बस्तर अंचल की संस्कार धानी के नाम से पहचान बनाये रखने वाले कस्बे कोंडागाँव में आज से एक अनूठी साहित्यिक पहल की गयी है। इस पहल के सूत्रधार हैं डॉ. राजाराम त्रिपाठी। अपने हर्बल उत्पादों के लिये न केवल बस्तर अंचल अपितु देश-विदेश में जाने जाने वाले डॉ. त्रिपाठी एक किसान के साथ-साथ स्वयं साहित्यानुरागी और कवि भी हैं। किन्तु इस पोस्ट में हम डॉ. त्रिपाठी के विषय में नहीं बल्कि उनके द्वारा की गयी अनूठी पहल के विषय में बात कर रहे हैं। डॉ. त्रिपाठी के विषय में विस्तार से किसी अगले पोस्ट में बात होगी।
बहरहाल, यह पहल है कोंडागाँव के प्रत्येक साहित्यकार और साहित्य-प्रेमी का जन्म दिवस एक साहित्यिक माहौल में मनाये जाने की। इसकी शुरुआत की गयी आज 31 अक्टूबर 2012 को छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद् के प्रान्तीय उपाध्यक्ष एवं बस्तर अंचल के सुप्रसिद्ध कवि एवं व्यंग्यकार श्री चितरंजन रावल के 80 वें जन्म दिवस के साथ।
दंतेश्वरी हर्बल एस्टेट के सभागार में आयोजित छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद् की कोंडागाँव जिला इकाई द्वारा आयोजित इस अनूठे कार्यक्रम की अध्यक्षता की इस नगर में शिक्षा एवं संस्कृति के संरक्षक एवं पोषक रहे आये आदरणीय टी. एस. ठाकुर ने जबकि मुख्य अतिथि थे श्री चितरंजन रावल एवं विशिष्ट अतिथियों की आसंदी पर थे श्री हेमसिंह राठौर एवं डॉ. त्रिपाठी।
सर्वप्रथम सर्वश्री चितरंजन रावल, टी. एस. ठाकुर, हेमसिंह राठौर एवं डॉ. राजाराम त्रिपाठी द्वारा माँ शारदे के चित्र के समक्ष दीप-प्रज्ज्वलित किया गया और पूजा-अर्चना की गयी। इसके पश्चात् मंचासीन अतिथियों का पुष्प-गुच्छ से सम्मान कर कार्यक्रम को आगे बढ़ाया गया। दर्शक-दीर्घा में बैठे साहित्यानुरागियों एवं कवियों का भी रोली-चंदन लगा कर स्वागत किया गया। कार्यक्रम का संचालन करते हुए बस्तर अंचल के सुप्रसिद्ध कवि एवं व्यंग्यकार श्री सुरेन्द्र रावल ने आज के कार्यक्रम की जानकारी देते हुए अपने अग्रज श्री चितरंजन रावल से निवेदन किया कि वे अपनी काव्य-यात्रा के विषय में दो शब्द कहें। श्री चितरंजन रावल ने अपनी काव्य-यात्रा के विषय में संक्षेप में बताया।
श्री चितरंजन रावल ने अपने उद्बोधन में कहा कि उन्होंने अपने जीवन के 56 वर्षों में जो कुछ भोगा, देखा, सुना; विशेषकर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में, उसे काव्य-सुमनों में गूँथने का प्रयास किया है। उन्होंने बताया कि उन्होंने बिना किसी पूर्वाग्रह के, बिना किसी विचार-धारा की प्रतिबद्धता के पूरी ईमानदारी के साथ जैसा देखा-सुना-समझा उसे बिना लाग-लपेट के काव्य-रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया।
इसके बाद श्री टी. एस. ठाकुर एवं श्री हेमसिंह राठौर ने उनके प्रति आशीर्वचन कहे फिर उनके सम्मान में एक संक्षिप्त काव्य-गोष्ठी का आयोजन हुआ। काव्य-गोष्ठी में सर्वश्री चितरंजन रावल, हेमसिंह राठौर, सुरेन्द्र रावल, यशवंत गौतम, हरिहर वैष्णव, हरेन्द्र यादव, महेश पाण्डे, महेन्द्र जैन, फज़ल खान, राजाराम त्रिपाठी, उमेश मण्डावी, श्री विश्वकर्मा और सुश्री बरखा भाटिया ने अपनी कविताएँ सुनायीं। इस अवसर पर नगर के प्रबुद्ध जनों के साथ हरिभूमि दैनिक के ब्यूरो चीफ श्री जमील खान भी विशेष रूप से उपस्थित थे।
