Wednesday, 31 October 2012

संस्कार धानी की अनूठी पहल



बस्तर अंचल की संस्कार धानी के नाम से पहचान बनाये रखने वाले कस्बे कोंडागाँव में आज से एक अनूठी साहित्यिक पहल की गयी है। इस पहल के सूत्रधार हैं डॉ. राजाराम त्रिपाठी। अपने हर्बल उत्पादों के लिये न केवल बस्तर अंचल अपितु देश-विदेश में जाने जाने वाले डॉ. त्रिपाठी एक किसान के साथ-साथ स्वयं साहित्यानुरागी और कवि भी हैं। किन्तु इस पोस्ट में हम डॉ. त्रिपाठी के विषय में नहीं बल्कि उनके द्वारा की गयी अनूठी पहल के विषय में बात कर रहे हैं। डॉ. त्रिपाठी के विषय में विस्तार से किसी अगले पोस्ट में बात होगी।
बहरहाल, यह पहल है कोंडागाँव के प्रत्येक साहित्यकार और साहित्य-प्रेमी का जन्म दिवस एक साहित्यिक माहौल में मनाये जाने की। इसकी शुरुआत की गयी आज 31 अक्टूबर 2012 को छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद् के प्रान्तीय उपाध्यक्ष एवं बस्तर अंचल के सुप्रसिद्ध कवि एवं व्यंग्यकार श्री चितरंजन रावल के 80 वें जन्म दिवस के साथ।
दंतेश्वरी हर्बल एस्टेट के सभागार में आयोजित छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद् की कोंडागाँव जिला इकाई द्वारा आयोजित इस अनूठे कार्यक्रम की अध्यक्षता की इस नगर में शिक्षा एवं संस्कृति के संरक्षक एवं पोषक रहे आये आदरणीय टी. एस. ठाकुर ने जबकि मुख्य अतिथि थे श्री चितरंजन रावल एवं विशिष्ट अतिथियों की आसंदी पर थे श्री हेमसिंह राठौर एवं डॉ. त्रिपाठी। 
सर्वप्रथम सर्वश्री चितरंजन रावल, टी. एस. ठाकुर, हेमसिंह राठौर एवं डॉ. राजाराम त्रिपाठी द्वारा माँ शारदे के चित्र के समक्ष दीप-प्रज्ज्वलित किया गया और पूजा-अर्चना की गयी। इसके पश्चात् मंचासीन अतिथियों का पुष्प-गुच्छ से सम्मान कर कार्यक्रम को आगे बढ़ाया गया। दर्शक-दीर्घा में बैठे साहित्यानुरागियों एवं कवियों का भी रोली-चंदन लगा कर स्वागत किया गया। कार्यक्रम का संचालन करते हुए बस्तर अंचल के सुप्रसिद्ध कवि एवं व्यंग्यकार श्री सुरेन्द्र रावल ने आज के कार्यक्रम की जानकारी देते हुए अपने अग्रज श्री चितरंजन रावल से निवेदन किया कि वे अपनी काव्य-यात्रा के विषय में दो शब्द कहें। श्री चितरंजन रावल ने अपनी काव्य-यात्रा के विषय में संक्षेप में बताया।
श्री चितरंजन रावल ने अपने उद्बोधन में कहा कि उन्होंने अपने जीवन के 56 वर्षों में जो कुछ भोगा, देखा, सुना; विशेषकर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में, उसे काव्य-सुमनों में गूँथने का प्रयास किया है। उन्होंने बताया कि उन्होंने बिना किसी पूर्वाग्रह के, बिना किसी विचार-धारा की प्रतिबद्धता के पूरी ईमानदारी के साथ जैसा देखा-सुना-समझा उसे बिना लाग-लपेट के काव्य-रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया। 
इसके बाद श्री टी. एस. ठाकुर एवं श्री हेमसिंह राठौर ने उनके प्रति आशीर्वचन कहे फिर उनके सम्मान में एक संक्षिप्त काव्य-गोष्ठी का आयोजन हुआ। काव्य-गोष्ठी में सर्वश्री चितरंजन रावल, हेमसिंह राठौर, सुरेन्द्र रावल, यशवंत गौतम, हरिहर वैष्णव, हरेन्द्र यादव, महेश पाण्डे, महेन्द्र जैन, फज़ल खान, राजाराम त्रिपाठी, उमेश मण्डावी, श्री विश्वकर्मा और सुश्री बरखा भाटिया ने अपनी कविताएँ सुनायीं। इस अवसर पर नगर के प्रबुद्ध जनों के साथ हरिभूमि दैनिक के ब्यूरो चीफ श्री जमील खान भी विशेष रूप से उपस्थित थे। 
श्री चितरंजन रावल का जन्म 31 अक्टूबर 1933 को बस्तर जैसे एक पिछड़े जिले के जगदलपुर कस्बे में हुआ। यहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई और यहीं उनके मन में अपने वरिष्ठ लोगों के सान्निध्य में साहित्य से अनुराग पैदा हुआ। बस्तर पूर्व में एक रियासत था, जहाँ साहित्य-सृजन का कोई पुष्ट एवं अनुकूल माहौल नहीं था। किंतु फिर भी कुछ साहित्यानुरागी लोगों ने साहित्यिक वातावरण निर्मित करने का प्रयास किया। बस्तर के जगदलपुर नगर में, जो उस समय मात्र एक छोटा-सा कस्बा था, रियासत द्वारा स्थापित एक ग्रंथालय था, जिसका नाम राजा रुद्र प्रताप देव ग्रंथालय था। इसी भवन में कुछ साहित्य-प्रेमियों ने साहित्यिक गोष्ठियाँ प्रारम्भ की। इस दिशा में प्रारम्भ में जिन लोगों का योगदान रहा, उनमें सर्वश्री लाला जगदलपुरी, गुलशेर खान शानी, धनंजय वर्मा, इकबाल अहमद अब्बन, कृष्ण कुमार झा, आदि प्रमुख थे। बाद में कुछ लोग और इसमें जुड़े। उनमें सर्वश्री दयाशंकर शुक्ल, लक्ष्मीचंद जैन, कमालुद्दीन "कमाल", गंगाधर सामंत एवं श्री रघुनाथ महापात्र आदि प्रमुख थे। इन्हीं लोगों के साथ और इन्हीं की प्रेरणा से श्री चितरंजन रावल ने भी साहित्यिक गोष्ठियों में जाना आरम्भ किया। उस समय श्री रावल एक विद्यार्थी थे। साहित्य-सृजन की कोई आकांक्षा तब तक मन में नहीं थी परंतु साहित्य के प्रति रुचि बहुत थी। इसका एक कारण यह भी था कि उनके कुछ सहपाठी हिन्दी साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखते थे। इनमें विशेषत: सर्वश्री शानी, अब्बन एवं श्री कृष्ण कुमार झा आदि थे। इन्हें देख कर श्री रावल के मन में भी साहित्य के प्रति अनुराग पैदा हुआ। 
