Sunday, 27 May 2012

नन्हें कन्धों पर जीवन का बोझ


आज नवभारत, 26 जुलाई 1984 अंक में प्रकाशित यह रपट : 


आज जब सारे के सारे जंगल काट लिये जा रहे हैं, न केवल बड़े शहरों में बल्कि सुदूर गाँवों में भी ईंधन के लिये लकड़ी की भारी कमी से लोगों को दो-चार होना पड़ रहा है। हालांकि शहरी इलाक़ों में टाल, फ्युल डिपो और निस्तार डिपो आदि की व्यवस्था की गयी है, किन्तु फिर भी यह समस्या मुँह बाए खड़ी है। जंगल के कानून कठोर से कठोरतम हो गये हैं। स्वयं जंगल विभाग के लोगों को भी जलाऊ के लिये काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। वहीं यह भी सत्य है कि इस इलाके से आन्ध्रप्रदेश के लिये रोजाना काफी कीमतों पर जलाऊ के ट्रक जा रहे हैं। जिनके पास साधन हैं, उन्हें तो खैर इसकी कोई विशेष चिन्ता नहीं है, किन्तु जो लोग अल्प आय वाले हैं, उन्हें पाँच रुपये (कांकेर में तो दस रुपये) काँवड़ में जलाऊ खरीदना काफी महँगा पड़ रहा है। जलाऊ की किल्लत को देखते हुए लोगों ने प्रेशर कुकर या गोबर गैस संयत्र आदि का प्रयोग करना शुरु कर दिया है। किन्तु यह सुविधा भी हर आदमी नहीं मोल ले पाता और अब उसकी परेशानी निरन्तर बढ़ती जा रही है।
उपभोक्ता की परेशानी तो अपनी जगह है ही, किन्तु उनसे भी अधिक कष्ट है तो लकड़हारों को। विशेषत: उन मासूम लकड़हारों के लिये यह एक जानलेवा समस्या बन गयी है जो कम उम्र के हैं और अभी जिनके खेलने-खाने के दिन हैं। बाहर की बात मैं नहीं जानता, किन्तु यहाँ, बस्तर में, आप देखेंगे आठ-नौ वर्ष की उम्र के बच्चों से ले कर पचास-साठ वर्ष के बूढ़े तक इस व्यवसाय से गहरे जुड़े हैं। यही इनकी आजीविका का प्रमुख साधन है। आदिवासी, जो जंगलों में रहते हैं, अपनी आजीविका के लिये या तो वनोपज संग्रहण करते हैं या फिर जलाऊ बेचने का काम। बहुत से लोगों को यह काम विरासत में ही मिल जाता है। वनोपज-संग्रहण में इनका जितना शोषण हमने किया है, वह इतना स्याह है कि चाह कर भी वे हमें कभी माफ नहीं कर सकते।
बस्तर के कुल आदिवासी-हरिजनों में से लगभग बीस फीसदी लोग जलाऊ इकट्ठा करने से बेचने के काम में लगे हैं। इसमें भी 8 से 15 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों की तथा 45 से 50 वर्ष के लोगों की संख्या ज्यादा है। युवक या तो हमाली या अन्य निर्माण-कार्यों में लगे हुए हैं तथा अधिसंख्य युवतियाँ अन्य विभागीय निर्माण-कार्यों, जैसे लोग निर्माण विभाग, वन विभाग या सिंचाई विभाग के अन्तर्गत कार्य करती हैं। प्रौढ़ एवं वृद्धाएँ सालबीज, महुआ, टोरा आदि वनोपज के संग्रहण में लगी हैं। खेती के काम में भी ये लोग दखल रखते हैं, किन्तु अधिकांश लोगों के पास उनकी खुद की खेती नहीं है। वे दूसरों (अमूमन गैर आदिवासियों) के खेतों में मजूरी करते हैं।
पिछली बार, सम्भवत: 1981-82 में किसी शासकीय योजना के तहत लकड़हारों को अधिकतम लाभ दिलाने के विचार से उन्हें शासकीय काष्ठागारों से 7 रुपये प्रति Ïक्वटल की दर पर बिना चिरी जलाऊ लकड़ी उपलब्ध करायी जा रही थी। योजना यह थी कि लकड़हारे उस लकड़ी को फाड़ कर उपभोक्ताओं को बेचें और शाम को लकड़ी की कीमत 7 रुपये काष्ठागार प्रभारी को अदा कर दें। शेष लाभ लकड़हारों का होगा। किन्तु इस प्रक्रिया से भी लकड़हारों को कोई उल्लेखनीय लाभ, जैसा कि सोचा गया था, नहीं हुआ और लकड़हारे पुन: जंगल से ही लकड़ी ला कर बेचने लगे।
और अब ऐसा नहीं रह गया है कि गाँव के आसपास किसी जंगल से लकड़ियाँ चुनीं और लाकर बेची जा सकें। अब तो लकड़हारों की जान साँसत में पड़ गयी है। आसपास जंगल कहीं नजर ही नहीं आते। साथ में पेज का तुम्बा या बासी भात की पोटली लेकर दूर-दराज के जंगलों में जाना पड़ता है। सुबह जो आदमी जंगल जाता है वह इकट्ठे शाम को ही वापस आ पाता है। जो जल्दी लौट गया वह तो शाम को ही अपनी लकड़ी बेच कर फुरसत पा लेता है, किन्तु जो अँधेरा होने के साथ-साथ या उसके बाद वापस होते हैं, वे दूसरे दिन सुबह ही उसे बेच पाते हैं। फिर सरकारी नुमाइन्दों के उन पर पड़ने वाले दबाव का भय भी उन्हें हमेशा सताता रहता है। कभी काँवड़ की लकड़ी उतार कर घर पर रखवा ली जाती है और कभी कुल्हाड़ी छीन कर उनकी पिटाई तक कर दिये जाने की घटना एक आम बात है। 
आइये, जलाऊ बेचने वाले चंद कम उम्र लकड़हारों से बातचीत करने के बहाने इनकी जिंदगी में झाँकने का प्रयास करें और सोचें कि जब हम इन कम उम्र बच्चों को डरा-धमका कर इनके काँवड़ जबरन उतरवा लेते हैं और उनकी मेहनत के अनुपात में उन्हें कम पैसे थमा कर आत्मतुष्टि महसूसते हैं तब हम कितने मानवीय रह जाते हैं? और तब हमारा सोचना और भी लाजमी हो जाता है जब हमें यह मालूम हो जाए कि ये अधिकांश बच्चे मातृ-हीन या पितृ-हीन हैं और उनके जीवन की एक यही बड़ी भारी कमी ही उन्हें अपनी और अपने परिवार की आजीविका के लिये अपने नन्हें कन्धों पर भारी बोझ ढोने को बाध्य करती है।
संतूराम की उम्र है 12 वर्ष। घर में और तीन भाई तथा एक बहन है। संतूराम के पिता की मृत्यु हो चुकी है। वह तीसरी कक्षा में पढ़ता है। छुट्टी के दिनों में जंगल से लकड़ी ला कर बेचता है। एक काँवड़ जलाऊ की कीमत है पाँच रुपये।
"तुम लकड़ी क्यों बेचते हो?"
"हमारे पास खेती-बाड़ी नहीं है। मेरे पिता भी नहीं हैं। घर का खर्च चलाने के लिये मैं लकड़ी बेचता हूँ।" संतू बतलाता है।
"तुम स्कूल भी जाते हो, तब लकड़ी बेचने के काम से तुम्हारी पढ़ाई नहीं रुकती?"
"नहीं। मैं स्कूल के दिन लकड़ी नहीं बेचता। छुट्टी के दिन जंगल से लकड़ी ला कर बेचता हूँ।"
"अच्छा, लकड़ी लेने वाले मोल-भाव करते हैं या तुम्हारे बताए भाव पर ही लकड़ी ले लेते हैं?"
संतू कहता है, "हमें बच्चा समझ कर भाव कम कराते हैं। लेकिन हमें रुचता नहीं। लोग तो साढ़े तीन-चार रुपये में दो, कहते हैं। कहते हैं कि गट्ठा छोटा है, लकड़ी भी कम है। कई लोग डराते भी हैं। यहाँ तक कि जबरदस्ती काँवड़ खींच कर उतार लेते हैं।" कहते हुए वह रुँआसा हो उठता है।
"तो क्या तुम चुपचाप उन्हें लकड़ी दे देते हो?"
"नहीं, हम वहाँ से हटते ही नहीं। लेकिन ज्यादा डराने पर, वे जितना पैसा दें उसे लेकर चुपचाप चला आना भी पड़ता है।"
"तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें लकड़ी बेचने से मना नहीं करते?"
"मना क्यों करेंगे? हम तो उस पैसे को घर में देते हैं। उससे दाल-चावल लिया जाता है न!"
संतूराम गर्मियों और दशहरा-दीपावली आदि की छुट्टियों का पूरा उपयोग लकड़ी बेचने में ही करता है।
