Saturday 22 September 2012

व्यंग्य-कथा : आओ मिल कर खायें



       अभी हरिहर वैष्णव नामक इस महापुरुष के जागने का समय ही नहीं हुआ था और बलात् जगा दिया गया। इस महामना का इस दुनिया में यदि कोई दुश्मन है तो वह जो इसे बेवक्त यानी सवेरे साढ़े आठ बजे के पहले जगा दे। वह केवल दुश्मन नहीं बल्कि सबसे बड़ा दुश्मन है। ठीक वैसे ही जैसे इस देश के नेताओं का यदि कोई दुश्मन है तो वह, जो उसे पाँच साल के पहले यानी अगले चुनाव के पहले सोते से जगा दे। लेकिन नहीं। लोग हैं कि मानते ही नहीं। कोई न कोई, किसी न किसी बहाने जगाने पर आमादा रहता है साहब! उन्हें भी और मुझे भी। चैन की नींद सोने ही नहीं देते। ऐसे में जो कोफ्त होती है, उसकी तो पूछिये ही मत। यानी मेरा और नेताओं का दर्द एक-सा! वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाने रे। यदि मैं औरों की पीर न जानूँ तो भला वैष्णव किस बात का बाबा? आप न मानें तो मैं तेलगी वाले स्टाम्प पेपर पर लिख कर दे सकता हूँ कि इस दुनिया में मेरे अलावा दूसरा कोई है ही नहीं जो पराई पीर को जाने, समझे। 
       बहरहाल, अब ज्यादा रहस्य का सृजन न करते हुए बता ही दूँ कि मेरी प्यारी-प्यारी नींद में खलल डालने वाला कोई और नहीं बल्कि साधु-वेश में लिपटा और हाथ में वीणा लिये द्वार पर मेरा नाम ले-ले कर जोर-जोर से चीखने वाला एक अड़ियल किस्म का व्यक्ति था। मेरे घर वालों ने उसे भीख माँगने वाला समझ कर उसे भिक्षा "ऑफर" की किन्तु वह बिफर गया और कहने लगा कि वह भिखारी नहीं, देवर्षि नारद है और हरिहर वैष्णव नामक प्राणी से मिलने आया है। यह सुन कर मेरी श्रीमतीजी ने मुझे झकझोरते हुए उठाया और बड़े 'प्यार' से कहा,  "सुनते हो! एक भिखारी दूसरे भिखारी से मिलने आया है। उठो, और जा कर उसे विदा करो।" 
       अपनी प्राण-प्यारी का "प्यार भरा" आदेश पा कर मैं उठ कर सीधे दरवाजे की ओर भागा। मैंने उन्हें देखते ही पहचान लिया। वे सचमुच देवर्षि नारद ही थे। इसके पहले कि मैं उनसे कुछ कहता-सुनता, उन्होंने मुझे देखते ही गला फाड़ अन्दाज में गाना शुरु कर दिया : 
आओ मिल कर खायें
भैया, आओ मिल कर खायें।

जनता का पैसा है बाबा
मिल कर हम सब खायें
नहीं करें हम शर्म री माई
खायें और पचायें। 

पुल टूटें तो अपनी बला से
भवन गिरें गिर जायें
सड़कों पर गड्ढे पड़ने दो
हम तो मौज मनायें।

बाँध बहें बह जायें मितवा
पेड़ कटें कट जायें
चारा चर लें नेताजी तो
हम काहे खिसियायें? 


बाबू खायें साहब खायें
चपरासी भी खायें
मन्त्री खायें सन्त्री खायें
खाते वे न अघायें। 

कोई लुटे चाहे मिट जाये
हम ना मगज खपायें
हम तो भैया बड़े मजे से
लूट मचाये जायें। 

दुनिया जाये भाड़ में बन्धु
हम तो खाये जायें
खाने से डरने वाले जो
वे पाछे पछतायें। 