17 वर्ष की उम्र में ही उनके पिता का साया सिर पर से उठ जाने के बाद वे परिवार के भरण-पोषण के कार्य में जुट गये और लगभग 10 वर्षों तक साहित्यिक गतिविधियों से कटे रहे। साहित्य के क्षेत्र में उनका पुनप्र्रवेश 1962-63 में हुआ तथा 1977 से वे लगातार आकाशवाणी के जगदलपुर केन्द्र से जुड़े रहे और आज भी जुड़े हुए हैं। उनकी अनेक कविताएँ तथा व्यंग्य आकाशवाणी के जगदलपुर केन्द्र से प्रसारित होते आ रहे हैं। इस समय तक उन्होंने स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी और बी. एड. प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने पहली कविता लिखी। इस कविता को सुन कर उनके अध्यापकों और साथियों ने उनका काफी उत्साह-वर्धन किया। इसके फलस्वरूप काव्य-सृजन की जो धारा प्रवाहित हुई वह आज तक जारी है। यहीं से उनके साहित्यिक जीवन का आरम्भ हो गया। 
अब तक जगदलपुर नगर में साहित्यिक वातावरण निर्मित हो चुका था तथा कुछ और लोग इस दिशा में सक्रिय हो चुके थे। उर्दू के क्षेत्र में सर्वश्री इशरत मीर, रऊफ परवेज; हिन्दी कहानी के क्षेत्र में सर्वसुश्री मेहरुन्निसा परवेज, जया बोस तथा श्री कृष्ण शुक्ल; हिन्दी कविताओं के क्षेत्र में सर्वश्री लाला जगदलपुरी, दयाशंकर शुक्ल, हुकुमदास अचिंत्य, पूर्णचन्द्र रथ आदि तथा हिन्दी व्यंग्य के क्षेत्र (गद्य एवं पद्य दोनों) में श्री चितरंजन रावल एवं उनके अनुज श्री सुरेन्द्र रावल ने रचनाएँ लिखीं। आज भी दोनों भाइयों की प्रमुख विधा व्यंग्य ही है। श्री चितरंजन रावल ने यद्यपि सभी विधाओं में सृजन किया किन्तु उनका विशेष झुकाव व्यंग्य विधा की ओर ही रहा। कुछ लोगों ने साहित्य के क्षेत्र से विदा भी ली। श्री कमालुद्दीन "कमाल" का निधन हो चुका था तथा श्री लक्ष्मीचंद जैन साहित्य से संन्यास ले कर पूरे मनोयोग से व्यापार में जुट गये थे। बस्तर की लोक-भाषा हल्बी एवं भतरी में श्री रघुनाथ महापात्र तथा उनके पुत्र श्री जोगेन्द्र महापात्र "जोगी" ने रचनाएँ लिखीं और वे दोनों ही बस्तर की लोक-भाषा के प्रति प्रतिबद्ध रहे। उन्होंने केवल हल्बी एवं भतरी में ही कविताएँ लिखीं। सम्भव है कि कुछ कविताएँ उन्होंने हिन्दी में भी लिखी हों, परन्तु वे हल्बी एवं भतरी में लेखन के लिये ही चर्चित रहे।
अब तक बस्तर जिले के अन्य नगरों, विशेषत: उत्तर बस्तर के काँकेर एवं कोंडागाँव में भी साहित्यिक वातावरण निर्मित होने लगा था। इस समय प्रगतिशील विचार-धारा का बोलबाला था। उस समय इस विचार-धारा का बहुत अधिक प्रचार-प्रसार हुआ। जगदलपुर, काँकेर, कोंडागाँव आदि नगरों में प्रगतिशील लेखक संघ की इकाइयों का गठन हो गया। कई कवि नयी प्रगतिशील विचार-धारा से प्रभावित हो प्रतीकात्मक कविताएँ लिखने लगे। छंदबद्ध रचनाओं को पुरातन शैली का नाम दे कर उसकी उपेक्षा की जाने लगी। यह उपेक्षा कमोबेश आज भी विद्यमान है। नयी कविता के क्षेत्र में श्री बहादुर लाल तिवारी ने कई कविताएँ लिखीं तथा आज भी लिख रहे हैं। उन्होंने अपने को इस विचार-धारा से लगभग प्रतिबद्ध कर लिया है। 
कोंडागाँव में श्री चितरंजन रावल ने अपनी व्यंग्य रचनाएं लिखने का क्रम जारी रखा था। उर्दू में श्री उमर हयात रजवी रचनाएँ लिख रहे थे। श्री चितरंजन रावल के अनुज श्री सुरेन्द्र रावल भी काव्य-सृजन में लगे हुए थे। इस तरह कोंडागाँव में भी एक अच्छा साहित्यिक वातावरण निर्मित हो चुका था। इसी बीच कोंडागाँव में श्री मनीषराय यादव अनुविभागीय अधिकारी के पद पर तथा श्री सोनसिंह पुजारी तहसीलदार के पद पर स्थानान्तरित हो कर आये। श्री यादव स्वयं एक सुप्रसिद्ध कहानीकार तथा कवि थे और श्री सोनसिंह पुजारी बस्तर की लोक-भाषा हल्बी से प्रतिबद्ध इस लोक-भाषा के ऊर्जावान कवि। इन दोनों साहित्यकारों के इस नगर में आने से यहाँ के साहित्यिक वातावरण में एक नयी चेतना आयी। कई साहित्यिक कार्यक्रम कोंडागाँव में आयोजित किये गये। एक संदर्भ ग्रंथ "इन्द्रावती" का प्रकाशन भी हुआ, जिसके संपादक थे श्री मनीषराय और बलराम। इसके तीन सह-सम्पादक भी थे, सर्वश्री सोनसिंह पुजारी, चितरंजन रावल एवं सुरेन्द्र रावल। इस ग्रंथ के विमोचन के अवसर पर 1982 में कोंडागाँव में एक अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन भी आयोजित किया गया था जिसमें देश भर से सुप्रसिद्ध साहित्यकारों का कोंडागाँव आगमन हुआ था। बस्तर अंचल में 1950 में जगदलपुर में आयोजित अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के बाद यह दूसरा अखिल भारतीय स्तर का आयोजन था। यह संदर्भ ग्रंथ पूरी तरह बस्तर पर ही केन्द्रित और अभूतपूर्व था। आज इसकी प्रति उपलब्ध नहीं है। 
इस बीच "जनरेशन गैप" पर श्री चितरंजन रावल की लिखी एक महत्त्वपूर्ण कविता की स्व. दुष्यंत कुमार जी ने मुक्त कण्ठ से न केवल प्रशंसा की अपितु उसका प्रकाशन किसी एक महत्त्वपूर्ण पत्रिका के विशेषांक में करने हेतु श्री रावल से अनुमति भी माँगी। किन्तु अफ़सोस! जब तक श्री रावल की अनुमति उन तक पहुँचती दुष्यंत कुमार जी का निधन हो चुका था। बाद में वह कविता अन्यत्र प्रकाशित हुई। श्री चितरंजन रावल की व्यंग्य रचनाओं का प्रकाशन देश की महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में होता रहा है, जिनमें शब्द, रंग, मध्यप्रदेश संदेश, वीणा, कहानीकार आदि प्रमुख हैं। उल्लेखनीय है कि श्री चितरंजन रावल के गीति रचनाएँ भी सुंदर बन पड़ती हैं। 
श्री चितरंजन रावल की कविताओं का एक संग्रह कुछ वर्षों पहले "कुचला हुआ सूरज" शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं इसी संग्रह से उनकी कुछ विविध रंगी कविताएँ : 