श्री चितरंजन रावल का जन्म 31 अक्टूबर 1933 को बस्तर जैसे एक पिछड़े जिले के जगदलपुर कस्बे में हुआ। यहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई और यहीं उनके मन में अपने वरिष्ठ लोगों के सान्निध्य में साहित्य से अनुराग पैदा हुआ। बस्तर पूर्व में एक रियासत था, जहाँ साहित्य-सृजन का कोई पुष्ट एवं अनुकूल माहौल नहीं था। किंतु फिर भी कुछ साहित्यानुरागी लोगों ने साहित्यिक वातावरण निर्मित करने का प्रयास किया। बस्तर के जगदलपुर नगर में, जो उस समय मात्र एक छोटा-सा कस्बा था, रियासत द्वारा स्थापित एक ग्रंथालय था, जिसका नाम राजा रुद्र प्रताप देव ग्रंथालय था। इसी भवन में कुछ साहित्य-प्रेमियों ने साहित्यिक गोष्ठियाँ प्रारम्भ की। इस दिशा में प्रारम्भ में जिन लोगों का योगदान रहा, उनमें सर्वश्री लाला जगदलपुरी, गुलशेर खान शानी, धनंजय वर्मा, इकबाल अहमद अब्बन, कृष्ण कुमार झा, आदि प्रमुख थे। बाद में कुछ लोग और इसमें जुड़े। उनमें सर्वश्री दयाशंकर शुक्ल, लक्ष्मीचंद जैन, कमालुद्दीन "कमाल", गंगाधर सामंत एवं श्री रघुनाथ महापात्र आदि प्रमुख थे। इन्हीं लोगों के साथ और इन्हीं की प्रेरणा से श्री चितरंजन रावल ने भी साहित्यिक गोष्ठियों में जाना आरम्भ किया। उस समय श्री रावल एक विद्यार्थी थे। साहित्य-सृजन की कोई आकांक्षा तब तक मन में नहीं थी परंतु साहित्य के प्रति रुचि बहुत थी। इसका एक कारण यह भी था कि उनके कुछ सहपाठी हिन्दी साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखते थे। इनमें विशेषत: सर्वश्री शानी, अब्बन एवं श्री कृष्ण कुमार झा आदि थे। इन्हें देख कर श्री रावल के मन में भी साहित्य के प्रति अनुराग पैदा हुआ।
17 वर्ष की उम्र में ही उनके पिता का साया सिर पर से उठ जाने के बाद वे परिवार के भरण-पोषण के कार्य में जुट गये और लगभग 10 वर्षों तक साहित्यिक गतिविधियों से कटे रहे। साहित्य के क्षेत्र में उनका पुनप्र्रवेश 1962-63 में हुआ तथा 1977 से वे लगातार आकाशवाणी के जगदलपुर केन्द्र से जुड़े रहे और आज भी जुड़े हुए हैं। उनकी अनेक कविताएँ तथा व्यंग्य आकाशवाणी के जगदलपुर केन्द्र से प्रसारित होते आ रहे हैं। इस समय तक उन्होंने स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी और बी. एड. प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने पहली कविता लिखी। इस कविता को सुन कर उनके अध्यापकों और साथियों ने उनका काफी उत्साह-वर्धन किया। इसके फलस्वरूप काव्य-सृजन की जो धारा प्रवाहित हुई वह आज तक जारी है। यहीं से उनके साहित्यिक जीवन का आरम्भ हो गया।
