Sunday 16 December 2012

17 दिसम्बर, जन्म दिवस पर विशेष : लाला जगदलपुरी के मायने




अपने धरातल के लोक-जीवन और उससे सम्बद्ध सर्वांगीण गतिविधियों पर चिन्तन, लेखन और प्रकाशन में संलग्न और इसी अनुक्रम में "बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति", "बस्तर-लोक कला-संस्कृति प्रसंग", "बस्तर की लोकोक्तियाँ", "आंचलिक कविताएँ", "ज़िंदगी के लिए जूझती ग़ज़लें", "हल्बी लोक कथाएँ", "वनकुमार और अन्य लोक कथाएँ", "बस्तर की मौखिक कथाएँ", "बस्तर की लोक कथाएँ", "मिमियाती ज़िंदगी दहाड़ते परिवेश", "गीत-धन्वा" और "पड़ाव-5" जैसी महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के प्रणेता लाला जगदलपुरी बस्तर-साहित्याकाश के वे सूर्य हैं, जिनकी आभा से हिन्दी साहित्याकाश के कई नक्षत्र दीपित हुए और आज भी हो रहे हैं। ऐसे नक्षत्रों में शानी, डॉ. धनञ्जय वर्मा और लक्ष्मीनारायण "पयोधि" के नाम अग्रगण्य हैं। 17 दिसम्बर 1920 को जगदलपुर में जन्मे दण्डकारण्य के इस ऋषि, सन्त और महामना ने 1936 से लेखन आरम्भ किया और 1939 से प्रकाशन पाने लगे। मूलत: हिन्दी का कवि होने के साथ-साथ छत्तीसगढ़ी और बस्तर की हल्बी-भतरी लोक भाषाओं में भी पर्याप्त और उल्लेखनीय सृजन किया। सृजन इतना उत्कृष्ट और प्रामाणिक कि लोग उनका लिखा चुराने लगे। बाल-साहित्य-लेखन में भी उनका गुणात्मक योगदान उल्लेखनीय और सराहनीय रहा है। लालाजी के अतीत का थोड़ा-सा समय साहित्यिक पत्रकारिता को भी समर्पित रहा था। वे जगदलपुर से कृष्ण कुमारजी द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक "अंगारा" में सम्पादक, रायपुर से ठाकुर प्यारे लालजी द्वारा प्रकाशित "देशबन्धु" में सहायक सम्पादक,  महासमुंद से जयदेव सतपथीजी द्वारा प्रकाशित "सेवक" में सम्पादक और जगदलपुर से ही तुषार कान्ति बोसजी द्वारा बस्तर की लोक भाषा "हल्बी" में प्रकाशित साप्ताहिक "बस्तरिया" में सम्पादक रहे। वे इस साप्ताहिक के माध्यम से आंचलिक पत्रकारिता के सफल प्रयोग में चर्चित रहे हैं। उन्हें देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशन मिलता रहा है। यद्यपि उनके खाते में 2004 में छत्तीसगढ़ शासन के पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मान सहित 1972 से लगातार प्राप्त होने वाले अनेकानेक सम्मान दर्ज हैं तथापि दो ऐसे सम्मान हैं, जिन्हें वे बारम्बार याद करते हैं। इन दोनों सम्मानों की चर्चा करते हुए उनकी आँखों में एक अनोखी चमक आ जाती है : 
सन् 1987 के दिसम्बर महीने की एक शाम। जगदलपुर नगर के "सीरासार हाल" में शानी जी का नागरिक अभिनन्दन किया जा रहा था। बस्तर सम्भाग के तत्कालीन आयुक्त सम्पतराम उस सम्मान-समारोह की अध्यक्षता कर रहे थे। "सीरासार" आमन्त्रितों से खचाखच भरा था। उस कार्यक्रम में लालाजी भी आमन्त्रित थे। वे सामने बैठे हुए थे। कार्यक्रम शुरु हुआ। शानीजी को पहनाने के लिये फूलों का जो पहला हार लाया गया, उसे ले कर शानीजी मंच से नीचे उतर पड़े। लोग उन्हें अचरज भरी उत्सुकता से देख रहे थे। शानीजी सीधे लालाजी की कुर्सी के पास आ खड़े हुए। लालाजी भी तुरन्त खड़े हो गये। माला उन्होंने लालाजी के गले में डाल दी। दोनों आपस में लिपट गये। आनन्दातिरेक की घड़ियाँ थीं। अप्रत्याशित और अनसोचा दृश्य था। प्राय: जैसा नहीं होता, वहाँ वैसा हो गया था। उपस्थित लोग भाव-विभोर हो गये थे। वातावरण में कई क्षणों तक तालियों की गड़गड़ाहट गूँजती रही थी। उस दृश्य को याद कर लालाजी कहते हैं, ""उस अभिनन्दन समारोह में मुझे ऐसा लगा कि वहाँ अभिनन्दन मेरा हुआ है।""