01. वनवासी

ओ वनवासी!
सोते रहे सदियों से, तुम
कुम्भकर्णी निद्रा में।
अब तो जागो!
शायद पता नहीं तुम्हें
जिन हाथों ने तुम्हें
थपकियाँ दीं
मीठी नींद में सुलाया
उन्हीं ने तुम्हारा
सर्वस्व चुराया।
लुट चुका सब कुछ
क्या रह गया अब तुम्हारे पास
कटे हुए वृक्षों के ठूँठ,
झोपड़ी की जर्जर दीवारें,
वस्त्र के अभाव में
लजाती हुई हया
पर किसे आयी दया?
प्रकृति के चहेते बेटे,
मौसम भी
तुम्हारे अनुकूल कहाँ रहा?
कोई मलय पवन
तुम्हारे गाँव पर से कहाँ बहा?
सुना है हमने भी
जहाँ घने जंगल होते हैं
ऊँचे पर्वत होते हैं
मेघ वहीं उतर आते हैं। 
पर वनवासी!
जाने क्या हो गया
तुम्हारे देश में तो
भूगोल का सर्वमान्य
सिद्धांत भी गलत हो गया। 
तुम व्यर्थ ही
खेत पर खड़े हुए
आसमान निहारते रहे
मेघ तो सब
पड़ोस में बरस गये!
तुम चुल्लू भर पानी को
तरस गये।
कभी सोचा?
विकास के इतने चरण
गुजर गये
तुम पहले पायदान पर ही
क्यों रह गये?
तुम्हारे उत्कर्ष के लिये तो
कई नदियाँ बहायी गयीं
कई जलाशय खोदे गये
पर सारा पानी कहाँ चला गया?
तू प्यासा क्यों रह गया?
तुम्हारा अस्तित्व कहाँ है?
किसने कब कहाँ
तुम्हारे अस्तित्व को आँका?
और तुमने ही इसके लिये
कहाँ कोई प्रयत्न साधा?
जान कर तुम्हें होगा आश्चर्य
मेरे वनवासी!
तुम्हारे देश में
तुम्हारा नहीं
तुम्हारे अँगूठों का
अस्तित्व आँका गया।
इन अँगूठों के लिये
एकलव्य की तरह
तुम्हें फाँसा गया। 
तुम कहाँ समझ पाये?
तुम्हारा ही अँगूठा
तुम्हें दिखा दिया गया
और उसके बल पर
सब कुछ तुम्हारा
छीन लिया गया। 
मेरे भाई!
क्या तुम नहीं जानते?
खेतों में हल चला देने से
धरती में बीज बो देने से ही
फसल नहीं उग आती है। 
यदि उग भी आयी
तो तुम्हारे खलिहानों तक
कहाँ पहुँच पाती है?
शोषण की घास
इसे बीच में ही
निगल जाती है। 
इसलिये अपनी दराँतों से
शोषण की घास काटो
बेशरम और काँटों के
पौधे उखाड़ो
तब देखना
तुम्हारे खलिहानों में
सूर्योदय होगा
उससे सारा गाँव प्रकाशित होगा। 
मेरे भाई!
अपनी बाँहों में
पैदा करो ताकत
बहते हुए पानी को रोको,
शंकर की तरह
अपनी जटाओं से
गंगा को रोको
अन्यथा मेरे वनवासी!
कोई भगीरथ भी क्या करेगा?
स्वर्ग से उतर गंगा
पाताल में समा जायेगी। 
तुम्हारी धरती प्यासी की प्यासी
रह जायेगी। 
तुम तो अँधेरे में
जी रहे हो वनवासी।
प्रकाश की कोई किरण
तुम तक कहाँ पहुँच पायी?
और तुमने ही इसके लिये
कहाँ कोई राह बनायी?
दरअसल
तुम्हारे और रोशनी के बीच
घना जंगल है
तुम्हें रोशनी की भी जरूरत है
और जंगल की भी
इसीलिये जंगल के बीच
राह बनाओ
रोशनी को जंगल के बीच से
अपने गाँव तक पहुँचाओ
फिर देखना
तुम्हारे इशारे पर
बहेगी हवा
तुम्हारे इंगित पर
उतरेंगे मेघ
तुम्हारी धरती पर।
खेत तुम्हारे सोना उगलेंगे
धरती तुम्हें तिलक करेगी
भूमि-पुत्र के पद पर 
तुम्हें प्रतिष्ठित करेगी। 


02. गीत कहाँ बोयेंगे

धरती है बंजर जब
गीत कहाँ बोयेंगे?

पिंजरे में घिरा हुआ
अपना आवास है।
उड़ने को मुक्त मगर,
सीमित आकाश है।।

ऐसे में कहो भला
पंख कहाँ खोलेंगे?

बाहर है शोर बहुत,
भीतर सन्नाटा है। 
पीढ़ी के पाँवों में,
विषधर ने काटा है।।

बहरे हों लोग सभी,
मौन कहाँ तोड़ेंगे?

घिसी-पिटी लीकों के
दाग अभी गहरे हैं।
बीत गयीं सदियाँ, पर
लोग वहीं ठहरे हैं।।

ऐसे में तुम्हीं कहो,
पृष्ठ कहाँ खोलेंगे?

व्यूहों में घिरे लोग,
मर-मर कर जीते हैं।
जीवन की छलना में,
रोज गरल पीते हैं।।

मुर्दों की बस्ती में,
शंख कहाँ फूँकेंगे?

03. ग्रीष्म की दोपहर

जेठ की दुपहरी
सहमी-सी शाम।
उगल रही अंगारे,
धरती हे राम!

साधू से खड़े पेड़,
ध्यान-मग्न लगते हैं। 
पत्ते निस्तब्ध सभी,
सोये-से लगते हैं। 

हवा कहीं बैठ गयी
लेने विश्राम।

बंगले के कमरे में
कूलर है चलता।
गरमी है कितनी, यह
पता नहीं चलता। 

चौखट पर बैठ धूप
करती आराम।

हटरी में सुखिया
बेच रही सब्जी।
दोपहरी में सी रहा,
कपड़े है दरजी। 

मौसम के हुए सभी,
तेवर नाकाम। 

श्रमजीवी हाथों,
मौसम है हारा।
खीझ कर तलैया का,
पानी पी डारा। 

लिख दो खत कोई,
पावस के नाम। 

04. फर्क नदी, चट्टान, पर्वत और आदमी में

एक नदी, नदी होती है
वह आदमी नहीं हो सकती।
एक चट्टान, चट्टान होती है
वह आदमी नहीं हो सकती। 
एक पर्वत, पर्वत होता है
वह आदमी नहीं हो सकता। 
किन्तु आदमी!
नदी हो सकता है,
चट्टान हो सकता है,
पर्वत हो सकता है।
यही तो फर्क है
नदी, चट्टान, पर्वत और आदमी में। 


सम्पर्क सूत्र : 
श्री चितरंजन रावल
नहरपारा, कोंडागाँव 494226, बस्तर-छ.ग.
मोबा.: 93-008-01942



