Sunday, 16 December 2012

17 दिसम्बर, जन्म दिवस पर विशेष : लाला जगदलपुरी के मायने




अपने धरातल के लोक-जीवन और उससे सम्बद्ध सर्वांगीण गतिविधियों पर चिन्तन, लेखन और प्रकाशन में संलग्न और इसी अनुक्रम में "बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति", "बस्तर-लोक कला-संस्कृति प्रसंग", "बस्तर की लोकोक्तियाँ", "आंचलिक कविताएँ", "ज़िंदगी के लिए जूझती ग़ज़लें", "हल्बी लोक कथाएँ", "वनकुमार और अन्य लोक कथाएँ", "बस्तर की मौखिक कथाएँ", "बस्तर की लोक कथाएँ", "मिमियाती ज़िंदगी दहाड़ते परिवेश", "गीत-धन्वा" और "पड़ाव-5" जैसी महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के प्रणेता लाला जगदलपुरी बस्तर-साहित्याकाश के वे सूर्य हैं, जिनकी आभा से हिन्दी साहित्याकाश के कई नक्षत्र दीपित हुए और आज भी हो रहे हैं। ऐसे नक्षत्रों में शानी, डॉ. धनञ्जय वर्मा और लक्ष्मीनारायण "पयोधि" के नाम अग्रगण्य हैं। 17 दिसम्बर 1920 को जगदलपुर में जन्मे दण्डकारण्य के इस ऋषि, सन्त और महामना ने 1936 से लेखन आरम्भ किया और 1939 से प्रकाशन पाने लगे। मूलत: हिन्दी का कवि होने के साथ-साथ छत्तीसगढ़ी और बस्तर की हल्बी-भतरी लोक भाषाओं में भी पर्याप्त और उल्लेखनीय सृजन किया। सृजन इतना उत्कृष्ट और प्रामाणिक कि लोग उनका लिखा चुराने लगे। बाल-साहित्य-लेखन में भी उनका गुणात्मक योगदान उल्लेखनीय और सराहनीय रहा है। लालाजी के अतीत का थोड़ा-सा समय साहित्यिक पत्रकारिता को भी समर्पित रहा था। वे जगदलपुर से कृष्ण कुमारजी द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक "अंगारा" में सम्पादक, रायपुर से ठाकुर प्यारे लालजी द्वारा प्रकाशित "देशबन्धु" में सहायक सम्पादक,  महासमुंद से जयदेव सतपथीजी द्वारा प्रकाशित "सेवक" में सम्पादक और जगदलपुर से ही तुषार कान्ति बोसजी द्वारा बस्तर की लोक भाषा "हल्बी" में प्रकाशित साप्ताहिक "बस्तरिया" में सम्पादक रहे। वे इस साप्ताहिक के माध्यम से आंचलिक पत्रकारिता के सफल प्रयोग में चर्चित रहे हैं। उन्हें देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशन मिलता रहा है। यद्यपि उनके खाते में 2004 में छत्तीसगढ़ शासन के पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मान सहित 1972 से लगातार प्राप्त होने वाले अनेकानेक सम्मान दर्ज हैं तथापि दो ऐसे सम्मान हैं, जिन्हें वे बारम्बार याद करते हैं। इन दोनों सम्मानों की चर्चा करते हुए उनकी आँखों में एक अनोखी चमक आ जाती है : 
सन् 1987 के दिसम्बर महीने की एक शाम। जगदलपुर नगर के "सीरासार हाल" में शानी जी का नागरिक अभिनन्दन किया जा रहा था। बस्तर सम्भाग के तत्कालीन आयुक्त सम्पतराम उस सम्मान-समारोह की अध्यक्षता कर रहे थे। "सीरासार" आमन्त्रितों से खचाखच भरा था। उस कार्यक्रम में लालाजी भी आमन्त्रित थे। वे सामने बैठे हुए थे। कार्यक्रम शुरु हुआ। शानीजी को पहनाने के लिये फूलों का जो पहला हार लाया गया, उसे ले कर शानीजी मंच से नीचे उतर पड़े। लोग उन्हें अचरज भरी उत्सुकता से देख रहे थे। शानीजी सीधे लालाजी की कुर्सी के पास आ खड़े हुए। लालाजी भी तुरन्त खड़े हो गये। माला उन्होंने लालाजी के गले में डाल दी। दोनों आपस में लिपट गये। आनन्दातिरेक की घड़ियाँ थीं। अप्रत्याशित और अनसोचा दृश्य था। प्राय: जैसा नहीं होता, वहाँ वैसा हो गया था। उपस्थित लोग भाव-विभोर हो गये थे। वातावरण में कई क्षणों तक तालियों की गड़गड़ाहट गूँजती रही थी। उस दृश्य को याद कर लालाजी कहते हैं, ""उस अभिनन्दन समारोह में मुझे ऐसा लगा कि वहाँ अभिनन्दन मेरा हुआ है।""
जगदलपुर स्थित मण्डी प्रांगण में अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के मंच पर स्व. दिनेश राजपुरियाजी लालाजी को सम्मानित करना चाहते थे। वे लालाजी से मिले किन्तु लालाजी ने बड़े ही संकोच के साथ उनसे क्षमा माँग ली थी। उस रात कवि सम्मेलन को लालाजी के संकोच का जिक्र करते हुए घोषणा पूर्वक उन्होंने लालाजी को समर्पित कर दिया था। लालाजी इस घटना को याद करते हुए कहते हैं, ""...और मैं मन ही मन सम्मानित हो गया था।""