जगदलपुर स्थित मण्डी प्रांगण में अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के मंच पर स्व. दिनेश राजपुरियाजी लालाजी को सम्मानित करना चाहते थे। वे लालाजी से मिले किन्तु लालाजी ने बड़े ही संकोच के साथ उनसे क्षमा माँग ली थी। उस रात कवि सम्मेलन को लालाजी के संकोच का जिक्र करते हुए घोषणा पूर्वक उन्होंने लालाजी को समर्पित कर दिया था। लालाजी इस घटना को याद करते हुए कहते हैं, ""...और मैं मन ही मन सम्मानित हो गया था।""



प्राय: ऐसा होता है कि हमें किसी को जानने के लिये उसका गहन अध्ययन करना पड़ता है। उसे बहुत करीब से और भीतर तक पढ़ना पड़ता है। और इस प्रक्रिया में एक लम्बा समय निकल जाता है। कभी-कभी तो पूरा का पूरा जीवन ही निकल जाता है और हम कुछ लोगों को समझ ही नहीं पाते। कोई बाहर से कुछ होता है तो भीतर से कुछ और। आप पढ़ते कुछ हैं और लिखा कुछ और ही होता है। ....और आपका अध्ययन बेकार हो जाता है। लेकिन यदि मैं यह कहूँ कि ऐसे लोगों में लालाजी, यानी बस्तर के यशस्वी और तपस्वी साहित्यकार लाला जगदलपुरीजी को शुमार करना उचित नहीं होगा तो मैं कहीं गलत नहीं होऊँगा। कारण, लालाजी का बाह्य और अन्तर दोनों एक समान है। उनका व्यक्तित्व पारदर्शी है। उन्हें पढ़ने के लिये न तो आपको घंटों लगेंगे, न दिन और महीने या साल। केवल कुछ पल...और लालाजी का भीतर और बाहर सब-कुछ आपके सामने किसी झरने के निर्मल और पारदर्शी जल जैसा झलकने लगेगा। जो कुछ उनके लेखन में है, वही उनके व्यक्तित्व में भी। लेखन खरा है तो व्यक्तित्व भी खरा। इसीलिये उन्हें समझना बहुत ही सहज है। 
बात 1972-73 की होगी। मैं बी.ए. प्रथम वर्ष का छात्र था। यों तो कविताएँ मैं 1970-71 से लिखने लगा था किन्तु प्रकाशन के नाम पर शून्य था। तो मैंने अपनी "ध्यानाकर्षण" शीर्षक एक कविता जगदलपुर से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र "अंगारा" में प्रकाशनार्थ भेज दी और सुखद आश्चर्य! कि वह कविता उस पत्र में प्रकाशित हो गयी। यह मेरा पहला प्रकाशन था। प्रकाशन के कुछ ही दिनों के भीतर उसके सम्पादक का पत्र भी मिला। सम्पादक थे लाला जगदलपुरीजी। नाम तो बहुत सुना था किन्तु उनके दर्शन का सौभाग्य तब तक नहीं मिल पाया था। उनका पत्र पा कर हौसला बढ़ा। एक दिन मैं अपने मित्र भाई केसरी कुमार सिंह के साथ उनके दर्शन करने पहुँच गया। उन्होंने यह जान कर कि उस कविता का कवि मैं हूँ, मेरी पीठ थपथपायी और कहा, "अच्छी रचना है। लिखते रहो। आगे और अच्छा लिखोगे, ऐसा मेरा विश्वास है।" मेरे लिये उनका यह आशीर्वाद किसी अनमोल रतन से कम नहीं था। आज भी कम नहीं है। और उसके बाद तो लालाजी से सम्पर्क का सिलसिला चल निकला। मेरी कई रचनाओं के परिमार्जन में लालाजी ने पूरे मन से समय दिया। अभी कुछ वर्षों तक भी वे उसी दुलार और स्नेह के साथ मेरी रचनाओं को ठीक-ठाक करने में अपना महत्त्वपूर्ण समय देते रहे हैं। यह मेरे लिये न केवल सौभाग्य अपितु गौरव की भी बात है। यहाँ यह कहना ज्यादा समीचीन होगा कि वे प्रत्येक उस रचनाकार की रचना को बड़े ही ममत्व से पढ़ते और उस पर अपना रचनात्मक सुझाव देते हैं, जो उनसे अपनी रचना को देख लेने का आग्रह करता है। ऐसे रचनाकारों में सुप्रसिद्ध कथाकार-उपन्यासकार शानी और आलोचना के शिखर पुरुष डॉ. धनञ्जय वर्मा के अलावा सुरेन्द्र रावल, योगेन्द्र देवांगन, लक्ष्मीनारायण पयोधि और त्रिलोक महावर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। यह अलग बात है कि ऐसे रचनाकारों में से कई उनके इस अवदान को भुला चुके हैं। किन्तु इसमें लालाजी का भला क्या दोष? 
