-समारोह में जगदलपुर एवं नारायणपुर से आमन्त्रित एवं स्थानीय कवियों द्वारा काव्य-पाठ किया गया। विमोचन किया छत्तीसगढ़ प्रदेश की महिला एवं बाल विकास मन्त्री सुश्री लता उसेण्डी ने, जो स्वयं भी कोंडागाँव निवासी तथा कोंडागाँव विधान सभा क्षेत्र से विधायक हैं। 

चितरंजन रावल मूलत: व्यंग्यकार एवं कवि हैं। 80 वर्षीय श्री रावल पिछले कई दशकों से सृजन-रत हैं और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन पाते रहे हैं। इससे पहले उनका काव्य-संग्रह "कुचला हुआ सूरज" प्रकाशित हो चुका है। 












लाला जगदलपुरी, जिनकी स्मृति में बस्तर सम्भाग के साहित्यकारों को प्रतिवर्ष दिये जाने वाले "इन्द्रावती सम्मान" की घोषणा छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद्, कोंडागाँव जिला इकाई द्वारा हुई है, का जन्म 17 दिसम्बर 1920 को जगदलपुर (बस्तर-छत्तीसगढ़) में हुआ था। उन्होंने 1936 से लेखन आरम्भ किया था और 1939 से लगातार प्रकाशन पाते रहे।  प्रकाशन के साथ ही विभिन्न सम्मानों से भी वे विभूषित किये गये। साहित्य के क्षेत्र में ऋषि कहे जाने वाले लाला जगदलपुरी पिछले दिनों 14 अगस्त को हम सबको रोता-बिलखता छोड़ कर अन्तिम यात्रा के लिये प्रस्थान कर गये। छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि देश भर में अपनी रचनाओं, विशेषत: बस्तर सम्बन्धी शोधपरक और प्रामाणिक रचनाओं के लिये ख्यात लालाजी ने साहित्य-सेवा के चलते विवाह तक नहीं किया था। उनकी जीवन-संगिनी थी उनकी लेखनी और सन्तान थी उनका लेखन। उनके निधन का समाचार पाते ही बस्तर सम्भाग के गाँव-गाँव में शोक-सभाएँ आयोजित कर उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि दी गयी। हाल ही में बस्तर विश्वविद्यालय, जगदलपुर (बस्तर-छत्तीसगढ़) द्वारा उन्हें डी.लिट्. की मानद उपाधि से विभूषित किये जाने की घोषणा की गयी थी और पद्मश्री से अलंकृत किये जाने की भी चर्चा चल रही थी। 
ज्ञात हो कि उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केन्द्रित पुस्तक "साहित्य-ऋषि लाला जगदलपुरी : लाला जगदलपुरी समग्र" दो खण्डों में दिल्ली के यश प्रकाशन से शीघ्र ही प्रकाशित हो कर पाठकों के बीच आ रही है।

Sunday, 9 June 2013

"साहित्य-ऋषि लाला जगदलपुरी : लाला जगदलपुरी समग्र"

आज एक बहुत बड़ी खुशी आप सब साथियों के साथ बाँटने का मन बना कर उपस्थित हुआ हूँ। पिछले आठ वर्षों से जारी मेहनत अब जा कर रंग लाने को है। वरिष्ठतम साहित्यकार 92 वर्षीय लाला जगदलपुरी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर तैयार पाण्डुलिपि "साहित्य-ऋषि लाला जगदलपुरी : लाला जगदलपुरी समग्र" शीर्षक से प्रकाशन जगत में मील का पत्थर साबित होने जा रहे दिल्ली के यश प्रकाशन से पुस्तक रूप में शीघ्र ही प्रकाशित हो कर आपके-हमारे बीच होगी। यह कम्पोज की जा चुकी है और इसके प्रूफ रीडिंग का काम जारी है। कुल 582 पृष्ठों में समायी इस सामग्री का प्रकाशन दो भागों में होने जा रहा है। पहले भाग में लाला जी का व्यक्तित्व पक्ष है तो दूसरे भाग में उनका चुनिन्दा गद्य तथा समग्र पद्य साहित्य। सहयोगी लेखकों में सम्मिलित हैं प्रो. (डॉ). धनंजय वर्मा, राम अधीर, लक्ष्मीनारायण "पयोधि", निर्मला जोशी, त्रिलोक महावर, डॉ. देवेन्द्र दीपक, त्रिभुवन पाँडेय, डॉ. रामकुमार बेहार, जयप्रकाश राय, रऊफ परवेज़, डॉ. सुरेश तिवारी, आई. जानकी, अवध किशोर शर्मा, संजीव तिवारी, केवल कृष्ण, प्रो. बी. एल. झा, सुरेन्द्र रावल, डॉ. राजेश सेठिया, राजीव रंजन प्रसाद, डॉ. रूपेन्द्र कवि, चितरंजन रावल, योगेन्द्र देवांगन, जगदीश दास, महावीर अग्रवाल, के. एल. श्रीवास्तव, उमाशंकर तिवारी  और डॉ. हबीब राहत "हुबाब"।