प्राय: ऐसा होता है कि हमें किसी को जानने के लिये उसका गहन अध्ययन करना पड़ता है। उसे बहुत करीब से और भीतर तक पढ़ना पड़ता है। और इस प्रक्रिया में एक लम्बा समय निकल जाता है। कभी-कभी तो पूरा का पूरा जीवन ही निकल जाता है और हम कुछ लोगों को समझ ही नहीं पाते। कोई बाहर से कुछ होता है तो भीतर से कुछ और। आप पढ़ते कुछ हैं और लिखा कुछ और ही होता है। ....और आपका अध्ययन बेकार हो जाता है। लेकिन यदि मैं यह कहूँ कि ऐसे लोगों में लालाजी, यानी बस्तर के यशस्वी और तपस्वी साहित्यकार लाला जगदलपुरीजी को शुमार करना उचित नहीं होगा तो मैं कहीं गलत नहीं होऊँगा। कारण, लालाजी का बाह्य और अन्तर दोनों एक समान है। उनका व्यक्तित्व पारदर्शी है। उन्हें पढ़ने के लिये न तो आपको घंटों लगेंगे, न दिन और महीने या साल। केवल कुछ पल...और लालाजी का भीतर और बाहर सब-कुछ आपके सामने किसी झरने के निर्मल और पारदर्शी जल जैसा झलकने लगेगा। जो कुछ उनके लेखन में है, वही उनके व्यक्तित्व में भी। लेखन खरा है तो व्यक्तित्व भी खरा। इसीलिये उन्हें समझना बहुत ही सहज है। 
बात 1972-73 की होगी। मैं बी.ए. प्रथम वर्ष का छात्र था। यों तो कविताएँ मैं 1970-71 से लिखने लगा था किन्तु प्रकाशन के नाम पर शून्य था। तो मैंने अपनी "ध्यानाकर्षण" शीर्षक एक कविता जगदलपुर से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र "अंगारा" में प्रकाशनार्थ भेज दी और सुखद आश्चर्य! कि वह कविता उस पत्र में प्रकाशित हो गयी। यह मेरा पहला प्रकाशन था। प्रकाशन के कुछ ही दिनों के भीतर उसके सम्पादक का पत्र भी मिला। सम्पादक थे लाला जगदलपुरीजी। नाम तो बहुत सुना था किन्तु उनके दर्शन का सौभाग्य तब तक नहीं मिल पाया था। उनका पत्र पा कर हौसला बढ़ा। एक दिन मैं अपने मित्र भाई केसरी कुमार सिंह के साथ उनके दर्शन करने पहुँच गया। उन्होंने यह जान कर कि उस कविता का कवि मैं हूँ, मेरी पीठ थपथपायी और कहा, "अच्छी रचना है। लिखते रहो। आगे और अच्छा लिखोगे, ऐसा मेरा विश्वास है।" मेरे लिये उनका यह आशीर्वाद किसी अनमोल रतन से कम नहीं था। आज भी कम नहीं है। और उसके बाद तो लालाजी से सम्पर्क का सिलसिला चल निकला। मेरी कई रचनाओं के परिमार्जन में लालाजी ने पूरे मन से समय दिया। अभी कुछ वर्षों तक भी वे उसी दुलार और स्नेह के साथ मेरी रचनाओं को ठीक-ठाक करने में अपना महत्त्वपूर्ण समय देते रहे हैं। यह मेरे लिये न केवल सौभाग्य अपितु गौरव की भी बात है। यहाँ यह कहना ज्यादा समीचीन होगा कि वे प्रत्येक उस रचनाकार की रचना को बड़े ही ममत्व से पढ़ते और उस पर अपना रचनात्मक सुझाव देते हैं, जो उनसे अपनी रचना को देख लेने का आग्रह करता है। ऐसे रचनाकारों में सुप्रसिद्ध कथाकार-उपन्यासकार शानी और आलोचना के शिखर पुरुष डॉ. धनञ्जय वर्मा के अलावा सुरेन्द्र रावल, योगेन्द्र देवांगन, लक्ष्मीनारायण पयोधि और त्रिलोक महावर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। यह अलग बात है कि ऐसे रचनाकारों में से कई उनके इस अवदान को भुला चुके हैं। किन्तु इसमें लालाजी का भला क्या दोष? 
किन्तु वे दोषी हैं। और उनका दोष यह है कि वे निर्दोष हैं। सच ही तो है, निर्दोष होना ही तो आज के युग में दोष है। वे निर्लिप्त हैं, प्रचार-प्रसार से कोसों नहीं बल्कि योजनों दूर रहने में भरोसा करते हैं। वे दोषी इस बात के भी हैं कि वे सरकारी सुविधायें नहीं झटक सके जबकि उनके चरणों की धूलि से भी समानता करने में अक्षम लोगों ने सारी सरकारी सुविधाएँ बटोर लीं। यदि स्वाभिमानी होना ग़लत है, तो वे ग़लत हैं। कारण, स्वाभिमान तो उनमें कूट-कूट कर भरा है। साहित्य की साधना करना दोष है तो वे दोषी हैं, क्योंकि वे तो साहित्य-साधक हैं; तपस्वी हैं। एकनिष्ठ होना यदि दोष है तो वे दोषी हैं, क्योंकि उनका एकमात्र उद्यम है साहित्य-साधना। साहित्य की राजनीति और गुटबाजी से अपने-आप को दूर रख कर रचना-कर्म में लगे रहना यदि दोष है तो लालाजी दोषी हैं, क्योंकि न तो उन्होंने साहित्य की राजनीति को अपने पास फटकने दिया और न गुटबाजी की दुर्गन्ध की ओर कभी नाक ही दी। अपने आप को प्रगतिशील, जनवादी और न जाने किन-किन अलंकरणों से सुसज्जित करने में लगे कुछ नौसीखियों की दृष्टि में लालाजी बुर्जुवा हैं। लेकिन ऐसे महानुभावों को सम्भवत: यह पता नहीं कि लालाजी कितने प्रगतिशील और जनवादी हैं। ऐसे लोगों की बुद्धि पर ग़ुस्सा नहीं मात्र तरस आती है। गीदड़ यदि शेर की खाल ओढ़ ले तो थोड़ी देर के लिये भ्रम की स्थिति तो निर्मित हो सकती है किन्तु क्या वह इतने से ही शेर बन सकता है? लालाजी तो शेर हैं। उनकी खिल्ली गीदड़ उड़ा लें तो क्या फर्क पड़ता है भला?
जगदलपुर की सड़कों पर छाता लिये, धोती का एक सिरा उँगलियों के बीच दबा पैदल घूमते लालाजी का मन हुआ तो घुस गये किसी होटल में नाश्ता करने के लिये और मन हुआ तो वहीं सड़क के किनारे खोमचे के पास खड़े-खड़े ही कुछ खा-पी लिया। शहर में एक छोटे से बच्चे से ले कर बड़े-बूढ़े तक सभी तो पहचानते हैं उन्हें। यह अलग बात है कि पढ़े-लिखे लोग "लालाजी" और अनपढ़-से लोग "लाला डोकरा" के नाम से जानते हैं। कुछ वर्षों पूर्व स्कूटर पर से गिर जाने के बाद से वे प्राय: पैदल नहीं चलते। रिक्शे से आते-जाते हैं। शहर के सारे रिक्शे वाले उनके घर से भली भाँति परिचित हैं और एक बँधी-बँधायी किन्तु रियायती रकम ही उनसे लेते हैं। इस तरह रिक्शे वाले भी उनके प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित करते हैं। संवेदनशील इतने कि आज 92 वर्ष की आयु में भी उन्हें अपनी माता की याद सताती है। वे अपनी स्वर्गीया माता को याद कर किसी शिशु की तरह भाव-विह्वल हो जाते हैं। दूसरों का ध्यान इतना अधिक रखते हैं कि कोई सगा भी क्या रखता होगा। पिछले वर्ष नवम्बर में और फिर 05 दिसम्बर (2010) को मैं जब उनसे मिला था तो वे अपनी स्मरण-शक्ति के क्षीण होते जाने को ले कर बहुत परेशान थे। उनकी परेशानी यह थी कि यदि किसी ने उन्हें देख कर नमस्कार किया तो उन्होंने उस नमस्कार का जवाब दिया या नहीं। वे कहने लगे थे, ""मैं व्यथित हो जाता हूँ जब मुझे यह स्मरण नहीं रहता कि मैंने मेरा अभिवादन करने वाले महानुभाव को उसके अभिवादन का प्रत्युत्तर दिया अथवा नहीं। एक अपराध बोध होता है और आत्मा कचोटती है कि यदि मैंने नमस्कार का जवाब नमस्कार से नहीं दिया तो यह अवश्य ही उस व्यक्ति का मेरे द्वारा किया गया अपमान ही होगा। मैं इसी बात को ले कर चिन्तित रहा करता हूँ।""  
लालाजी अपनी दिवंगत माता को शिद्दत से याद करते हुए अत्यन्त भावुक हो उठते हैं। उन्हें स्मरण कर आज 93 वर्ष की आयु में भी उनकी आँखे पनीली हो आती हैं। निम्न मुक्तकों में अपनी माता के प्रति उनकी श्रद्धा और भक्ति प्रदर्शित होती है : 
आयु के तुमने भयानक वर्ष झेले,
नर-पिशाचों के गलत आदर्श झेले,
जन्म-दात्री! खूब था जीवन तुम्हारा -
खूब, तुमने खूब ही संघर्ष झेले। 
माता की मृत्यु ने उन्हें विचलित कर दिया था। वे अपनी माता की मृत्यु से इतने व्यथित हुए कि उन्हें "भगवान-खोली" यानी पूजा-कक्ष भी माता की अनुपस्थिति में सूना लगता है : 
हृदय सूना, प्राण सूने,
नयन सूने, कान सूने,
क्या करे भगवान-खोली -
माँ बिना भगवान सूने। 
माता का वरद हस्त उनके सिर पर था और ऐसे में जब उनकी मृत्यु हुई तो लालाजी पर मानो गाज ही गिर पड़ी। उन्हें अपनी माता से बहुत सम्बल मिला करता था। दीनता से भरे समय में भी माता के हाथ ऊँचे रहा करते, कटि झुकी होने के बावजूद उनका माथा ऊँचा रहा करता : 
पेट भूखा, हाथ ऊँचा!
कटि झुकी, पर माथ ऊँचा!
थी गिरी हालत, मगर माँ,
था तुम्हारा साथ ऊँचा!
लालाजी को इस बात का सदैव दु:ख रहा है कि उनकी माता के संगी केवल और केवल दु:ख और दर्द ही रहे थे। यह दु:ख उन्हें सालता रहा है : 
संगी थे दु:ख-दर्द तुम्हारे,
थीं तुम इतनी नेक, रहम-दिल
सब की फरियादें पी-पी कर,
घुटती रहती थीं तुम तिल-तिल।
माँ के रूप मिलीं तुम मुझको,
मुझे दे गई मेरी मंज़िल।
मने के गगन तुम्हारी सुधियाँ,
रात-रात भर झिलमिल-झिलमिल।  
माता की दिनचर्या में केवल और केवल काम हुआ करता था। विश्राम के पल आते ही नहीं थे। उन्होंने अपनी माता को हमेशा "कमेलिन" की तरह काम में जुटी हुई देखा था : 
कभी सीती-टाँकती-सी दीख पड़ती हो,
जख्म ताजा आँकती-सी दीख पड़ती हो,
कभी कमरे में रसोई के कमेलिन माँ!
खोलती कुछ ढाँकती-सी दीख पड़ती हो!
लालाजी अपनी माता की ही तरह अपने गाँव तोतर को भी भुला नहीं पाते। तोतर उनके मानस-पटल पर रह-रह कर कौंधता रहता है। मैंने कई बार बातचीत के दौरान उनके मुँह से तोतर का जिक्र सुना है। वहाँ के आम, इमली और करंजी पेड़ों की छाँव, वहाँ का पवन, पानी, शीत, सन्नाटा, अँधेरा सब कुछ तो याद है उन्हें :
दीन बचपन, दूर "तोतर गाँव" मैं-तुम!
आम, इमली और करंजी-छाँव मैं-तुम!
पवन, पानी, शीत, सन्नाटा, अँधेरा,
रात डायन, खौफनाक पड़ाव, मैं-तुम!
साक्षात्कारों से लालाजी प्राय: दूर रहते आये हैं। उनका कहना रहा है कि साक्षात्कार ले कर कोई क्या करेगा? ""आप हमसे रचनाएँ लीजिये। साक्षात्कार में क्या रखा है?"" वे कहते हैं। वे "माइक" पर कुछ भी कहने से गुरेज करते हैं। राजेन्द्र बाजपेई कई बार प्रयास कर चुके कि वे उनसे एक टी.वी. चैनल के लिये बातचीत रिकार्ड कर सकें किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। मैंने भी कई बार प्रयास किया किन्तु ऐसा सम्भव नहीं हो सका। हाँ, वे लिखित साक्षात्कार दे देते हैं। आप अपने प्रश्न उन्हें लिख कर दे दें, वे उन प्रश्नों का जवाब लिखित में तैयार कर आपको अगले दिन अथवा कुछ दिनों बाद सहर्ष दे देंगे। 
वर्षों पूर्व बस्तर पर पुस्तक लिखने के लिये एक तथाकथित और स्वयंभू साहित्यकार को मध्यप्रदेश शासन ने किसी प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी-सी सारी सुविधाएँ और धनराशि मुहैया करवायी किन्तु उन्होंने क्या और कैसा लिखा, आज तक कोई नहीं जानता। किन्तु सुविधाओं और आर्थिक सहायता के बिना लालाजी ने "बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति" तथा "बस्तर लोक : कला एवं संस्कृति", "बस्तर की लोक कथाएँ", "बस्तर की लोकोक्तियाँ", "हल्बी लोक कथाएँ", "आंचलिक कविताएँ", "मिमियाती ज़िंदगी दहाड़ते परिवेश", "गीत-धन्वा" आदि महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का प्रणयन कर यह सिद्ध कर दिया कि शासकीय सहायता के बिना भी काम किया जा सकता है। और किसी भी तरह की सहायता का मुखापेक्षी होना सृजनात्मकता को निष्क्रिय कर देता है। यही कारण है कि राजकीय सहायता का मुखापेक्षी होना लालाजी को कभी रास नहीं आया। राजभाषा एवं संस्कृति संचालनालय से मिलने वाली सहायता राशि के सन्दर्भ में प्रतिवर्ष माँगे जाने वाले जीवन प्रमाण-पत्र के विषय में लालाजी ने स्पष्ट कह दिया था कि उनसे उनके जीवित होने का प्रमाण-पत्र न माँगा जाये। शासन उन्हें जीवित समझे तो सहायता राशि दे अन्यथा बन्द कर दे। उनका कहना था कि सहायता माँगने के लिये उन्होंने शासन से कोई याचना नहीं की थी और न करेंगे। वे कहते हैं कि उनकी अर्थ-व्यवस्था आकाश वृत्ति पर निर्भर करती है। 
पिछले कुछ वर्षों से वे मौन साध लेने को अधिक उपयुक्त मानने लगे हैं। मैंने काफी दिनों से उनका कोई पत्र न आने पर जब उनसे शिकायत की तो उन्होंने मुझे अपने दिनांक 18.01.04 के पत्र में लिखा : ""....परिस्थितियों ने इन दिनों मुझे मौन रहने को बाध्य कर दिया है। चुप्पी ही विपर्यय की महौषधि होती है। मेरे मौन का कारण तुम नहीं हो।"" 
कोई रचना उन्हें भा जाये तो रचनाकार की तारीफ करने में वे कंजूसी बिल्कुल ही नहीं करते। बस्तर की वाचिक परम्परा पर केन्द्रित मेरी पुस्तकों के विषय में उन्होंने अपने एक पत्र में लिखा, ""बस्तर के लोक साहित्य को समर्पित तुम्हारे चिन्तन, लेखन और प्रकाशन की सारस्वत-सेवा का मैं पक्षधर और प्रशंसक हूँ। बधाई ------ शुभकामनाएँ।"" आज जब हम थोथी आत्म-मुग्धता के चरम पर हैं और दूसरों की सृजनात्मकता और उपलब्धि हमारे लिये सबसे बड़ा दु:ख का कारण हो गयी है; लालाजी की यह औदार्यपूर्ण प्रतिक्रिया मायने रखती है। 