Thursday, 25 October 2012

हल्बी लिपि का निर्माण






कुछ महीनों, नहीं, नहीं। लगभग साल भर पहले की बात है। "डाइट" बस्तर में पदस्थ डॉ. (श्रीमती) आरती जैन मेरे पास आयी थीं, छत्तीसगढ़ एससीईआरटी (छत्तीसगढ़ राज्य शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद्) रायपुर द्वारा आरम्भ की गयी एक परियोजना के सन्दर्भ में। उन्हें बस्तर की वाचिक परम्परा के संकलन के सन्दर्भ में मुझसे सहायता चाहिये थी। बातों ही बातों में उनसे जानकारी मिली जगदलपुर के श्री विक्रम कुमार सोनी द्वारा हल्बी की लिपि के निर्माण की। नाम मुझे सुना-सुना सा लगा। फिर मुझे ध्यान आया, मेरे मित्र केसरी कुमार सिंह का। मैंने भाई केसरी कुमार जी के मुँह से ही कई बार श्री सोनी का नाम सुना था हल्बी-हिन्दी-अँग्रेजी शब्द-कोष एवं व्याकरण आदि के सन्दर्भ में। फिर यह भी ध्यान आया कि ये वही सोनी हैं, जिनकी आवाज हम आकाशवाणी जगदलपुर के हल्बी नाटकों और रूपकों में सुनते आये हैं। हल्बी नाटकों अथवा किसी भी कार्यक्रम में बाल चरित्रों के लिये जब भी स्वर कलाकार की आवश्यकता होती, आकाशवाणी के पास विक्रम कुमार सोनी का ही नाम होता। हल्बी-हिन्दी के नाटकों में मैं भी भाग लिया करता था। नाटकों और अन्य आलेखों की रिकार्डिंग के लिये भी कई बार आकाशवाणी केन्द्र जाना होता था किन्तु भाई विक्रम कुमार जी से कभी मुलाकात का संयोग ही नहीं बन पाया था। फिर अनायास ही यह भी ध्यान आया कि ये तो वही विक्रम कुमार सोनी हैं जिन्होंने भाई श्री रुद्रनारायण पाणिग्राही और भाई श्री नरेन्द्र पाढ़ी के साथ मिल कर पिछले वर्ष हल्बी-भतरी-गोंडी कविताओं का संकलन "चिड़खा" शीर्षक से प्रकाशित किया था। तब मैंने कम्प्यूटर पर पिछला रिकार्ड खँगाला और वह फाईल खोज निकाली जिसमें इन सभी महानुभावों की कविताएँ और इन सबके पते आदि थे। यह सामग्री मैंने हल्बी-भतरी-गोंडी आदि बस्तर की कुछ लोक भाषाओं के कवियों से जुटायी थी बिलासपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका "छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर" (सम्पादक : श्री नन्दकिशोर तिवारी) के लिये। इसमें भाई विक्रम सोनी का मोबाइल नम्बर मिला और मैंने तुरन्त उनसे बात की। बातचीत काफी लम्बी चली और फिर उन्होंने मुझे हल्बी वर्णमाला की हार्ड कॉपी अपने एक सहकर्मी मित्र के हाथों तथा हल्बी फोन्ट ईमेल से कृपा पूर्वक उपलब्ध करायी। इसके बाद एक दिन वे रायपुर से जगदलपुर जाते हुए मेरे अनुरोध पर थोड़ी देर के लिये कोंडागाँव रुक कर मुझसे भेंट करने के लिये घर तक आये। 
मेरे मन में हल्बी लिपि के निर्माण को ले कर बहुत अधिक उत्सुकता बनी हुई थी और इस विषय में विस्तार से चर्चा करने की आवश्यकता मैं महसूस कर रहा था। सो उस दिन मैंने उनसे लम्बी बातचीत की। 
इसके पहले कि मैं यहाँ लिपि-निर्माण को ले कर उनसे हुई बातचीत प्रस्तुत करूँ, उनका संक्षिप्त परिचय दे देना उपयुक्त जान पड़ता है। 
01 फरवरी 1968 को जगदलपुर में जन्मे श्री विक्रम कुमार सोनी के पिता हैं श्री विजय सोनी और माता हैं श्रीमती सुलोचना सोनी। इन्होंने इतिहास में एम. ए. किया है और वर्तमान में जिला एवं सत्र न्यायालय, जगदलपुर में लिपिक के पद पर कार्यरत हैं। इनकी अभिरुचियों में सम्मिलित हैं भाषा-शिक्षा-साहित्य, कला-संस्कृति, पुरातत्व, प्रकृति और पर्यटन। रेडियो, रंगमंच और टीवी पर अभिनय के साथ-साथ हल्बी एवं हिन्दी में कविता तथा कहानी लेखन और "बोनसाई" बागवानी भी इनकी रुचि के विषय हैं। 
एक नजर इनकी अब तक की उपलब्धियों की ओर भी। हिन्दी कविता के लिये द्विभाषी पत्रिका "भिलाई वाणी", जो भिलाई (छ.ग.) से हिन्दी और तेलुगु में प्रकाशित होती है, द्वारा 2010 में "भिलाई वाणी सम्मान" से विभूषित। स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रंगमंच में सक्रिय। छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्थानों के अतिरिक्त ओड़िशा के कटक, राउरकेला, टेन्सा, देवगढ़, कोटपाड़, पश्चिम बंगाल के बैरकपुर, बिहार के पटना, उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद और आगरा, राजस्थान के अलवर, हरियाणा के गुड़गाँव और उत्तराखण्ड के देहरादून में रंगमंच पर अभिनय। रंगमंच पर अभिनय के लिये इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश), देहरादून (उत्तराखण्ड), राउरकेला (ओड़िशा), अलवर (राजस्थान) तथा देवगढ़ (ओड़िशा) में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्र स्तरीय पुरस्कार प्राप्त। राजीव गांधी शिक्षा मिशन के लिये अन्य चार सहयोगियों के साथ मिल कर हल्बी-हिन्दी-अँग्रेजी शब्दकोश तैयार किया गया है। इसके अतिरिक्त प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा के प्रयोग के लिये कक्षा तीसरी, चौथी और पाँचवीं के लिये हल्बी पाठ्यक्रम के लेखक-मण्डल में भी सम्मिलित हैं। यह पाठ्यक्रम बस्तर जिले के बस्तर एवं तोकापाल विकास खण्डों में पढ़ाया जा रहा है। 
1987 से "बोनसाई" निर्माण कला में सक्रिय। वर्ष 2001 में उद्यान विभाग द्वारा आयोजित दो दिवसीय संभाग स्तरीय प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ बोनसाई के लिये तीन पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। 
भाषा, साहित्य एवं कला-संस्कृति में बचपन से ही उनकी रुचि रही है। हल्बी का व्याकरण लिखने के लिये उन्हें इसके भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता प्रतीत हुई और इस क्रम में भारतीय और विश्व की अन्य भाषाओं एवं उनकी लिपियों का भी उन्होंने अध्ययन किया। इस अध्ययन के फलस्वरूप उन्होंने पाया कि हिन्दी, मराठी और ओड़िया की मिली-जुली "बोली" (जिसे भाषा-वैज्ञानिक शब्दावली में "क्रियोल" कहा जाता है) होने पर भी हल्बी आज जिस स्वरूप में है, उसे पूरी तरह मराठी या हिन्दी या ओड़िया की बोली नहीं माना जा सकता अपितु इसे नेपाली की तरह एक पृथक् "भाषा" माना जाना चाहिये। वे आगे कहते हैं कि यह आवश्यक नहीं कि किसी बोली या उपभाषा को भाषा के रूप में विकसित करने के लिये पृथक् लिपि हो। वर्तमान किसी भी लिपि को इसके लिये स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु श्री सोनी ने पाया कि देवनागरी लिपि में लिखने पर हल्बी शब्दों के उच्चारणों के साथ न्याय नहीं हो पा रहा है। देवनागरी में हल्बी लिखने वालों पर हिन्दी वर्तनी का बहुत प्रभाव है। हल्बी उच्चारणों के अनुसार हल्बी शब्दों की वर्तनी (द्मद्रड्ढथ्थ्त्दढ़) लिखी जा रही है। अत: श्री सोनी को हल्बी शब्दों के वास्तविक उच्चारण लिखने के लिये भाषा-वैज्ञानिक आधार पर एक नयी लिपि तैयार करने की आवश्यकता महसूस हुई। 