किन्तु वे दोषी हैं। और उनका दोष यह है कि वे निर्दोष हैं। सच ही तो है, निर्दोष होना ही तो आज के युग में दोष है। वे निर्लिप्त हैं, प्रचार-प्रसार से कोसों नहीं बल्कि योजनों दूर रहने में भरोसा करते हैं। वे दोषी इस बात के भी हैं कि वे सरकारी सुविधायें नहीं झटक सके जबकि उनके चरणों की धूलि से भी समानता करने में अक्षम लोगों ने सारी सरकारी सुविधाएँ बटोर लीं। यदि स्वाभिमानी होना ग़लत है, तो वे ग़लत हैं। कारण, स्वाभिमान तो उनमें कूट-कूट कर भरा है। साहित्य की साधना करना दोष है तो वे दोषी हैं, क्योंकि वे तो साहित्य-साधक हैं; तपस्वी हैं। एकनिष्ठ होना यदि दोष है तो वे दोषी हैं, क्योंकि उनका एकमात्र उद्यम है साहित्य-साधना। साहित्य की राजनीति और गुटबाजी से अपने-आप को दूर रख कर रचना-कर्म में लगे रहना यदि दोष है तो लालाजी दोषी हैं, क्योंकि न तो उन्होंने साहित्य की राजनीति को अपने पास फटकने दिया और न गुटबाजी की दुर्गन्ध की ओर कभी नाक ही दी। अपने आप को प्रगतिशील, जनवादी और न जाने किन-किन अलंकरणों से सुसज्जित करने में लगे कुछ नौसीखियों की दृष्टि में लालाजी बुर्जुवा हैं। लेकिन ऐसे महानुभावों को सम्भवत: यह पता नहीं कि लालाजी कितने प्रगतिशील और जनवादी हैं। ऐसे लोगों की बुद्धि पर ग़ुस्सा नहीं मात्र तरस आती है। गीदड़ यदि शेर की खाल ओढ़ ले तो थोड़ी देर के लिये भ्रम की स्थिति तो निर्मित हो सकती है किन्तु क्या वह इतने से ही शेर बन सकता है? लालाजी तो शेर हैं। उनकी खिल्ली गीदड़ उड़ा लें तो क्या फर्क पड़ता है भला?
जगदलपुर की सड़कों पर छाता लिये, धोती का एक सिरा उँगलियों के बीच दबा पैदल घूमते लालाजी का मन हुआ तो घुस गये किसी होटल में नाश्ता करने के लिये और मन हुआ तो वहीं सड़क के किनारे खोमचे के पास खड़े-खड़े ही कुछ खा-पी लिया। शहर में एक छोटे से बच्चे से ले कर बड़े-बूढ़े तक सभी तो पहचानते हैं उन्हें। यह अलग बात है कि पढ़े-लिखे लोग "लालाजी" और अनपढ़-से लोग "लाला डोकरा" के नाम से जानते हैं। कुछ वर्षों पूर्व स्कूटर पर से गिर जाने के बाद से वे प्राय: पैदल नहीं चलते। रिक्शे से आते-जाते हैं। शहर के सारे रिक्शे वाले उनके घर से भली भाँति परिचित हैं और एक बँधी-बँधायी किन्तु रियायती रकम ही उनसे लेते हैं। इस तरह रिक्शे वाले भी उनके प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित करते हैं। संवेदनशील इतने कि आज 92 वर्ष की आयु में भी उन्हें अपनी माता की याद सताती है। वे अपनी स्वर्गीया माता को याद कर किसी शिशु की तरह भाव-विह्वल हो जाते हैं। दूसरों का ध्यान इतना अधिक रखते हैं कि कोई सगा भी क्या रखता होगा। पिछले वर्ष नवम्बर में और फिर 05 दिसम्बर (2010) को मैं जब उनसे मिला था तो वे अपनी स्मरण-शक्ति के क्षीण होते जाने को ले कर बहुत परेशान थे। उनकी परेशानी यह थी कि यदि किसी ने उन्हें देख कर नमस्कार किया तो उन्होंने उस नमस्कार का जवाब दिया या नहीं। वे कहने लगे थे, ""मैं व्यथित हो जाता हूँ जब मुझे यह स्मरण नहीं रहता कि मैंने मेरा अभिवादन करने वाले महानुभाव को उसके अभिवादन का प्रत्युत्तर दिया अथवा नहीं। एक अपराध बोध होता है और आत्मा कचोटती है कि यदि मैंने नमस्कार का जवाब नमस्कार से नहीं दिया तो यह अवश्य ही उस व्यक्ति का मेरे द्वारा किया गया अपमान ही होगा। मैं इसी बात को ले कर चिन्तित रहा करता हूँ।""  
लालाजी अपनी दिवंगत माता को शिद्दत से याद करते हुए अत्यन्त भावुक हो उठते हैं। उन्हें स्मरण कर आज 93 वर्ष की आयु में भी उनकी आँखे पनीली हो आती हैं। निम्न मुक्तकों में अपनी माता के प्रति उनकी श्रद्धा और भक्ति प्रदर्शित होती है : 
आयु के तुमने भयानक वर्ष झेले,
नर-पिशाचों के गलत आदर्श झेले,
जन्म-दात्री! खूब था जीवन तुम्हारा -
खूब, तुमने खूब ही संघर्ष झेले। 
माता की मृत्यु ने उन्हें विचलित कर दिया था। वे अपनी माता की मृत्यु से इतने व्यथित हुए कि उन्हें "भगवान-खोली" यानी पूजा-कक्ष भी माता की अनुपस्थिति में सूना लगता है : 
हृदय सूना, प्राण सूने,
नयन सूने, कान सूने,
क्या करे भगवान-खोली -
माँ बिना भगवान सूने। 
माता का वरद हस्त उनके सिर पर था और ऐसे में जब उनकी मृत्यु हुई तो लालाजी पर मानो गाज ही गिर पड़ी। उन्हें अपनी माता से बहुत सम्बल मिला करता था। दीनता से भरे समय में भी माता के हाथ ऊँचे रहा करते, कटि झुकी होने के बावजूद उनका माथा ऊँचा रहा करता : 
पेट भूखा, हाथ ऊँचा!