तेलंगू नामक एक बालक भी, जिसकी उम्र 10 वर्ष के आसपास है, पितृहीन है। घर में उसकी माँ के अलावा एक भाई और एक बहिन है। वह स्वयं तो पढ़ाई नहीं कर रहा है किन्तु उसका छोटा भाई गाँव के स्कूल में पढ़ने जाता है। वह कहता है कि वह अपने छोटे भाई को "आगे तक" पढ़ाएगा। यह कुछ कम वजन की लकड़ियों का काँवड़ लाता है और चार रुपये में बेचता है।
"तुम जो लकड़ी लाते हो, उसे अपने गाँव में बेचते हो या यहाँ, कोंडागाँव में?"
"वहाँ कौन खरीदेगा लकड़ी? गाँव में तो सभी लोग अपने-अपने लिये खुद ही ले आते हैं। इसलिये हमें यहीं कोंडागाँव में ही बेचने के लिये आना पड़ता है।"
"तो आराम से बिक जाती है या काफी घुमाना-फिराना पड़ता है?"
"नहीं। ज्यादा घूमना नहीं पड़ता। लेकिन सही भाव न मिलने पर किसी-किसी रोज बहुत भटकना पड़ता है।"
"तुम पढ़ने क्यों नहीं जाते...तुम्हारे गाँव में तो स्कूल है न?"
"हाँ, स्कूल तो है। मेरे एक-दो साथी पढ़ते भी हैं। परन्तु मैं नहीं पढ़ता।"
"क्यों?"
"घर वाले गाली देते हैं। हमारे पास खेती-बाड़ी भी नहीं है।"
"कितने साल से यह काम कर रहे हो?"
"दो साल हो गये।"
"रोज लाते हो?"
"हाँ, रोज लाता हूँ तभी तो घर का खर्च चलता है।"
सुदूराम के साथ भी यही समस्या है। उसके भी पिता नहीं हैं। दो वर्ष पहले उनकी मृत्यु हो गयी। तब से वह लकड़ी बेचने का काम कर रहा है। माँ और एक भाई है। वह पढ़ रहा है। दूसरी कक्षा में है। लेकिन वर्ष में आधे से अधिक दिनों तक वह स्कूल जा ही नहीं पाता। जलाऊ के काँवड़ लिये कोंडागाँव आना उसकी विवशता है। वह बतलाता है कि पहले वह छुट्टी के दिनों में ही लकड़ी बेचा करता था। किन्तु जब उसके घर की आर्थिक स्थिति काफी प्रतिकूल हो गयी तब उसे स्कूल से भाग कर भी जलाऊ बेचने के लिये विवश होना पड़ा।
"क्या तुम्हारी माँ कोई काम नहीं करती?"
"करती तो है। मजदूरी करती है। लेकिन उससे क्या होता है?" वह कहता है।
"तुम स्कूल से भाग कर लकड़ी बेचते हो। गुरुजी तुम्हें डाँटते नहीं?" प्रश्न सुन कर वह चुप हो जाता है। उसकी चुप्पी का स्पष्ट अर्थ है, उसकी स्वीकृति। किन्तु डाँट के भय से पेट की भूख न भाग सकती है और न भगाई ही जा सकती। वह कहता है कि ज्यादा गाली-वाली देने पर स्कूल कभी नहीं जाएगा और पढ़ाई छोड़ देगा। केवल पढ़ाई-लिखाई से ही तो काम नहीं चलेगा। पेट भी तो भरना है, न!
फूलचंद की उम्र है 9-10 वर्ष के आसपास। यानी इन सभी बच्चों में सब से कम उम्र का है यह। छोटा भाई पढ़ता है परन्तु वह स्वयं पढ़ाई नहीं कर रहा है। लकड़ी बेचना इसका रोज का काम है।
"तुम्हारा छोटा भाई पढ़ता है। तुम क्यों नहीं पढ़ते?"
"घर वाले मना करते हैं। कहते हैं, दो-दो जने पढ़ कर क्या करोगे? तुम लकड़ी बेचो।"
"तुम्हारे पिता तो काम करते होंगे न?"
"नहीं। वो कोई काम नहीं करते। बस, शराब पी कर झगड़ते हैं खूब। माँ काम पर जाती है। एक बार गाँव के लोग पिताजी को खूब डाँटे तब पिछली बार वो ईंट बनाने का काम कर रहे थे। लेकिन वह भी कुछ दिनों तक ही।"
"तुम यह काम कब से कर रहे हो?"
"एक साल से।"
"तो पूरा पैसा तुम घर में ही दे देते हो?"
"हाँ। कभी-कभी दवाई वगैरह भी खरीद कर ले जाना पड़ता है। अभी भी आठ आने की दवाई ले जाना है। किसी-किसी रोज दो-चार आने की मिठाई भी खा लेता हूँ।"
"कौन सी मिठाई खाते हो?"
"चना-लाई या फिर बिस्कुट-पिपरमेंट।"
"कभी खेलते-वेलते भी हो या नहीं?"
"खेलते हैं न। खो-खो, कबड्डी या गिल्ली-डंडा वगैरह खेल लेते हैं।"
पीलाराम के माता-पिता दोनों हैं। एक भाई भी है। वह अपने पिता के रहते हुए भी लकड़ी बेचता है। इसकी उम्र है लगभग 12 वर्ष। वह बतलाता है कि उसे लकड़ी बेचने में खुशी होती है और वजन ढोना भी अच्छा लगता है। पढ़ाई में न उसकी रुचि है और न उसके घरवालों की। उसके यहाँ पाँच एकड़ खेती है और वह स्वयं भी हल चला लेता है। खाने को तो उनकी खेती और माँ-बाप की कमाई से पूरा पड़ जाता है किन्तु कपड़ों के लिये उसका काम करना ज़रूरी है। इसलिये वह इस काम में लगा हुआ है।
सरादू की उम्र है दस साल। वह अपने पाँच भाई-बहनों और माँ-बाप के साथ रहता है। उसके सभी भाई मजदूरी करते हैं। माँ और बहनें भी करती हैं किन्तु पिता कोई काम नहीं करता। वह बतलाता है कि लकड़ी बेच कर पैसा कमाना उसके लिये इसलिये ज़रूरी है क्योंकि उसके घरवाले कहते हैं कि इतना बड़ा लड़का क्या बिना काम किए, बैठे-बैठे खाएगा? भाई लोग जो कमाते हैं, वह उनके अपने लिये ही पूरा नहीं पड़ता। हालांकि वह पूरे वर्ष भर लकड़ी नहीं बेचता, स्कूल में पढ़ता भी है। तीसरी कक्षा में है। छुट्टी के दिनों में लकड़ी बेचता है।
वह कहता है, "जंगल से लकड़ी लाने पर नाकेदार लोग डराते हैं। टँगिया (कुल्हाड़ी) छीन लेते हैं। मुफ्त में लकड़ी देने को कहते हैं।" 
इसी तरह बारह वर्षीय रैसिंग भी पढ़ाई करने के साथ-साथ छुट्टी के दिनों में यह काम करता है। इस साल वह तीसरी कक्षा में पढ़ रहा है। उसके माँ-बाप तो हैं ही, दो भाई भी हैं। एक घर पर रह कर मजदूरी करता है और दूसरा काष्ठागार में हमाली। 
ये सभी बाल लकड़हारे कोंडागाँव के पास सम्बलपुर नामक गाँव के हैं। सम्बलपुर से कोंडागाँव तक 5-6 किलोमीटर की दूरी अपने नन्हें कन्धों पर भारी वजन लिये तय करते हैं और अपनी, अपने परिवार की आजीविका जुटाते हैं। चाहे कड़कड़ाती ठण्ड हो, चिलचिलाती धूप या घनघोर बरसात, इनका यह काम निरन्तर जारी है और शायद ये आजीवन यही काम करते रहेंगे। इस काम से केवल सरादू, रैसिंग, फूलचंद, पीलाराम, सुदू, तेलंगु या संतूराम ही नहीं जुड़े हैं, बल्कि और भी कई बच्चे हैं जो लगभग इन्हीं की आयु-वर्ग के हैं। ये बच्चे हैं लखमू, मंगतू, चंदरु, मंगिया, सोनधर, कमलू, चैतन और बहुत सारे अन्य लोग। लगभग सभी के साथ एक सी समस्या है। अधिकांश बच्चों के माता-पिता में से कोई एक नहीं है और कई बच्चों के तो न माँ है न पिता। कितनी बड़ी त्रासदी से गुजर रहे हैं ये बालधन! एक दिन में केवल एक काँवड़ जलाऊ बेच कर चार से पाँच रुपये तक प्रति दिन कमाते हैं और अपने परिवार के भरण-पोषण में किसी प्रौढ़ की तरह जी-जान से जुटे हुए हैं। इस उम्र में इतनी प्रौढ़ता इन्हीं विपरीत परिस्थितियों ने ही पैदा की है जो कम से कम हमारे बच्चों में, जो अनेक सुविधाओं के जाल में अँटे पड़े हैं; कभी भी नहीं आ सकती। किन्तु यह भी सत्य है कि बाल-सुलभ चंचलता और हँसमुखता का इस तरह लोप हो जाना भी इन कामकाजी बच्चों के भविष्य के प्रति आशंकाएँ ही पैदा करता है। तब प्रश्न यह पैदा होता है कि आदिवासियों के विकास के लिये जी-जान से जुटी सरकार को क्या पहले इन आदिवासी बच्चों के लिये नहीं सोचना चाहिये? क्या यह एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा नहीं है? और यह भी कि अन्तर्राष्ट्रीय बाल-वर्ष ने इन्हें क्या सौगात दी.....? 