लालाजी ने जो कुछ लिखा उत्कृष्ट लिखा। बस्तर की संस्कृति और इतिहास पर कलम चलायी तो उसकी प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगे ऐसी सम्भावना से भी उसे अछूता रखा। यही कारण है कि उनके बस्तर सम्बन्धी लेखों की प्राय: चोरी होती रही है। चोरों में बड़े नाम भी शामिल रहे हैं। नामोल्लेख के बिना कहना चाहूँगा कि यह चोरी लगातार और धड़ल्ले से होती रही है जो आज भी जारी है। अभी पिछले वर्ष कोंडागाँव स्थित महाविद्यालय द्वारा प्रकाशित तथाकथित ग्रन्थ में भी बस्तर दशहरा पर लालाजी का पूर्व प्रकाशित लेख जस का तस किसी ने चुरा कर अपने नाम से प्रकाशित करा लिया है। ऐसी ही चोरियों के सन्दर्भ में जब मेरी उनसे बातचीत हो रही थी तब वे कहने लगे थे, ""हमें इस बात का गौरव है कि हमने कुछ ऐसा लिखा कि लोग उसे चुराने लगे हैं। चोरी तो बहुमूल्य और महत्त्वपूर्ण वस्तुओं की ही होती है, न?"" वे कहते हैं कि रचनाओं की चोरी-चपाटी या छीन-झपटी उनके लिये अपनी रचनाओं को परखने की एक कसौटी बनती गयी और इससे उन्हें अपनी रचनाओं की सशक्तता का एहसास होता गया। चोरी की ऐसी ही एक अनोखी घटना का जिक्र करते हुए वे बताने लगे कि एक व्यक्ति को उन्होंने इस शर्त पर रचना-सहयोग दिया था कि वह उन्हें टाइपिंग-चार्ज दे दें। इस पर वे सज्जन राजी पड़ गये और टाइपिंग-चार्ज दे तो दिया लेकिन सामग्री पर हावी हो गये। जब लालाजी अपनी सामग्री हथियाये जाने के विरूद्ध उनकी अदालत में उनके खिलाफ पेश हुए तब वे सज्जन अपनी सफाई में कहने लगे, ""मैंने आपको टाइपिंग-चार्ज दे दिया था। याद होगा। इसीलिये इसका उपयोग मैंने अपने नाम से कर लिया था। अगर आप नहीं चाहते, तो कोई बात नहीं।""
घोटुल पर लोगों ने ऊलजलूल लिखा और बस्तर की इस महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर के विषय में भ्रामक प्रचार किया। उसे लांछित किया। किन्तु लालाजी ने घोटुल की आत्मा को समझा और सच्चाई लिखी। अपनी बहुचर्चित पुस्तक "बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति" के लेखकीय में वे कहते हैं, ""मैं शास्त्रीय लेखन का धनी नहीं हूँ। "बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति" में मेरा अनुभव-लेखन संकलित है। ग्रियर्सन, ग्रिग्सन, ग्लासफर्ड और एल्विन आदि जिन विख्यात मनीषियों के उद्धरण दे-दे कर तथ्यों की पुष्टि की जाती है; उन्होंने जिन क्षेत्रीय रचे-बसे लोगों से पूछ-ताछ कर प्रामाणिक सामग्री जुटायी थी, अंचल के वैसे ही लोग मेरे तथ्य प्रदाता भी रहे थे। लेखकीय दृष्टि मेरी स्वत: की है।"" क्या इतनी ईमानदारी किसी और लेखक के आत्म-स्वीकार में मिल पाती है? वे बस्तर के बेजुबान लोगों के विषय में इसी लेखकीय में आगे कहते हैं, ""प्रकृति की खुली पुस्तक में मैंने बस्तर के विगत वनवासी जीवन-दर्शन का थोड़ा-सा आत्मीय अध्ययन किया है। एक ऐसा लोक-जीवन मेरी सृजनशीलता को प्रभावित करता आ रहा है, जिसने जाने-अनजाने प्रबुद्ध समाज को बहुत कुछ दिया है और जिसके नाम पर गुलछर्रे उड़ाये जाते थे। लँगोटियाँ छिन जाने के बावजूद भी जिसे लँगोटियाँ अपनी जगह सही-सलामत मालूम पड़ती थीं। सोचिये, आदमी सामने है। उसका कण्ठ गा रहा है, उसके होंठ मुस्करा रहे हैं और चेहरा उत्फुल्लता निथार रहा है। उसका शरीर गठा हुआ है। समझ में यह नहीं आता कि उसकी इस मस्ती का कारण क्या है? उसकी इस निश्चिन्तता का रहस्य क्या है? जबकि उसका उत्तरदायित्व बड़ा है और उसके घर कल के लिये भोजन की कोई व्यवस्था नहीं है। उसके नसीब में केवल श्रम ही श्रम है, दु:ख ही दु:ख है, परन्तु वह दु:ख को सुख की तरह जी रहा है। उसका यह जीवन-दर्शन कितना प्रेरक है......सोचिये।""
लालाजी धन के साथ-साथ यश-लिप्सा से भी अछूते रहे हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो वे मुझे उन पर काम करने के लिये मना न कर देते। सन् 2000 में मैंने उन पर पीएच-डी करने की सोची थी और उन्हें अपनी मंशा बतायी तो वे कहने लगे थे कि मैं उन पर पीएच-डी करने की बजाय किसी अन्य विषय पर पीएच-डी करूँ। उन्होंने कहा था, ""मुझे छोड़ कर अन्य किसी भी विषय पर पीएच-डी करो। मुझ में क्या रखा है। और वैसे भी मुझ पर पीएच-नहीं कर सकते क्योंकि उसके लिये मेरी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या कम है।"" उस समय बात आयी-गयी हो गयी। किन्तु मेरे मन से उन पर काम करने की इच्छा गयी नहीं और मैं लगातार इस सम्बन्ध में सोचता औरअकुलाता रहा। फिर 2005 में जब मैं अध्ययन अवकाश पर था, मैंने तय कर लिया कि अब तो उनके मना करने पर भी उन पर काम करना ही है। और मैंने अपना प्रस्ताव उनके समक्ष रख दिया। मैंने कहा कि मैं पीएच-डी नहीं करूँगा। नहीं लेना मुझे डॉक्टरेट की डिग्री, किन्तु उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर छोटा-मोटा काम तो कर सकता हूँ, न? वे तब भी नहीं माने थे किन्तु जब मैंने बहुत जोर दिया तो वे इस शर्त के साथ मान गये कि मैं बस्तर की वाचिक परम्परा पर चल रहे अपने काम को प्राथमिकता दूँगा और उन पर किये जाने वाले काम को दूसरे क्रम पर रखूँगा। इतना ही नहीं उन्होंने यह शर्त भी रखी कि उन पर किये जाने वाले काम के कारण बस्तर की वाचिक परम्परा पर चल रहे मेरे काम में व्यवधान नहीं आना चाहिये। मैंने उन्हें वचन दिया कि ऐसा ही होगा और आश्वस्त किया कि इन दिनों चूँकि मैं एक वर्ष के अध्ययन अवकाश पर हूँ इसीलिये मेरे पास समय की कमी नहीं है इसीलिये व्यवधान की कोई बात ही नहीं है। मुझे आज भी उनके शब्द याद हैं। उन्होंने बड़ी ही भावुकता के साथ कहा था, ""बस्तर में अलिखित साहित्य का अक्षुण्ण भण्डार है, जिसे सहेजने का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य तुम कर रहे हो। उसे सहेजने का काम मुझ पर लिखने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। पहले उसे पूरा करो।"" क्या ऐसी सोच किसी सामान्य व्यक्ति की हो सकती है? यह सोच तो केवल लालाजी जैसे ऋषि की ही हो सकती है, न? बहरहाल, मैंने प्रस्ताव रखा कि मैं दस-पन्द्रह दिनों के लिये जगदलपुर प्रवास पर रह कर उनसे बातचीत करूँगा और बातचीत के जरिये सामग्री जुटाऊँगा। मेरे पत्र के जवाब में उन्होंने लिखा कि जगदलपुर में शान्ति नहीं है। और वे स्वयं कोंडागाँव आयेंगे और लॉज में ठहरेंगे किन्तु लॉज का खर्च स्वयं वहन करेंगे। मेरे लिये यह स्थिति दु:खदायी थी किन्तु स्वाभिमानी लालाजी की बात टालने का अर्थ होता उनके आगमन के स्वर्ण अवसर को जान-बूझ कर खटाई में डालना। मैं उनकी इस शर्त को मान गया। मानना ही था। न मानता तो वे आते ही नहीं। बहरहाल, तय कार्यक्रम के अनुसार वे कोंडागाँव आये और बस-स्टैंड के पास स्थित गुरु लॉज में ठहरे। उन्होंने ताकीद कर दी थी कि वे पैदल ही चलेंगे, वाहन की आवश्यकता नहीं होगी। उन्होंने मेरे लॉज पहुँचने का समय निर्धारित कर दिया था। उनके आदेशानुसार सवेरे 9 बजे मैं उन्हें लेने के लिये मोटर सायकिल पर अपने बेटे चि. नवनीत के साथ जाता, जो मुझे उनके पास छोड़ कर मोटर सायकिल वापस ले आता। वे मेरे पहुँचने के पहले ही नित्य-कर्म से निवृत्त हो कर लॉज के नीचे होटल में नाश्ता कर चुके होते। उन्होंने पहले ही कह रखा था कि वे नाश्ता होटल में ही करेंगे और उसका पेमेन्ट भी वही करेंगे। मैंने उनकी बात न चाहते हुए भी मान ली थी। मानना विवशता थी। न मानता तो.............। बहरहाल, हम दोनों लॉज से पैदल चल कर घर आते। फिर घर में भी उन्हें हल्का-सा नाश्ता मेरे साथ करना पड़ता। चाय पी जाती और अनौपचारिक बातें होतीं। बातचीत टेप रिकार्ड करने की सख्त मनाही रहती। दोपहर के भोजन के बाद लालाजी को मेरा बेटा चि. नवनीत मोटर सायकिल पर लॉज तक छोड़ देता। शाम को मैं फिर से लॉज पहुँच जाता और फिर हम दोनों पैदल घूमने निकल पड़ते। घूमते-घामते घर आते। भोजन होता और फिर वे वापस लॉज पहुँचा दिये जाते। इस तरह लगभग 10-12 दिन वे कोंडागाँव में रहे। टेप रिकार्डर और विडियो कैमरे पर उन्होंने केवल कविताएँ और आलेख ही रिकार्ड करवाये। साक्षात्कार जैसी चीज को दोनों ही माध्यमों से दूर रहने दिया। न केवल मेरे लिये बल्कि मेरे पूरे परिवार के लिये वे 10-12 दिन किसी उत्सव से कम नहीं थे। मेरा घर उतने दिनों के लिये एक साहित्य-तीर्थ बन गया था। मेरे साथ-साथ मेरा परिवार भी उन दिनों की याद कर आज भी गौरवान्वित होता रहता है। पिछली बार जब मैं 05 दिसम्बर (2010) को उनसे मिला तो वे भी उन पलों की याद में खो गये। मेरे पिताजी को वे अपने छोटे भाई की तरह मानते थे। द्रवित स्वर में कहने लगे, ""भाई के साथ बातें होती थीं जब भी मैं कोंडागाँव जाता था तुम्हारे यहाँ। अब तो वे रह नहीं गये। क्या करें, यही संसार का नियम है।"" 
लालाजी इसके पहले भी कई बार कोंडागाँव प्रवास पर रह चुके हैं किन्तु कभी भी किसी के घर पर नहीं ठहरे। हर बार लॉज में रुके। हाँ, भोजन अवश्य ही घर पर किया करते। उन्हें कोंडागाँव रास आता रहा है।  
लाला जी एक लेखक के दायित्व से न केवल भली भाँति परिचित हैं अपितु उसका निर्वहन भी उसी तरह और पूरी तरह सजगता के साथ करते हैं। इस सम्बन्ध में वे अपने एक लेख "लेखक और लेखकीय दायित्व" में कहते हैं, ""मानव-समाज में दायित्व एक ऐसा गुण है, जिसकी आवश्यकता हर कार्य में हुआ करती है। दायित्व-निर्वहण के अभाव में कोई भी कार्य सफल नहीं हो पाता। मिलने-जुलने और बातचीत करने में भी दायित्व का निभापन आवश्यक होता है। फिर लेखन का कार्य तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। उसके दायित्वहीन होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। लेखक, जो विकसित व्यक्तित्व का धनी होता है, वह निस्संदेह दायित्वपूर्ण ही होता है। दायित्व के निभापन से लेखक और लेखन, दोनों ही काल-जयी हो जाते हैं। यह उल्लेखनीय है कि विकसित व्यक्तित्व का ही कृतित्व इसलिये दायित्वपूर्ण होता है, क्योंकि लेखक, जो विकसित व्यक्तित्व का उदाहरण बनता है, सबसे पहले वह मनुष्य होता है और मनुष्य हो कर मनुष्यता-विरोधी ताकतों से संघर्ष करते हुए और प्रतिकूलताओं को झेलते हुए दायित्वपूर्ण जीवन जीता है तथा जीवनानुभवों की समृद्धि जुटा कर लिखता है। जाहिर है कि दायित्वपूर्ण जीवन जिये बिना लेखकीय दायित्व की निष्पत्ति नहीं हो पाती। दायित्वपूर्ण लेखन का एक उद्दिष्ट मार्ग होता है। उसकी एक निश्चित दिशा होती है। कोई भी प्रतिभावान लेखक देख-सुन कर, पढ़ कर, भोग कर, सोच-विचार कर और आत्म-प्रेरित हो कर लिखता है। तभी उसके लेखन में परिपक्वता आती है और वह अपने लेखकीय दायित्व का मूद्र्धन्य कृतिकार कहलाता है। लेखन और लेखक की एक ही दिशा होती है।""
लालाजी समदर्शी हैं। उनके मुँह से कभी किसी के लिये कोई अपशब्द नहीं निकले। किसी को बुरा कहा ही नहीं। उनके लिये कोई भी व्यक्ति बुरा नहीं है। बुरा भी अच्छा है। वे निंदा-सुख नहीं लेते। देखें उनकी कविता "सब अच्छे हैं" की कुछ पंक्तियाँ : 
किस-किस की बोलें-बतियाएँ, सब अच्छे हैं,
आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ सब अच्छे हैं। 
सबको खुश रखने की धुन में सबके हो लें,
मिल बैठें सब, पियें-पिलायें सब अच्छे हैं। 
अन्त में यह कहना होगा कि यदि हममें अक्षरादित्य लालाजी का स्वाभिमान, उनकी ईमानदारी, उनकी सच्चाई और लगन, परिश्रम तथा निष्ठा का एक छोटा-सा अंश भी आ जाये तो यह हमारे लिये बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। आज के इस कठिन दौर में लालाजी जैसा व्यक्तित्व मिल पाना सहज नहीं है। हम सब सौभाग्यशाली हैं कि हमें उनका नैकट्य सहज ही उपलब्ध है। इसके लिये हमें लालाजी का आभारी होना चाहिये। 
(प्रस्तुत आलेख लालाजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केन्द्रित मेरे लेखनाधीन पुस्तक ""दण्डक वन के ऋषि लाला जगदलपुरी"" का महज एक प्रारम्भिक अंश है।)
आइये, लाला जी का काव्य-पाठ सुनें : 