कटि झुकी, पर माथ ऊँचा!
थी गिरी हालत, मगर माँ,
था तुम्हारा साथ ऊँचा!
लालाजी को इस बात का सदैव दु:ख रहा है कि उनकी माता के संगी केवल और केवल दु:ख और दर्द ही रहे थे। यह दु:ख उन्हें सालता रहा है : 
संगी थे दु:ख-दर्द तुम्हारे,
थीं तुम इतनी नेक, रहम-दिल
सब की फरियादें पी-पी कर,
घुटती रहती थीं तुम तिल-तिल।
माँ के रूप मिलीं तुम मुझको,
मुझे दे गई मेरी मंज़िल।
मने के गगन तुम्हारी सुधियाँ,
रात-रात भर झिलमिल-झिलमिल।  
माता की दिनचर्या में केवल और केवल काम हुआ करता था। विश्राम के पल आते ही नहीं थे। उन्होंने अपनी माता को हमेशा "कमेलिन" की तरह काम में जुटी हुई देखा था : 
कभी सीती-टाँकती-सी दीख पड़ती हो,
जख्म ताजा आँकती-सी दीख पड़ती हो,
कभी कमरे में रसोई के कमेलिन माँ!
खोलती कुछ ढाँकती-सी दीख पड़ती हो!
लालाजी अपनी माता की ही तरह अपने गाँव तोतर को भी भुला नहीं पाते। तोतर उनके मानस-पटल पर रह-रह कर कौंधता रहता है। मैंने कई बार बातचीत के दौरान उनके मुँह से तोतर का जिक्र सुना है। वहाँ के आम, इमली और करंजी पेड़ों की छाँव, वहाँ का पवन, पानी, शीत, सन्नाटा, अँधेरा सब कुछ तो याद है उन्हें :
दीन बचपन, दूर "तोतर गाँव" मैं-तुम!
आम, इमली और करंजी-छाँव मैं-तुम!
पवन, पानी, शीत, सन्नाटा, अँधेरा,
रात डायन, खौफनाक पड़ाव, मैं-तुम!
साक्षात्कारों से लालाजी प्राय: दूर रहते आये हैं। उनका कहना रहा है कि साक्षात्कार ले कर कोई क्या करेगा? ""आप हमसे रचनाएँ लीजिये। साक्षात्कार में क्या रखा है?"" वे कहते हैं। वे "माइक" पर कुछ भी कहने से गुरेज करते हैं। राजेन्द्र बाजपेई कई बार प्रयास कर चुके कि वे उनसे एक टी.वी. चैनल के लिये बातचीत रिकार्ड कर सकें किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। मैंने भी कई बार प्रयास किया किन्तु ऐसा सम्भव नहीं हो सका। हाँ, वे लिखित साक्षात्कार दे देते हैं। आप अपने प्रश्न उन्हें लिख कर दे दें, वे उन प्रश्नों का जवाब लिखित में तैयार कर आपको अगले दिन अथवा कुछ दिनों बाद सहर्ष दे देंगे। 
वर्षों पूर्व बस्तर पर पुस्तक लिखने के लिये एक तथाकथित और स्वयंभू साहित्यकार को मध्यप्रदेश शासन ने किसी प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी-सी सारी सुविधाएँ और धनराशि मुहैया करवायी किन्तु उन्होंने क्या और कैसा लिखा, आज तक कोई नहीं जानता। किन्तु सुविधाओं और आर्थिक सहायता के बिना लालाजी ने "बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति" तथा "बस्तर लोक : कला एवं संस्कृति", "बस्तर की लोक कथाएँ", "बस्तर की लोकोक्तियाँ", "हल्बी लोक कथाएँ", "आंचलिक कविताएँ", "मिमियाती ज़िंदगी दहाड़ते परिवेश", "गीत-धन्वा" आदि महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का प्रणयन कर यह सिद्ध कर दिया कि शासकीय सहायता के बिना भी काम किया जा सकता है। और किसी भी तरह की सहायता का मुखापेक्षी होना सृजनात्मकता को निष्क्रिय कर देता है। यही कारण है कि राजकीय सहायता का मुखापेक्षी होना लालाजी को कभी रास नहीं आया। राजभाषा एवं संस्कृति संचालनालय से मिलने वाली सहायता राशि के सन्दर्भ में प्रतिवर्ष माँगे जाने वाले जीवन प्रमाण-पत्र के विषय में लालाजी ने स्पष्ट कह दिया था कि उनसे उनके जीवित होने का प्रमाण-पत्र न माँगा जाये। शासन उन्हें जीवित समझे तो सहायता राशि दे अन्यथा बन्द कर दे। उनका कहना था कि सहायता माँगने के लिये उन्होंने शासन से कोई याचना नहीं की थी और न करेंगे। वे कहते हैं कि उनकी अर्थ-व्यवस्था आकाश वृत्ति पर निर्भर करती है। 