Saturday, 19 May 2012

सोनू


इस बार प्रस्तुत है यह कहानी : 


सोनू बड़ा परेशान था।  इधर पाठशाला के लगने का समय होता जा रहा था और उसकी माँ थी कि अभी तक ऊपर पारा से धान कूट कर लौटी ही नहीं।  कभी-कभी उसे अपने ऊपर बहुत खीझ हो आती।  यह भी कोई ज़िन्दगी है कि एक ढेकी तक नहीं है घर में।  धान कूटना हो तो कोस भर दूर अपनी ही जाति के दूसरे किसी व्यक्ति के घर जाना विवशता ही है।  गाँव के दूसरे ऊँची जात वाले लोगों के घर तो वो लोग जा ही नहीं सकते।  कोई पीछे से आ रहा हो तो अपने को उनके लिए रास्ता छोड़ देना पड़ता है।  पीने के लिये पानी दो कोस से भी अधिक दूरी पर बहती नदी से लाओ या फिर गाँव के गन्दे तालाब का पानी पियो।  वह सोचता; क्या ऐसा नहीं हो सकता कभी कि उसके घर में भी ढेकी लगा ली जाए?  परन्तु यह कैसे होगा!  उसके बाबा गाँव के मुखिया और पटेल-सरपंच के लिए जब जंगल से गाड़ी भर-भर कर लकड़ी ला कर देते हैं तब तो नहीं पकड़ते ये पाइक लोग उन्हें। ...और अपने घर के लिए एकाध लकड़ी ले आएँ तो भला क्यों इन्कार?  लेकिन नहीं!  बाबा तो मानते ही नहीं।  कहते हैं, पाइक लोगों को तुम नहीं जानते।  गाँव के सब बड़े लोग उन्हें बहुत मानते हैं, इसलिए पाइक लोग भी इनका कोई काम नहीं रुकने देते।  हम छोटे लोग हैं बेटा, करम से भी और धरम से भी।  
ऐसे में सोनू को अपने से बड़ी चिढ़-सी हो आती।  तब उसे अनायास ही अपने बोड़ू की याद आ जाती।  भीमकाय देह, जैसे सागौन का भरा-पूरा पेड़।  कन्धे पर हमेशा झूलता हुआ टँगिया और लाल-लाल आँखें; जैसे फरसा का फूल।  गाँव तो गाँव, आली-पाली के लोग तक उनसे दबते थे।  इसी पाठशाला की बात लें।  कितनी उठा-पटक की थी गाँव के तथाकथित मुखियों ने।  कमर कस ली थी पाठशाला के विरोध में।  कहते थे, गाँव के बच्चों को ये गुरुजी लोग बिगाड़ डालेंगे।  कामकाजी बच्चों को सारा दिन पाठशाला में बन्द कर रखने से हमारा भारी नुकसान होगा।  उनकी देखा-देखी गाँव के अन्य लोग भी ऐसी ही बातें करने लगे थे।  गुरुजी को मारपीट कर गाँव से भगाने की पूरी साज़िश भी रच डाली गयी थी।  लेकिन ऐन वक़्त पर उसके बोड़ू सामने आ गये थे।  सन् दस में हुए भुम्काल में सक्रिय रूप से भाग ले चुके थे।  लाल बाबा के ख़ास आदमियों में से थे।  उन्होंने दुनिया देखी थी।  काफ़ी अनुभव था उनको।  उन्होंने लोगों को समझाया था।  उस दिन की एक धुँधली सी याद अभी भी है उसके मस्तिष्क में :


       "क्यों दादा, पढ़ाई-लिखाई से क्या हो जाएगा भला?"  सरपंच ने तब यथा सम्भव विनम्र होते हुए उनसे पूछा था। 
"गियान मिलेगा।  अपना नँगत-गिनहा बिचारने लायक दिमाक बनेगा।"  बोड़ू ने कहा था। फिर ज़्यादा बहस न करते हुए अपना निर्णय सुना दिया था : "यहीं, थानागुड़ी के पास ही बनेगा इस्कुल।  गाँव वाले मिल कर इस्कुल के लिए झोपड़ी बनाएँगे।"  और वे बैठक से उठ गए थे।  किसी में भी हिम्मत नहीं थी कि उनकी बात काट देता।  आख़िर गाँव वालों को इस्कुल के लिए झोपड़ी बनानी ही पड़ी।  गुरुजी के रहने के लिए बोड़ू ने अपने घर पर ही एक खोली दे दी थी।  जब तक वे ज़िन्दा थे, गाँव में सुमता बना रहा।  गाँव के किसी कमज़ोर आदमी के साथ न तो कोई मनमानी कर सकता था और न उनसे बेग़ारी करा पाने का किसी में साहस ही था।  उनकी असमय मृत्यु के साथ ही गाँव की एकता भी बिखर गयी।  गाँव के सम्पन्न लोगों और तथाकथित मुखियों को मनमानी करने की खुली छूट मिल गयी।  बोड़ू ने अपने जीवन-काल में घर का सारा धान-पान समाज-सेवा में लगा दिया था।  अन्याय तो वे पल भर को भी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे।  उनसे किसी का दु:ख नहीं देखा जाता था।  जहाँ उसके बोड़ू निर्भीक और साहसी थे, वहीं उसके बाबा हद दर्ज़े तक दब्बू और असहाय क़िस्म के व्यक्ति।


उसने अतीत की यादों को एक झटका दिया और बाहर निकल कर आकाश की ओर ताका।  सूरज ऊपर चढ़ रहा था।  उसने चढ़ते सूरज से यह भाँप लिया था कि अब पाठशाला की पहली घण्टी बजने ही वाली है।  बाबा को यों अकेले कराहते छोड़ कर जाने का वह मन नहीं बना पा रहा था।  फिर उसने अपने-आप को सान्त्वना दी, "सिरहा तो अभी-अभी झाड़-फूँक कर गया है। थोड़ी-सी राहत तो मिल ही गयी होगी बाबा को।  आया भी अब आती ही होगी।  चलो, चल कर बाबा को समझा दूँ और पाठशाला चला चलूँ।  देर होगी तो पाठ निकल जाएगा।"  नहीं, नहीं वह एक भी पाठ नहीं छोड़ना चाहता।  उसे पूरी लगन के साथ पढ़ना है।  उसके बोड़ू और बाबा के सपने को साकार करना है।  
वह भीतर आ गया।  पिता के पास पहुँच कर उनका हाथ थाम लिया और धीरे से बोला : "बाबा, मैं पाठशाला जा रहा हूँ।  बहुत देर हो गयी है।" 
"हाँ बेटा, जा।  अभी तक क्यों नहीं गया?"  पिता ने अस्फुट-से स्वर में कहा।  तभी बाहर से कोटवार की आवाज़ सुनायी पड़ी
"कौन है?"  कहता वह बाहर निकल आया।
"तेरा बाप है, रे?"  कोटवार लगभग चीख़ा।
"हाँ, हैं।"
"ज़रा बुला तो बाहर।"
"उन्हें तीन रोज़ से बुख़ार है।  डसना में पड़े हैं।  उठ नहीं पाते।"  वह जल्दी-जल्दी बोला था।  
लेकिन कोटवार ने जैसे सुना ही न हो।  उसे परे धकेलते स्वयं ही झोपड़ी के भीतर घुस आया था।  "क्यों? बहाना बना रहा है!  चल उठ!  बड़े साहेब का सामान दूसरे गाँव तक पहुँचाना है।"  एक ही साँस में वह बोल गया था।
कथरी में से सिर निकाल कर उसके बाबा ने पहले तो उसे ताका, पहचाना, फिर मरी हुई आवाज़ में कहा : "तीन दिन से जर के मारे डसना पकड़े पड़ा हूँ।  जाँगर में ताकत नहीं रह गयी है।  नहीं चल पाऊँगा, कोटवार।" 
"देख रे! यह बहाना फिर कभी बनाना।  आज तो चलना ही पड़ेगा।"  कोटवार हुज्जत पर उतर आया था।  
"चाहो तो मार डालो, पर मैं नहीं जा पाऊँगा।  माट्टी किरिया कोटवार।  जाँगर थक गया है, एकदम।"  उसके बाबा ने असहाय हो कर कह दिया।
"मैं अच्छी तरह जानता हूँ, तेरे बहाने को।  किरिया खाने में तो ओस्ताज है रे तू।"  कोटवार का स्वर विषैला प्रतीत हो रहा था।  
सोनू देहरी पर खड़ा-खड़ा सोच रहा था। ये वही लोग हैं जिन्हें उसके बोड़ू के रहते उनके सामने मुँह तक खोलने की हिम्मत नहीं होती थी। और आज कैसे बाघ बने दहाड़ रहे हैं...।  सच! समय बदलते देर नहीं लगती।  
"अच्छा, अच्छा ठीक है। ऐसा कर, तू न सही तेरे इस लेका को भेज दे।  थोड़ा-सा ही तो सामान है।  पहुँचा देगा।"  कोटवार कह रहा था।
"वह, वह तो पढ़ने जा रहा है।"  मरी हुई आवाज़ में उसके बाबा बोले।