Saturday, 30 March 2013

बल्ले पर बस्तर की संस्कृति : लोक चित्र के माध्यम से



लगभग पन्द्रह दिनों पहले मेरे अनुज खेम वैष्णव मुझे बताते हैं कि दिल्ली स्थित "आर्ट फॉर ऑल" नामक किसी संस्था ने कुम्हारपारा (कोंडागाँव) स्थित "साथी समाजसेवी संस्था" के अध्यक्ष भूपेश तिवारी के माध्यम से उनसे सम्पर्क किया है और आईपीएल 2013 के मैच के लिये दो बल्लों पर बस्तर के लोक चित्र उकेरने का प्रस्ताव रखा है। इसके साथ ही, मेरे ईमेल आईडी पर एक मेल आता है, जिसमें नमूने के तौर पर एक बल्ले के चार अलग-अलग कोणों से लिये गये चित्र होते हैं। उधर से बताया जाता है कि खेम बल्ले पर क्या उकेरेंगे, यह उन्हीं पर निर्भर करता है। संस्था इस विषय में कुछ भी नहीं कहेगी। खेम को यह बात जँच जाती है और वे योजना बनाते हैं, बस्तर की आदिवासी एवं लोक संस्कृति को दोनों बल्लों पर उकेरने की। दिन भर नगरपालिका परिषद् की नौकरी के बाद रात में आरम्भ होती है चित्रकारी। चार-पाँच दिनों की कड़ी मेहनत के बाद अन्तत: 19 मार्च की रात 01.30 बजे वे इसे पूरा कर पाते हैं और पैंकिंग कर इसी दिन सुबह 04.30 बजे रायपुर के लिये रवाना करते हैं ताकि टीसीआई के माध्यम से इन्हें दिल्ली भेजा जा सके।
इन दोनों बल्लों पर, जिनमें से एक की लम्बाई 5.5 फीट और दूसरे की लम्बाई लगभग 1.5 फीट है, खेम ने बस्तर की संस्कृति को चित्रित किया है। बस्तर की लोकचित्र-शैलियों में से एक "जगार शैली (गड़ लिखतो)" के लोकचित्रकार हैं खेम। इन बल्लों पर खेम ने बस्तर की आदिवासी एवं लोक-संस्कृति तथा जन-जीवन को प्रदर्शित किया है। वे कहते हैं, "बस्तर का आदिवासी एवं लोक समुदाय, जो पूरी तरह वन पर आश्रित है, अपने जीवन  के प्रत्येक पल को गीत-संगीत-नृत्य और आनन्द के साथ जीता है। उसके जीवन में भी कष्ट हैं, दु:ख हैं, पीड़ा है, लाल आतंक का साया भी है; किन्तु तो भी वह अपने में मस्त बना रहना नहीं छोड़ता। यह बस्तर की आदिवासी एवं लोक संस्कृति का एक बहुत महत्त्वपूर्ण पक्ष है। विपरीत और विषम परिस्थितियों में भी जीवन कैसे जिया जाये, यह आरम्भ से ही "पिछड़ा" कहे जाने को अभिशप्त बस्तर अंचल के वनवासियों-ग्रामवासियों से सीखा जा सकता है।"
वे आगे बताते हैं, "यों तो बस्तरिया लोगों के लिये समूचे वन ही जीवन-दाता हैं तथापि महुआ का विशेष महत्त्व है। कारण, यह वृक्ष जन्म से ले कर मृत्यु तक के सभी संस्कारों में बस्तरिया जन-जीवन से जुड़ा होता है। इसके फूल, फल, पत्ते, छाल यहाँ तक की शाखाएँ-प्रशाखाएँ, छोटी-बड़ी टहनियों और जड़ तक का उपयोग जीवन के विभिन्न अवसरों पर होता रहा है। विश्वप्रसिद्ध धातु शिल्पी जयदेव बघेल और सुप्रसिद्ध लौह शिल्पी सोनाधर विश्वकर्मा यदि इस वृक्ष को "जीवन वृक्ष" कहते हैं तो इसमें कोई संशय नहीं है। मेरी दृष्टि में भी यह वृक्ष जीवन-वृक्ष ही है।"
उन्हें इस लोकचित्रकारी की प्रारम्भिक शिक्षा माँ (स्व. जयमणि वैष्णव) से मिली। आगे चल कर गुरुमायों (जगार गायिकाओं) से भी उन्हें इस कला को आगे बढ़ाने में सहयोग मिला। खेम वैष्णव का संक्षिप्त परिचय इस तरह है :
जन्म : 31.07.1958, दन्तेवाड़ा (बस्तर-छत्तीसगढ़)।
पिता : श्यामदास वैष्णव।
माता : जयमणि वैष्णव।
शिक्षा : हायर सेकेण्डरी।
मूलत: लोक चित्रकार। साथ ही बस्तर के लोक संगीत एवं छायांकन में भी पर्याप्त दखल। लोक चित्रकारी की शुरुआत 1970-71 से। सम्पूर्ण कला-कर्म बस्तर पर केन्द्रित।
प्रदर्शनियाँ : जहांगीर आर्ट गैलरी (मुम्बई), डिस्कवरी ऑफ इण्डिया (मुम्बई), नेहरू सेन्टर (मुम्बई), कमलनयन बजाज गैलरी (मुम्बई), प्रिन्स ऑफ वेल्स म्यूजियम (मुम्बई), आल इण्डिया फाईन आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट्स सोसायटी (नयी दिल्ली), इंजीनियरिंग इन्स्टीट्यूट ऑफ साइंस (बैंगलोर), सूरजकुण्ड क्राफ्ट्स मेला (हरियाणा), क्राफ्ट्स बाजार (माधापुर, हैदराबाद), क्राफ्ट्स मार्केट (गुवाहाटी, असम), क्राफ्ट्स मार्केट मीट (पणजी, गोवा), प्रिमिसेस ऑफ दी क्राफ्ट्स काउन्सिल फेस्टिवल (हैदराबाद), कोलकाता पार्क स्ट्रीट (कोलकाता), महन्त घासीदास संग्रहालय (रायपुर, छत्तीसगढ़), नेशनल फोकलोर सपोर्ट सेन्टर (चेन्नई), नारा सिटी (जापान)।
छत्तीसगढ़ विधान सभा भवन सौन्दर्यीकरण।
संग्रह : ऑस्ट्रेलिया, सं. रा. अमेरिका, जर्मनी, स्विट्जरलैंड, इंग्लैंड, जापान, फ्रान्स, न्यूजीलैंड, इटली, रूस, इजिप्त आदि देशों के कलाप्रेमियों/कला मर्मज्ञों के निजी संग्रह में।
सम्मान आदि : लोक चित्रकला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये 1997 में करवट कला परिषद्, भोपाल से "कला सम्मान"। दी राकेफेलर फाऊन्डेशन के आमन्त्रण पर 2002 में इटली प्रवास। देश की विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं एवं ग्रन्थों में रेखांकन एवं छायाचित्र। भारत शासन, संस्कृति विभाग के सांस्कृतिक स्रोत एवं प्रशिक्षण केन्द्र, नयी दिल्ली द्वारा पारम्परिक भित्ति चित्र के लिये "गुरु" की मान्यता। जहांगीर आर्ट गैलरी, मुम्बई द्वारा प्रकाशित समकालीन चित्रकला पर केन्द्रित "इंडियन ड्राइंग टुडे 1987" पुस्तक में स्थान। नेशनल फोकलोर सपोर्ट सेन्टर, चेन्नई द्वारा प्रकाश्य ""इन्साइक्लोपीडिया इण्डिका फॉर किड्स : कल्चर एण्ड इकोलॉजी"" के लिये बस्तर की 21 लोक कथाओं की चित्रमय प्रस्तुति। छत्तीसगढ़ राज्य वनौषधि बोर्ड द्वारा जबर्रा नामक गाँव में आयोजित कार्यशाला में भागीदारी। हैदराबाद के "हैदराबाद इन्टरनेशनल कन्वेन्शन सेन्टर (एचआईसीसी)" में आयोजित "इलेवन्थ मीटिंग ऑफ द कान्फ्रेन्स ऑफ द पार्टीज़ (एमओपी-5, सीओपी 11) टू द इन्टरनेशनल कन्वेन्शन ऑन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी" में यूएनडीपी के प्रेक्षक के रूप में सहभागिता। यूएनडीपी के लिये बस्तर की वनौषधियों की उपयोगिता पर आधारित कैलेण्डर के लिये चित्रण। छत्तीसगढ़ राज्य युवा आयोग द्वारा "वरिष्ठ लोक चित्रकार" के रूप में सम्मानित।
सम्पर्क : सरगीपाल पारा, कोंडागाँव 494226, बस्तर-छत्तीसगढ़। मोबाइल : 99261-70261
ईमेल : hariharvaishnav@gmail.com