पिछले कुछ वर्षों से वे मौन साध लेने को अधिक उपयुक्त मानने लगे हैं। मैंने काफी दिनों से उनका कोई पत्र न आने पर जब उनसे शिकायत की तो उन्होंने मुझे अपने दिनांक 18.01.04 के पत्र में लिखा : ""....परिस्थितियों ने इन दिनों मुझे मौन रहने को बाध्य कर दिया है। चुप्पी ही विपर्यय की महौषधि होती है। मेरे मौन का कारण तुम नहीं हो।"" 
कोई रचना उन्हें भा जाये तो रचनाकार की तारीफ करने में वे कंजूसी बिल्कुल ही नहीं करते। बस्तर की वाचिक परम्परा पर केन्द्रित मेरी पुस्तकों के विषय में उन्होंने अपने एक पत्र में लिखा, ""बस्तर के लोक साहित्य को समर्पित तुम्हारे चिन्तन, लेखन और प्रकाशन की सारस्वत-सेवा का मैं पक्षधर और प्रशंसक हूँ। बधाई ------ शुभकामनाएँ।"" आज जब हम थोथी आत्म-मुग्धता के चरम पर हैं और दूसरों की सृजनात्मकता और उपलब्धि हमारे लिये सबसे बड़ा दु:ख का कारण हो गयी है; लालाजी की यह औदार्यपूर्ण प्रतिक्रिया मायने रखती है। 
लालाजी ने जो कुछ लिखा उत्कृष्ट लिखा। बस्तर की संस्कृति और इतिहास पर कलम चलायी तो उसकी प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगे ऐसी सम्भावना से भी उसे अछूता रखा। यही कारण है कि उनके बस्तर सम्बन्धी लेखों की प्राय: चोरी होती रही है। चोरों में बड़े नाम भी शामिल रहे हैं। नामोल्लेख के बिना कहना चाहूँगा कि यह चोरी लगातार और धड़ल्ले से होती रही है जो आज भी जारी है। अभी पिछले वर्ष कोंडागाँव स्थित महाविद्यालय द्वारा प्रकाशित तथाकथित ग्रन्थ में भी बस्तर दशहरा पर लालाजी का पूर्व प्रकाशित लेख जस का तस किसी ने चुरा कर अपने नाम से प्रकाशित करा लिया है। ऐसी ही चोरियों के सन्दर्भ में जब मेरी उनसे बातचीत हो रही थी तब वे कहने लगे थे, ""हमें इस बात का गौरव है कि हमने कुछ ऐसा लिखा कि लोग उसे चुराने लगे हैं। चोरी तो बहुमूल्य और महत्त्वपूर्ण वस्तुओं की ही होती है, न?"" वे कहते हैं कि रचनाओं की चोरी-चपाटी या छीन-झपटी उनके लिये अपनी रचनाओं को परखने की एक कसौटी बनती गयी और इससे उन्हें अपनी रचनाओं की सशक्तता का एहसास होता गया। चोरी की ऐसी ही एक अनोखी घटना का जिक्र करते हुए वे बताने लगे कि एक व्यक्ति को उन्होंने इस शर्त पर रचना-सहयोग दिया था कि वह उन्हें टाइपिंग-चार्ज दे दें। इस पर वे सज्जन राजी पड़ गये और टाइपिंग-चार्ज दे तो दिया लेकिन सामग्री पर हावी हो गये। जब लालाजी अपनी सामग्री हथियाये जाने के विरूद्ध उनकी अदालत में उनके खिलाफ पेश हुए तब वे सज्जन अपनी सफाई में कहने लगे, ""मैंने आपको टाइपिंग-चार्ज दे दिया था। याद होगा। इसीलिये इसका उपयोग मैंने अपने नाम से कर लिया था। अगर आप नहीं चाहते, तो कोई बात नहीं।""
घोटुल पर लोगों ने ऊलजलूल लिखा और बस्तर की इस महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर के विषय में भ्रामक प्रचार किया। उसे लांछित किया। किन्तु लालाजी ने घोटुल की आत्मा को समझा और सच्चाई लिखी। अपनी बहुचर्चित पुस्तक "बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति" के लेखकीय में वे कहते हैं, ""मैं शास्त्रीय लेखन का धनी नहीं हूँ। "बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति" में मेरा अनुभव-लेखन संकलित है। ग्रियर्सन, ग्रिग्सन, ग्लासफर्ड और एल्विन आदि जिन विख्यात मनीषियों के उद्धरण दे-दे कर तथ्यों की पुष्टि की जाती है; उन्होंने जिन क्षेत्रीय रचे-बसे लोगों से पूछ-ताछ कर प्रामाणिक सामग्री जुटायी थी, अंचल के वैसे ही लोग मेरे तथ्य प्रदाता भी रहे थे। लेखकीय दृष्टि मेरी स्वत: की है।"" क्या इतनी ईमानदारी किसी और लेखक के आत्म-स्वीकार में मिल पाती है? वे बस्तर के बेजुबान लोगों के विषय में इसी लेखकीय में आगे कहते हैं, ""प्रकृति की खुली पुस्तक में मैंने बस्तर के विगत वनवासी जीवन-दर्शन का