"पढ़ने जा रहा है...?"  शब्दों को चबाते हुए व्यंग्य पूर्वक बोला था कोटवार : "पढ़-लिख कर लाट साहब बनेगा क्या...?  और फिर आज एक दिन के लिए इस्कुल नहीं भी गया तो क्या डोंगरी गिर जाएगा उसके ऊपर?"  
उसके बाबा ने उसकी ओर असहाय दृष्टि से देखा।  उसने हाथ में रखी स्लेट दीवार से सटा कर रख दी और कोटवार के साथ जाने को तैयार हो गया।  कातर आँखों से ताकते उसके बाबा के मुँह से घरघराती आवाज़ निकली थी : "रहम करो कोटवार।  यह नन्हा-सा लेका कैसे उठा पाएगा बड़े साहेब के सामान का बोझ...?"
कोटवार ने सुना तो बमक उठा : "क्यों बकवास कर रहा है, डोकरा?  न ख़ुद जाने को तैयार है, न लड़के को जाने दे रहा है।  यहाँ कौन तेरा बाप बैठा है, जो आएगा?"  और उसे लगभग घसीटते हुए ले कर बाहर निकल गया।  तब उसे लगा था, काश! वह थोड़ा बड़ा होता।  बिल्कुल अपने बोड़ू की तरह फरसा उठा कर दौड़ पड़ता कोटवार के सिर पर।  उसे अपने बाबा पर भी क्रोध आ रहा था।  बोड़ू-सी मर्दानगी उनमें तिल भर भी नहीं थी।  निरे कायर हो कर ही तो रह गए थे वे। सायगोन और सरगी की तरह छाती तान कर खड़े होने की बजाय लाजकुड़िन की तरह अपने आप में सिमट जाने का लिजलिजापन ही तो समा गया था उनमें।
रास्ते भर चुपचाप चलता रहा।  थानागुड़ी पहुँच कर देखा, बड़े साहेब खाट पर बैठे सल्फी पी रहे थे।  पटेल-सरपंच हाथ बाँधे एक ओर खड़े थे।  मँगतू मामा की जवान लड़की सायती भीतर भोजन राँध रही थी।  बड़े साहब रह-रह कर उधर ताक लेते और जाने कैसे-कैसे इशारे भी कर देते।
कोटवार ने उसे धकियाते हुए भीतर पहुँचा दिया और झापी की ओर इशारा करते हुए कहा : "वो देख, काँवड़ रखा हुआ है।  सज कर और आगे-आगे निकल चल।  नदी उस पार वाले गाँव में पहुँचाना है।  सीधे थानागुड़ी में ही पहुँचाना।  समझे?"  वह सामान देख कर चौंक गया।  किंतु कोटवार को इसका अहसास न होने दिया।  ऊपर से कहा, "ठीक है।"
कोटवार बाहर आँगन में चला गया।
उसने काफी जोर लगा कर झापियाँ उठायी और काँवड़ सज कर लिया।  लेकिन काँवड़ उठा पाना उसके लिए सम्भव नहीं हो पा रहा था।  काफी जोर आजमाईश के बाद भी काँवड़ उससे न उठा।  उसके नन्हे चेहरे पर सावन के महीने में भी पसीने की बूँदें छलछला आयीं।  विवशता और आतंक के कारण उसकी आँखें भी भर आयी थीं।  वह जानता था, कोटवार से कुछ कहने का कोई मतलब ही न होता।  तभी कोटवार ने उसे पुकारा।  वह काँवड़ वहीं छोड़ कर आँगन में निकल आया।  बड़े साहब सल्फी के नशे में उससे पूछने लगे थे :
       "क्या नाम है रे, तेरा?"
       "ज् ज् ज् जी सोनू।"  वह हकलाता हुआ बोला।
       "तेरा बाप क्यों नहीं आया रे.....?"  साहब ने कड़े स्वर में पूछा था।
       "जी, वो बीमार हैं।"  उसने हकलाते हुए, दीन स्वर में जवाब दिया।
       "क्यों, क्या हो गया है?" साहब ने सल्फी का गिलास खाली करते हुए लापरवाही से पूछा।
       "बुखार है साहब, तीन दिन से।"  उसका स्वर रुआँसा हो गया था।
       "तू उठा पाएगा काँवड़.....?"  साहब ने मुर्गे की टँगड़ी चबाते, अविश्वास से पलकें झपकाते हुए पूछा था।
       ".............."  वह सिर नीचा कर चुप हो गया।  कुछ बोलते नहीं बना उससे।
       "अरे, बोलता क्यों नहीं।  गूँगा है क्या.....?"  बड़ी तीखी आवाज थी साहब की।  इसके पहले कि सोनू कुछ बोलता, कोटवार बोल उठा था, "उठा लेगा साहब।  यही काम करते चले आ रहे हैं ये लोग।"
       सरपंच को सोनू के बोड़ू की याद आ गयी थी।  व्यंग्य से बोला था : "यह तो साहब बनने के सपने देख रहा है, हजूर।  इस्कुल में पढ़ता है....। इसके बोड़ू ने बनवाया था न।"
       उसे लगा था, सरपंच के मन में बरसों से जमा मैल बाहर निकल रहा है।
       "अच्छा.....! पढ़ता है.....?"  साहब भी व्यंग्य से मुस्कराए थे, "क्या करेगा रे पढ़ कर.....?"
       "तसिलदार बनूँगा।"  उसके मुँह से जाने कैसे यकायक निकल गया।  सभी ही-ही करके हँसने लगे।  उसे लगा, वह गलत बोल गया है।  उसके बोड़ू उससे यही कहा करते थे, "तुझे पढ़ा-लिखा कर तसिलदार बनाऊँगा।"  शायद उसके अवचेतन में रह गयी वही बात आज फूट पड़ी थी।  वह उन्हें हँसता देख वहाँ से हट गया था।  तब से लगातार सोचता रहा और मन ही मन दुहराता रहा, "मैं तसिलदार बनूँगा।" 
       "अब वहाँ खड़ा-खड़ा क्या मुँह ताक रहा है?  चल जल्दी से काँवड़ उठा और भाग।"  कोटवार उसकी ओर बाज की तरह झपटा था।
        वह कमरे में वापस पहुँचा तो वही भारी-भरकम बोझ सामने था।  जानता था, "नहीं" कहा और कोटवार उसके देव-धामी तक को नहीं छोड़ेगा।  थोड़ी देर खड़ा रहा, फिर पिछला दरवाजा धीरे से खोल कर घर की राह भाग लिया।  वहाँ से भागा तो जरूर लेकिन उसका डर बढ़ गया था कि कोटवार उसे और प्रताड़ित करेगा।  हुआ भी वही।  अभी उसे घर पहुँचे कुछ ही पल बीते थे, कि कोटवार डण्डा फटकारता उसके घर पहुँच गया था।  वह धान-ढुसी के पीछे जा छिपा था।  उसने वहीं से सुना, कोटवार गरिया रहा था : "अरे ठगों की औलाद!  हुकुम उदूली करने की हिम्मत कहाँ से पा गये?  बाहर निकल रे।"
       उत्तर में उसके बाबा की घरघराती आवाज़ सुनायी दी थी : "क्या बात है कोटवार, किसलिए नाराज हो रहे हो?"
      "कामचोर! पूछता है, नाराज क्यों हो रहा हूँ?  तेरा लेका सामान छोड़ कर थानागुड़ी से भाग गया.....नहीं जानता क्या?  चल उठ, सीधे से सामान अमरा दे।  नहीं तो आज...!" कहते कोटवार फड़की ठेल कर भीतर आ गया था और डण्डे से उसके बाबा के शरीर को कोंच रहा था।  उसके बाबा से तो उठा नहीं जा रहा था।  नहीं उठ सके तो कोटवार ने कस कर उनकी पिटाई कर दी और हाँफते-गरियाते हुए बाहर निकल गया।
       सोनू ने जब देखा कि कोटवार अब जा चुका है, तो वह भीतर से निकल कर अपने बाबा के पास आया।  देखा, सारे शरीर पर डण्डे के निशान उभरे हुए थे और बाबा अचेत-से हो गये थे।  वह किंकत्र्तव्यविमूढ़-सा हो गया था।  अपने बाबा से चिपट कर रोता रहा।  रोते-रोते उसे कब नींद आ गयी, पता ही नहीं चला। उसकी नींद तब टूटी जब उसकी आया ने उसे जगाया।  उसने देखा, उसकी आया बाबा की सिंकाई कर रही थी और सिसक-सिसक कर कोटवार को सरापती भी जा रही थी।  उसके मन में संकल्प भर उठा था, "बदला लूँगा।  बोड़ू जैसा ही बनूँगा...बोड़ू जैसा ही बनूँगा।"  वह बुदबुदाने लगा था, "बोड़ू! मुझे आशीर्वाद दो, मुझे ताक़त दो बोड़ू अपनी तरह।  मुझे शक्ति दो....मुझे शक्ति दो....मुझे शक्ति दो।"  और उसकी निगाह छत पर खोंस कर रखे गये बोड़ू के पैने टँगिये की ओर स्वत: ही उठ गयी।  लगा, एक और भुम्काल का बीज बो दिया गया है। 