Tuesday, 12 March 2013

बस्तर बोल रहा है: लोक साहित्य लोक जागरुकता का प्रतीक है : डॉ. कौशलेन्द्र मिश्र

बस्तर बोल रहा है: लोक साहित्य लोक जागरुकता का प्रतीक है : डॉ. कौशलेन्द्र मिश्रhttp://www.facebook.com/harihar.vaishnav

लोक साहित्य लोक जागरुकता का प्रतीक है : डॉ. कौशलेन्द्र मिश्र


"बस्तर का लोक साहित्य यहाँ के आम लोगों के संघर्ष, मान्यताओं एवं समृद्ध ज्ञान का प्रतीक है। लिपि के विकास के बहुत पहले से ही यहाँ की बोलियों में तमिल, राजस्थानी, अरबी और कई अन्य भाषाओं के प्रभाव शामिल हो गये थे।" ये उद्गार व्यक्त किये डॉ. कौशलेन्द्र मिश्र ने, जो एक चिकित्साधिकारी व साहित्यानुरागी हैं। वे श्री लाला जगदलपुरी एवं हरिहर वैष्णव द्वारा सम्पादित एवं नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया (मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार) द्वारा प्रकाशित पुस्तक "बस्तर की लोक कथाएँ" के लोकार्पण अवसर पर पुस्तक की समीक्षा कर रहे थे। इस आयोजन में मुख्य अतिथि अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध शिल्पी डॉ. जयदेव बघेल और अध्यक्ष स्थानीय शिक्षाविद् टी. एस. ठाकुर थे। यह आयोजन नेशनल बुक ट्रस्ट ने छत्तीसगढ़ हिंदी साहित्य परिषद के सहयोग के किया था।


आगंतुकों का औपचारिक स्वागत करते हुए नेशनल बुक ट्रस्ट के संपादक पंकज चतुर्वेदी ने जानकारी दी कि उनका संस्थान पुस्तक पढ़ने की रुचि के उन्नयन के लिये किस तरह की गतिविधियों का आयोजन करता है। लोकार्पित पुस्तक पर समीक्षा प्रस्तुत करते हुए डॉ. कौशलेन्द्र मिश्र ने बताया कि अबुझमाड़ की लोक कथा रक्त-संबंधों में विवाह करने से उत्पन्न होने वाले विकारों की जिस तरह से जानकारी देती है, यह साक्ष्य है कि हमारी जनजातियों की मान्यताएँ बेहद पुरातन काल से वैज्ञानिक रही हैं। पुस्तक के संपादक हरिहर वैष्णव ने बताया कि किस तरह उन्होंने विभिन्न जनजातियों की लोक कथाओं को पहले रिकार्ड किया, फिर उन्हें लिखा, एक बार फिर वे उन्हीं बोलियों के लोगों के पास गये और उनका परिशोधन व अनुवाद उन्हीं की मदद से किया। बस्तर की लोक-संस्कृति तथा वाचिक परम्परा के संरक्षण, संवद्र्धन एवं विस्तार-कार्य के लिये उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्ति भी ले ली।












इस अवसर पर बस्तर की पारम्परिक जड़ी-बूटी पद्धतियों को सहजने में लगे अंतर्राष्ट्रीय रूप से चर्चित वैज्ञानिक    डॉ. राजाराम त्रिपाठी ने बताया कि लोक संस्कृति के मामले में बस्तर दुनिया का सबसे धनी क्षेत्र है और यहाँ की रचनाएँ दुनिया की किसी भी भाषा में लिखे जा रहे सृजन से कमतर नहीं है। आयोजन के मुख्य अतिथि डॉ. जयदेव बघेल ने बताया कि किस तरह उनके पिताजी से सीखे पुश्तैनी ज्ञान को उन्होंने दुनिया भर में पहुँचाया। उन्होंने बताया कि बस्तर का शिल्प इंसान के जन्म से ले कर उसके अन्तिम संस्कार व उसके बाद भी कुछ ना कुछ अनिवार्य आकृतियाँ गढ़ता रहता है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे श्री टी. एस. ठाकुर ने इस आयोजन और पुस्तक के लिये नेशनल बुक ट्रस्ट के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा कि भविष्य में भी ट्रस्ट इस आंचलिक क्षेत्र में अपनी गतिविधियों का आयोजन करता रहेगा। इस सत्र का संचालन पंकज चतुर्वेदी ने किया जबकि अंत में आभार ज्ञापन श्री सुरेन्द्र रावल ने किया।




भोजनावकाश के बाद आयोजन का दूसरा सत्र भी अपने में अनूठा था। इसमें हिंदी, उर्दू के साथ-साथ हल्बी, भतरी, छत्तीसगढ़ी और गोंडी आदि में रचनाओं का पाठ हुआ। जगदलपुर से आये रुद्रनारायण पाणिग्राही ने भतरी में मुर्गों की लड़ाई पर केन्द्रित अपनी व्यंग्य रचना "कुकड़ा गाली" प्रस्तुत की तो भतरी के ही दूसरे 

रचनाकार नरेन्द्र पाढ़ी (जगदलपुर) ने भी कुत्ता पालने पर अपनी व्यंग्य रचना "कुकुर स्वांग" से श्रोताओं का 
दिल जीत लिया। श्री हरेन्द्र यादव ने छत्तीसगढ़ी में एक छत्तीसगढ़ी लड़के से प्रणय-निवेदन कर रही विदेशी 
बाला के संवाद का हास्य अपनी रचना में पेश किया। आदिवासियों के चहुँमुखी शोषण को रेखांकित करती 
कविताएँ दुर्योधन मरकाम ने गोंडी में और यशवंत गौतम ने हल्बी में प्रस्तुत की। हयात रजवी की उर्दू शायरी ने खूब वाहवाही लूटी। इसके अलावा शिवकुमार पाण्डेय (नारायणपुर) ने हल्बी में गीत और सुरेश चन्द्र 
श्रीवास्तव (काँकेर) ने हिन्दी में समकालीन कविताओं का पाठ किया। अभनपुर से पधारे सुप्रसिद्ध ब्लॉगर 
ललित शर्मा ने छत्तीसगढ़ी में अपनी व्यंग्य रचना "जय-जय-जय छत्तीसगढ़ महतारी" का पाठ किया। अपनी अस्वस्थता के कारण कार्यक्रम में उपस्थित न रह सकने वाले बस्तर के दो वरिष्ठ रचनाकारों लाला जगदलपुरी एवं सोनसिंह पुजारी की हिंदी एवं हल्बी रचनाओं का पाठ हरिहर वैष्णव ने आदर के साथ किया। इस सत्र का संचालन किया श्री सुरेन्द्र रावल ने।
 