अब तक जगदलपुर नगर में साहित्यिक वातावरण निर्मित हो चुका था तथा कुछ और लोग इस दिशा में सक्रिय हो चुके थे। उर्दू के क्षेत्र में सर्वश्री इशरत मीर, रऊफ परवेज; हिन्दी कहानी के क्षेत्र में सर्वसुश्री मेहरुन्निसा परवेज, जया बोस तथा श्री कृष्ण शुक्ल; हिन्दी कविताओं के क्षेत्र में सर्वश्री लाला जगदलपुरी, दयाशंकर शुक्ल, हुकुमदास अचिंत्य, पूर्णचन्द्र रथ आदि तथा हिन्दी व्यंग्य के क्षेत्र (गद्य एवं पद्य दोनों) में श्री चितरंजन रावल एवं उनके अनुज श्री सुरेन्द्र रावल ने रचनाएँ लिखीं। आज भी दोनों भाइयों की प्रमुख विधा व्यंग्य ही है। श्री चितरंजन रावल ने यद्यपि सभी विधाओं में सृजन किया किन्तु उनका विशेष झुकाव व्यंग्य विधा की ओर ही रहा। कुछ लोगों ने साहित्य के क्षेत्र से विदा भी ली। श्री कमालुद्दीन "कमाल" का निधन हो चुका था तथा श्री लक्ष्मीचंद जैन साहित्य से संन्यास ले कर पूरे मनोयोग से व्यापार में जुट गये थे। बस्तर की लोक-भाषा हल्बी एवं भतरी में श्री रघुनाथ महापात्र तथा उनके पुत्र श्री जोगेन्द्र महापात्र "जोगी" ने रचनाएँ लिखीं और वे दोनों ही बस्तर की लोक-भाषा के प्रति प्रतिबद्ध रहे। उन्होंने केवल हल्बी एवं भतरी में ही कविताएँ लिखीं। सम्भव है कि कुछ कविताएँ उन्होंने हिन्दी में भी लिखी हों, परन्तु वे हल्बी एवं भतरी में लेखन के लिये ही चर्चित रहे।
अब तक बस्तर जिले के अन्य नगरों, विशेषत: उत्तर बस्तर के काँकेर एवं कोंडागाँव में भी साहित्यिक वातावरण निर्मित होने लगा था। इस समय प्रगतिशील विचार-धारा का बोलबाला था। उस समय इस विचार-धारा का बहुत अधिक प्रचार-प्रसार हुआ। जगदलपुर, काँकेर, कोंडागाँव आदि नगरों में प्रगतिशील लेखक संघ की इकाइयों का गठन हो गया। कई कवि नयी प्रगतिशील विचार-धारा से प्रभावित हो प्रतीकात्मक कविताएँ लिखने लगे। छंदबद्ध रचनाओं को पुरातन शैली का नाम दे कर उसकी उपेक्षा की जाने लगी। यह उपेक्षा कमोबेश आज भी विद्यमान है। नयी कविता के क्षेत्र में श्री बहादुर लाल तिवारी ने कई कविताएँ लिखीं तथा आज भी लिख रहे हैं। उन्होंने अपने को इस विचार-धारा से लगभग प्रतिबद्ध कर लिया है।
कोंडागाँव में श्री चितरंजन रावल ने अपनी व्यंग्य रचनाएं लिखने का क्रम जारी रखा था। उर्दू में श्री उमर हयात रजवी रचनाएँ लिख रहे थे। श्री चितरंजन रावल के अनुज श्री सुरेन्द्र रावल भी काव्य-सृजन में लगे हुए थे। इस तरह कोंडागाँव में भी एक अच्छा साहित्यिक वातावरण निर्मित हो चुका था। इसी बीच कोंडागाँव में श्री मनीषराय यादव अनुविभागीय अधिकारी के पद पर तथा श्री सोनसिंह पुजारी तहसीलदार के पद पर स्थानान्तरित हो कर आये। श्री यादव स्वयं एक सुप्रसिद्ध कहानीकार तथा कवि थे और श्री सोनसिंह पुजारी बस्तर की लोक-भाषा हल्बी से प्रतिबद्ध इस लोक-भाषा के ऊर्जावान कवि। इन दोनों साहित्यकारों के इस नगर में आने से यहाँ के साहित्यिक वातावरण में एक नयी चेतना आयी। कई साहित्यिक कार्यक्रम कोंडागाँव में आयोजित किये गये। एक संदर्भ ग्रंथ "इन्द्रावती" का प्रकाशन भी हुआ, जिसके संपादक थे श्री मनीषराय और बलराम। इसके तीन सह-सम्पादक भी थे, सर्वश्री सोनसिंह पुजारी, चितरंजन रावल एवं सुरेन्द्र रावल। इस ग्रंथ के विमोचन के अवसर पर 1982 में कोंडागाँव में एक अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन भी आयोजित किया गया था जिसमें देश भर से सुप्रसिद्ध साहित्यकारों का कोंडागाँव आगमन हुआ था। बस्तर अंचल में 1950 में जगदलपुर में आयोजित अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के बाद यह दूसरा अखिल भारतीय स्तर का आयोजन था। यह संदर्भ ग्रंथ पूरी तरह बस्तर पर ही केन्द्रित और अभूतपूर्व था। आज इसकी प्रति उपलब्ध नहीं है।