टिप्पणी : 

ढेकी : धान कूटने का ग्रामीण संयन्त्र।
पाइक : सरकारी मुलाज़िम।
बोड़ू : ताऊ।
टँगिया : कुल्हाड़ी।
फरसा : पलाश।
आली-पाली : आसपास।
भुम्काल : जनक्रान्ति।
लाल बाबा : बस्तर में सन् 1910 में हुई जन-क्रान्ति के सूत्रधारों में से एक और राज परिवार से सम्बद्ध लाल कालेन्द्रसिंह (कालीन्द्र सिंह)।
नँगत-गिनहा : अच्छा-बुरा।
सुमता : सुमति।
सिरहा : वह व्यक्ति जिस पर देवी आती है।
आया : माँ।
डसना : बिस्तर।
जर : ज्वर।
जाँगर देह।
माट्टी कीरिया : माटी की सौगंध।
ओस्ताज : उस्ताद।
लेका : लड़का।
डोंगरी : पहाड़।
डोकरा : बूढ़ा।
फरसा : परशु।
सायगोन-सरगी : सागौन और साल के पेड़।
लाजकुड़िन : लाजवन्ती।
काँवड़ : काँवर।
सल्फी : ताड़ प्रजाति के सल्फी नामक पेड़ से निकलने वाला मादक रस।
झापी : बाँस से बना गोल और बड़ा सा सन्दूक।
सज : तैयार।
धान-ढुसी : धान भण्डारण के लिये पैरा (पुआल) से बनी रस्सी को गोल-गोल लपेट कर बनाया गया पात्र।
तसिलदार : तहसीलदार। 
फड़की : बाँस से बना दरवाजा।
अमरा : पहुँचा। 
सरापती : शाप देती (सराप : शाप)। 

Saturday, 12 May 2012

लोगों को ढोते लोग



इस बार अमृत संदेश, 30 अक्तूबर 1984 अंक में प्रकाशित यह रपट : 