दूसरी बात, वे आगे कहते हैं, बस्तर आदिकाल से एक पृथक् जनपद या अंचल रहा है। इसकी भौगोलिक और ऐतिहासिक पृथकता ने इसकी जन-भाषाओं और संस्कृति को भी पड़ोसी अंचलों से पृथक् किया है। किन्तु पड़ोसी भाषाओं की तुलना में लिखित धार्मिक-लौकिक साहित्य और उदात्त "साहित्यिक संस्कृति" की कमी उन्हें हमेशा खटकती रही है। उन्होंने देखा कि अभी सौ वर्षों के भीतर ही संथाली, सँवरा, गोण्डी इत्यादि के लिये नयी लिपियाँ तैयार की गयी हैं। मणिपुरी के लिये 1980 में बंगला लिपि के स्थान पर उसकी विलुप्त लिपि "मेइतेइ" को पुन: स्वीकृत किया गया। इन सब तथ्यों ने श्री सोनी को हल्बी के लिये पृथक् लिपि बनाने के लिये प्रेरित किया। 
वे हल्बी के लिये लिपि तैयार करने के दो कारण बताते हैं, एक भाषा-वैज्ञानिक और दूसरा साहित्यिक-सांस्कृतिक। बहरहाल, हल्बी के लिये पृथक् लिपि तैयार करने के पूर्व उन्होंने वर्तमान भारतीय लिपियों के साथ ही भारतीय लिपियों से विकसित मध्य एशियाई, तिब्बती, दक्षिण एशियाई, दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों की वर्तमान और प्राचीन लिपियों का अध्ययन किया। यूरोपीय तथा अफ्रीकी लिपियों का भी अध्ययन किया। उत्तर भारतीय, तिब्बती एवं दक्षिण-पूर्वी एशियाई लिपियों के अध्ययन से उन्हें ज्ञात हुआ कि इन सभी लिपियों को मूल ब्राह्मी लिपि में कुछ परिवर्तन कर विकसित किया गया है और इसी कारण ये सभी लिपियाँ थोड़ा प्रयास करने पर सीखी जा सकती हैं। इस तरह श्री सोनी ने निर्णय लिया कि हल्बी की लिपि भी इसी प्रकार की होगी। उन्होंने देवनागरी लिपि में ही थोड़ा परिवर्तन कर नयी लिपि बनाने का प्रयास लगभग दस वर्ष पहले आरम्भ किया। 2006 में उन्होंने इसे लोगों के सामने रखा। "वर्णमाला-पुस्तिका" हाथ से तैयार कर लोगों के बीच बाँटते फिरते और उनके विचार सुनते गये। उन्होंने जन साधारण और बुद्धिजीवी, दोनों ही वर्गों के विचार एवं सुझाव प्राप्त किये। कुछ लोगों ने इस विचार को स्वीकार नहीं किया तो कुछ को रोचक लगा और कुछ ने इसे बस्तर की आवश्यकता कहा। इसमें कुछ संशोधन किये गये और अन्तत: 2011 में इसके फोन्ट भी तैयार हुए और अब यह लिपि सबके सामने है। 
श्री सोनी ने जब हल्बी व्याकरण लिखना आरम्भ किया तो उनके इस कार्य को देख कर उनके सहकर्मी और मित्र डॉ. योगेन्द्र सिंह राठौर ने उन्हें पहले भाषा-विज्ञान पढ़ने का सुझाव दिया। तब उन्होंने व्याकरण लिखना स्थगित कर भाषा-विज्ञान पढ़ना आरम्भ किया। हल्बी में अनुसंधान और लेखन के चलते उन्हें अपने ही जैसे अभिरुचि वाले कुछ लोग मिले। इनमें से एक श्री बाबू थॉमस भी हैं, जो स्वयं हल्बी और भाषा-विज्ञान के अच्छे ज्ञाता हैं। उन्होंने श्री सोनी को भाषा-विज्ञान की अँग्रेजी की कुछ पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद का काम सौंपा। इस कार्य को करते हुए श्री सोनी को भाषा-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का गहराई से अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ। इन दो लोगों के सुझाव और समय-समय पर विचार-विमर्श ने श्री सोनी को उनके विचार को सुदृढ़ करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। इसके साथ-साथ उनके रंगकर्मी और साहित्यकार साथी द्वय श्री रुद्रनारायण पाणिग्राही और श्री नरेन्द्र पाढ़ी ने उन्हें लगातार प्रोत्साहन और सुझाव दिये। उनके सहकर्मी भी उन्हें लगातार प्रोत्साहित करते रहे। वे कहते हैं, "अब तो स्थिति यह है कि श्री पाणिग्राही जी और श्री पाढ़ी जी ने मुझसे हिन्दी में बातें करना ही छोड़ दिया है। वे अब सिर्फ और सिर्फ हल्बी में ही मुझसे बातें करते हैं।" श्री पाणिग्राही जी ने ही हल्बी का फोण्ट-निर्माता खोजा। श्री सोनी कहते हैं कि फिलहाल फोण्ट-निर्माता का नाम उन्हीं के अनुरोध पर सार्वजनिक करना उपयुक्त नहीं है। समय आने पर उनका नाम बहुत ही सम्मान के साथ सबके सामने होगा। 
एक प्रश्न के उत्तर में कि क्या उन्होंने इस लिपि के सम्बन्ध में शासन से कोई सम्पर्क किया, वे कहते हैं, "नहीं, अब तक नहीं। हाँ, कॉपीराइट एक्ट के अन्तर्गत इस लिपि के पंजीयन की कार्यवाही जारी है।" 
वे बताते हैं कि हल्बी लिपि का फोण्ट बनवाने के लिये उन्होंने इन्टरनेट के माध्यम से बहुत से फोण्ट-निर्माताओं से सम्पर्क किया। भारत में चेन्नई, बंगलौर जैसे शहरों की संस्थाओं से ले कर संयुक्त राज्य अमेरिका के फोण्ट-निर्माताओं और सॉफ्टवेयर निर्माताओं से उन्होंने सम्पर्क किया किन्तु उनमें से अधिसंख्य लोग तैयार ही नहीं थे। एक अमेरिकी फोण्ट निर्माता ने इस लिपि के विषय में पूरी जानकारी प्राप्त करने के बाद यह उत्तर दिया कि यह एक "छोटा प्रोजेक्ट" है और वे "छोटा प्रोजेक्ट" नहीं लेते। सौभाग्य से श्री सोनी के मित्र श्री रुद्रनारायण पाणिग्राही जी को एक फोण्ट निर्माता का पता लगा और उनसे फोण्ट बनवाया गया। श्री सोनी कहते हैं कि वे फोण्ट निर्माता अभी अपना परिचय नहीं देना चाहते। वे कभी सहमत हुए तो वे उनका परिचय सब को देंगे। वे आगे कहते हैं कि जिन भाषा-विदों ने इस लिपि को देखा, वे इस लिपि की वैज्ञानिकता से सहमत है। एक प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं कि इस लिपि को प्रचलन में लाने के लिये शासकीय सहयोग प्राप्त करने का प्रयास फिलहाल नहीं किया गया है। वे कहते हैं कि उनकी मंशा है कि वे पहले हल्बी जानने वालों से इस लिपि की स्वीकृति प्राप्त कर लें। 
उनकी अपेक्षा है और वे अपनी अपेक्षा के सन्दर्भ में बस्तर अथवा बस्तर से बाहर रहने वाले प्रत्येक हल्बी भाषी या हल्बी के जानकार लोगों से अनुरोध करते हैं कि वे सभी इस लिपि को सीखें। वे कहते हैं कि उनके द्वारा तैयार की गयी हल्बी लिपि बहुत सरल और वैज्ञानिक लिपि है। इसीलिये वे चाहते हैं कि लोग इसे सीखें और प्रयोग में लाना प्रारम्भ करें। वे हल्बी साहित्यकारों से निवेदन भी करते हैं कि वे अपनी रचनाएँ हल्बी तथा देवनागरी दोनों ही लिपियों में प्रकाशित कराने का प्रयास करें ताकि हल्बी साहित्य पढ़ने वाले पाठकों को हल्बी लिपि सीखने का अवसर मिले। वे कहते हैं कि वे बस्तरिया समाज का बौद्धिक उन्नयन करना चाहते हैं। वे आगे यह भी स्पष्ट करते हैं कि उनकी मातृभाषा हल्बी नहीं होने के बावजूद वे हल्बी की स्थिति और महत्ता को देखते हुए इसके विकास के लिये हरसम्भव प्रयास करने को तत्पर हैं। 