इस कार्यक्रम में मनोहर सिंह सग्गू, महेश पाण्डे, महेन्द्र जैन, खीरेन्द्र यादव, जमील अहमद खान, शिप्रा त्रिपाठी, बरखा भाटिया, लच्छनदई नाग, मधु तिवारी, बृजेश तिवारी, रामेश्वर शर्मा, श्री विश्वकर्मा, पीतांबर दास वैष्णव, खेम वैष्णव, उमेश मण्डावी, चितरंजन रावल, शिप्रा त्रिपाठी, श्री पटेरिया, हेमसिंह राठौर, नीलकंठ शार्दूल, जमील रिजवी, नवनीत वैष्णव, उद्धव वैष्णव, सुदीप द्विवेदी आदि अनेक साहित्यानुरागी एवं साहित्यकार उपस्थित थे।

पुस्तक का मूल्य : 85.00 रुपये प्राप्ति स्थल : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, फेज-II, वसंत कुंज, नई दिल्ली-110070

Saturday, 2 February 2013

"आमचो बस्तर" : राजीव रंजन प्रसाद का ऐतिहासिक उपन्यास


2011 का शायद नवम्बर-दिसम्बर का कोई दिन या शायद जनवरी 2012 का सम्भवत: प्रथम सप्ताह। दिन ठीक से याद नहीं किन्तु इतना याद है कि एक फोन आता है भाई राजीव रंजन प्रसाद का कि वे कोंडागाँव आ रहे हैं मेरे पास अपने उपन्यास "आमचो बस्तर" की पाण्डुलिपि ले कर। वे मुझसे उस पर चर्चा के साथ-साथ मुझसे उसकी भूमिका लिखवाना चाहते हैं। इसके पहले उनके इस उपन्यास पर फोन पर कई बार बड़ी लम्बी-लम्बी बातचीत होती रही है। वे अपने इस उपन्यास को ले कर खासे उत्साहित और रोमांचित रहे हैं। 
पूर्वान्ह 10-11 बजे के आसपास उनका फोन आता है कि वे कोंडागाँव तो पहुँच गये हैं किन्तु मेरे घर के पास ही कहीं उनकी गाड़ी बिगड़ गयी है। मैं उनसे पूछता हूँ वे किस जगह हैं? वे जगह बताते हैं और मेरे घर का लोकेशन पूछते हैं। मैं तत्काल एक मित्र को फोन कर गाड़ी का लोकेशन बता देता हूँ और मिस्त्री को भेजने के लिये कहता हूँ। मेरे फोन करते ही वे मित्र मिस्त्री को फोन करते हैं और मिस्त्री बिना किसी विलम्ब के गाड़ी तक पहुँच जाता है। इसके बाद मैं उनकी बतायी जगह तक जाने के लिये निकलने को ही होता हूँ कि वे स्वयं चले आते हैं। उनकी गाड़ी मेरे घर से लगभग 150 मीटर की दूरी पर बिगड़ी खड़ी है। मैं उनका स्वागत करता हूँ। मेरे स्वागत का उत्तर वे मेरे चरण-स्पर्श कर देते हैं। वे बताते हैं कि मैकेनिक गाड़ी के पास खड़े हैं किन्तु वे आपके घर का लोकेशन नहीं जानते। तब मैं उन्हें घर पर ही छोड़ कर गाड़ी तक जाता हूँ। इसमें मुझे कुल मिला कर पाँच मिनट लगते हैं। वहाँ पहुँचता हूँ तब तक मिस्त्री गाड़ी को ठीक कर चुका होता है। वह मुझे देख कर पहचान जाता है और गाड़ी स्टार्ट कर मेरे घर तक ले आता है। मैं उससे उसका मेहनताना पूछता हूँ तो वह मुस्करा कर कहता है, "गाड़ी में कुछ खराबी थी ही नहीं। तो फिर मेहनताना किस बात का?" और अपने एक साथी के साथ मोटर सायकिल पर बैठ कर वापस चला जाता है। मैं इसके लिये उसका धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। भाई राजीव रंजन प्रसाद भी।
इसके बाद चर्चा चलती है उपन्यास पर। राजीव अपने इस उपन्यास के विषय में बताते चलते हैं। मेरा स्वास्थ्य गड़बड़ा जाने के बावजूद मैं उनके साथ चर्चा में सम्मिलित तो होता हूँ किन्तु अस्वस्थता मेरे मस्तिष्क को स्थिर नहीं रहने देती। मैं सुनता कुछ और गुनता कुछ हूँ। इसी बीच "सहारा समय" टी.