Tuesday, 27 November 2012

नारी पर केन्द्रित महागाथा लछमी जगार

देश का आदिवासी बहुल बस्तर अंचल अपनी सांस्कृतिक सम्पन्नता के लिए देश ही नहीं, अपितु विदेशों में भी चर्चित है। क्षेत्र चाहे रुपंकर कला का हो या कि प्रदर्शनकारी कलाओं या फिर मौखिक परम्परा का। प्रकृति के अवदान को कभी न भुलाने वाला बस्तर का जन मूलत: प्रकृति का उपासक है। उसके सभी पर्वों पर उसकी अनन्य उपासना, श्रद्धा, भक्ति और कृतज्ञता की स्पष्ट छाप दिखलायी पड़ती है। वर्ष भर कोई न कोई त्यौहार, कोई न कोई उत्सव। बीज-बोनी का उत्सव "बीजफुटनी", माँ धरती का त्यौहार "माटीतिहार", वसुन्धरा के श्रृंगार का पर्व "अमुसतिहार", नए अन्न का स्वागत "नवाखानी", गोधन की पूजा "दियारी", आम का स्वागत "आमा जोगानी", वर्षा की अभ्यर्थना "भिमाजतरा", ग्राम-देवी-देवताओं की वार्षिक पूजा-अर्चना का आयोजन "मँडई", "ककसाड़" या "खड़साड़" अथवा विभिन्न "पण्डुम" आदि।
               "धनकुल (तिजा जगार)" तथा "लछमी जगार" भी इसी तरह के महत्त्वपूर्ण लोकोत्सव हैं। जहाँ "धनकुल" में माहादेव-पारबती (महादेव-पार्वती) की कथा गायी जाती है वहीं "लछमीजगार" में माहालखी (महालक्ष्मी) और नरायन (नारायण) की। "लछमीजगार" की इस कथा को उसकी प्रकृति के अनुसार लोक महाकाव्य कहा जाना समीचीन होगा। उल्लेखनीय है कि "लछमीजगार" को कुछ लोग "जगार", कुछ लोग "लखीजगार" तथा कुछ लोग "लखीजग" और कुछ लोग "जग" कह देते हैं। "जगार" बस्तर अंचल की लोकभाषा "हल्बी" का शब्द है और यह हिन्दी के जागरण या जागृति अथवा यज्ञ शब्द का ही अपभ्रंश है। मूलत: हल्बी में गाए जाने वाले इस लोक महाकाव्य की भाषा में यदा-कदा भतरी (ओड़िया भाषा तथा बस्तर की लोकभाषा हल्बी के सम्मिश्रण से प्रादुर्भूत एक लोकभाषा, जो बस्तर अंचल के सीमावर्ती क्षेत्र में बोली जाती है) एवं छत्तीसगढ़ी लोक भाषाओं के भी शब्द प्रयुक्त हुए हैं। यह उत्सव प्राय: सामूहिक रूप से आयोजित किया जाता है, जिसे "गाँवजगार" कहा जाता है। कई बार मनौती मानने वाले व्यक्तिगत रूप से भी इसका आयोजन करते हैं। किन्तु आयोजन में भाग सभी लेते हैं। कम से कम पाँच तथा अधिकतम ग्यारह दिनों तक चलने वाले इस उत्सव के आयोजन-स्थल प्राय: "देवगुड़ी" अर्थात् मन्दिर होते हैं। आयोजन-स्थल को लीप-पोतकर सुन्दर ढंग से सजाया जाता है। दीवार पर भित्तिचित्र अंकित किए जाते हैं। इन चित्रों में "जगार" की कथा संक्षेप में अंकित होती है। पाट गुरुमायँ अर्थात् पट या प्रमुख गुरु माँ और चेली गुरुमायँ अर्थात् शिष्या या सहायिका गुरुमायँ इस आयोजन की सिरमौर होती हैं। यही दोनों हण्डी, धनुष, बाँस की पतली कमची तथा चावल फटकने का सूपा, जिन्हें क्रमश: "घुमरा हाँडी", "धनु", "छिरनी काड़ी" और "सूपा" कहा जाता है; के संयोजन से तैयार वाद्य-यन्त्र बजाती हुई "जगार" की कथा गीत रूप में सुनाती हैं। इस मौलिक एवं अनूठे वाद्य-यन्त्र को "धनकुल" कहा जाता है। "धनकुल" शब्द ओड़िया भाषा से आया हुआ है। धनुष का परिवर्तित स्वरूप है "धन" तथा कुला का परिवर्तित स्वरूप है "कुल"। ओड़िया में कुला का अर्थ है सूपा।
                 इस आयोजन में दिन में तो पूजा-अर्चना होती रहती है, दीपक अनवरत् जलता रहता है किन्तु कथा-गायन प्राय: रात में ही होता है। श्रद्धालु जन देर रात तक पलकें बिना झपकाए बैठे कथा का रस ले रहे होते हैं। "जगार" गीत वस्तुत: गीत नहीं, लोक महाकाव्य है। मौखिक महाकाव्य। अलिखित साहित्य। आश्चर्य होता है इन गुरुमाओं की स्मरण-शक्ति पर, जिन्हें लगभग एक-डेढ़ हजार पृष्टों में समाने वाला यह महाकाव्य कंठस्थ है। ऑस्ट्रेलिया के नृतत्वशास्त्री डॉ. क्रिस ग्रेगोरी इसे दुनिया का सबसे महत्त्वपूर्ण लोक महाकाव्य निरुपित करते हैं। वे कहते हैं "ओरल एपिक्स ऑफ इंडिया के सम्पादक स्टुअर्ट एच. ब्लैकबर्न ने अपनी इस किताब में कहा है कि भारत में ऐसा कोई लोक महाकाव्य "रिकार्ड" नहीं किया गया है, जिसे केवल महिलाएँ गाती हों। किन्तु अब इस महाकाव्य को हरिहर वैष्णव द्वारा रिकार्ड (ध्व िकिए जाने के कारण स्टुअर्ट एच. ब्लैकबर्न की उपर्युक्त स्थापना बदल जाती है।"
यह वह लोक महाकाव्य है जिसमें मृत्यु की नहीं अपितु जीवन की कहानी है। यह युद्ध और नायक प्रधान कथा नहीं है। यह नारी प्रधान लोक महाकाव्य है। नारी की, नारी द्वारा, नारी के लिए कही गयी महागाथा है यह "लछमी जगार"। यह सृजन की कथा है। इसमें साहित्य, कला, विज्ञान, इतिहास एवं भूगोल आदि का समावेश ही नहीं अपितु वृहद् एवं तथ्यात्मक विवरण है। ज्ञान का भण्डार है यह लोक महाकाव्य। इस महाकाव्य में पौराणिक नायक-नायिकाओं, यथा लक्ष्मी-नारायण एवं महादेव-पार्वती का लोक संस्कृतिकरण हुआ है। लछमी-नरायन (लक्ष्मी-नारायण) और माहादेव-पारबती (महादेव-पार्वती) नामकरण इसी लोक संस्कृतिकरण के परिणाम हैं। इस महाकाव्य के नायक-नायिका ईश्वर होते हुए भी लोक के अनुरूप आचरण और व्यवहार करते दिखलाई पड़ते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य जो इस उत्सव के विषय में रेखांकित किए जाने योग्य है, वह यह कि गुरुमायँ का किसी खास या तथाकथित ऊँची जाति की होना कतई आवश्यक नहीं है। यों तो प्राय: महिलाएँ ही गुरुमायँ होती हैं किन्तु अपवाद स्वरूप पुरुष भी यह भूमिका निभाते देखे गए हैं। बस्तर ग्राम के सुखदेव एवं जयदेव, कोंडागाँव के लुदरुराम कोराम और छेदीराम, काकड़गाँव के सुकलू राम पाँडे तथा बरकई के मस्सूराम सोनवानी ऐसे ही अपवादों में से हैं।
                 "लछमी जगार" अन्न लक्ष्मी की पूजा का महोत्सव है। इस लोक महाकाव्य में सृष्टि की उत्पत्ति की कहानी है, धान की उत्पत्ति की कहानी है और इसमें वर्षा की भी कहानी है। इसमें वर्ण या रंग-भेद का कोई स्थान नहीं है। इस महाकाव्य के अनुसार मेंगराजा-मेंगिनरानी (मेघ राजा-मेघिन रानी) अर्थात् वर्षा के देवता की पुत्री हैं माहालखी। माहालखी यानी धान। माहादेव कृषक हैं। देवी पारबती को चिंता है मँजपुर यानी मृत्यु लोक के निवासियों की। वह उन्हीं के जीवन-यापन के लिए माहादेव को कृषि-कार्य हेतु प्रेरित करती हैं। माहादेव के अथक परिश्रम से होती है धान अर्थात् माहालखी की उत्पत्ति। माहालखी यानी धान नरायन राजा की बाईसवीं रानी हैं। उनकी इक्कीस रानियाँ हैं कोदो, कोसरा, सरसों, मूँग, अरहर, उड़द, राई, तिल, डेंगीतिल या परबत, चना, बटरा, मँडिया, अलसी, भदई, सावाँ, झुड़ँगा, काँदुल आदि तिलहनी एवं दलहनी फसलें। ये इक्कीस रानियाँ सौतियाडाह के चलते माहालखी को प्रताड़ित करती हैं। बहुत अधिक प्रताड़ित किये जाने के बावजूद माहालखी अपने पति का घर नहीं छोड़तीं किन्तु जब नरायन राजा द्वारा पाद-प्रहार किया जाता है तब वे इसे नारी की अस्मिता पर आघात मान कर पति का घर छोड़ देती हैं। उनके गृह-त्याग के बाद नरायन राजा और उनकी इक्कीस रानियों पर दुखों के पहाड़ टूट पड़ते हैं। वे दाने-दाने को मोहताज हो जाते हैं। अन्त में हार मान कर रानियाँ स्वयं ही नरायन राजा से माहालखी को खोज कर घर वापस लाने को कहती हैं। नरायन राजा बड़ी मुश्किलों के बाद माहालखी को खोज कर घर वापस लाते हैं।
लछमी जगार का आयोजन प्राय: नवाखानी के बाद आरम्भ हो जाता है किन्तु अगहन के महीने को इसके लिये सर्वाधिक उपयुक्त माना जाता है। अगहन का महीना लक्ष्मी का समय माना जाता है। महत्त्वपूर्ण दिन होता है बड़ा जगार का। यानी जगार का अन्तिम दिन। और यह अन्तिम दिन होता है गुरुवार। जगार चाहे पाँच दिन का हो या सात अथवा नौ या ग्यारह दिनों का। समाप्ति तो गुरुवार को ही होगी।
                        जिस स्थान पर लछमीजगार रखना हो, वहाँ परम्परानुसार दीवार पर भित्तिचित्र अंकित किए जाते हैं। इसे गड़ लिखना कहा जाता है। चित्रांकन का कार्य लोक चित्रकारों द्वारा किया जाता है। लोक चित्रकार को "लिखनकार" या "चितरकाल" कहते सुना गया है। जमीन पर चावल के आटे से बाधा या बाना लिखा जाता है। बाधा या बाना लिखना यानी जमीन पर चित्रांकन। इसे छत्तीसगढ़ी प्रभावित क्षेत्र में चौक पुरना कहते हैं। इसी बाधा या चौक के ऊपर पीढ़ा यानी लकड़ी का आसन रखा जाता है। इस पीढ़ा के ऊपर डुमर अर्थात् गुलर की लकड़ी से बनी पायली यानी धान-चावल नापने के उपयोग में लायी जाने वाली मापिका में धान भर कर रखा जाता है। इसे नये कपड़े में ढक कर उसके चारों ओर धागा और फूल लपेट दिया जाता है। यही है अन्न लक्ष्मी। पायली के समानांतर दूसरी ओर एक कलश स्थापित किया जाता है। इस कलश पर एक नारियल रखा जाता है। यह होता है देवाधिदेव भगवान नरायन का प्रतीक। फिर दोनों के सामने एक और कलश स्थापित किया जाता है। इस कलश पर दीपक रखा जाता है, जो उत्सव की समाप्ति तक अनवरत् जलता रहता है। पूजा के लिए सरई अर्थात् साल के पत्तों से बनी पतरी यानी पत्तल का उपयोग किया जाता है।