Tuesday, 16 October 2012

हरेन्द्र यादव की कविताएँ



इस बार प्रस्तुत हैं कोंडागाँव के नवोदित कवि श्री हरेन्द्र यादव की चार कविताएँ। 
श्री हरेन्द्र यादव का जन्म 27 दिसम्बर 1952 को ग्राम पुरूर (जिला : बालोद, छ.ग.) में हुआ। पिता (स्व.) पीताम्बर सिंह यादव एवं माता (स्व.) श्यामबती यादव के पुत्र श्री हरेन्द्र यादव नवोदित कवि हैं और छत्तीसगढ़ी तथा हिन्दी दोनों ही भाषाओं में सृजन रत हैं। वे कहते हैं, "मैं ह बस्तर म बस के तर गेवँ (मैं बस्तर में बस कर तर गया)"। 
कोंडागाँव में साहित्य का बीज रोपने वाले और पिछले लगभग 60 वर्षों से इस नगर में साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को गतिमान बनाये रखने और साहित्य-भूमि में अंकुरित होने वाले प्रत्येक अंकुर को हमेशा सींचते रहने वाले प्रख्यात कवि एवं व्यंग्यकार श्री सुरेन्द्र रावल मेरे तथा मुझ जैसे कई औरों की तरह श्री यादव के भी साहित्यिक गुरु हैं।
यों तो हरेन्द्र यादव की हास्य-व्यंग्य की रचनाएँ विशेष ध्यान आकृष्ट करती हैं किन्तु यहाँ प्रस्तुत कविताएँ बस्तर तथा प्रकृति और वन तथा पर्यावरण से गहरा सरोकार रखती हैं : 


01. कैसे होगा मंगल?

सिसक रही हैं नदियाँ
दहक रहा है जंगल
तुम्हीं बताओ, हे मानव!
कैसे होगा मंगल?

स्वार्थ-वश पेड़ कटाई
जंगल में आग लगाई
वन-प्राणी का कर शिकार
वन का नित कर विनाश
वन के बिन कहाँ जाओगे?
हवा कहाँ से लाओगे?
पानी बिन क्या खाओगे?
चैन से रह पाओगे?
चक्र यही चलता रहा तो
निश्चय ही होगा अमंगल।

मिटा रहे वन की सीमा
बना रहे हो खेत
पानी बिन नदियों में
दिखती केवल रेत
घट रहा जल-स्तर
कम हुई हरियाली
ऐसे में कैसे आयेगी
जीवन में खुशहाली?
खेत और खलिहान बन गये
पल-पल कट कर जंगल।

चिड़ियाँ, कीट, पतंगे
खोज रहे वन हर पल
भटक रहे वन-प्राणी
बिन पानी हो व्याकुल
कल थी जो हरियाली
आज हो गया सपना
जेठ मास ज्यों सावन में
हो कोई मृग-तृष्णा
सूखा और वीरान हो गया
जो हरा-भरा था कल
तुम्हीं बताओ, हे मानव!
कैसे होगा मंगल?



































02. जंगल-झाड़ी ला झन काटव






जंगल अऊ झाड़ी ला
झन काटव मोर दाई-ददा
चुलहा बर लकड़ी 
काहाँ ले तुम लाहू गा?
काट-काट जंगल ला
तुम चातर बना देहू
घर बनाय खातिर
काँडा-पाटी काहाँ ले पाहू गा?

जंगल हावय तभे तुमला
महुआ, सरगी मिल हावय
हर्रा, बेहड़ा, आँवरा सँग
चिरोंजी घलो मिलत हावय।
बारों महिना जुहाय-जुहाय
तुमन बेंच-बेंच के ओला
घर-परिवार के गाड़ी ला
                मजा से तुम चलावत हौ।
जंगल-झाड़ी सबो ला तुम
                उरकाई देहू तब फेर
कुर्रु, चार, तेन्दू ला,
                काहाँ ले तुम पाहू गा?
अइसन जुलम तुमन जब,
                करहू मोर बहिनी-भाई
अपन करनी के भोगना ला
                तुमन इहँचे पाहू गा।

डेरा ला ऊँखर तुम
                उजाड़ बनाई देहू
चिरई-चिरगुन-फाफा
                मिरगा काहाँ जाहीं गा?
बरन-बरन के इहाँ
                जंगल के जीव-जन्तु
काहाँ जा के अपन-अपन
                डेरा ला बनाहीं गा?
उजाड़-उजाड़ के बन ला
               तुम मरहान बनाई देहू
बछर के तेन्दू-पान ला
               काहाँ ले तुम लाहू गा?
भगवान के बरदान ला
               नास कर देहू तब
जियत-जियत तुम
               नरक के दुख पाहू गा। 

काली कहूँ जंगल
              उरक जाही मोर बबा
सुघर लेहरा ला
              काहाँ ले तुम पाहू गा?
परकिरती कहूँ अपन
              कोप ला देखाय दिही
काखर कोरा मा अपन
              मुँड़ी ला लुकाहू गा?
एखर खातिर तुमला
              कहत हावयँ मोर संगी हो
जंगल ला बचाय के
              खातिर, सबो ला चेतावव गा। 
जंगल अऊ झाड़ी ला
              झन काटौ मोर दाई-ददा
चुलहा बर लकड़ी
              काहाँ ले तुम लाहू गा? 






