       इससे पहले कि वे "लाँग प्ले" की तरह बिना रुके गाते चले जाते, मैंने उन्हें चुप कराना ही उचित समझा। दौड़ कर उन तक जा पहुँचा और साष्टांग दण्डवत् पड़ गया। वे मुझे ऐसा करते देख आग बबूला हो गये। आशीर्वाद देने की बजाय तमक कर बोले, "धिक्कार है तुम पर हरिहर! तुम अभी तक वही घोंघावसन्त हो। आज दुनिया कहाँ की कहाँ पहुँच गयी! लोग अपने माँ-बाप से भी हाथ मिला कर उनका अभिवादन करने लगे हैं; हाय-हैलो करने लगे हैं। माँ-बाप के साथ जाम टकराने लगे हैं। और एक तुम हो कि अभी भी वही चरण-स्पर्श करने की दकियानूसी परिपाटी निभाये चले जा रहे हो।" 
       मुझे काटो तो खून (वैसे तो यह मुहावरा है प्रभुवर! किन्तु सच कहूँ तो यदि आप मेरा शरीर चीर कर भी देख लें तो सचमुच मेरे इस पिद्दी शरीर में खून है ही) नहीं। बहरहाल, मुझ पर आशीर्वादों की झड़ी लगाते हुए उन्होंने अपना वजनी हाथ मेरे छोटे से मुण्डी पर रखा; फिर बोले, ""बेटा हरिहर! कई वर्षों, बल्कि दशकों से तुमसे भेंट नहीं हुई थी सो आज चला आया। इधर तुम्हारे देश का हाल पहले से भी बेहतर है, सिवा तुम्हारे।"" 
नारद जी ने ऐसे कहा, मानो मुझसे मिले बगैर उनके प्राण ही तो छूटे जा रहे थे! मैंने कहा, "प्रभुवर! यह क्या कह रहे हैं आप? मैं तो प्रभु की दया से भला-चंगा हूँ। हाँ, गुड़ाखू की दया से दो-चार दाँत जरूर टूट गये हैं। बाकी सब तो ठीक-ठाक ही है।" ऐसा कहते-कहते मुझे महासमुँद वाले भाई श्री चेतन आर्य जी याद आ जाते हैं, जिन्होंने मेरा नाम ही "गुड़ाखू वाला" रख रखा है।
       वे बोले, "क्या खाक ठीक है वत्स! तुम तो अभी भी वैसे ही फटेहाल हो। तुम्हारी देह पर मांस का तो नामोनिशान नहीं। केवल हड्डियाँ ही हड्डियाँ रह गयी हैं। कंकाल हो गये हो तुम तो। न मरते हो न मोटाते। कुछ लेते क्यों नहीं? कुछ लो। खाओ-पियो। लोग खा-खा कर साँड, बल्कि सुअर हुए जा रहे हैं और एक तुम हो कि बिना खाये सींक! यह बिल्कुल अच्छी बात नहीं है। खाओ, डट कर खाओ। बस! आज तुम्हें मैं यही सीख देने आया हूँ। अगली बार आऊँ तो खाते-पीते नजर आना। तब फिर फुर्सत में बातें होंगी।" और वे चले गये।            
       वे तो चले गये किन्तु मेरे हँसते-खेलते घर में आग लगा गये। भीतर मेरी पत्नीजी तक उनकी यह सीख पहुँची और फिर उन्होंने तो साहब मेरा जीना मुहाल कर दिया। कहने लगीं, ""देखा! मैं न कहती थी आपसे बारम्बार! लेकिन यहाँ मेरी सुनता ही कौन है? अब तो चेतो। नारदजी ने जैसा कहा है, वैसा करो। यदि नहीं कर सकते तो लो, मैं तो चली अपने मायके।"" 
       उनकी झिड़की सुन कर मैंने मन ही मन ठान लिया कि देवर्षि की बात अब तो मान ही ली जाये। आज से ही खाना शुरु कर देता हूँ। उनका गीत अब मेरा मार्ग दर्शन करने लगा था और मैं तलाश रहा था खाने की सम्भावनाएँ। 

2 comments:

  1. जब जागे तभी सबेरा :)

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  2. जमाना ही खाने पीने वालों का है, खाओ पीओ और खुश रहो...:)
    दुनिया जाये भाड़ में बन्धु
    हम तो खाये जायें
    खाने से डरने वाले जो
    वे पाछे पछतायें।

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