इस बीच "जनरेशन गैप" पर श्री चितरंजन रावल की लिखी एक महत्त्वपूर्ण कविता की स्व. दुष्यंत कुमार जी ने मुक्त कण्ठ से न केवल प्रशंसा की अपितु उसका प्रकाशन किसी एक महत्त्वपूर्ण पत्रिका के विशेषांक में करने हेतु श्री रावल से अनुमति भी माँगी। किन्तु अफ़सोस! जब तक श्री रावल की अनुमति उन तक पहुँचती दुष्यंत कुमार जी का निधन हो चुका था। बाद में वह कविता अन्यत्र प्रकाशित हुई। श्री चितरंजन रावल की व्यंग्य रचनाओं का प्रकाशन देश की महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में होता रहा है, जिनमें शब्द, रंग, मध्यप्रदेश संदेश, वीणा, कहानीकार आदि प्रमुख हैं। उल्लेखनीय है कि श्री चितरंजन रावल के गीति रचनाएँ भी सुंदर बन पड़ती हैं।
श्री चितरंजन रावल की कविताओं का एक संग्रह कुछ वर्षों पहले "कुचला हुआ सूरज" शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं इसी संग्रह से उनकी कुछ विविध रंगी कविताएँ :
01. वनवासी
ओ वनवासी!
सोते रहे सदियों से, तुम
कुम्भकर्णी निद्रा में।
अब तो जागो!
शायद पता नहीं तुम्हें
जिन हाथों ने तुम्हें
थपकियाँ दीं
मीठी नींद में सुलाया
उन्हीं ने तुम्हारा
सर्वस्व चुराया।
लुट चुका सब कुछ
क्या रह गया अब तुम्हारे पास
कटे हुए वृक्षों के ठूँठ,
झोपड़ी की जर्जर दीवारें,
वस्त्र के अभाव में
लजाती हुई हया
पर किसे आयी दया?
प्रकृति के चहेते बेटे,
मौसम भी
तुम्हारे अनुकूल कहाँ रहा?
कोई मलय पवन
तुम्हारे गाँव पर से कहाँ बहा?
सुना है हमने भी
जहाँ घने जंगल होते हैं
ऊँचे पर्वत होते हैं
मेघ वहीं उतर आते हैं।
पर वनवासी!
जाने क्या हो गया
तुम्हारे देश में तो
भूगोल का सर्वमान्य
सिद्धांत भी गलत हो गया।
तुम व्यर्थ ही
खेत पर खड़े हुए
आसमान निहारते रहे
मेघ तो सब
पड़ोस में बरस गये!
तुम चुल्लू भर पानी को
तरस गये।
कभी सोचा?
गुजर गये
तुम पहले पायदान पर ही
क्यों रह गये?
तुम्हारे उत्कर्ष के लिये तो
कई नदियाँ बहायी गयीं
कई जलाशय खोदे गये
पर सारा पानी कहाँ चला गया?
तू प्यासा क्यों रह गया?
तुम्हारा अस्तित्व कहाँ है?
किसने कब कहाँ
तुम्हारे अस्तित्व को आँका?
और तुमने ही इसके लिये
कहाँ कोई प्रयत्न साधा?
जान कर तुम्हें होगा आश्चर्य
मेरे वनवासी!
तुम्हारे देश में
तुम्हारा नहीं
तुम्हारे अँगूठों का
अस्तित्व आँका गया।
इन अँगूठों के लिये
एकलव्य की तरह
तुम्हें फाँसा गया।
तुम कहाँ समझ पाये?
तुम्हारा ही अँगूठा
तुम्हें दिखा दिया गया
और उसके बल पर
सब कुछ तुम्हारा
छीन लिया गया।
मेरे भाई!
क्या तुम नहीं जानते?
खेतों में हल चला देने से
धरती में बीज बो देने से ही
फसल नहीं उग आती है।
यदि उग भी आयी
तो तुम्हारे खलिहानों तक
कहाँ पहुँच पाती है?