                     अन्तिम दिन जो हमेशा गुरुवार ही होता है, बहुत ही धूमधाम से सम्पन्न होता है। बस्तर में गुरुवार को लक्ष्मीजी का दिन माना जाता है। इसी आधार पर इस दिन का नामकरण लखिमबार या लखिनबार हुआ है। लछमी, लखी या माहालखी अर्थात् महालक्ष्मी। गुरुवार के दिन गाँव के सारे लोग नए कपड़ों में सज-धज कर जगार में एकत्र होते हैं। चूड़ी-फुँदड़ी, तेल-कंघी, हल्दी-चावल, पान-सुपारी, साड़ी आदि पूजा एवं श्रृंगार की सामग्री लेकर बाजे-गाजे के साथ लोगों का समूह खेतों की ओर जाता है। इसे गोपपुर कहा जाता है । खेत यानी गोपपुर में धान की पूजा-अर्चना की जाती है और थाली में धान की बालियाँ लेकर जगार-स्थल पर वापस आते हैं। यहाँ पहले से ही माँडो यानी मण्डप बना होता है। इसी माँडो के नीचे लछमी-नरायन या लखी-नरायन का विवाह धूमधाम के साथ किया जाता है। विवाह की सारी रस्में पूरी की जाती हैं। हल्दी-तेल से एक-दूसरे को सराबोर कर दिया जाता है। निसान, ढोल, तुड़बुड़ी और मोहरी आदि वाद्ययन्त्रों की लय-ताल पर युवक-युवतियाँ, बच्चे-बूढ़े-----सभी भाव विभोर हो कर नृत्य करते हैं। रात में पुन: कथा-गायन होता है और दूसरे दिन फूल-पत्ते आदि नदी या तालाब में विसर्जित कर दिये जाते हैं। विसर्जन के बाद जगार-स्थल पर आकर कपड़ों में ढकी धान की पायली को देखते हैं। धान की मात्रा बढ़ चुकी होती है। यही इनके विश्वास को और बल देता है।
                    लछमीजगार की कथा में प्राय: क्षेत्रीय भिन्नता है। जगदलपुर क्षेत्र में गाए जाने वाले जगार ओड़िया के लक्ष्मीपुराण से उद्भूत हैं, जबकि कोंडागाँव क्षेत्र में गाए जाने वाले लछमीजगार पर पुराण की कोई छाप नहीं है। कोंडागाँव की गुरुमायँ सुखदई कोराम लक्ष्मीपुराण से उद्भूत जगार को जमखँदा यानी यमशाखा तथा लक्ष्मीपुराण से इतर प्रचलित जगार को बेसराखँदा यानी बाजशाखा के रूप में वर्गीकृत करती हैं। ऊपर वर्णित कथा-सार बेसराखँदा यानी बाजशाखा से लिया गया है।
               सरगीपालपारा (कोंडागाँव) की गुरुमायँ सुकदई कोराम, गागरी कोराम, सोमारी, रामदई और पलारी की गुरुमायँ कमला कोराम, घोड़सोड़ा की गुरुमायँ सनमती तथा बम्हनी की गुरुमायँ आसमती एवं जानकी द्वारा गाए जाने वाले लछमी जगार तथा डोंगरीगुड़ा (कोंडागाँव) की गुरुमायँ अम्बिका वैष्णव एवं मुलमुला की गुरुमायँ मँदनी पटेल द्वारा गाए जाने वाले लछमी जगार की कथा में बहुत अन्तर है। सरगीपालपारा एवं पलारी की उपर्युक्त गुरुमाओं द्वारा गाए जाने वाले लछमी जगार की कथा का उद्गम कोई भी पुराण या शास्त्र नहीं है। यह पूरी तरह मौलिक है। इसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं है। जबकि डोंगरीगुड़ा एवं मुलमुला की गुरुमाओं द्वारा गाए जाने वाले लछमी जगार में पौराणिकता का पुट है। ये गुरुमाएँ कहती हैं कि इनके द्वारा गायी जाने वाली कथा का उद्गम ओड़िया के लक्ष्मी पुराण से हुआ है। खोरखोसा, बस्तर, सिंगनपुर (जगदलपुर) आदि गाँवों में गाए जाने वाले लछमी जगार की कथा भी ओड़िया के लक्ष्मी पुराण से अनुप्राणित है। यह बात अलग है कि यत्र-तत्र पौराणिकता से इतर आख्यान भी इसमें जुड़ गए हैं तथापि कथा का उत्स तो ओड़िया का लक्ष्मी पुराण ही है। किन्तु रोचक तथ्य यह है कि संस्कृत में रचित पुराणों की सूची में लक्ष्मी पुराण का कोई उल्लेख नहीं मिलता। वस्तुत: निम्न 18 मुख्य एवं 2 अन्य, इस तरह कुल 20 पुराण बतलाए गए हैं : 1.विष्णु पुराण, 2.नारद पुराण, 3.भागवत् पुराण, 4.गरुड़ पुराण, 5.पद्म पुराण, 6.वराह पुराण, 7.मत्स्य पुराण, 8.कूर्म पुराण, 9.लिंग पुराण, 10.शिव पुराण, 11.स्कन्द पुराण, 12.अग्नि पुराण, 13.ब्रह्म पुराण, 14.ब्रह्मंड पुराण, 15.ब्रह्मवैवर्त पुराण, 16.मार्कण्डेय पुराण, 17.भविष्य पुराण, 18.वामन पुराण, 19.वायु पुराण, 20.हरिवंश पुराण। ओड़िया में प्रचलित लक्ष्मी पुराण (लख्मी पुराण) वस्तुत: ओड़िया साहित्यकार इन्द्रमणि साहू की रचना है। लगभग 150 पृष्ठों की इस पुस्तक का प्रकाशन 1965 ई.में शारदा प्रेस, कटक (ओड़िसा) से हुआ था। दरअसल रचनाकार ने 46 अध्यायों में संयोजित अपनी इस रचना का आधार या तो स्कन्द पुराण या फिर विष्णु पुराण को बनाया है, यह कहा जा सकता है। इधर हाल ही में ओड़िया का एक और लक्ष्मी पुराण देखने में आया है, जिसके लेखक का नाम इस पुस्तक में नहीं दिया गया है।
                      सरगीपालपारा एवं पलारी की गुरुमाओं की गुरु थीं सरगीपालपारा (कोंडागाँव) की आयती एवं दुआरी। आयती एवं दुआरी की गुरु थीं बम्हनी (कोंडागाँव) की मिरगान जाति की एक महिला। संयोग से ये सभी गुरुमाएँ अछूत वर्ग से ही सम्बन्ध रखती थीं।
                         इन गुरुमाओं द्वारा गायी जाने वाली कथा में इस अन्तर का एक कारण जो मेरी समझ में आ रहा है, वह यह हो सकता है कि चूँकि सरगीपालपारा, पलारी एवं घोड़सोड़ा की गुरुमाएँ अछूत वर्ग की हैं अत: पुराणों तक इनकी पहुँच न होने के कारण इनकी कथा में कोई भी पौराणिक तथ्य नहीं हैं। इसी तरह डोंगरीगुड़ा की गुरुमायँ अम्बिका वैष्णव, मुलमुला की गुरुमायँ मँदनी पटेल, खोरखोसा की गुरुमायँ रैमती, गनमती एवं सरसती तथा बस्तर के सुकदेव और जयदेव एवं सिंगनपुर की आसाबाई आदि गुरुमाएँ सवर्ण वर्ग से सम्बन्धित होने के कारण पुराणों तक इनकी पहुँच सहज थी, इसलिए इनकी कथा में पौराणिकता की स्पष्ट छाप दिखलायी पड़ती है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पुरातन काल में अछूत वर्ग के लिए न केवल शास्त्रों का अध्ययन अपितु उनका श्रवण भी वर्जित था। इससे यह तथ्य भी उभर कर सामने आता है कि कथा तो इनकी अपनी है किन्तु पात्र पौराणिक हैं। मेरी इस धारणा की पुष्टि बाँजाराजा नामक एक हल्बी लोककथा से भी होती है। इस कथा के नायक-नायिका के नाम अलग-अलग वर्ग के कथा-वाचकों की कथाओं में आश्चर्य जनक रूप से भिन्न-भिन्न हैं। बाँजाराजा नामक इस लोककथा में नायिका मँजपुर (मृत्यु लोक) के एक सन्तानहीन राजा (बाँजाराजा) के रूप पर मोहित हो कर अपने पति का त्याग कर उस बाँजाराजा के साथ भाग जाती है। कथा वही है किन्तु अछूत वर्ग द्वारा कही गयी इस कथा में नायिका का नाम लछमी (लक्ष्मी) और नायक का नाम नरायन (नारायण) है, जबकि सवर्णों द्वारा कही गयी इसी कथा में नायिका का नाम सुँदरी बाबी तथा नायक का नाम धनुरजय है। इस लोककथा से दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली यह कि, अछूत वर्ग के बीच लछमी और नरायन उस वर्ग के आचरण के अनुरूप आदर्श पात्र हैं। दूसरी बात यह कि निम्न वर्ग की सामाजिक सोच रूढ़िवादिता से कोसों दूर है। उनके विचारों में खुलापन है। वहाँ नारी स्वतन्त्र है। किन्तु साथ ही एक प्रश्न भी कि क्या यही स्वतन्त्रता है या कि स्वच्छन्दता?
                   इस महाकाव्य से बस्तर के इतिहास पर भी दृष्टिपात किया जा सकता है। दरअसल इसे एक कहानी के रूप में न देख कर इतिहास के रूप में देखना चाहिए। और इस महाकाव्य के माध्यम से इतिहास यही बतलाता है कि इस अंचल में युद्ध की स्थिति नहीं के बराबर ही रही होगी। कहने का तात्पर्य यह कि यह अंचल शान्तिप्रिय रहा होगा। यह महाकाव्य यह तथ्य भी प्रकाशित करता है कि इस अंचल में बहु पत्नी प्रथा रही है और यह भी कि सौतियाडाह से यह अंचल भी अछूता नहीं रहा। नरायन राजा की इक्कीस रानियों द्वारा नयी रानी माहालखी पर ढाए गए जुल्म-ओ-सितम यही तो बतलाते हैं।
                आइये, देखते हैं इस समृद्ध विरासत की एक छोटी-सी झलक। इसका आयोजन एवं अभिलेखन मेरे द्वारा 2008 में अपने निवास पर किया गया था। आयोजन के लिये संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ के पुरातत्व एवं सस्कृति संचालनालय से आर्थिक अनुदान प्राप्त हुआ था, जिसके लिये मैं संचालनालय का आभारी हूँ। विशेषत: संचालनालय के तत्कालीन आयुक्त श्रद्धेय प्रदीप पंत जी तथा उप संचालक श्री राहुल कुमार सिंह जी का। गुरुमायें थीं कोपाबेड़ा की स्व. बरातिन पटेल और बुधनी पटेल तथा जामकोट पारा की देवती पटेल : 






Wednesday, 14 November 2012

जोजोली गीत (लोरी)