वी. चैनल के बस्तर जिला ब्यूरो चीफ श्री राजेन्द्र बाजपेई का फोन आता है, एक कार्यक्रम में "फोनो" के लिये। मैं उनसे क्षमा माँग लेता हूँ। बताता हूँ कि पिछली कई रातों से अनिद्रा का शिकार चल रहा हूँ और मानसिक रूप से तैयार नहीं हूँ इसीलिये मैं "फोनो" पर उपलब्ध नहीं हो पाऊँगा। बहरहाल। राजीव जी के उपन्यास पर चर्चा के बाद वे मुझसे इसकी भूमिका लिखने का आग्रह करते हैं। मैं कहता हूँ कि इस वृहदाकार उपन्यास की भूमिका लिखना मेरे लिये फिलहाल सम्भव नहीं होगा। कारण, इसे पढ़ने में ही मुझे कम से कम पन्द्रह दिनों की आवश्यकता होगी, जबकि उन्हें भूमिका हर हाल में जनवरी के मध्य तक चाहिये थी ताकि फरवरी में आयोजित हो रहे विश्व पुस्तक मेला के अवसर पर यह उपन्यास प्रकाशित हो कर सामने आ जाये। मेरे लिये यह अत्यन्त कठिन था कि मैं इतने कम समय में इसे पूरा पढ़ कर इसकी भूमिका लिख सकूँ। और पढ़े बिना भूमिका लिखना उपन्यास के साथ अन्याय होगा और स्वयं मेरे लिये भी उपयुक्त नहीं हो सकता। फिर वे कहते हैं कि कम से कम आशीर्वचन के रूप में दो शब्द ही लिख दूँ। यह बात मुझे जम जाती है। फिर श्रद्धेय लालाजी (लाला जगदलपुरी जी) से सम्बन्धित और बस्तर को ले कर विभिन्न बातें होती हैं। साथ बैठ कर भोजन किया जाता है। फिर वे मेरे इस आश्वासन के साथ विदा होते हैं कि मैं उनके द्वारा मुझे उपलब्ध कराये गये उनके इस उपन्यास के सार-संक्षेप के आधार पर दो शब्द अवश्य ही लिख भेजूँगा। और मैं ऐसा करता भी हूँ। वे वापस होने के बाद ईमेल से मुझे लगभग 4-5 पृष्ठों में समाया सार-संक्षेप लिख भेजते हैं। और मैं उस सार-संक्षेप के आधार पर अपना मंतव्य उन्हें लिख भेजता हूँ। मेरे उस मंतव्य को, जो किसी काम का नहीं होने के बावजूद, उन्होंने प्रथम संस्करण में फ्लैप के रूप में स्थान दिया। इसके लिये मैं उनका हार्दिक रूप से आभारी हूँ।
इस उपन्यास को ले कर इस बस्तरिया युवक की मेहनत मैंने देखी है। बस्तर का गाँव-गाँव उन्होंने छान मारा है। तथ्य जुटाने के लिये वे न जाने कितने लोगों से मिलते रहे हैं। अथक परिश्रम किया है उन्होंने। ऐसे समय में जब बस्तर पर लिखना "फैशन" की तरह चल निकला है और जिस किसी के भी पास लिखने को कुछ और नहीं है उसे "बस्तर" भा जाता है और वह एकाध-दो दिनों के लिये बस्तर के एकाध कस्बे या नगर का एक चक्कर लगा कर "पोथा" लिख जाता है; राजीव रंजन प्रसाद का ठेठ हल्बी शीर्षक वाला यह उपन्यास वाकई "आमचो बस्तर" है। इसमें राई-रत्ती भर की भी शंका की कोई गुंजाइश नहीं। कुल मिला कर यह कि उनका यह उपन्यास बस्तर पर अब तक लिखी गयी किसी भी साहित्यिक रचना की तुलना में बीस ही साबित होती है, उन्नीस नहीं। इसमें बस्तर का सच बोलता है। अतीत और वर्तमान दोनों ही।
"आमचो बस्तर {का तीसरा संस्करण}"  का विमोचन विश्व पुस्तक मेले (4-10 फरवरी); प्रगति मैदान नई दिल्ली में दिनांक 7.02.2013 को होने जा रहा है।
25 अक्टूबर 2012 को मैं जब नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया द्वारा स्वीकृत पाण्डुलिपि "बस्तर की लोक कथाएँ" के करारनामे की प्रतियाँ ले कर लाला जी के पास उनके हस्ताक्षर हेतु पहुँचा तो उन्होंने हस्ताक्षर के बाद इस उपन्यास के दूसरे संस्करण की प्रति मुझे दिखाते हुए कहा, "बस्तर पर केन्द्रित है।" फिर आगे भी बात हुई। वह बातचीत यथावत् एमपी-3 के रूप में इस पोस्ट के अन्त में प्रस्तुत है। 
और अब अधिक समय न लेते हुए इस उपन्यास पर डॉ. कौशलेन्द्र द्वारा उनके ब्लॉग "बस्तर की अभिव्यक्ति...जैसे कोई झरना..." पर प्रस्तुत दिनांक 12 जनवरी 2013 के पोस्ट को जस-का-तस रख देना उचित होगा : 