थोड़ा-सा आत्मीय अध्ययन किया है। एक ऐसा लोक-जीवन मेरी सृजनशीलता को प्रभावित करता आ रहा है, जिसने जाने-अनजाने प्रबुद्ध समाज को बहुत कुछ दिया है और जिसके नाम पर गुलछर्रे उड़ाये जाते थे। लँगोटियाँ छिन जाने के बावजूद भी जिसे लँगोटियाँ अपनी जगह सही-सलामत मालूम पड़ती थीं। सोचिये, आदमी सामने है। उसका कण्ठ गा रहा है, उसके होंठ मुस्करा रहे हैं और चेहरा उत्फुल्लता निथार रहा है। उसका शरीर गठा हुआ है। समझ में यह नहीं आता कि उसकी इस मस्ती का कारण क्या है? उसकी इस निश्चिन्तता का रहस्य क्या है? जबकि उसका उत्तरदायित्व बड़ा है और उसके घर कल के लिये भोजन की कोई व्यवस्था नहीं है। उसके नसीब में केवल श्रम ही श्रम है, दु:ख ही दु:ख है, परन्तु वह दु:ख को सुख की तरह जी रहा है। उसका यह जीवन-दर्शन कितना प्रेरक है......सोचिये।""
लालाजी धन के साथ-साथ यश-लिप्सा से भी अछूते रहे हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो वे मुझे उन पर काम करने के लिये मना न कर देते। सन् 2000 में मैंने उन पर पीएच-डी करने की सोची थी और उन्हें अपनी मंशा बतायी तो वे कहने लगे थे कि मैं उन पर पीएच-डी करने की बजाय किसी अन्य विषय पर पीएच-डी करूँ। उन्होंने कहा था, ""मुझे छोड़ कर अन्य किसी भी विषय पर पीएच-डी करो। मुझ में क्या रखा है। और वैसे भी मुझ पर पीएच-नहीं कर सकते क्योंकि उसके लिये मेरी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या कम है।"" उस समय बात आयी-गयी हो गयी। किन्तु मेरे मन से उन पर काम करने की इच्छा गयी नहीं और मैं लगातार इस सम्बन्ध में सोचता औरअकुलाता रहा। फिर 2005 में जब मैं अध्ययन अवकाश पर था, मैंने तय कर लिया कि अब तो उनके मना करने पर भी उन पर काम करना ही है। और मैंने अपना प्रस्ताव उनके समक्ष रख दिया। मैंने कहा कि मैं पीएच-डी नहीं करूँगा। नहीं लेना मुझे डॉक्टरेट की डिग्री, किन्तु उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर छोटा-मोटा काम तो कर सकता हूँ, न? वे तब भी नहीं माने थे किन्तु जब मैंने बहुत जोर दिया तो वे इस शर्त के साथ मान गये कि मैं बस्तर की वाचिक परम्परा पर चल रहे अपने काम को प्राथमिकता दूँगा और उन पर किये जाने वाले काम को दूसरे क्रम पर रखूँगा। इतना ही नहीं उन्होंने यह शर्त भी रखी कि उन पर किये जाने वाले काम के कारण बस्तर की वाचिक परम्परा पर चल रहे मेरे काम में व्यवधान नहीं आना चाहिये। मैंने उन्हें वचन दिया कि ऐसा ही होगा और आश्वस्त किया कि इन दिनों चूँकि मैं एक वर्ष के अध्ययन अवकाश पर हूँ इसीलिये मेरे पास समय की कमी नहीं है इसीलिये व्यवधान की कोई बात ही नहीं है। मुझे आज भी उनके शब्द याद हैं। उन्होंने बड़ी ही भावुकता के साथ कहा था, ""बस्तर में अलिखित साहित्य का अक्षुण्ण भण्डार है, जिसे सहेजने का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य तुम कर रहे हो। उसे सहेजने का काम मुझ पर लिखने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। पहले उसे पूरा करो।"" क्या ऐसी सोच किसी सामान्य व्यक्ति की हो सकती है? यह सोच तो केवल लालाजी जैसे ऋषि की ही हो सकती है, न? बहरहाल, मैंने प्रस्ताव रखा कि मैं दस-पन्द्रह दिनों के लिये जगदलपुर प्रवास पर रह कर उनसे बातचीत करूँगा और बातचीत के जरिये सामग्री जुटाऊँगा। मेरे पत्र के जवाब में उन्होंने लिखा कि जगदलपुर में शान्ति नहीं है। और वे स्वयं कोंडागाँव आयेंगे और लॉज में ठहरेंगे किन्तु लॉज का खर्च स्वयं वहन करेंगे। मेरे लिये यह स्थिति दु:खदायी थी किन्तु स्वाभिमानी लालाजी की बात टालने का अर्थ होता उनके आगमन के स्वर्ण अवसर को जान-बूझ कर खटाई में डालना। मैं उनकी इस शर्त