03. बस्तर में स्नेह मिला है

बस्तर में स्नेह मिला मुझको
जन-जन का मुझको प्यार मिला
बस्तर की माटी में मुझको
जीने का आधार मिला।

कल-कल करती नदियाँ बहतीं
किलकारी भरते झरने
ऊँचे-ऊँचे पर्वत से वह
नीचे आती है बहने
मन को लुभाते हैं वन-उपवन
सृष्टि का नया श्रृंगार मिला। 

बेशकीमती औषधियाँ हैं
कन्द-मूल-फल मिलते हैं
जिनसे रोग-निदान यहाँ पर
वैद-हकीम भी करते हैं
वनौषधि का भरा खजाना
ईश्वर का चमत्कार मिला।

भिन्न-भिन्न जन-जातियाँ
लगतीं भोली-भाली हैं
आने वाले हर अतिथि का
मन मोहने वाली हैं
अलग-अलग संस्कार, किन्तु
उनसे इक-सा प्यार मिला।
बस्तर की माटी में मुझको
जीने का आधार मिला।। 


04. बस्तर के माटी

दन्तेस्वरी माई के पाँव पखारौं
काहू से अब का डरना हे
बस्तर के माटी मा जीना हे
इही मा हमला मरना हे। 

कोरा मा एखर इँदराबती
नारंगी नदी बोहावत हे
गोदावरी, डंकिनी, संखनी, 
सबरी ह फकफकावत हे
चारोमुड़ा मा डोंगरी-पाहाड़ी
सुग्घर-सुग्घर झरना हे। 

बैलाडिला के लोहा ह संगी
दुनिया मा नाम कमावत हे
बस्तर के बियाबान जंगल ह
जम्मो के मन ला लोभावत हे
इनखर सब रखवारी कर के
परकिरती के खजाना ला भरना हे। 

केसकाल अऊ हुर्रा-पिंजोड़ी
राव दरभा के घाटी हे
ठउर-ठउर कन्हार-मटासी
घात उपजाऊ माटी हे
फसल-चक्र परिवरतन करके
उन्नत खेती ला करना हे। 

इहाँ के जंगल मा बनभँइसा
साँभर, चितर, कोटरी हे
बघवा, भालू, बेंदरा, चितवा
लिलवा, गँवर अऊ घुटरी हे
कोलिहा, खेखर्री, बिघवा, हुँडरा
नेवरा, खरहा, हरिना हे।

कठफोड़वा, लंपुछिया, किदर्री,
बरन-बरन के चिड़िया हे
भेंगराज सँग मंजुर, टेहर्रा
सुआ अउ मइना बढ़िया हे
नान्हे-बड़े सब झन जुर-मिल के
इनखर राखा ला करना हे। 

रहन-सहन दुनिया ले अलग हे
अलग-अलग हे तीज-तिहार
खान-पान मा काँदा-कुसा हे
रोजे होवय नवा बिहान
बस्तर मा उजियारा करे बर
दिया-बाती कस बरना हे।  


सम्पर्क : 
श्री हरेन्द्र यादव
सरगीपाल पारा, कोंडागाँव 494226, बस्तर-छ.ग.
मोबाइल : 94-242-91952


Tuesday, 9 October 2012

व्यंग्य : आइये, "करप्शन डे" मनायें!