छोटे शहरों और शहराते हुए कस्बों में, जहाँ अभी टैक्सियों, आटोरिक्शों या ताँगों का प्रचलन (ताँगे तो वैसे भी इने-गिने शहरों में ही चल रहे हैं और उनके दिन भी अब लद गये हैं) शुरु नहीं हुआ है, स्थानीय ठिकानों तक जाने-आने के लिये रिक्शे ही आम साधन के रूप में इस्तेमाल किये जा रहे हैं। टैक्सी आज भी ऊँचे तबके के लोगों के लिये ही सुलभ है, जबकि रिक्शा हर आम-ओ-खास के लिये समान रूप से। 
रायपुर में अधिकांश रिक्शा-चालक ओड़िसा प्रान्त या सीमावर्ती इलाक़ों से आये लोग ही हैं। कम से कम पन्द्रह और उधर अधिकतम आयु-सीमा 50 वर्ष तक के लोग रिक्शा चला कर अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं। रिक्शा वालों के विषय में यह आम धारणा है कि वे सवारियों से, विशेषत: नयी सवारियों से ज्यादा पैसे ऐंठते हैं और अपने पारिश्रमिक के मामले को लेकर झगड़ते भी हैं। लेकिन इसके पीछे सच क्या है, इस पर विचार करने की कोशिश हम नहीं करते।
रायपुर की एक घटना याद आती है। मुझे जिलाधीश कार्यालय से न्यू शांतिनगर (नंदा दीप के पास) अपने एक सम्बन्धी के यहाँ जाना था। वैसे भी मेरा रायपुर जाना कभी-कभार ही हो पाता है, इससे वहाँ के रिक्शों की दर के विषय में कुछ मालूमात नहीं थी मुझे। बहरहाल, मैंने एक रिक्शेवाले से पूछा तो वह बोला, बहुत दूर है साहब। चार रुपये लगेंगे। मैं बैठ गया। वहाँ पहुँच कर उसे मैंने पाँच का नोट थमाया तो वह अपने चार रुपये काट कर एक रुपया मुझे वापस देने लगा। मैंने कहा, रख लो भाई। चाय पी लेना। वह हतप्रभ हो उठा। उसकी निगाहें झुक गयीं। वह धीमे से बोला, "साब माफ कीजिये, मैं आपसे ज्यादा पैसे ले रहा था। मुझे आप केवल दो रुपये दे दीजिये।" अब मैं चकित! "क्यों भाई, अभी तो तुमने चार रुपये कहा था। अब अचानक दो रुपये कम कैसे बोल रहे हो?"
वह बोला, "क्या करें साहब, कई किस्म के लोगों से पाला पड़ता है। लोग चार-चार आने तक के लिये चिक-चिक करते हैं। रुपया बताओ तो आठ आना बोलते हैं। इसलिये हम सही रेट से कुछ ज्यादा ही बताते हैं। तब जाकर लोग हमारे सही रेट का पैसा देते हैं। और यदि हम सही रेट बताएँ तो हमें तो उसका आधा भी नहीं मिलेगा शायद। मैंने सोचा कि आप भी मोल-भाव करके दो-ढाई रुपया थमाओगे, इसलिये चार बोलना पड़ा था।"
मेरे काफी जिद करने पर भी उस रिक्शा-चालक ने दो रुपये से एक भी पैसा अधिक लेना मंजूर नहीं किया। वह एक युवक था। ओड़िसा से रोजी-रोटी की खोज में आया हुआ। मेरी उससे अधिक बातचीत भी नहीं हो पायी और मैं उस भले आदमी का नाम तक न पूछ सका। अब यह अलग बात है कि उतनी दूरी के लिये शायद निर्धारित दर उससे भी कम हो या उतनी ही। 
अब प्रश्न उठता है कि क्या उस रिक्शा-चालक का कथन सही नहीं है? हम अपने भीतर झाँकें तो मालूम होगा कि वाकई उसका कहना एकदम ठीक है। दरअसल हम जरूरत से ज्यादा अव्यावहारिक हो चुके हैं। इतना ही नहीं, हमने अपना विश्वास भी खो दिया है। दूसरों पर आसानी से हम विश्वास भी नहीं करना चाहते। अब इसके पीछे कोई कारण नहीं है, ऐसी बात भी नहीं।
ठीक है कि हम पैसा देते हैं, इसलिये सवारी तो करना ही है। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि मानवीय दृष्टिकोण को हम एकदम ताक पर रख दें। ऐसी कई बातें इनके साथ होती हैं, जब सोचने पर विवश होना पड़ता है कि क्या ये लोग इन्सान नहीं? या कि हमारी ही इन्सानियत कहीं गहरे कूप में खो गयी है? कड़ाके की सर्दियों में भी ये लोग केवल एक-एक कपड़े में लिपटे रात में रिक्शा खींच रहे होते हैं, बरसात में छाता या रैनकोट के बगैर भी अपना काम कर लेते हैं। गर्मियों में जब हम-आप पंखे या कूलर की ठण्डी हवा ले रहे होते हैं, ये देह का पसीना भी नहीं पोंछ पाते और हमारा-आपका बोझ ढोने में लगे होते हैं। रात में भी चैन नहीं; कभी फुरसत नहीं। और फिर फुरसत या आराम का मतलब है खाने में उस दिन नागा होना। कौन चाहेगा ऐसी फुरसत जो उसे भूखा-प्यासा रखे? बस.....इसलिये युवक तो युवक, वृद्ध भी दिन-रात की चिन्ता किये बगैर लोगों का बोझ ढोने में लगे हैं। 
अभी उस रोज का दृश्य मेरी आँखों के सामने उभर आया है.....
कोंडागाँव की बात है। एक सज्जन काफी भारी डील-डौल के थे और जंगल विभाग के किसी नीलाम में जा रहे थे। एक काफी बूढ़ा रिक्शा-चालक उनके भारी शरीर को लिये उसे चढ़ाव की ओर नहीं खींच पा रहा था। पानी काफी जोरों से बरस रहा था। उन सज्जन के पास छाता तो था, किन्तु वे उसे न तो रिक्शा-चालक को दे रहे थे न स्वयं नीचे उतर रहे थे। हार कर बूढ़े रिक्शा-चालक ने उनसे विनती की कि वे थोड़ी देर के लिये रिक्शे से उतर जायें, तब तक बरसात भी थोड़ी थम जाएगी और वह भी जरा देर सुस्ता लेगा। किन्तु यह देख कर आश्चर्य हुआ कि वे सज्जन (?) उस बूढ़े पर बिगड़ पड़े। उल्टी-सीधी गाली दी और बोले, "पैसा हराम का देते हैं क्या हम? जब रिक्शा नहीं चलाया जाता तो छोड़ क्यों नहीं देते यह काम?" बूढ़ा कुछ न बोला। उसके दयनीय चेहरे पर गजब की करुणा उभर आयी थी। अचानक पता नहीं उसमें कहाँ से इतनी ताकत आ गयी कि वह पूरा जोर लगाता, पानी में भीगता रिक्शा खींचने लगा। लेकिन अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद वह उसे अधिक दूर न खींच सका तो वह महाशय उतरे और उसे पैसे दिये बगैर ही चलने लगे। बूढ़ा चिल्लाने लगा। हमने रिक्शे वाले का पक्ष लिया तो वे धर्मावतार पहले तो हम पर बिगड़े, फिर बड़ी मुश्किल से एक रुपये का नोट सड़क पर फेंक कर आगे बढ़ गये। यह है हमारी इन्सानियत.....! और मजे की बात ये कि ये लोग इस किस्म के शोषण की शिकायत भी नहीं कर सकते। और करें भी तो किससे? पुलिस से.....? उस पुलिस से, जिसके पास आम आदमी की समस्याओं को दूर करना तो दूर की बात है, सुनने की भी फुरसत नहीं। रिक्शे वालों की शिकायत है कि रिक्शे की सवारी करके, बाद में पैसे न देना, गाली-गलौज करना और बात-बेबात परेशान करना, नजराना वसूलना एक आम बात है। ये बेचारे रिक्शे वाले, जो अपनी रात-दिन की हाड़तोड़ मेहनत के बाद औसतन पन्द्रह रुपये प्रतिदिन कमा पाते हैं; अपने परिवार का पेट पालें या इन्हें नजराना दें?
पिछले दिसम्बर में एक हवलदार के दुव्र्यवहार को लेकर यहाँ के रिक्शा-चालकों ने एक दिन की हड़ताल कर दी थी। किन्तु नागरिकों और प्रशासन के हस्तक्षेप से यह हड़ताल वापस ले ली गयी। फिर प्रश्न यह भी उठता है कि हड़ताल से स्वयं रिक्शा-चालकों के अलावा और किसका नुकसान हो सकता था भला....?
यहाँ के रिक्शा-चालकों ने अपना एक संघ भी बना लिया है। स्वरोजगार योजना के तहत सहायता प्राप्त सत्रह लोगों ने मुख्य संगठन के नीचे एक शाखा बना ली है। इस शाखा के अध्यक्ष हैं रघुनाथ, जबकि मुख्य संगठन के अध्यक्ष सुरितराम साहू हैं। कोषाध्यक्ष हैं सुकलुराम और सचिव हैं नंदलाल साहू। ये सत्रह लोग जिन्हें उक्त योजना के अन्तर्गत रिक्शा खरीदने के लिये सहायता मिली है, सरकार के प्रति आभारी हैं। उनके विषय में संघ के अध्यक्ष रघुनाथ बतलाते हैंै : हमारे कुछ साथियों को सरकार ने सहायता दी है। इनमें कोदीराम, मोहन, सुरितराम आदि हैं। इनको एक रिक्शा सोलह सौ रुपये में पड़ा। लेकिन रुपये एकमुश्त नहीं देना है, धीरे-धीरे करके चुकाएँगे। यह बड़ी सहूलियत है। जब पूरा पैसा पट जाएगा तब ये रिक्शे इनके खुद के हो जाएँगे। आगे उन्होंने बताया, इस सहायता को प्राप्त करने में थोड़ा समय तो लगा, परेशानियाँ भी आयीं, किन्तु मिल गयी; इसका सन्तोष है।
तुलाराम की उम्र है 15 वर्ष। यह अभी साल भर से ही रिक्शा चला रहा है। पढ़ रहा था। चौथी कक्षा तक पढ़ने के बाद स्कूल जाना बन्द कर दिया। अपना और परिवार का पेट पालने के लिये कोई न कोई काम करना ज़रूरी था ही। किराये का रिक्शा ले कर चलाता है। कुछ ज्यादा कमाई नहीं हो पाती, क्योंकि रिक्शे का किराया भी इसी में से देना पड़ता है। खुद का रिक्शा लेना चाहता है, किन्तु पास में पैसे नहीं हैं और आजकल रिक्शे की कीमत भी काफी हो गयी है। हाँ, सरकार से सहायता मिलने पर जरूर खरीदेगा।
"इतना भारी वजन ढोते तुम्हें तकलीफ नहीं होती?"
"तकलीफ कैसे नहीं होगी? लेकिन क्या करें, पेट के लिये करना ही पड़ता है। नहीं करेंगे तो कौन मुफ्त में खाना-कपड़ा लाकर देगा?"
"क्या रात में भी रिक्शा चलाते हो?"
"हाँ, रात में भी चलाना पड़ता है। जोहन भी चलाता है रात को।"
"आगे भी यही काम करते रहोगे, या कोई दूसरा काम करने का इरादा है?"
"कोई भी काम करो, मतलब तो एक ही है। पेट तो पालना ही है किसी तरह।"
"हफ्ते में किसी दिन छुट्टी मनाते हो कि नहीं?"
"कोई छुट्टी नहीं। रोज कमाते हैं, तब तो खाते हैं। छुट्टी मनाएँगे तो खाएँगे क्या.....?"
रघुनाथ की उम्र है पैंतीस से अड़तीस वर्ष के बीच। वह पिछले 15 वर्षों से रिक्शा चला रहा है। पहले वह किराये का रिक्शा चलाया करता था, फिर लगभग दस-बारह वर्ष पूर्व उसने कोंडागाँव के पास सम्बलपुर नामक गाँव के एक व्यक्ति से सात सौ पचास रुपये में रिक्शा खरीद लिया। वह बतलाता है कि उसे सरकार से कोई सहायता नहीं मिली थी। रिक्शे की कीमत उसने धीरे-धीरे करके अपनी कमाई से ही पैसे बचा कर चुकायी है। रघुनाथ के बाल-बच्चे नहीं हैं। वह और उसकी पत्नी है केवल। वृद्ध पिता और भाई-बहन भी हैं। पिता अभी भी मजदूरी करते हैं। दो भाई, मनीराम और रतन भी उसके साथ रिक्शा चलाने का काम करते हैं। रघुनाथ का कहना है कि वह सुबह 8 बजे से शाम 6-7 बजे तक ही काम करता है। बाद में सीधे घर जाकर आराम करता है। दो ही जने तो हैं कुल मिला कर। "क्या करना है ज्यादा हाय-हाय करके भी?" वह कहता है।
सुकलू की उम्र 55 से 60 के बीच होगी। ये पिछले कई सालों से रिक्शा चला रहे हैं। इन्होंने भी रघुनाथ की ही तरह, किन्तु कम कीमत में, यानी सात सौ रुपये में सात वर्ष पूर्व रिक्शा खरीद लिया था। रुपये धीरे-धीरे करके चुकाये। इनके तीन लड़के हैं। तीनों ही मजदूरी करते हैं। सुबह 8 बजे से शाम पाँच-साढ़े पाँच बजे तक ही ये रिक्शा चलाते हैं। अधिक परेशानी मोल लेना इन्हें भी नहीं रुचता। 
प्रतिदिन की आय के बारे में इन लोगों का कहना है कि वे लोग औसतन पन्द्रह रुपये तो कमा ही लेते हैं। हाँ, कभी-कभी आमद कम होकर दस रुपये तक भी उतर जाती है और बाजार के दिनों में दस से बढ़ कर पचीस तक भी पहुँच जाती है। पन्द्रह रुपये में से दस रुपये तो रोज खर्च हो ही जाते हैं। बड़ा परिवार हुआ तो सारे के सारे रुपये खर्च हो जाते हैं और खाने को भी पूरा नहीं पड़ता। ऐसे में अपने आराम की चिंता किये बगैर रात में भी रिक्शा चलाना पड़ता है। सारा खर्च चलाने के लिये ज़रूरी है। कुछ पैसे कपड़ों के लिये भी बचा कर रखना पड़ता है। कभी कोई सगा-सम्बन्धी आ जाए तो ये पैसे खर्च भी हो जाते हैं। शाम को थकान दूर करने के लिये शराब का सहारा लेना ये अपनी विवशता बताते हैं। 
"क्यों रघु, तुम नहीं जानते कि शराब से कितना नुकसान होता है शरीर को?" मैं यह पिटा-पिटाया प्रश्न करता हूँ रघुनाथ से, तो उत्तर देते हैं सुकलू : "नुकसान तो बाद में होगा, बाबू। सभी जानते हैं यह बात। लेकिन दिन भर की थकान को कैसे मिटाएँ? शाम को थोड़ी सी पी लेते हैं तो बदन का दर्द कम हो जाता है और नींद भी आ जाती है।"
"तो क्या रोज पीते हो?"
"हाँ, रोज ही पीना पड़ता है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इतना पी लें कि आदमी ही न रह जाएँ। नहीं, नहीं ऐसे नशा से भी क्या फायदा? दवा के रूप में थोड़ी सी पी ली.....बस।"
"सवारियों की, विशेषकर बाहर से आने वालों की शिकायत है कि कोंडागाँव के रिक्शा-चालक काफी ज्यादा पैसे लेते हैं। क्या यह सही है?" मैं उनका ध्यान इस ओर खींचता हूँ।
रघुनाथ कहता है : "कहने को तो कुछ भी कह देते हैं लोग। जबकि सही बात यह है कि हम निर्धारित दर ही लेते हैं। और यह जो आप कह रहे हैं न, वो बात हर कोई तो नहीं बोलता। कुछ लोग जरूर ऐसा कहते हैं, क्योंकि वे स्वयं ही निर्धारित दर से भी कम पैसे देते हैं। जब हम दर की बात करते हैं तो उन्हें वह ज्यादा लगती है।"
"अच्छा, और ये झगड़े वाली बात?"
"कौन से झगड़े की?"
"यही कि रिक्शेवाले सवारियों से झगड़ा करते हैं।"
"नहीं। आप गलत कह रहे हैं। झगड़ा हम करते नहीं, करने को मजबूर किये जाते हैं। और बात होती है वही दर की। लेकिन हर कोई झगड़ा नहीं करता। कुछ लोग जो उसी प्रवृत्ति के होते हैं, वे ही परेशान करते हैं। और फिर हमारी मेहनत की सही कीमत हमें न मिले तो क्या हमें बुरा नहीं लगेगा? अच्छा, फिर अगर आपको रिक्शों की दर ही कम कराना है तो पहले जो महँगाई बढ़ गयी है न, उसे तो कम कराइये। चावल-दाल, कपड़ा-लत्ता सब कितने महँगे हो गये हैं....क्या आप लोग नहीं जानते? हमें भी तो जीना-खाना है, बाबू। बड़े-बड़े सेठ-साहूकारों को तो कोई कुछ नहीं कहता, हम छोटे लोगों को डराना सब जानते हैं।" सुकलू का आक्रोश मुखर होता है।