को मान गया। मानना ही था। न मानता तो वे आते ही नहीं। बहरहाल, तय कार्यक्रम के अनुसार वे कोंडागाँव आये और बस-स्टैंड के पास स्थित गुरु लॉज में ठहरे। उन्होंने ताकीद कर दी थी कि वे पैदल ही चलेंगे, वाहन की आवश्यकता नहीं होगी। उन्होंने मेरे लॉज पहुँचने का समय निर्धारित कर दिया था। उनके आदेशानुसार सवेरे 9 बजे मैं उन्हें लेने के लिये मोटर सायकिल पर अपने बेटे चि. नवनीत के साथ जाता, जो मुझे उनके पास छोड़ कर मोटर सायकिल वापस ले आता। वे मेरे पहुँचने के पहले ही नित्य-कर्म से निवृत्त हो कर लॉज के नीचे होटल में नाश्ता कर चुके होते। उन्होंने पहले ही कह रखा था कि वे नाश्ता होटल में ही करेंगे और उसका पेमेन्ट भी वही करेंगे। मैंने उनकी बात न चाहते हुए भी मान ली थी। मानना विवशता थी। न मानता तो.............। बहरहाल, हम दोनों लॉज से पैदल चल कर घर आते। फिर घर में भी उन्हें हल्का-सा नाश्ता मेरे साथ करना पड़ता। चाय पी जाती और अनौपचारिक बातें होतीं। बातचीत टेप रिकार्ड करने की सख्त मनाही रहती। दोपहर के भोजन के बाद लालाजी को मेरा बेटा चि. नवनीत मोटर सायकिल पर लॉज तक छोड़ देता। शाम को मैं फिर से लॉज पहुँच जाता और फिर हम दोनों पैदल घूमने निकल पड़ते। घूमते-घामते घर आते। भोजन होता और फिर वे वापस लॉज पहुँचा दिये जाते। इस तरह लगभग 10-12 दिन वे कोंडागाँव में रहे। टेप रिकार्डर और विडियो कैमरे पर उन्होंने केवल कविताएँ और आलेख ही रिकार्ड करवाये। साक्षात्कार जैसी चीज को दोनों ही माध्यमों से दूर रहने दिया। न केवल मेरे लिये बल्कि मेरे पूरे परिवार के लिये वे 10-12 दिन किसी उत्सव से कम नहीं थे। मेरा घर उतने दिनों के लिये एक साहित्य-तीर्थ बन गया था। मेरे साथ-साथ मेरा परिवार भी उन दिनों की याद कर आज भी गौरवान्वित होता रहता है। पिछली बार जब मैं 05 दिसम्बर (2010) को उनसे मिला तो वे भी उन पलों की याद में खो गये। मेरे पिताजी को वे अपने छोटे भाई की तरह मानते थे। द्रवित स्वर में कहने लगे, ""भाई के साथ बातें होती थीं जब भी मैं कोंडागाँव जाता था तुम्हारे यहाँ। अब तो वे रह नहीं गये। क्या करें, यही संसार का नियम है।"" 
लालाजी इसके पहले भी कई बार कोंडागाँव प्रवास पर रह चुके हैं किन्तु कभी भी किसी के घर पर नहीं ठहरे। हर बार लॉज में रुके। हाँ, भोजन अवश्य ही घर पर किया करते। उन्हें कोंडागाँव रास आता रहा है।  
लाला जी एक लेखक के दायित्व से न केवल भली भाँति परिचित हैं अपितु उसका निर्वहन भी उसी तरह और पूरी तरह सजगता के साथ करते हैं। इस सम्बन्ध में वे अपने एक लेख "लेखक और लेखकीय दायित्व" में कहते हैं, ""मानव-समाज में दायित्व एक ऐसा गुण है, जिसकी आवश्यकता हर कार्य में हुआ करती है। दायित्व-निर्वहण के अभाव में कोई भी कार्य सफल नहीं हो पाता। मिलने-जुलने और बातचीत करने में भी दायित्व का निभापन आवश्यक होता है। फिर लेखन का कार्य तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। उसके दायित्वहीन होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। लेखक, जो विकसित व्यक्तित्व का धनी होता है, वह निस्संदेह दायित्वपूर्ण ही होता है। दायित्व के निभापन से लेखक और लेखन, दोनों ही काल-जयी हो जाते हैं। यह उल्लेखनीय है कि विकसित व्यक्तित्व का ही कृतित्व इसलिये दायित्वपूर्ण होता है, क्योंकि लेखक, जो विकसित व्यक्तित्व का उदाहरण बनता है, सबसे पहले वह मनुष्य होता है और मनुष्य हो कर मनुष्यता-विरोधी ताकतों से संघर्ष करते हुए और प्रतिकूलताओं को झेलते हुए दायित्वपूर्ण जीवन जीता है तथा जीवनानुभवों की समृद्धि जुटा कर लिखता है। जाहिर है कि दायित्वपूर्ण जीवन जिये बिना लेखकीय दायित्व की निष्पत्ति नहीं हो पाती। दायित्वपूर्ण लेखन का एक उद्दिष्ट मार्ग होता है। उसकी एक निश्चित दिशा होती है। कोई भी प्रतिभावान लेखक देख-सुन कर, पढ़ कर, भोग कर, सोच-विचार कर और आत्म-प्रेरित हो कर लिखता है। तभी उसके लेखन में परिपक्वता आती है और वह अपने लेखकीय दायित्व का मूद्र्धन्य कृतिकार कहलाता है। लेखन और लेखक की एक ही दिशा होती है।""