मुझे लगता है कि लोक-भाषाओं में लोरी का चलन सम्भवत: आदिकाल से रहा आया है। और शायद यही पहला लोक गीत भी रहा हो। कारण, मेरी समझ में माता के पास बच्चे को सुलाने या बहलाने के केवल दो ही उपाय रहे होंगे। पहला यदि बच्चा भूख से रो रहा है तो उसे दुग्ध-पान कराना, जिससे उसका पेट भर जाये और वह सो जाये। दूसरा, यदि भरपेट दुग्ध-पान करने के बाद भी वह सोने को तैयार नहीं है और मचल रहा है तो उसे सुलाने या बहलाने के लिये लोरी सुनाना। उसे सुलाना दो कारणों से जरूरी है। पहला, उसे आराम मिल सके। दूसरा, यह कि यदि बच्चा सोयेगा नहीं तो माता घर के बाकी काम कब और कैसे निबटायेगी? 
बस्तर अंचल के हल्बी-भतरी-गोंडी परिवेश में कुछ माताएँ जब यह देखतीं कि बच्चा लोरी सुनाने पर भी नहीं सो रहा है या कि माता को किसी और काम को प्राथमिकता के आधार पर निबटाना है तो वे बच्चों को ऊपर वर्णित दूसरे कारण से सुलाने के लिये उसे "हापू (अफीम)" चटा दिया करती रही हैं, बावजूद इसके कि इस उपाय के कई दुष्परिणाम देखने में आते रहे हैं। खैर, फिलहाल यह निर्धारित करना कि कौन सा लोक गीत पहला रहा होगा या किस तरह से किस गीत का जन्म हुआ होगा, मेरा अभीष्ट नहीं है। कारण, यह तो विद्वानों और आचार्यों का काम है; मुझ जैसे विद्यार्थी का नहीं। इसीलिये इस चर्चा को यहीं विराम देते हैं और बात करते हैं मुद्दे की। 
और मुद्दे की बात यह है कि इन दिनों यह गीत, यानी लोरी का गीत प्राय: सुनने में नहीं आता। कोई एकाध ऐसी महिला मिल जाये जो यह गीत जानती हो तो गनीमत समझिये। किन्तु यह मेरा सौभाग्य ही है कि इसी वर्ष मार्च के महीने की तीसरी तारीख को जब मैं हमारे मोहल्ले सरगीपाल पारा की लोक गायिका गुरुमायँ सुकदई कोराम के साथ अपनी कार्यशाला में बैठा अपने कैनबरा (आस्ट्रेलिया) स्थित मित्र क्रिस ग्रेगोरी से स्काइप (skype) पर बातें कर रहा था कि पता नहीं किस मूड में आ कर गुरुमायँ सुकदई कोराम यह गीत अनायास ही गा उठीं। मैंने बिना समय गँवाये इस गीत को टेप कर लिया और उधर भाई क्रिस ध्यानमग्न हो कर सुनते रहे। हम दोनों ही आनन्द से भर गये।

मैं, मेरे अनुज खेम और हमारे प्रिय मित्र क्रिस ग्रेगोरी गुरुमायँ सुकदई कोराम को "बुबू" कहते हैं। "बुबू" का अर्थ हल्बी में बुआ और मामी दोनों ही होता है। यह वही गुरुमायँ सुकदई कोराम हैं, जिनके गाये "लछमी जगार" के गद्यात्मक संक्षेपीकृत रूप का प्रकाशन 2003 में आस्ट्रेलियन नेशनल युनीवर्सिटी के सहयोग से हो चुका है और जिसकी देश और देश से बाहर विदेशों में भी जम कर चर्चा हुई है। 
लगभग 80 वर्षीय गुरुमायँ सुकदई कोराम न केवल "लछमी जगार" का गायन करती रही हैं अपितु वे "तीजा जगार" भी गाती रही हैं। अब तक उन्होंने दोनों जगारों का गायन 100 से भी अधिक बार किया है। इसके साथ ही सैकड़ों लोक गीत आज भी उन्हें उसी तरह याद हैं, जैसे युवावस्था में थे।

और अब प्रस्तुत है वह लोरी जिसे वे अनायास ही गा उठीं थीं :

जोजोली जोली रे बोंडकू, जोजोली जोली काय,
जोजोली जोली रे बुटकी,  जोजोली जोली काय।
तोर बाबा गला रे बोंडकू, ऐतवार हाटो,
तोर काजे आनी देउआय, तोर सुन्दर नाटो।
जोजोली जोली रे बुटकू, जोजोली जोली रे,
जोजोली जोली रे भाई, जोजोली जोली रे। 
उसना चाउर रला रे बोंडकू, चिवड़ा पलटी देली गा,
दतुन-पतर चाबी रे भाई मयँ चे खाई देली काय।
जोजोली जोली रे भाई, जोजोली जोली रे
जोजोली जोली रे बँधु, जोजोली जोली रे।
तोर आया गला रे बोंडकू, खोरी-खोरी बुली काय,
तोर काजे आनी देउआय तोर सुन्दर जुली काय। 
जोजोली जोली रे बोंडकू, जोजोली जोली रे,
जोजोली जोली रे भाई, जोजोली जोली रे।
ऐतवार हाट ले बाबू, आनुन दिले लाड़ू,
तुचो काजे घेनुन दिले मयँ, चाँदी चो खाड़ू। 
जोजोली जोली रे बुटकू, जोजोली जोली रे,
जोजोली जोली रे भाई, जोजोली जोली रे।
तुके घेनुन दिले भाई, टेरलिंग चो कुड़ुता,
तुचो काजे मोचो बन्धु, जाएसे मोके सुरुता। 
तारी-नारी नाना रे बाबू, ना नारी नाना रे, 
तारी-नारी नारी रे बँधु, ना नारी नाना रे।
(इस गीत से यही ध्वनित होता है कि बच्चे के माता-पिता दोनों ही अपने-अपने काम से घर से बाहर गये हुए हैं और बच्चे को उसकी दादी लोरी गा कर सुला रही है। वह बच्चे से कह रही है : सो जा रे बोंडकू, सो जा। सो जा री बुटकी, सो जा। हे बोंडकू! तेरे पिता रविवारीय बाजार गये हैं। वे वहाँ से तुम्हारे लिये बहुत सुन्दर नाट (नृत्य) ले कर आएँगे। सो जा रे बुटकू, सो जा। सो जा रे भाई, सो जा। उसना चावल था, रे बोंडकू। मैंने उसे चिवड़ा के  बदले दे दिया। फिर दतौन आदि से निवृत हो कर मैंने स्वयं ही खा लिया। सो जा रे भाई, सो जा। सो जा रे बन्धु, सो जा। तेरी माँ गयी है रे बोंडकू, गली-गली घूमने। तुम्हारे लिये वह ले कर आएगी बहुत ही सुन्दर झूला। सो जा रे बोंडकू, सो जा। सो जा रे भाई, सो जा। हे बाबू! रविवारीय बाजार से मैं तुम्हारे लिये लड्डू ले कर आयी। तुम्हारे लिये मैं चाँदी के खाड़ू (कंगन) भी लायी। सो जा रे बुटकू, सो जा। सो जा रे भाई, सो जा। हे भाई! मैंने तुम्हारे लिये "टेरीलीन" का कुर्ता खरीद दिया। और अब मुझे तुम्हारी याद सता रही है। तारी-नारी नाना रे बाबू, ना नारी नाना रे।)
टिप्पणी : 01. बोंडकू, बुटकी, बुटकू : नामवाची संज्ञा। इन्हें "बाखना नाम" या "बाखना नाव" कहा जाता है। बाखना का आशय है द्विअर्थी और उपहासात्मक। बोंडकू का शाब्दिक अर्थ है वह बच्चा या व्यक्ति जिसकी नाभि उभरी हुई हो। बुटकी का शाब्दिक अर्थ है कद में छोटी या बौनी। इसी तरह बुटकू का अर्थ है कद में छोटा या बौना। 
02. उसना चावल : धान को उबाल कर सुखाया जाता है और फिर उसके सूख जाने पर उसे कूटा जाता है। इस विधि से प्राप्त चावल ही उसना चावल कहलाता है। 
03. तारी-नारी नाना, तारी-नारी नारी, ना नारी नाना : गीत की तान।



गीत-प्रकार : लोक गीत
गीत-वर्ग : 02- सांस्कारिक गीत (अ- शिशु गीत, 02- जोजोली गीत (झूले का गीत या लोरी),
गीत-प्रकृति : अकथात्मक
गीतकार : पारम्परिक
भाषा : हल्बी-भतरी
गायिका : गुरुमायँ सुकदई कोराम, (सरगीपाल पारा, कोंडागाँव, बस्तर-छ.ग.)
ध्वन्यांकन : 07 मार्च 2012
ध्वन्यांकन एवं संग्रह : हरिहर वैष्णव 