अरे ओ दुनिया वालो! अरे कभी हम "करप्ट" लोगों के बारे में भी तो सोचो। हमारे द्वारा की जा रही समाज-सेवा के बदले कभी तो हम लोगों को याद कर लिया करो। अरे भाई! रोज नहीं तो कम से कम साल में एक बार। आप लोग तो न जाने कौन-कौन से "डे" मनाते हैं, कैसे-कैसे लोगों को सम्मानित करते हैं और एक हम हैं कि बस टापते रह जाते हैं। अरे इतने सारे (365) "डे" में से एक "डे" हमारे नाम भी कर दोगे तो आपका क्या नुकसान हो जायेगा सर? नहीं, नहीं। आप ही बताइये सर कि क्या यह आप लोगों की नजरों में जायज है? क्या सर! एक के साथ माँ और दूसरे के साथ मौसी (सौतेली माँ) का व्यवहार किसी भी कोण से न्यायसंगत दिखता है क्या? सर, ये घरवाली-बाहरवाली का खेल हमारे साथ मत खेलिये। देखिये, जब आप "मदर्स डे" मना कर साल में एक बार अपनी माता पर अहसान कर देते हैं या "फादर्स डे" मना कर पिता पर, तब तो हम कुछ नहीं कहते। अच्छा है। चलो, इसी बहाने बेचारों को आप साल में एक बार तो याद कर लेते हैं। भले ही के साल के 364 दिन माँ-बाप की ऐसी-तैसी करते रहें किन्तु ठीक 365 वें दिन आपकी धमनियों में मातृ-पितृ भक्ति की गंगा-जमुनी धाराएँ प्रवाहित होने लगती हैं। बिल्कुल सही है। रोज-रोज भक्ति-धारा प्रवाहित होगी तो उसका अवमूल्यन हो जायेगा न, सर। इसीलिये साल में एक बार। बहुत अच्छी बात है, सर। वेरी गुड सर, वेरी गुड!
तो सर प्रत्येक "डे" का कोई न कोई मकसद अवश्य है, सर। जैसे, आप जब "चिल्ड्रन्स डे" मनाते हैं तो भगवान को भी यकीन हो जाता है कि बच्चे वाकई बहुत सुखी और प्रसन्न हैं। सर, यकीन पर तो दुनिया टिकी है, न! अब यह अलग बात है कि किनके बच्चे सुखी और प्रसन्न हैं और किनके नहीं। वैसे भी यह चर्चा का विषय नहीं है, सर। बहरहाल, इसी तरह जब आप "वेलेन्टाईन डे" मनाते हैं तो युवक-युवतियों को सरे आम प्रेम करने का लायसेन्स मिल जाता है, सर। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे साल भर एक-दूसरे को सरे आम प्रेम नहीं करते! करते हैं, किन्तु थोड़ी सी झिझक होती है सर, जो "वेलेन्टाईन डे" पर गधे के सिर से सींग की तरह पूरी तरह गायब हो जाती है। वे इस दिन अपने माता-पिता के सामने भी आपस में इस पवित्र कार्य को अन्जाम देने के लिये अनुमत होते हैं. सर। कुछ तो ऐसा ही करते हैं जबकि कुछ चले जाते हैं किसी "गार्डन" में और वहाँ रास-लीला रचाते हैं। इस "डे" का मकसद भी यही है सर। बड़ा बढ़िया मकसद है, सर। दिल गार्डन-गार्डन हो गया सर। क्या सर! अपने समय में यह सब क्यों नहीं था, सर? 
और इधर "फ्रेंडशिप डे" नामक एक और "डे" का आयात हो गया है सर। तो क्या बाकी दिनों सब एक-दूसरे के दुश्मन रहे आये हैं, सर और इसी एक दिन वे "फ्रेंड" हो जाते हैं? शायद ऐसा ही। केवल एक दिन के फ्रेंड? पता नहीं सर। और सर एक जो बड़ा जबरदस्त "डे" है न सर, वह मुझे बड़ा आतंकित करता है, सर। जी सर, वही "बड्डे"। अरे सर, यह "डे" साल में एक बार नहीं आता, सर। यह तो रोज ही आता है। आज मेरा, कल आपका, परसों उसका और नरसों मेरे, आपके या उसके बाप का। फिर आगे बेटे-बेटी का, नाती-पोतों का। इस तरह यह सिलसिला पूरे साल भर चलता रहता है, सर। तो सर, यह बड़ा प्राणलेवा "डे" होता है। कारण, इससे मेरा प्रत्येक महीने का बजट गड़बड़ा जाता है, सर। और अब तो यह जो "डे" है न सर, यह तो शहरों और कस्बों की सीमा लांघ कर सुदूर गाँवों तक में पहुँच चुका है, सर। 
सॉरी सर, मैं अपने मूल विषय से हटता चला जा रहा हूँ। एक मिनट सर। जरा बाथरूम से हो कर आ लूँ सर फिर मुद्दे की बात करेंगे। आप भी हो आइये सर। टेन्शन में रहेंगे तो बात नहीं बनेगी, सर। अच्छा, सर। ठीक है, सर। चलिये मैं ही हो आता हूँ, सर। हाँ तो सर, मैं आपसे निवेदन करने जा रहा था कि इतने सारे "डेज़" में से एक "डे" हमारे नाम भी कर दें, सर। भगवान आपका भला करेगा, सर। दूधो नहाओगे पूतो फलोगे, सर। और यदि आपने ऐसा कर दिया सर, तो भगवान की कसम! सच कहता हूँ, सर! यह तो आपका क्रान्तिकारी कदम होगा सर! किसी बात में अपना देश आगे रहे न रहे, किन्तु एक जिस बात में यह सबसे आगे है उसी के नाम पर एक "डे" समर्पित कर आप दुबारा दुनिया के नक्शे में इस महादेश को नम्बर वन पर ला सकते हैं, सर। इतिहास में आपका यह काम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा सर। सर, सर, सर! जी सर। यस सर! सही समझा आपने, सर! जी सर, वही "करप्शन डे" सर। नहीं, यदि मैंने कुछ गलत कहा तो बतायें, सर। जी सर। सर! यह क्या कह रहे हैं, सर? इतने बड़े देश में मुझ जैसे भ्रष्टाचारियों की क्या कमी है, सर? हम लोग बहुसंख्यक हैं, सर। तो सर, इस वर्ष से हमारे नाम पर "करप्शन डे" का ऐलान कर ही दीजिये, सर। क्या है कि हम लोगों ने अपना संघ बना लिया है, सर। और हमारे संघ ने सर्वसम्मति से तय किया है कि यदि आपने अभी और आज ही "करप्शन डे" की घोषणा नहीं की तो अगला चुनाव आपको भारी पड़ सकता है, सर। जी सर! नहीं सर। कोई परेशानी नहीं होगी, सर। सब-कुछ ठीक-ठाक हो जायेगा, सर। आप निश्चिन्त रहें, सर। मैं सब सम्हाल लूँगा, सर। बस! आपका आशीर्वाद चाहिये, सर। जी सर, आप तो जल्दी से जल्दी से इस "डे" की घोषणा कर दीजिये, सर। और फिर सर, आप भी तो हमारे ही कुनबे के हैं, सर। जी सर, इसमें राष्ट्रीय सम्मान की भी व्यवस्था हो, सर। कम से कम पाँच लाख रुपये तो सम्मान-स्वरूप दिये ही जाने चाहिये, सर। शाल-श्रीफल की आवश्यकता नहीं सर। पाँच लाख मिल जायेंगे तो स्वयं ही खरीद लेंगे, सर। उससे कम में तो यह सम्मान नहीं बल्कि अपमान ही होगा न, सर! "डे" की घोषणा होते ही हम लोग प्रस्ताव पारित कर पहला सम्मान आप ही को दिलवायेंगे, सर। आप निश्चिन्त रहें, सर। इसमें कोई बेईमानी नहीं होगी, सर। आखिर सर, चोर-चोर मौसेरे भाई या एक ही थैली के चट्टे-बट्टे जैसी कहावतें यों ही तो नहीं बनी हैं न, सर! और सर, हम लोगों का तो सिद्धान्त भी है सर, बेईमानी में भी ईमानदारी। देखा जाये तो हम लोगों से ज्यादा ईमानदार कोई होता नहीं सर। कारण, बाकी लोग ईमानदारी में बेईमानी करते हैं जबकि हम लोग बेईमानी में भी ईमानदारी! हम लोग एक्स्ट्राआर्डिनरी होते हैं, सर। और इसमें किसी को रत्ती-माशा भर भी संशय नहीं सर। बाकी आप स्वयं समझदार हैं, सर। आपको विस्तार से समझाने की तो जरूरत ही नहीं है, सर। 
जी, क्या कहा सर? जी सर। आपका यह तर्क तो बिल्कुल सही है, सर। तो फिर क्या किया जाये सर? जी फार्मूला? जी सर, बोलिये सर। मैं सुन रहा हूँ, सर। जी, जी। जी सर। यस सर। सर, सर, सर। एक्सीलेन्ट सर! अमेज़िंग..! तो ठीक है सर। ऐसा ही कर लीजिये सर। इससे कोई झंझट भी नहीं होगी सर और सबको अपना हक मिल जायेगा, सर। जी सर। तो सर, एक "डे" की जगह कई "डेज़" का ही फार्मूला ठीक है, सर। जी सर। दस "डेज़"? ठीक है सर। सही है सर। सन्तुष्टिकरण की नीति आवश्यक है, सर। जी सर। सारे के सारे "डेज़" मैं अभी सुझा देता हूँ सर, बाकी बताने को कल रहूँ न रहूँ। सर मैं न रहूँ तो मुझे मरणोपरान्त तो देंगे न, सर? जी सर, नोट कर लें सर। एक तो होगा सर "बोफोर्स घोटाला डे", दूसरा "चारा घोटाला डे", तीसरा "चावल घोटाला डे", चौथा "बारदाना घोटाला डे", पाँचवाँ "स्टाम्प घोटाला डे", छठवाँ "चीनी घोटाला डे", सातवाँ ....। जी सर? जी अच्छा, सर। ठीक है, सर। "घोटाला डेज़" की श्रृंखला में फिलहाल इतने का ही समावेश कर लेते हैं सर, और जैसी कि आपकी मन्शा है; अन्य विधाओं से जुड़ी प्रतिभाओं के लिये "रैपिस्ट्स डे", "किलर्स डे", "रॉबर्स डे" और सामान्य श्रेणी में "करप्शन डे" को सम्मिलित कर लेते हैं। इस अन्तिम श्रेणी में उन सभी महानुभावों को सम्मिलित किया जायेगा जो ऊपर वर्णित श्रेणी के क्राइटेरिया में न आते हों किन्तु जिनका अन्य महत्त्वपूर्ण रचनात्मक अवदान भुलाया भी न जा सके? ठीक है, सर। बिल्कुल ठीक है, सर। जी सर? एक और आइडिया आपके दिमाग में कौंध रहा है सर? जी सर। जैसा आप चाहें सर। अच्छा सर, इन सभी महानुभावों को उपाधियों से भी विभूषित किया जाये? जी सर। एकदम सुपर-डुपर आइडिया है सर। उपाधियाँ होंगी घोटालाश्री, घोटाला विभूषण, घोटालाभूषण, बलात्कारीश्री, हत्याराश्री, चोट्टाश्री, भ्रष्टाचारीविभूषण आदि इत्यादि। जी सर? आप और गलत निर्णय लें? नहीं सर, नहीं। यह न तो कभी हुआ है और न कभी होगा, सर! न भूतो न भविष्यति! सर, आप तो बहुत बड़े जीनियस हैं सर! आपका बहुत-बहुत धन्यवाद सर। नमस्कार सर। मेरा मतलब है, प्रणाम सर।