 “आमचो बस्तर” -राजीव रंजन प्रसाद का ऐतिहासिक उपन्यास


राजीव रंजन प्रसाद का हालिया लिखा उपन्यास आमचो बस्तर” अपनी ही धरती पर बेगानों के साथ मिलकर अपनों द्वारा क्रूरता से छिछियाये हुये पीड़ित संसार का इतिहास हैअतीत की गुफाओं में दफ़न किये जा चुके बस्तर के देशभक्त महानायकों की गौरवपूर्ण समाधि बनाने और उन पर श्रृद्धासुमन अर्पित कर बस्तर के इतिहास को पुनर्जीवित करने का सार्थक और स्तुत्य प्रयास हैशोषण की अजस्र प्रवाहित विषधारा के प्रति व्यापक चिंता हैछोटी-छोटी समस्याओं के विराट ज्वालामुखी हैं,विदूप हो ठठाते विकास की कड़्वी सच्चायी हैपत्रकारिता की निष्ठा पर अविश्वास है,गोलियों से बहे निर्दोष ख़ून और मासूम चीखों से अपने अहं को तुष्ट करती सत्ता की कहानी हैदुनिया के द्वारा ख़ारिज़ किये जा चुके आयातित विचारों की पोटली में छिपे बम हैं ....और हैं ढेरों प्रश्न जो किसी भी निष्पक्ष पाठक को झकझोरनेअनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोजने और एक नई क्रांति के लिये पृष्ठभूमि की आवश्यकता पर चिंतन करने को विवश करते हैं।  
उपन्यास के भीतर से एक आह उठती है – “मेरे बस्तर! क्या तुम इसी प्रजातांत्रिक,धर्मनिरपेक्षसमाजवादी लोकतंत्र का हिस्सा होक्या बस्तर भारत का ही हिस्सा है?”देश को आज़ाद हुये आधी सदी से भी अधिक समय बीत जाने के बाद इस तरह के आह भरे प्रश्न आज़ादी के स्वरूप और औचित्य के लिये चुनौती हैं।   
कई बार मैं यह सोचने के लिये विवश हुआ हूँ कि नैसर्गिक सौन्दर्य और प्राकृतिक सम्पदाओं से भरपूर बस्तर कहीं इस आर्यावर्त की अभिषप्त भूमि तो नहीं?  त्रेतायुग में रावण का उपनिवेश रहा दण्डकवनकलियुग में दुनिया के लिये अबूझ हो गया बस्तरबीसवीं शताब्दी में ब्रिटिशभोसले और अरब आततायियों से आतंकित बस्तर,स्वतंत्र भारत में स्वाधीनसत्ता की गोलियों से भूने जाते निर्दोष गिरिवासियों-वनवासियों के शवों पर सिसकता बस्तर और वर्तमान में लाल-सबेरा के लाल-रक्त से प्रतिदिन स्नान करता बस्तर कब तक शोषित होता रहेगा और क्यों?
बस्तर की माटी में पले-बढ़ेअपने सर्वेक्षण और चिंतन को कलम के माध्यम से अभिव्यक्त करते राजीव रंजन प्रसाद के उपन्यास आमचो बस्तर” के पात्र भी इन्हीं प्रश्नों से जूझते नज़र आते हैं। बस्तर के प्राच्य इतिहास को अपने में समेटे इस ऐतिहासिक उपन्यास की प्रथम यवनिका उठते ही एक गोला सा दगता है- आख़िर सुबह क्यों नहीं होती?” प्रश्न स्वगत उत्तर के रूप में अपने को और भी स्पष्ट करता है-रोज-रोज माओवादी हमलों में मारे जा रहे आदिवासियों से वैसे भी दुनिया का क्या उजड़ता है?”
 प्रकृति ने तो बस्तर को बड़ी उदारता से सब कुछ बाँटा पर मनुष्य ने बस्तर को छलने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी। भारत की स्वतंत्रता के 12 वर्षों बाद बस्तर के वनवासियों के साथ भारत सरकार द्वारा एक क्रूर परिहास किया गयाउन्हें बताया गया कि भारत सरकार के द्वारा विजय चन्द्र भंज देव को बस्तर का महाराजा घोषित किया गया हैअब वे ही आप सबके महाराजा हैं।
प्रवीर चन्द्र भंज देव को अपना महाराजा ...अपना अन्नदाता ...अपना भगवान मानने वाले बस्तर के भोले-भाले लोगों को नहीं पता कब किसकी हुक़ूमत आयी और कब किसकी ख़त्म हो गयी। उन्हें दिल्ली नहीं मालुमउन्हें भारत सरकार नहीं मालुम। उन्हें बदला हुआ सत्य न बताकर उनकी आस्था भंग की गयी। बस्तर राज्य को भारतसंघ में स्वेच्छा से सम्मिलित कर चुके महाराजा प्रवीर को भारत सरकार ने बस ‘नाम भर’ का पूर्व राजा  मानने से इंकार करते हुये उनके छोटे भाई को ‘नाम भर’ का राजा घोषित कर दियाएक ऐसा राजा घोषित कर दिया जिसका कोई संवैधानिक अस्तित्व नहीं था। किंतु ...इस घोषणा में जिस बात का अस्तित्व था वह था झूठी शान की दिलासा में दो भाइयों को एक-दूसरे का शत्रु बनाकर सत्ता में बैठे लोगों की अहं की तुष्टि। इस तुष्टि का परिणाम हुआ 31 मार्च 1961 को बस्तर के लोहण्डीगुड़ा में आदिवासियों पर पुलिस की बर्बर फ़ायरिंग। और फिर बस्तर राजमहल में निहत्थे प्रवीरचन्द्र भंज देव की पुलिस द्वारा बर्बर हत्या। क्या स्वतंत्र भारत की यही तस्वीर है?
 उपन्यासकार राजीव रंजन की एक बड़ी पीड़ा यह भी है कि देश के लोग बस्तर को अन्धों के हाथी की तरह देखते रहे हैं ...वह भी अपनी पूरी ज़िद के साथ। दूर दिल्ली में बस्तर के प्रति एक आम धारणा देश की संचार एवं सूचना व्यवस्था का परिहास करती है – “ ... अरे बस्तर से आये होलेकिन तुमने तो कपड़े पहन रखे हैं।
लोगों की दृष्टि में बस्तर कैसा है, लेखक ने इसका  बख़ूबी वर्णन किया है –“बस्तर में ख़ूबसूरती तलाशने के लिये दिल्ली से एक बड़ी पत्रिका के पत्रकार और प्रेस फ़ोटोग्राफ़र आये थे। जंगल-जंगल घूमे। उन्हे यहाँ की हरियाली में ख़ूबसूरती नज़र नहीं आयी। चित्रकोट और तीरथगढ़ जैसे जलप्रपात उन्हें सुन्दर नहीं लगेन ही कुटुमसर जैसी गुफ़ाओं के रहस्य ने उन्हें रोमांचित किया। जिस ख़ूबसूरती की तलाश थी वह थी पत्रिका के मुखपृष्ठ पर छपी निर्वस्त्र आदिवासी युवती।
बस्तर में ख़ूबसूरती तलाशने आये एक फ़्रांसीसी जोड़े को भी किसी नग्न आदिवासी युवती की तलाश थी। घुटनों से ऊपर स्कर्ट और टीशर्ट पहनने वाली रीवा को देखकर स्थानीय युवक के मन प्रश्न उठता है कि आख़िर इतने ख़ुलेपन और न्यूनतम वस्त्रभूषा के बाद भी इन्हें बस्तर में निर्वस्त्र आदिम जीवन को ही देखने की उत्कंठा क्यों है?” आगे लेखक ने चुटकी लेते हुये लिखा है-  ....वह पिछड़ों के नंगेपन और विकसितों के नंगेपन के बीच के अंतर का विश्लेषण कर रहा था।