Tuesday, 6 November 2012

भादवँ जातरा


क्षमा करें। प्रमाद वश यह पोस्ट अगस्त में नहीं जा सका था। बहरहाल, देर आयद दुरुस्त आयद की तर्ज पर नवम्बर में सही, लेकिन पोस्ट को तो जाना ही है। 
बुधवार, 15 अगस्त (2012) की रात 10 बजे के आसपास बहीगाँव निवासी भाई घनश्याम सिंह नाग जी का फोन आता है, "पीना-खाना हो गे, गा (पीना-खाना हो गया, क्या)?" 
मैं जवाब देता हूँ, "हो गे भइया। पी-खा के एदे अब्भी च उठे हववँ अउ बुता म जोता गे हों (हो गया, भैया। पी-खा कर अभी ही उठा हूँ और काम में लग गया हूँ)।"
"पी-खा के काय बुता ला करत हस गा? कवि सम्मेलन म कविता सुने बर नइँ आवस? (पी-खा कर कौन-सा काम कर रहे हो? कवि-सम्मेलन में कविता सुनने के लिये नहीं आओगे)?" घनश्याम नाग जी कहते हैं।
"पीये-खाये के पाछू च्च साहित्त के बुता ह होथे, तेला तैं नइँ जानस जी? तहूँ त साहित्तकार आस काय, भाई? अउ कवि सम्मेलन म आतेवँ के नइँ आतेवँ, तैं ह तो मोला नेवता च्च नइँ दे हवस भाई। अब अतेक रात कुन कोंडागाँव ले केसकाल पहुँचना तो "टेढ़ी खीर" हे गा मोर बर (पीने-खाने के बाद ही साहित्य का काम होता है, इसे आप नहीं जानते, जी? आप भी तो साहित्यकार हैं न, भाई? और फिर मैं कवि-सम्मेलन में आता या नहीं, आपने तो मुझे न्यौता ही नहीं दिया है, भाई। अब इतनी रात में कोंडागाँव से केसकाल पहुँचना तो मेरे लिये टेढ़ी खीर है)।" मेरा जवाब।
"पहिली बात तो ये आय कि मैं ह कइसे नेवता देहूँ गा तुम्हर गाँव के कवि-सम्मेलन बर? अरे बबा! मैं तो खुदे नेवता पा के आये हववँ गा। तोरे गाँव म तो होवत हावे कवि सम्मेलन ह। कोंडागाँव के टाऊन हाल म। तैं नइँ जानस काय (पहली बात तो यह है कि मैं भला आपके गाँव में हो रहे कवि-सम्मेलन का न्यौता कैसे दे सकता हूँ? अरे बाबा! मैं तो स्वयं ही न्यौता पा कर आया हुआ हूँ। आपके ही गाँव में हो रहा है कवि-सम्मेलन। कोंडागाँव के टाऊन हाल मे। आप नहीं जानते क्या)?" नाग जी कहते हैं। और इस तरह हास-परिहास से भरे बातचीत से पता चलता है कि स्वतन्त्रता-दिवस के अवसर पर प्रति वर्ष की भाँति इस वर्ष भी शासकीय आयोजन के तहत नगर के "टाऊन हॉल" में कवि सम्मेलन आयोजित है। इसी दरम्यान वे बताते हैं कि केसकाल घाट में प्रतिष्ठित "देवी माँ तेलीन सत्ती" से सम्बन्धित उनकी बहु प्रतीक्षित पुस्तिका का विमोचन शनिवार, 18 अगस्त 2012 को केसकाल के श्रीमाँ भंगाराम देवी के मन्दिर-प्रांगण में होना है। और इसके पहले कि और कुछ बात हो पाती, उनका फोन कट जाता है। 
फिर शनिवार, 18 अगस्त 2012 को अपरान्ह 11 बजे के आसपास फिर से उनका फोन आता है। फोन पर वे मुझे विमोचन कार्यक्रम में सम्मिलित होने का न्यौता देते हैं और कोंडागाँव के साहित्यकारों तथा साहित्य-प्रेमियों, संस्कृतिकर्मियों आदि के मोबाइल नम्बर पूछते हैं ताकि वे उन सब को भी आमन्त्रित कर सकें। मैं उन्हें सभी के नम्बर यहाँ-वहाँ से खोज-खोज कर देता हूँ। लेकिन नम्बर देना इतना सहज नहीं होता। बारम्बार मोबाइल "डिस्कनेक्ट" हो जाता। फिर वे मुझसे कहते हैं कि "डिस्कनेक्टीविटी" के इस आलम में उन्हें नहीं लगता कि वे सभी को यथासमय आमन्त्रित कर पायेंगे। इसलिये वे मुझसे आग्रह करते हैं कि मैं उनकी ओर से यहाँ के लोगों को आमन्त्रण दे दूँ। मैं उनकी आज्ञा का पालन करते हुए सभी से सम्पर्क करता हूँ। कुछ लोग लगातार हो रही भारी बारिश के कारण तो कुछ लोग कुछ अन्य कार्यों में व्यस्तता के कारण जाने में असमर्थता जताते हैं। किसी तरह सर्वश्री महेश पाण्डे जी (कवि), खेम वैष्णव (लोकचित्रकार), रमेश नायडू (छायाकार), रामेश्वर शर्मा जी (साहित्य-प्रेमी) और मैं तैयार हो जाते हैं। एक गाड़ी की आनन-फानन में व्यवस्था होती है और हम लोग 03.00 बजे कोंडागाँव से चल पड़ते हैं। बारिश अभी भी जस की तस झमाझम हो रही है। कोई मुरव्वत नहीं। गाड़ी छोटी है और उसमें चालक को मिला कर कुल छह लोग। मुझे छोड़ कर बाकी सभी ड्योढ़े-दुगुने। चालक के साथ वाली सीट पर मेरे साथ रमेश नायडू ठस जाते हैं। फिर वे देखते हैं कि उनके कारण मुझे परेशानी हो रही है तो वे कुछ इस तरह बैठ जाते हैं कि मेरी परेशानी कुछ कम हो जाये। बहरहाल, हम कोंडागाँव से चल पड़ते हैं। अभी हम कोंडागाँव से कुछ ही दूर चले होंगे कि महेश पाण्डे जी अपनी एक कविता सुनाना चाहते हैं। इस पर मैं परिहास करते हुए कह उठता हूँ, "ठीक है। आप अपनी कविता सुनाइये और मैं यहीं रास्ते में ही गाड़ी से उतर जाता हूँ।" भाई रामेश्वर शर्मा मेरे इस कथन को गम्भीरता से लेते हैं और वे मुझसे निवेदन करने लगते हैं कि मैं ऐसा न करूँ। दरअसल शर्मा जी को यह नहीं पता था कि महेश पाण्डे जी और मेरे बीच कुछ इसी तरह के हास-परिहास के सम्बन्ध हैं। थोड़े से परिहास के बाद महेश पाण्डे जी अपनी कविता सुनाने लगते हैं। कविता हास्य-व्यंग्य-विनोद से परिपूर्ण है। सभी को उसमें आनन्द आता है। कविता में कुछ ऐसी पंक्तियाँ भी हैं कि बीच-बीच में बेसाख़्ता ठहाके भी लगने लगते हैं। 50 से 65 आयु वर्ग के हम लोगों में पता नहीं किधर से लड़कपन आ घुसता है। गम्भीरता न जाने कहाँ मुँह छिपा लेती है और बचकानी हरकतें सिर उठाने लगती हैं। हमारे साथ-साथ वाहन-चालक भी मजे लेने लगता है। ऐसे में मुझे लगने लगता है कि इस तरह के कार्यक्रम बीच-बीच में बनते रहने चाहिये। इससे एकरसता टूटती है। दिन-रात काम... काम... और काम। ये भी क्या बात हुई! 
बहरहाल, इस तरह हँसी-ठिठोली करते हम पहुँच जाते हैं केसकाल। वहाँ भी बारिश का वही आलम। लेकिन तेज बारिश के बावजूद श्रीमाँ भंगाराम मन्दिर की ओर जाने वाली सड़क पर भारी भीड़ है। गाँव-गाँव से लोग अपने देवी-देवताओं के प्रतीकों के साथ वहाँ पहुँच रहे हैं। डोलियाँ, आँगा, छतर, लाट-बैरक, डँगई, तरास आदि लिये लोगों का रेला। सिरहों पर देवियाँ आरूढ़ हैं और वे हिलते-डोलते, खेलते-कूदते श्रीमाँ भंगाराम देवी के मन्दिर की ओर बढ़े चले जा रहे हैं। चाहे भारी बारिश हो या आँधी-तूफान! ये आस्था को नहीं डिगा सकते। यदि डिगा पाते तो शायद यहाँ इक्के-दुक्के लोग ही पहुँचते। किन्तु ऐसा नहीं था। भीड़ इतनी थी कि हम अपनी गाड़ी मन्दिर से लगभग एक किलोमीटर पहले ही छोड़ने को विवश हो गये थे। मन्दिर पहाड़ी की तलहटी पर है। हम सभी उधर चल पड़ते हैं। रमेश नायडू फोटो खींचना चाहते हैं किन्तु बारिश की वजह से उन्हें परेशानी हो रही है। तो भी किसी तरह वे दो-चार फोटो ले ही लेते हैं।
हम किसी तरह भीड़ में से रास्ता बनाते हुए पहुँच जाते हैं मन्दिर में और वहाँ हमारी निगाहें भाई घनश्याम सिंह नाग और "बस्तर-बन्धु" (काँकेर) के सम्पादक श्री सुशील शर्मा जी को खोजने लगती हैं। किन्तु चारों ओर छाते ही छाते और देवी-देवताओं के प्रतीकों के बीच उन्हें खोज पाना हमारे लिये कठिन हो जाता है। मैं और मेरे अनुज खेम मोबाइल पर इन दोनों से सम्पर्क करने का प्रयास करते हैं किन्तु "टावर" की अनुपलब्धता के कारण सफल नहीं हो पाते। तब खेम हम बाकी लोगों को मन्दिर के दाहिने ओर बने एक शेड में छोड़ कर नाग भाई और शर्मा जी को खोजने निकल पड़ते हैं। बड़ी मुश्किल से उनकी उनसे भेंट होती है और फिर वे वापस हम तक आ कर हमें कार्यक्रम-स्थल तक ले जाते हैं, जहाँ भाई घनश्याम सिंह नाग की पुस्तिका "बस्तर के केसकाल क्षेत्र की धार्मिक आस्था और विश्वास की प्रतीक देवी माँ तेलीन सत्ती" का विमोचन होना था।
इस पुस्तिका के विमोचन के लिये यह बड़ा ही अच्छा अवसर था। कारण, आज यहाँ का प्रसिद्ध "भादवँ जातरा" था। और इसी "भादवँ जतरा" तथा इससे जुड़े अन्य प्रसंगों पर ही यह पुस्तिका केन्द्रित है। तय कार्यक्रम के अनुसार पुस्तिका का विमोचन देवी-देवताओं की गरिमामयी उपस्थिति में क्षेत्रीय विधायक श्री सेवक राम नेताम के हाथों हुआ। कुल मिला कर 36 पृष्ठीय इस पुस्तिका में सम्मिलित विवरण को देख कर "गागर में सागर" मुहावरा चरितार्थ होता दिखायी पड़ता है। आर्ट पेपर पर कलात्मक रूप से छपी इस पुस्तिका, जिसका मूल्य महज 20 रुपये है, को प्रकाशित किया है "श्रीमाँ भंगाराम देवी समिति" केसकाल ने और इसके सह प्रकाशक हैं "बस्तर-बन्धु", काँकेर के सम्पादक सुशील शर्मा। 
विधायक केसकाल श्री नेताम ने मुख्य अतिथि की आसन्दी से उपस्थित जन को सम्बोधित करते हुए कहा कि यह पुस्तिका निश्चित रूप से बस्तर की संस्कृति को प्रकाश में लाने का महत्त्वपूर्ण प्रयास है। उन्होंने इसके लेखन के लिये लेखक घनश्याम सिंह नाग तथा प्रकाशन के लिये "श्रीमाँ देवी भंगाराम समिति" एवं "बस्तर बन्धु" के सम्पादक सुशील शर्मा का आभार व्यक्त किया। 
अब यदि "भादवँ जातरा" अथवा श्रीमाँ भंगाराम देवी के विषय में बात न की जाये तो बात अधूरी न रह जायेगी? तो चलिये, बात करते हैं "भादवँ जातरा" की भी और श्रीमाँ भंगाराम देवी की भी। केसकाल स्थित श्रीमाँ भंगाराम देवी को नौ परगनों के देवी-देवताओं का मुखिया (राजा) और न्यायाधीश होने का गौरव प्राप्त है। नौ परगनों के जिस किसी भी देवी अथवा देवता ने लोगों के लिये किसी भी तरह की परेशानी खड़ी की तो उसे दण्डित करने का अधिकार केवल और केवल श्रीमाँ भंगाराम देवी को ही है। प्रति वर्ष भाद्रपद मास में केसकाल में आयोजित होने वाला यह "भादवँ जातरा" दरअसल उसी वार्षिक न्यायालय के लगने का अवसर होता है।
विस्तार में न जाते हुए इस 36 पृष्ठीय पुस्तिका का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है :