शोषण की घास
इसे बीच में ही
निगल जाती है।
इसलिये अपनी दराँतों से
शोषण की घास काटो
बेशरम और काँटों के
पौधे उखाड़ो
तब देखना
तुम्हारे खलिहानों में
सूर्योदय होगा
उससे सारा गाँव प्रकाशित होगा।
मेरे भाई!
अपनी बाँहों में
पैदा करो ताकत
बहते हुए पानी को रोको,
शंकर की तरह
अपनी जटाओं से
गंगा को रोको
अन्यथा मेरे वनवासी!
कोई भगीरथ भी क्या करेगा?
स्वर्ग से उतर गंगा
पाताल में समा जायेगी।
तुम्हारी धरती प्यासी की प्यासी
रह जायेगी।
तुम तो अँधेरे में
जी रहे हो वनवासी।
प्रकाश की कोई किरण
तुम तक कहाँ पहुँच पायी?
और तुमने ही इसके लिये
कहाँ कोई राह बनायी?
दरअसल
तुम्हारे और रोशनी के बीच
घना जंगल है
तुम्हें रोशनी की भी जरूरत है
और जंगल की भी
इसीलिये जंगल के बीच
राह बनाओ
रोशनी को जंगल के बीच से
अपने गाँव तक पहुँचाओ
फिर देखना
तुम्हारे इशारे पर
बहेगी हवा
तुम्हारे इंगित पर
उतरेंगे मेघ
तुम्हारी धरती पर।
खेत तुम्हारे सोना उगलेंगे
धरती तुम्हें तिलक करेगी
भूमि-पुत्र के पद पर
तुम्हें प्रतिष्ठित करेगी।
02. गीत कहाँ बोयेंगे
धरती है बंजर जब
गीत कहाँ बोयेंगे?
पिंजरे में घिरा हुआ
अपना आवास है।
उड़ने को मुक्त मगर,
सीमित आकाश है।।
ऐसे में कहो भला
पंख कहाँ खोलेंगे?
बाहर है शोर बहुत,
भीतर सन्नाटा है।
पीढ़ी के पाँवों में,
विषधर ने काटा है।।
बहरे हों लोग सभी,
मौन कहाँ तोड़ेंगे?
घिसी-पिटी लीकों के
दाग अभी गहरे हैं।
बीत गयीं सदियाँ, पर
लोग वहीं ठहरे हैं।।
ऐसे में तुम्हीं कहो,
पृष्ठ कहाँ खोलेंगे?
व्यूहों में घिरे लोग,
मर-मर कर जीते हैं।
जीवन की छलना में,
रोज गरल पीते हैं।।
मुर्दों की बस्ती में,
शंख कहाँ फूँकेंगे?
03. ग्रीष्म की दोपहर
जेठ की दुपहरी
सहमी-सी शाम।
उगल रही अंगारे,
धरती हे राम!
साधू से खड़े पेड़,
ध्यान-मग्न लगते हैं।
पत्ते निस्तब्ध सभी,
सोये-से लगते हैं।
हवा कहीं बैठ गयी
लेने विश्राम।
बंगले के कमरे में
कूलर है चलता।
गरमी है कितनी, यह
पता नहीं चलता।
चौखट पर बैठ धूप
करती आराम।
हटरी में सुखिया
बेच रही सब्जी।
दोपहरी में सी रहा,
कपड़े है दरजी।
मौसम के हुए सभी,
तेवर नाकाम।
श्रमजीवी हाथों,
मौसम है हारा।
खीझ कर तलैया का,
पानी पी डारा।
लिख दो खत कोई,
पावस के नाम।
04. फर्क नदी, चट्टान, पर्वत और आदमी में
एक नदी, नदी होती है
वह आदमी नहीं हो सकती।
एक चट्टान, चट्टान होती है
वह आदमी नहीं हो सकती।
एक पर्वत, पर्वत होता है
वह आदमी नहीं हो सकता।
किन्तु आदमी!
नदी हो सकता है,
चट्टान हो सकता है,
पर्वत हो सकता है।
यही तो फर्क है
नदी, चट्टान, पर्वत और आदमी में।
सम्पर्क सूत्र :
श्री चितरंजन रावल
नहरपारा, कोंडागाँव 494226, बस्तर-छ.ग.
मोबा.: 93-008-01942