लालाजी समदर्शी हैं। उनके मुँह से कभी किसी के लिये कोई अपशब्द नहीं निकले। किसी को बुरा कहा ही नहीं। उनके लिये कोई भी व्यक्ति बुरा नहीं है। बुरा भी अच्छा है। वे निंदा-सुख नहीं लेते। देखें उनकी कविता "सब अच्छे हैं" की कुछ पंक्तियाँ : 
किस-किस की बोलें-बतियाएँ, सब अच्छे हैं,
आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ सब अच्छे हैं। 
सबको खुश रखने की धुन में सबके हो लें,
मिल बैठें सब, पियें-पिलायें सब अच्छे हैं। 
अन्त में यह कहना होगा कि यदि हममें अक्षरादित्य लालाजी का स्वाभिमान, उनकी ईमानदारी, उनकी सच्चाई और लगन, परिश्रम तथा निष्ठा का एक छोटा-सा अंश भी आ जाये तो यह हमारे लिये बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। आज के इस कठिन दौर में लालाजी जैसा व्यक्तित्व मिल पाना सहज नहीं है। हम सब सौभाग्यशाली हैं कि हमें उनका नैकट्य सहज ही उपलब्ध है। इसके लिये हमें लालाजी का आभारी होना चाहिये। 
(प्रस्तुत आलेख लालाजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केन्द्रित मेरे लेखनाधीन पुस्तक ""दण्डक वन के ऋषि लाला जगदलपुरी"" का महज एक प्रारम्भिक अंश है।)
आइये, लाला जी का काव्य-पाठ सुनें : 


5 comments:

  1. ईमेल से डॉ. रत्ना वर्मा (उदन्ती.कॉम), रायपुर (छ.ग.) ने लिखा :
    आदरणीय हरिहर जी,
    नमस्कार।
    सर्व प्रथम लाला जी को जन्म दिवस पर कोटिशः बधाई और शुभकामनाएँ।
    आपने उनके जन्म दिवस के अवसर पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर महत्वपूर्ण जानकारी दी है। बस्तर पर उन्होंने जो कुछ लिखा है उससे ज्यादा तथ्यपरक और कुछ हो ही नहीं सकता।
    लेख पढ़वाने के लिए आपको धन्यवाद और बधाई।
    सादर
    -रत्ना

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  2. जन्म दिन की मंगलकामनायें! एक बार फिर लाला जी की कड़कती आवाज़ सुनवाने के लिये धन्यवाद! लाला जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आपके लेख के शेषांश की प्रतीक्षा रहेगी।

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  3. चर्चित उपन्यास "आमचो बस्तर" के उपन्यासकार श्री राजीव रंजन प्रसाद (देहरादून) ने 18.12.2012 को चैटिंग के दौरान लिखा :
    जी सर कल लाला जी पर आपका लेख भी पढा सर। उनका जन्मदिवास आपने बहुत अच्छी तरह मनाया। उनपर किताब का अंश था आपका आलेख शायद। सर यह किताब उनके जीवनकाल मे आ जाये यह प्रयास रहे तो उन्हे भी अच्छा लगेगा।

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  4. श्री आर. पी. श्रीवास्तव (भोपाल) ने ईमेल पर दिनांक 18.12.2012 को लिखा :

    Priya Vaishnav ji,
    Shradhdheya Jagdalpuri ji ke baare mein itne vishad
    aur bhavpurna aalekh aur iske oopar sone mein suhaga ke roop
    mein unki hi awaz mein do- do rachnaon ka uphaar -----,
    anek dhanyawad.Guru aur shishya dono ko hi saadar naman.
    Aapke is aalekh ne swar. Dinesh Rajpuria ji ki bhi yaad dila di.
    Sasneh,
    Bhawdeeya,
    RP SRIVASTAVA

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  5. स्‍तुत्‍य प्रयास. लालाजी को सादर नमन.

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