Saturday, 5 May 2012

नारायणपुर : यहाँ आदिवासी नहीं है



और इस बार प्रस्तुत है "नवभारत", 23 फरवरी, 1984 अंक में प्रकाशित यह रपट : 


आपके सामने एक भीमकाय व्यक्ति जो आदिवासी है और निपट ग्रामीण वेश-भूषा में है, चकाचौंध से हतप्रभ भी; उसे एक निपट दुबला-पतला शहरी बिला वजह डाँट देता है और उस आदिवासी के चेहरे पर करुणा उभर आती है। कैसा महसूस करते हैं आप.......?

दो-एक चित्र देखिये। नकारात्मक भी और सकारात्मक भी :

हम बस में बैठे हैं। कोंडागाँव से नारायणपुर के लिये। बस चल पड़ती है। चालक तो रोज ही बदलते हैं बस में। किन्तु एक चेहरा इन वनवासियों का न केवल जाना-पहचाना है, बल्कि किसी बिन्दु पर बेहद आत्मीय भी। आदिवासी इस चेहरे को मिरजा (मिर्ज़ा) के नाम से जानते हैं। 52 किलोमीटर के इस जंगली रास्ते में राह चलता हुआ ऐसा कोई भी आदिवासी नहीं होगा जिसके हाथ मिर्जा भाई को नमस्कार करने के लिये बेहद आत्मीयता से न उठते हों। और भाई मिर्जा भी ऐसे कि बस चालन कर रहे हैं, सामने से कोई दूसरी गाड़ी आ रही है और उसे "साइड" देना हो या फिर पीछे से आती गाड़ी को "ओव्हरटेक" करने देना हो, हर हाल में इन आदिवासियों की नमस्ते का जवाब हाथ उठाकर देंगे ही। एक बात और काबिले गौर। बच्चों को पाठशाला में भर्ती करवाने और उनमें पढ़ाई के प्रति ललक पैदा करने में भी श्री मिर्जा जी का काफी योगदान है। पाठशाला के समय पर रास्ते में आने वाले गाँवों के बच्चों को पाठशाला तक मुफ्त पहुँचाने और पाठशाला छूटने के बाद वापस गाँव पहुँचाने की भी इनकी "रुटिन" रही है। बस में बैठने की लालच में ही सही, आदिवासी बच्चे पाठशाला जाना सीख गये.... यही क्या कम सहयोग है भाई मिर्जा जी का। मैं उन्हें लगातार चौदह-पन्द्रह बरसों से इसी रूप में देखता आ रहा हूँ।
इतनी आत्मीयता उन्हें कैसे मिली.... यह हमारे-आपके लिये उनसे सीखने की चीज है। बड़े-बुजुर्गों को उन्हें नमस्कार करता देख बच्चे भी उनका अनुसरण करते हैं और मिर्जा भाई इन बच्चों को भी उतना ही महत्त्व देते हैं, जितना बड़े-बूढ़े और युवकों को।
लेकिन यही आदिवासी अगले बिन्दु पर धोखा खा जाता है। होता यह है कि वे मिर्जा भाई की ही तरह दूसरे चालकों से भी आत्मीयता का वही रिश्ता कायम करना चाहते हैं, किन्तु भला दूसरे चालकों को इससे क्या मतलब...... या कहें कि उनके लिये इसका क्या महत्त्व? व्यंग्य, घृणा और तिरस्कार पूर्ण दृष्टि उस ओर उठकर वापस आ जाती है। हाथ उठने की बात तो जाने ही दीजिए।
इन बसों में चलने वाले कण्डक्टरों की बात पर भी जरा गौर करें। आदिवासी इनके लिये कभी आदमी नहीं होता; होता है केवल भेड़-बकरी। बस के अंदर सीट खाली हो तो भी ये बदनसीब उन पर नहीं बैठ सकते।
एक चित्र देखें :
मध्यप्रदेश राज्य परिवहन की बस काफी तेज गति से चली जा रही है। इतने में काफी दूरी पर... सड़क के बीचो-बीच एक आदिवासी अपने कन्धे पर एक बच्चे को बिठाए दोनों हाथ फैलाये खड़ा दिखता है। चालक की सीट पर इनका परिचित चेहरा नहीं बल्कि कोई और बैठा है। बस पास पहुँचती है और एक झटके के साथ रुक जाती है। आदिवासी चालक की खिड़की के पास जाता है। चालक उसे फाड़ खाने वाली नज़रों से घूर रहा है....."क्यों बे मामा, मरने को एक मेरी ही गाड़ी थी? कहीं और भी तो जाकर मर सकता है न!"
वह रुँआसा होकर कहता है, "नरानपुर हत्तूर..." यानी "नारायणपुर जाऊँगा।"
"तो साले उधर से आकर बैठता क्यों नहीं? माथा क्यों खराब कर रहा है?" चालक इतनी जोर से चीखता है कि वह वनवासी भय से इधर-उधर देखने लगता है, मानो वापस जंगल के भीतर भाग जाना चाहता हो। 
आप कहेंगे, गलती उसी की थी जो वह सड़क के बीचो-बीच आ खड़ा हुआ था। किन्तु इस तथ्य की ओर भी ध्यान दें कि आखिर उसे ऐसा क्यों करना पड़ा?
दरअसल होता यह है कि मध्यप्रदेश राज्य परिवहन की बसें प्राय: नहीं रुका करतीं। यह बात केवल कोंडागाँव-नारायणपुर मार्ग के साथ ही हो, ऐसी बात नहीं। आप चाहे कोंडागाँव से जगदलपुर मार्ग पर जाएँ या फिर जगदलपुर से उधर कोन्टा-सुकमा या बैलाडिला अथवा भोपालपटनम्। बस्तर के प्रत्येक मार्ग पर यही कहानी दुहरायी जाती है।
बहरहाल, उस आदिवासी का बच्चा बीमार है। उसे वह चिकित्सा के लिये नारायणपुर के अस्पताल लिये जा रहा है। वह बस में सवार होता है। सामने की कई सीटों में शहरी लोग या तो अकेले-अकेले बैठे हैं या फिर दो-दो जन। आदिवासी उनमें से किसी एक पर बैठना चाहता है, तब उन शहरियों का चेहरा घृणा से भर जाता है और वे बिदक उठते हैं, "अबे! पीछे खाली पड़ी है सीट....। उधर क्यों नहीं जाता.....?" और अन्तत: वह किंकत्र्तव्यविमूढ़ हो कर बस की फर्श पर ही उकड़ूँ बैठ जाता है।
भीतर बस में सवारियों की आवाज़ें उभरती हैं......."सरकार इनके पीछे लाखों रुपये खर्च कर चुकी, लेकिन रह गये साले जहाँ के तहाँ।" तभी कन्डक्टर आ कर पैसे वसूल कर लेता है। टिकट नहीं देता। कहता है "टिकट का क्या करेगा रे.....टी.ए. बनाएगा क्या.....?" उसके कहने के साथ ही सवारियाँ खिलखिला कर हँस पड़ती हैं। बस में बैठा हुआ कोई भी व्यक्ति प्रतिरोध नहीं कर पाता। मैं स्वयं भी नहीं।
रास्ते में कई गाँव आते हैं......जोंदरापदर, बुनागाँव, कोकोड़ी, किबईबालेंगा, छेरीबेड़ा, बेनूर, रेमावंड और देवगाँव। इन सारे गाँवों को पार कर बस पहुँचती है नारायणपुर।
नारायणपुर का विशेष आकर्षण है बाहरी लोगों के लिये.....यहाँ प्रति वर्ष भरने वाली मँडई (मेला) के कारण। इसके साथ ही अबूझमाड़ का प्रवेश-द्वार भी है यह क़स्बा। इस शहराते हुए क़स्बे की आबादी अमूमन बारह हज़ार है। क़स्बे के गौरव के रूप में यहाँ एक आदर्श उच्चतर माध्यमिक विद्यालय है। सम्पूर्ण बस्तर सम्भाग में ऐसे आदर्श विद्यालय केवल दो स्थानों में हैं। एक यहाँ और दूसरा फरसगाँव में। इस आदर्श विद्यालय के बारे में इसी विद्यालय के एक ज़िम्मेदार कर्मचारी का कथन है, "शिक्षक गण अध्यापन-कार्य में कम दिलचस्पी लेते हैं। यही इस विद्यालय का आदर्श है।" मनोरंजन के लिये एक "ओपन एयर थियेटर" यानी "टूरिंग टाकीज़" और तीन-तीन "वीडियो-हॉल हैं।
बाहर से एकदम नया आने वाला व्यक्ति तो इस भ्रम में होता है कि यहाँ केवल आदिवासी रहते होंगे। और उसकी निगाह इस क़स्बे में आदिवासियों की खोज में भटकने लगती है। किन्तु तब उसे निराशा होती है, जब उसे वह आदिवासी दिखलायी नहीं पड़ता, जिसका काल्पनिक चित्र उसके दिमाग़ में भरा होता है। अलबत्ता यदि वह रविवार का दिन हुआ या कि मँडई का.....तब उसका चित्र साकार होता देखा जा सकता है, अन्यथा नहीं।
यदि मैं कहूँ कि आदिवासी नारायणपुर में नहीं रहता तो आप और बहुत से जानकार लोग चौंक जाएँगे और मुझे सिरफिरा कहने लग जाएँगे। किन्तु सच यही है कि नारायणपुर में आदिवासी नहीं रहता। रहता था किसी ज़माने में। तब, जब यह क़स्बा निपट गाँव हुआ करता था और इसका नाम हुआ करता था, नगुर। तब यहाँ केवल आदिवासी रहा करते थे और अब केवल आदिवासी नहीं रहता, बाकी सभी रहते हैं।
आदिवासियों के विकास के लिये छोटे से ले कर बड़े तक सभी चिंतित हैं। सरकार आये दिनों सैकड़ों विकास-योजनाएँ बना रही है। बावजूद इसके कोई ठोस परिणाम आज तक सामने नहीं आ सके हैं। एक आदिवासी नेता और बीस सूत्री कमेटी के सदस्य के अनुसार, "कार्यक्रमों का सही क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। इससे विकास की दिशा नज़र नहीं आ पा रही है"। एक बुज़ुर्ग से चर्चा करने पर वे कहने लगे, "आदिवासियों के विकास के लिये बनायी गयी सरकारी नीतियों का सही ढंग से क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। इसीलिये ये लोग और भी पिछड़ते जा रहे हैं। शराब बनाने की जो छूट आदिवासियों को मिली है, इससे उनका और भी नुकसान हो रहा है। नशे में धुत् रह कर विकास की दिशा खोज पाना तो कभी सम्भव हो ही नहीं सकता। रही बात आपको यहाँ आदिवासी के नज़र न आने की, सो ऐसी बात नहीं है कि यहाँ आदिवासी नहीं है। है वह। किन्तु उसके पहनाव-ओढ़ाव में फर्क आ गया है। इसी वजह से आप उसे नहीं पहचान पा रहे हैं। और फिर सवाल उठता है कि जब हम जीवन में निरन्तर आधुनिकता को स्थान दे रहे हैं, तो फिर आदिवासी ही भला क्यों इन रूढ़ियों में बँधा रहे......?"
मैं कहता हूँ, "नारायणपुर में आदिवासी नहीं रहता, इस प्रश्न से मेरा तात्पर्य उसके अस्तित्व से है। मुझे यहाँ उसका अस्तित्व नज़र नहीं आता। .....एक वृहद् संदर्भ में.....आदिवासियों की अस्मिता अब नहीं रह गयी है यहाँ.....। मुझे यहाँ बाहरी लोग ही ज्यादा नज़र आते हैं। सम्पन्न वे ही हैं।"
इस प्रश्न के जवाब में उन्होंने कहा, "कारण यह है कि यहाँ के लोग अपने को राजा ही मान कर चल रहे हैं। जबकि बाहर से आया व्यक्ति परिश्रम करता है रात-दिन। शासन से प्राप्त सहायता के कारण आदिवासी निष्क्रिय हो गया है। अब देखिये, जो बैल छह-सात सौ रुपये में मिला करता था, आज उसी की कीमत दो हज़ार रुपये हो गयी है। क्योंकि सब जानते हैं कि आदिवासियों को बैल-जोड़ी खरीदने के लिये सरकार दो हज़ार रुपये दे रही है। इसमें पचास प्रतिशत और माड़ क्षेत्र में तो नब्बे प्रतिशत अनुग्रह-राशि ही होती है, जिसे उन्हें लौटाना नहीं पड़ता। हश्र यह हुआ कि बिचौलियों की बन आयी है और वे उसी छह-सात सौ रुपयों के बैलों को दो हज़ार रुपये में आदिवासियों को बेच रहे हैं। आदिवासी इसलिये आराम से ख़रीद रहा है क्योंकि यह अनुग्रह-राशि है। दो हज़ार रुपयों का बन्दरबाँट से वारा-न्यारा किया जा रहा है और सरकार तथा आदिवासियों को खुले आम ठगा जा रहा है। इधर इस क़िस्म के दलाल काफ़ी संख्या में पनप रहे हैं।"