लेखक बस्तर की इस कृत्रिम छवि से व्यथित है इसलिये उसे ऐतिहासिक हवाला देते हुये बस्तर राज्य के पूर्व मंत्री की हैसियत वाले एक पात्र के माध्यम से यह स्पष्ट करना पड़ा कि, राजा अन्नमदेव से पहले नाग राजाओं की शासन पद्धति गणतंत्रात्मक थी। वैदिक युग से नागों के युग तक बस्तर की जनता का भौतिक,बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में विकास हुआ था। आगेलेखक ने बस्तर की त्रासदी को रेखांकित करते हुये एक स्थान पर लिखा - जब एक समाज बाहर और भीतर के द्वार बन्द करले तो समझिये उस समाज ने पीछे की ओर दौड़ लगाना आरम्भ कर दिया है। राजा अन्नमदेव गणतांत्रिक व्यवस्था को कायम नहीं रख सके ... 
 बस्तर की पृष्ठभूमि पर यह उपन्यास जंगल से दूर किसी महानगर के भव्य भवन के वातानुकूलित कक्ष में सुने-सुनाये मिथकों और कल्पना के सहारे नहीं लिखा गया बल्कि बस्तर के जंगल के भीतर बैठकर लिखा गया। इसीलिये उपन्यास एक ऐतिहासिक अभिलेख बन पड़ा है जिसके अतीत में खोये पात्र अत्याचार के विरुद्ध जूझते हुये और शोषण को अपनी नियति स्वीकार कर चुके आधुनिक पात्र विकास की आशा में बड़ी उत्सुकता से बस्तर से बाहर की ओर झाँकते नज़र आते हैं। गहन वन के अंधेरों को बेचकर ख़ुद के लिये रोशनी का ज़ख़ीरा जमा करते लोग बस्तर के अंधेरों को बनाये रखने के हिमायती हैं। अंधेरों के ख़िलाफ़ लड़ने की कसम खाते हुये कुछ तत्वों ने रूस और चीन से आयातित विचारों के सहारे एक समानांतर सत्ता कायम कर ली है जो अब ख़ुद भी अंधेरे बेचने लगी है। सत्ता के गलियारों में नक्सलवाद और माओवाद एक अज़ूबा फ़ैशन बनता जा रहा है जिसे समझने और समझाने की कोशिश में लेखक ने आदिवासी समाज की एनाटॉमीप्रशासन की फ़िज़ियोलोजी और सत्ता की पैथो-फ़िज़ियोलॉजी का पूरी ईमानदारी के साथ विश्लेषण किया है। इस विश्लेषण के प्रयास में एक कुशल जुलाहे की भूमिका निभाते हुये लेखक को अपनी बीविंग मशीन में आगे-पीछे के कई तानों-बानों को आपस में पिरोना पड़ा है जिसके कारण यह उपन्यास अतीत और वर्तमान की कई कहानियों को अपने में समेट कर चल सकने में समर्थ हो सका।
जल संसाधन की दृष्टि से बस्तर सम्पन्न है परन्तु बस्तर से होकर बहने वाली इन्द्रावती का लाभ पड़ोसी आन्ध्रप्रदेश के हिस्से में जाता हैलेखक ने इस जनसरोकार पर बहस छेड़ते हुये मुआवज़े के हक़ की बात अपने पाठकों के समक्ष रखी है। 
आज़ादी के बाद विकास की गंगा बहाये जाने का दावा करने वाली राज्यों की देशी सरकारों के पक्षपातपूर्ण सत्य को उजागर करने में, जहाँ भी अवसर मिला लेखक पीछे नहीं हटता –“बचपन का अर्थ होता है तितली हो जानाखिलखिलानाकूदना,सपने बुनना और जगमग आँखों से आकाश के सारे तारे लूट लेना ...लेकिन ऐसा बचपन शैलेष ने एक बार फिर भरी निगाह से देखा ...नहींउसमें बचपन था ही कहाँ वह लड़की आठ वर्ष की अधेड़ थी।          
आदिवासी समाज की समस्याओं का निर्धारण वातानुकूलित कक्षों में बैठकर नहीं किया जा सकता। किंतु किया यही जाता है इसलिये बस्तर को विकास की धारा में शामिल करने का प्रयास एक पाखण्ड से अधिक और कुछ नहीं हो पाता। स्वतंत्र भारत की शिक्षानीति पर प्रहार करते हुये लेखक ने कई प्रश्न उठाये हैं- सोमली नहीं समझ पाती कि पढ़ायी क्यों ख़रीदी जानी चाहिये। .... पेट्रोल और डीजल को सब्सिडी देने वाली सरकारें शिक्षा के लिये भी ऐसा ही क्यों नहीं करतींएक जैसी स्कूल ड्रेस कर देने से एक जैसी शिक्षा तो नहीं हो जाती?  ....क्या यह ख़तरनाक नहीं है कि विद्यार्थियों में उन संस्थानों का गर्व हो जाये जहाँ सुविधा-सम्पन्नता अधिक है? ...ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि जैसे स्कूल की ड्रेस एक जैसी होती है वैसे ही सबके स्कूल भी एक जैसे ही होंउसी स्कूल में कलेक्टर का लड़का भी पढ़े तो वहीं झाड़ूराम की लड़की भी?”
देश में लागू की गयी व्यवस्था जब अपने नागरिकों में भेद करने लगे तो प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं – “ये तरक्की शालिनियों के ही हिस्से में क्यों हैयह कैसी व्यवस्था है जिसमें पिसने वाला अंततः मिट जाता है। व्यवस्था ऐसा सेतु क्यों नहीं बनती जिसका एक सिरा शालिनी हो और दूसरा सोमली?”
 सरकारी तंत्र ने वर्ग भेद समाप्त करने के नाम पर वर्ग भेद को समाज में इस कदर व्याप्त कर दिया है कि जंगल से शहर तक इसकी कटु अनुभूति पीछा नहीं छोड़ती–“कितनी अजीब बात है शालिनीजगदलपुर में आदिवासी-ग़ैरआदिवासी वाली गालियाँ सुनते रहेअब पिछड़ों और ग़ैर-पिछड़ों वाली गालियाँ सुनो।
नक्सलवाद बस्तर का मैलिग्नेण्ट कैंसर है। नक्सलवाद के प्रति आदिवासियों के स्वाभाविक झुकाव का दावा करने वाले नक्सली दावों की पोल खोलते हुये लेखक ने हक़ीक़त का बयान करते हुये स्पष्ट कर दिया है कि अपनी मोटियारिन के दैहिक शोषण से उफ़नाये ठुरलू ने फावड़े से मुंशी की हत्या कर दी और जंगल में भागकर नक्सलियों की शरण में चला गया। ठुरलू के नक्सली बन जाने की घटना की व्याख्या लेखक ने अपने एक पात्र मरकाम के द्वारा कुछ इस तरह की- ठुरलू का नक्सलवादी हो जाना परिस्थिति का परिणाम हैकिसी विचारधारा का नहीं।