अभी हम बातचीत कर ही रहे थे कि कुछेक वनवासी वहाँ आ पहुँचे। पूछने पर पता लगा कि वे कोंगे गाँव से बैलों के लिये ऋण के सम्बन्ध में आये हैं।
"निया बाता पोरोय् (क्या नाम है तुम्हारा)?"
"मोड़ाराम।" एक व्यक्ति अपना नाम बतलाता है।
"निया पोरोय् वेह्हा....(तुम्हारा नाम बताओ)।" आये हुए सभी लोगों के नाम बताने के लिये कहता हूँ मैं।
एक-एक कर सब अपना नाम बताने लगते हैं : डाँडो, पेका, बुडँगा, पाँडरा, राजो।
"बदनार टा.....(किस गाँव के हो)?" मैं फिर पूछता हूँ।
"कोंगे।" मोड़ाराम बतलाता है।
"निया नार बच्चोक धूर मन्ता......(तुम्हारा गाँव कितनी दूर है)?" मैं पूछता हूँ।
"उन्दी एटा हर.....(एक दिन का रास्ता है)।" पेका बतलाता है।
"इगा वारातो बात्तोर....(यहाँ क्यों आये हो)?"
मेरा प्रश्न सुन कर मोड़ाराम हिन्दी बोलने की कोशिश करता हुआ बोलता है, "क्या पूचना.....? अम बताएँगे सीदा-सीदा.....(क्या पूछना चाहते हैं आप.....? हम बताएँगे सीधे-सीधे)।"
वह बतलाता है कि वे लोग बैल खरीदने के लिये ऋण-प्राप्ति हेतु यहाँ आये हैं। मैंने पूछा, "बैंक आये थे तो क्या बातचीत हुई? पैसे देंगे या बैल?"
"देको ए, अबी फोटो खींचने के लिये आया था। फेर खबर देयगा ना गरामसेउक, तब फेर आयेगा (देखो, हम अभी फोटो खिंचवाने के लिये आये हुए थे। ग्रामसेवक सूचना देगा तब दुबारा आयेंगे)।"
"अच्छा तो ग्रामसेवक खबर करेगा तब फिर आओगे?"
"हाँ, पयसा वाला को पयसा देयगा, बयला वाला को बयला देयगा (हाँ, जिन्हें रुपये चाहिये उन्हें रुपये और जिन्हें बैल चाहिये उन्हें बैल दिये जाएँगे)।"
"अच्छा, तो क्या पैसा वापस भी करना पड़ेगा?"
"अयसी तो नइँ बोलता है। लेकिन आदा पयसा आपस करना पड़ेगा। दो सौ....(नहीं, ऐसा तो नहीं कहा है। किन्तु आधे पैसे वापस करने पड़ेंगे। शायद दो सौ रुपये...)।"
"ऐसा क्यों?"
"नइँ जानता (नहीं जानता)।"
"कितने पैसे मिलने की बात है?"
"वो तो डेढ़ हजार।" फिर उसने सुधार कर कहा, "डेढ़ नइँ, दो हजार मिलेगा। उसमें से दो सौ आपस करना।"
"अभी तक कितने लोगों को मिले हैं, बैल?"
"दो-तीन गाँव का मिला है। बयला भी देका है, बयँसा भी देका है। बड़या है। तुरुत नाँगेर-ऊँगेर, गाड़ी-ऊड़ी, बयला गाड़ी ले जाता है।"
मोड़ाराम नाम का यह व्यक्ति परलकोट इलाके के कोंगे गाँव का सरपंच है। पढ़ा-लिखा नहीं है। ये लोग नारायणपुर कई बार आ चुके हैं। कोंगे से नारायणपुर की दूरी इनके अनुसार एक दिन की है। सायकिल से सुबह कोंगे से निकलने पर दोपहर तक नारायणपुर पहुँच जाते हैं। यह गाँव पखांजूर थाने और नारायणपुर तहसील के अन्तर्गत आता है। ये लोग खेती करते हैं। धान के अलावा कोसरा, उड़द वगैरह भी बो लेते हैं।
पाँडरा कहता है, "दुनिया में जितना चीज होता है, वो सब बोता है हम।" सब बड़े हँसमुख और विनोदी स्वभाव से परिपूर्ण। सभी ने अपना नाम बताया था किन्तु एक व्यक्ति ने कहा, "मेरा नाम नहीं है।" सब हँस पड़े।
"क्या बिना नाम के हो?" मैंने मुस्करा कर पूछा।
राजो बोलता है, "उसका नाम कुछ नहीं।" एक बार फिर सब के सब हँस पड़ते हैं। मानो झरना गा उठा हो।
"फिर क्या नाम लिखाओगे, आफिस में?"
"आदमी, आदमी नाम लिखता है।" पाँडरा मुस्कराते हुए बोल पड़ता है और सब के सब खिलखिला कर हँस पड़ते हैं। मुक्त हास्य.......।
आदिम समुदाय के सर्वांगीण विकास के लिये एकीकृत आदिवासी विकास परियोजना, आदिवासी विकास परिषद्, विकास खण्ड कार्यालय, जंगलात के आला अफसरों के कार्यालय, जिला संयोजक और इसी प्रकार कई सरकारी-गैर सरकारी संस्थान यहाँ भरे पड़े हैं......किन्तु प्रगति की दौड़ में आदिम समुदाय के कितने सदस्य आ पाये हैं.....अभी इसके सही आँकड़े खोज पाना व्यर्थ है। ईसाई मिशनरियों की विशेष कृपादृष्टि है इस क्षेत्र में। पास्टर का एक बंगला काफी विस्तृत क्षेत्र के भीतर खड़ा है। इनका अस्पताल भी है। इसके साथ ही एक और संस्था यहाँ क्रियाशील है, "ग्रामीण सहजीवन संस्था"। इस संस्था का मुख्यालय बम्बई में और शाखा नारायणपुर में है। आदिवासियों के विकास में ये संस्थाएँ कहाँ तक साथ हैं.........इस पर चर्चा फिर कभी।
अबूझमाड़ के अबूझमाड़ियों को अपेक्षाकृत अधिक पिछड़े हुए मान कर उनके विकास की दृष्टि से 1974-75 में एक अबूझमाड़ विकास अभिकरण की स्थापना की गयी। इसी तरह अबूझमाड़ विकास खण्ड भी विशेष रूप से बनाया गया। नारायणपुर तहसील के 189, बीजापुर तहसील के 39 और दन्तेवाड़ा तहसील के 8 ग्राम अबूझमाड़ के अन्तर्गत आते हैं। इन में से कुल 23 गाँव आबादी विहीन हैं। 4000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले राजस्व एवं वन कानूनों से अछूते इस भू-भाग में रहने वाली जनसंख्या 19 से 20 हजार के बीच है। इस क्षेत्र में निवास करने वाले अबूझमाड़ियों के पास भू-स्वामित्व के अधिकार नहीं हैं।
इस अभिकरण के लिये काफी महत्त्वपूर्ण उद्देश्य निर्धारित किए गये थे। क्षेत्र में नि:शुल्क नमक एवं कपड़ों का वितरण, आश्रम शालाओं की स्थापना, मलेरिया उन्मूलन, पहुँच-मार्गों का निर्माण, सेटलमेन्ट सर्वे, निस्तारी तालाबों का निर्माण, सहकारी उपभोक्ता भण्डारों की स्थापना, पेय-जल के लिये कुँओं का निर्माण और फलदार वृक्षारोपण इसके प्रमुख कार्य निर्धारित किए गये थे।
वर्ष 74-75 से आज तक यानी कुल मिला कर दस वर्षों में विकास की गति का अंदाजा निम्न आँकड़ों से लग जाता है। पेयजल के लिये कुँए एवं हैण्डपम्प : 14, निस्तारी तालाब : 5, आश्रम शालाएँ : 9, प्राथमिक शालाएँ : 56, पूर्व माध्यमिक शालाएँ : 9, उपभोक्ता भण्डार : कोहकामेटा, आदेर और कच्चापाल। ये तीनों ही उपभोक्ता भण्डार फिलहाल बन्द पड़े हैं। लैम्प्स की शाखाएँ : कोहकामेटा और गारपा। ये दोनों भी बन्द पड़ी हैं। फिलहाल केवल ओरछा में आदिम जाति सहकारी समिति और हान्दावाड़ा में स्थापित उपभोक्ता भण्डार क्रियाशील हैं।
इसी तरह प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना ओरछा, कुतुल, लंका एवं हान्दावाड़ा में की गयी है। इनमें से ओरछा, कोहकामेटा और कुतुल के स्वास्थ्य केन्द्र क्रियाशील हैं, जबकि हान्दावाड़ा और लंका में चिकित्सकों की अभी तक कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की जा सकी है। पूर्व में यहाँ पदस्थ चिकित्सकों ने बाहर कहीं अपने स्थानान्तरण करवा लिये।
जानकार लोगों का कहना है कि इस वर्ष एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम के तहत, बल्कि जब से यह कार्यक्रम लागू हुआ है, तब से पहली दफा आदिवासियों को इतनी बड़ी तादाद में ऋण उपलब्ध कराया जा रहा है। बताया जाता है कि अकेले वर्ष 82-83 में ही लगभग तेरह सौ प्रकरण बनाए गये हैं, जिनमें से आधे से अधिक प्रकरणों की स्वीकृति भी दी जा चुकी है। किन्तु सवाल यही उठता है कि क्या इनका सही लाभ उन्हें मिल पाएगा जिनके लिये यह सब किया जा रहा है........?
यहाँ मुझे उन बुजुर्गवार की बात याद आ जाती है, "दलाल काफी पनप रहे हैं इधर, जो आदिवासियों के विकास के नाम पर अपनी रोटी सेंकने में मसरूफ़ हैं।" निश्चित रूप से ठगी रोकने के लिये सबसे अहम बात है कि लोग शिक्षित हों। ऐसी बात नहीं है कि पाठशालाएँ नहीं खोली गयी हैं। गाँव-गाँव में पाठशालाएँ हैं। एक शिक्षक बन्धु सरकार की इस नीति से बड़े क्षुब्ध हैं। कहते हैं, "सरकार का क्या जाता है? खोल रही है गाँव-गाँव में पाठशालाएँ। हमारी सुख-सुविधा का तो तिल भर भी ख्याल नहीं है.......।"
वही बुजुर्ग फिर कह उठते हैं, "अब भइया, ऐसा है कि मास्टर अब या तो शराब बना कर बेच रहा है या फिर खेती या दूसरा कोई व्यापार कर रहा है। पाठशाला में पढ़ाना तो उसका "पार्ट टाइम जॉब" हो गया है। चाहे तो पाठशाला जाए, चाहे तो न जाए....। कोई बन्दिश नहीं है।"
शिक्षण संस्थाओं की स्थिति जानने के लिये उनका वृहद् सर्वेक्षण ज़रूरी है। वैसे तो सरकार ने अधिकारियों की नियुक्ति की है कि समय-समय पर, जब उन्हें फुरसत मिले, प्रत्येक पाठशाला का निरीक्षण करें। किन्तु कौन देखता है यह सब? अफसर को प्रसन्न करने के बाद भला ऐसा कौन सा काम रह जाता है अपने देश में जो ठीक-ठाक न हो सकता हो? गाँव वालों में यदि इतनी चेतना होती तो फिर बात ही क्या थी.....। बहरहाल, बावजूद इन सारी बातों के, सारे के सारे लोग आदिम समुदाय के विकास की चिन्ता में घुले जा रहे हैं। यह सच है। हाँ, अभी हाल ही में यहाँ, नारायणपुर में एक सिविल अस्पताल खुला है; मध्यप्रदेश शासन के स्वास्थ्य विभाग के अधीन। इससे कितनी चिकित्सा-सुविधाएँ मिलेंगी उस आदिम जन समुदाय को, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।