सन् 1857 की क्रांति से तुलना करते हुये लेखक ने आधुनिक नक्सलियों की विचारधारा का विरोध कुछ इस तरह से किया- जैसे चिंगारी से आग लग जाती है वैसे ही क्रांति भी स्वतः स्फूर्त होती है। क्रांति आयातित नहीं होतीक्रांति के लिये बड़ी-बड़ी विचारधाराओं की किताबें नहीं चाटी जातीं, ...”
नक्सलियों द्वारा बारूदी सुरंगों के ज़रिये की जाने वाली हत्याओं की दैनिक परम्परा में शासकीय कर्मचारी की मौत पर लेखक का आक्रोश बहुत ही सधे शब्दों में व्यक्त होता है –“देवांगन आम आदमी थे या नहीं इस पर बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों में मतभिन्नता हो सकती है। देवांगन तथाकथित क्रांतिकारियों के मापक में कितने डिग्री के आम आदमी कहलायेंगे इस पर समाजसेवियों तथा प्रबुद्ध लेखकों में महीनों का विचारमंथन अवश्यम्भावी है।
 नक्सलियों द्वारा बलात् स्थापित आदिवासी क्रांति के हश्र की एक निहायत भोली और विवश अनुभूति लेखक की कलम से कुछ इस तरह व्यक्त होती है – “ .....अपने घर से उठाये जाने के बाद बोदी को महीनों शारीरिक और मानसिक यातनाओं के दौर से गुज़रना पड़ा। अब उसे याद नहीं कि वह कितने शरीरों के लिये मोम की गुड़िया बनी। क्या क्रांतिकारियों के शरीर नहीं होते?”
 नक्सलियों के सच को प्रतिबिम्बित करती एक अभिव्यक्ति देखिये – “झोपड़ी के दरवाजे पर एक कागज़ चिपकाया गया जिस पर लाल स्याही से कुछ लिखा हुआ था। लिखे हुये अक्षर कोई नहीं समझता किंतु लाल रंग के आतंक से अब कौन परिचित नहींसुबह अंधेरा और फैला ....गाँव खाली हो गया।
 नक्सलियों की तथाकथित जनक्रांति पर लेखक की चिंता पाठक को झकझोरती है – “यह कैसी क्रांति होने जा रही है जिसमें मरने और मारने वाला तो आदिवासी होगा लेकिन इस खेल के सूत्रधार शतरंज खेलेंगे।
कुख्यात ताड़मेटला काण्डजिसमें केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के 76 जवानों को नक्सलियों द्वारा उड़ा दिया गया थापर चर्चा करते हुये लेखक ने कहा है – “वे क्रांति कर रहे थे। उन्हें इतना लहू चुआना था कि एक-एक दिल में दहशत घर कर जाये। वे उन सभी के घरों में घना अंधेरा करने की नीयत से ही आये थे जो क्रांति की राह में रोड़ा बन गये हैं। ..... वो औरंगज़ेब के ज़माने थे जब व्यवस्थायें तलवार की नोक पर बदला करती होंगी। माओ के नाम पर ख़ून-ख़राबों ने कई दशक देख लियेक्या बदल गया कहाँ आयी वह लाल सुबह क्या आवाज़ उठाने का तरीका हथियार ही है क्या लहू बहेगा तो ही बदलाव की कालीन बनेगा?” 
 शहरों में बैठकर जंगल के बारे में की जा रही पत्रकारिता की संदिग्ध निष्ठा लेखक को उद्वेलित करती है। प्रकाशन का व्यापार किसी लेखक के लेखनधर्म को किस तरह दुष्प्रभावित करता है इस पर एक व्यंग्य देखिये – “जानकारियाँ काफ़ी नहीं होतीं। ......पाठक क्या पढ़ेंगे उसकी नब्ज़ पकड़ो। फिर नक्सलवाद क्या हैयह सोशियो-इकोनॉमिक प्रॉब्लेम है। ...तुम दोनों को अभी और पढ़ने की ज़रूरत है। मार्क्स को पढ़ोलेनिन और माओ को जानोचे ग्वेरा के संघर्ष को समझो तभी नक्सलवाद को गहराई से जान सकोगे। तभी तुम बस्तर के नक्सलवाद का सही विश्लेषण कर सकोगे।
 मैंने बस्तर पर आर्टिकल लिखा था। मुझे नारायणपुर में रहते बीस साल से अधिक हो गये। मुझे सिखाता है कि बस्तर कैसा है और मुझे क्या लिखना चाहिये।
पत्रकारिता के हो रहे नैतिक पतन से आहत लेखक का एक व्यंग्य देखिये –“ देवी जी प्रयोग करके देखिये। आप ग़ुलाब हैंग़ुलाबी ड्रेस में ख़ूबसूरत दिखती हैं। कल हमारी रिपोर्ट ले जाइयेगा और अदब से झुककर खन्ना से मिलियेगा।
खन्ना के केबिन से बाहर आने के बाद निधि सीधे दीपक के पास आयी और बगल में बैठ गयी ...
क्या हुआ दीपक मुस्कराया।
कल मैटर लग जायेगा।
यह मेरी लिखी हुयी लाइन का नहीं, तुम्हारी नेक-लाइन का कमाल है। 
पक्षपातपूर्ण पत्रकारिता भी बस्तर की त्रासदियों में अपनी बहुत बड़ी भूमिका निभाती हैलेखक की यह पीड़ा कुछ इस तरह अभिव्यक्त हुयी है – “ .....इन घटनाओं में राष्ट्रीयसमाचार बनने के तत्व क्यों नहीं हैंदिल्ली के पास साउण्ड हैकैमरा है और एक्शन है ...नौकर ने मालिक का क़त्ल किया राष्ट्रीय ख़बर है। बाप ने बेटी का क़त्ल कर दिया सी.बी.आई. जाँच करेगी। बियर-बार में क़त्ल हुआ समूचा राष्ट्र आन्दोलन करेगा। मानव केवल दिल्ली या कि नगरों-महानगरों में रहते हैं जिनके अधिकार हैं?”
 बस्तर के सच्चे इतिहास की सदा ही उपेक्षा की जाती रही है। लेखक ने प्रश्न किया है– “क्यों इतिहास बाबरों-अकबरों और अंग्रेजों के ही लिखे जाते हैंभारत देश के इतने विशाल भूभाग के प्रति ओढ़ा गया अन्धकार क्या नक्सलियों को प्रोत्साहन नहीं है?क्या जयचन्दों और मीर ज़ाफरों की कहानिय़ाँ ही पाठ्यपुस्तकों में परोसी जायेंगी ?क्या गुण्डाधुरडेबरीधुरयादव रावव्यंकटरवगेंद सिंह जैसे संकल्पी और साहसी आदिवासी इतिहास के किसी पन्ने को दस्तक देने की क्षमता रख सकते हैंक्या यह होगा कि अगले सौ-पचास साल बाद जब बस्तर का इतिहास लिखा जायेगा तो इसके नायक बदल चुके होंगेअतीत के इन आदर्शों की स्मृतियों पर लाल खम्बे गड़ चुके होंगे?”
बस्तर की जनजातीय परम्परायें अनोखी और आकर्षक रही हैं। बस्तर एक दीर्घकाल तक शेष विश्व के लिये अबूझ रहा। बस्तर अपने घरेलू और बाहरी शोषकों के लिये उर्वर चारागाह रहा। बस्तर एक जीती जागती प्रयोगशाला रहा। पर्यटन की दृष्टि से विश्व स्तर का स्थान होते हुये भी बस्तर उपेक्षित रहा। बस्तर की धरती अमीर है पर इसके निवासी सदा ग़रीब रहे। बस्तर को दूर बैठकर करीब से देखने का एक अवसर है “आमचो बस्तर”।