रवाना 






किसी गाँव में या परिवार विशेष में कोई दैवीय प्रकोप होता है तब देवता बिठा कर सिरहा के सिर पर अपने इष्ट देव को आमन्त्रित कर उनके द्वारा यह ज्ञात किया जाता है कि पूरे गाँव वालों को या किसी परिवार विशेष को कौन देव परेशान कर रहा है। जिस देवता का नाम सामने आता है उस देवता को विधान-पूर्वक श्रीमाँ भंगाराम देवी की ओर रवाना कर दिया जाता है। रवाना में सम्बन्धित देवी के प्रतीक-चिन्ह (लाट, डोली या अन्य सामग्री) को सम्बन्धित गाँव की सरहद के बाहर निकाल दिया जाता है। इसी को "रवाना" कहा जाता है। दूसरे गाँव के निवासी जिसकी सरहद में "रवाना" आया है, वे उस "रवाना" को अपने गाँव की सरहद के बाहर पहुँचा देते हैं। फिर तीसरे गाँव, चौथे गाँव वाले यही प्रक्रिया अपनाते हैं और "रवाना"-सामग्री उपर्युक्त प्रक्रिया से केसकाल घाट स्थित श्रीमाँ भंगाराम देवी तक पहुँच जाती है। मान्यता है कि जो भी देवी-देवता रवानगी से भंगाराम माई के दरबार तक पहुँच जाते हैं, वे फिर कभी किसी को नहीं सताते। कारण, श्रीमाँ भंगाराम देवी उन्हें कठोर नियन्त्रण में रखती हैं। "रवाना" में कभी-कभी मुर्गा-बकरा, सुअर या बछिया आदि जीव-जन्तु भी होते हैं जिन्हें गाँव की सरहद के पार बाँध दिया जाता है और उपर्युक्त प्रक्रिया से गुजरते हुए वे जीव-जन्तु भी श्रीमाँ भंगाराम देवी के दरबार तक पहुँच जाते हैं। 
परेशान करने वाले देवी-देवता को किसी सामग्री या जीव-जन्तु के माध्यम से ही श्रीमाँ भंगाराम देवी के दरबार तक पहुँचाया जाता है। कभी यह सामग्री सोना-चाँदी, तांबा, सिक्के आदि के रूप में होती है तो कभी पत्थर की चक्की, आभूषण के रूप में। यहाँ तक कि बैलगाड़ी भी "रवाना"-सामग्री हो सकती है। उपर्युक्त रवाना-सामग्री को भादवँ जातरा के दिन मंदिर के पास एक निर्धारित स्थान में विधान-पूर्वक फेंक दिया जाता है। जो जीव-जन्तु रवाना के रूप में लाये जाते हैं उन्हें भी यहाँ जीवित फेंक दिया जाता है। उनकी बलि नहीं दी जाती। काँसे की थाली, लोटा, चाँदी के पुराने सिक्के, पुराने सिक्कों की माला, मंगल-सूत्र आदि सोना-चाँदी के अनेक कीमती आभूषण अब भी इस निर्धारित स्थान पर फेंक दिये जाते हैं, जिन्हें ग्रामीण दुबारा छूने से भी डरते हैं। 
जैसा की पूर्वोक्त है, श्रीमाँ भंगाराम देवी को पूरे नौ परगनों के देवी-देवताओं का मुखिया माना जाता है। इसलिये इन नौ परगनों में कहीं भी देवी-देवताओं से सम्बन्धित विवाद उत्पन्न होने पर उसका फैसला राजा अर्थात् श्रीमाँ भंगाराम देवी को ही करना पड़ता है। उल्लेखनीय है कि इस देवी का फैसला सभी देवी-देवता, सिरहा-पुजारी एवं आम जनता को मान्य होता है। 
नौ परगनों के गाँव में किसी भी बीमारी या प्राकृतिक संकट का निवारण यदि स्थानीय देवी-देवता नहीं कर पाते तो श्रीमाँ भंगाराम देवी के पास कष्ट-निवारण हेतु गुहार लगाते हैं। यह बीमारी अथवा दैवीय प्रकोप व्यक्तिगत, पारिवारिक या सामुदायिक अथवा ग्राम्य-स्तरीय भी हो सकता है। 
यदि किसी व्यक्ति, परिवार या गाँव को कोई दुष्ट प्रवृत्ति का देवता परेशान करता है तो उसे श्रीमाँ भंगाराम देवी के दरबार में पहुँचा दिया जाता है। मान्यता है कि श्रीमाँ भंगाराम देवी उस दुष्ट प्रवृत्ति के देवी-देवता को अपने नियन्त्रण में रखती हैं। यदि किसी परिवार की कुल-देवी अपने ही आराधकों को कष्ट देती हैं तो उसके लिये भी श्रीमाँ भंगाराम देवी से गुहार की जाती है। तब श्रीमाँ भंगाराम देवी उस देवी अथवा देवता को उसके अपराध के अनुसार 05 या 10 वर्ष अथवा अनिश्चित काल के लिये कारागार में डाल देती हैं। 
कारागार में बंद देवी अथवा देवता का दण्ड-काल समाप्त होने पर वे इसकी सूचना जिस कुल की वह देवी या देवता है, उस परिवार को देती हैं तब सम्बन्धित परिवार के सदस्य श्रीमाँ भंगाराम देवी के पास पुन: आ कर अपने देवी-देवता को वापस ले जाते हैं और उसे घर में स्थापित कर विधि-विधान के साथ उसकी पूजा-अर्चना करते हैं। क्षेत्र में नये देवी-देवता का जन्म होने पर उसे श्रीमाँ भंगाराम देवी को अपना परिचय देना पड़ता है। न केवल इतना अपितु उसे परीक्षा की प्रक्रिया से भी गुजरना पड़ता है। परीक्षा में सफल सिद्ध हो जाने पर उस देवी को श्रीमाँ भंगाराम देवी द्वारा उपयुक्त मान लिये जाने पर ही उस देवी अथवा देवता की पूजा विधान-पूर्वक की जाती है तथा उसे देवताओं के समूह में शामिल माना जाता है।
इस पुस्तिका की प्राप्ति के लिये लेखक से उनके मोबाइल नम्बर 9424277354 (बहीगाँव), तथा सह प्रकाशक सुशील शर्मा (काँकेर) से उनके मोबाइल नम्बर 9425259049 पर सम्पर्क किया जा सकता है। इसके साथ ही यह पुस्तिका केसकाल घाट में स्थित तेलिन सती माँ के मन्दिर एवं मन्दिर-परिसर में स्थित नारियल-फूल-अगरबत्ती की सभी दुकानों में भी विक्रय हेतु उपलब्ध है। 


Wednesday, 31 October 2012

संस्कार धानी की अनूठी पहल



बस्तर अंचल की संस्कार धानी के नाम से पहचान बनाये रखने वाले कस्बे कोंडागाँव में आज से एक अनूठी साहित्यिक पहल की गयी है। इस पहल के सूत्रधार हैं डॉ. राजाराम त्रिपाठी। अपने हर्बल उत्पादों के लिये न केवल बस्तर अंचल अपितु देश-विदेश में जाने जाने वाले डॉ. त्रिपाठी एक किसान के साथ-साथ स्वयं साहित्यानुरागी और कवि भी हैं। किन्तु इस पोस्ट में हम डॉ. त्रिपाठी के विषय में नहीं बल्कि उनके द्वारा की गयी अनूठी पहल के विषय में बात कर रहे हैं। डॉ. त्रिपाठी के विषय में विस्तार से किसी अगले पोस्ट में बात होगी।
बहरहाल, यह पहल है कोंडागाँव के प्रत्येक साहित्यकार और साहित्य-प्रेमी का जन्म दिवस एक साहित्यिक माहौल में मनाये जाने की। इसकी शुरुआत की गयी आज 31 अक्टूबर 2012 को छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद् के प्रान्तीय उपाध्यक्ष एवं बस्तर अंचल के सुप्रसिद्ध कवि एवं व्यंग्यकार श्री चितरंजन रावल के 80 वें जन्म दिवस के साथ।
दंतेश्वरी हर्बल एस्टेट के सभागार में आयोजित छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद् की कोंडागाँव जिला इकाई द्वारा आयोजित इस अनूठे कार्यक्रम की अध्यक्षता की इस नगर में शिक्षा एवं संस्कृति के संरक्षक एवं पोषक रहे आये आदरणीय टी. एस. ठाकुर ने जबकि मुख्य अतिथि थे श्री चितरंजन रावल एवं विशिष्ट अतिथियों की आसंदी पर थे श्री हेमसिंह राठौर एवं डॉ. त्रिपाठी। 
सर्वप्रथम सर्वश्री चितरंजन रावल, टी. एस. ठाकुर, हेमसिंह राठौर एवं डॉ. राजाराम त्रिपाठी द्वारा माँ शारदे के चित्र के समक्ष दीप-प्रज्ज्वलित किया गया और पूजा-अर्चना की गयी। इसके पश्चात् मंचासीन अतिथियों का पुष्प-गुच्छ से सम्मान कर कार्यक्रम को आगे बढ़ाया गया। दर्शक-दीर्घा में बैठे साहित्यानुरागियों एवं कवियों का भी रोली-चंदन लगा कर स्वागत किया गया। कार्यक्रम का संचालन करते हुए बस्तर अंचल के सुप्रसिद्ध कवि एवं व्यंग्यकार श्री सुरेन्द्र रावल ने आज के कार्यक्रम की जानकारी देते हुए अपने अग्रज श्री चितरंजन रावल से निवेदन किया कि वे अपनी काव्य-यात्रा के विषय में दो शब्द कहें। श्री चितरंजन रावल ने अपनी काव्य-यात्रा के विषय में संक्षेप में बताया।
श्री चितरंजन रावल ने अपने उद्बोधन में कहा कि उन्होंने अपने जीवन के 56 वर्षों में जो कुछ भोगा, देखा, सुना; विशेषकर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में, उसे काव्य-सुमनों में गूँथने का प्रयास किया है। उन्होंने बताया कि उन्होंने बिना किसी पूर्वाग्रह के, बिना किसी विचार-धारा की प्रतिबद्धता के पूरी ईमानदारी के साथ जैसा देखा-सुना-समझा उसे बिना लाग-लपेट के काव्य-रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया। 
इसके बाद श्री टी. एस. ठाकुर एवं श्री हेमसिंह राठौर ने उनके प्रति आशीर्वचन कहे फिर उनके सम्मान में एक संक्षिप्त काव्य-गोष्ठी का आयोजन हुआ। काव्य-गोष्ठी में सर्वश्री चितरंजन रावल, हेमसिंह राठौर, सुरेन्द्र रावल, यशवंत गौतम, हरिहर वैष्णव, हरेन्द्र यादव, महेश पाण्डे, महेन्द्र जैन, फज़ल खान, राजाराम त्रिपाठी, उमेश मण्डावी, श्री विश्वकर्मा और सुश्री बरखा भाटिया ने अपनी कविताएँ सुनायीं। इस अवसर पर नगर के प्रबुद्ध जनों के साथ हरिभूमि दैनिक के ब्यूरो चीफ श्री जमील खान भी विशेष रूप से उपस्थित थे। 
श्री चितरंजन रावल का जन्म 31 अक्टूबर 1933 को बस्तर जैसे एक पिछड़े जिले के जगदलपुर कस्बे में हुआ। यहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई और यहीं उनके मन में अपने वरिष्ठ लोगों के सान्निध्य में साहित्य से अनुराग पैदा हुआ। बस्तर पूर्व में एक रियासत था, जहाँ साहित्य-सृजन का कोई पुष्ट एवं अनुकूल माहौल नहीं था। किंतु फिर भी कुछ साहित्यानुरागी लोगों ने साहित्यिक वातावरण निर्मित करने का प्रयास किया। बस्तर के जगदलपुर नगर में, जो उस समय मात्र एक छोटा-सा कस्बा था, रियासत द्वारा स्थापित एक ग्रंथालय था, जिसका नाम राजा रुद्र प्रताप देव ग्रंथालय था। इसी भवन में कुछ साहित्य-प्रेमियों ने साहित्यिक गोष्ठियाँ प्रारम्भ की। इस दिशा में प्रारम्भ में जिन लोगों का योगदान रहा, उनमें सर्वश्री लाला जगदलपुरी, गुलशेर खान शानी, धनंजय वर्मा, इकबाल अहमद अब्बन, कृष्ण कुमार झा, आदि प्रमुख थे। बाद में कुछ लोग और इसमें जुड़े। उनमें सर्वश्री दयाशंकर शुक्ल, लक्ष्मीचंद जैन, कमालुद्दीन "कमाल", गंगाधर सामंत एवं श्री रघुनाथ महापात्र आदि प्रमुख थे। इन्हीं लोगों के साथ और इन्हीं की प्रेरणा से श्री चितरंजन रावल ने भी साहित्यिक गोष्ठियों में जाना आरम्भ किया। उस समय श्री रावल एक विद्यार्थी थे। साहित्य-सृजन की कोई आकांक्षा तब तक मन में नहीं थी परंतु साहित्य के प्रति रुचि बहुत थी। इसका एक कारण यह भी था कि उनके कुछ सहपाठी हिन्दी साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखते थे। इनमें विशेषत: सर्वश्री शानी, अब्बन एवं श्री कृष्ण कुमार झा आदि थे। इन्हें देख कर श्री रावल के मन में भी साहित्य के प्रति अनुराग पैदा हुआ। 
17 वर्ष की उम्र में ही उनके पिता का साया सिर पर से उठ जाने के बाद वे परिवार के भरण-पोषण के कार्य में जुट गये और लगभग 10 वर्षों तक साहित्यिक गतिविधियों से कटे रहे। साहित्य के क्षेत्र में उनका पुनप्र्रवेश 1962-63 में हुआ तथा 1977 से वे लगातार आकाशवाणी के जगदलपुर केन्द्र से जुड़े रहे और आज भी जुड़े हुए हैं। उनकी अनेक कविताएँ तथा व्यंग्य आकाशवाणी के जगदलपुर केन्द्र से प्रसारित होते आ रहे हैं। इस समय तक उन्होंने स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी और बी. एड. प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने पहली कविता लिखी। इस कविता को सुन कर उनके अध्यापकों और साथियों ने उनका काफी उत्साह-वर्धन किया। इसके फलस्वरूप काव्य-सृजन की जो धारा प्रवाहित हुई वह आज तक जारी है। यहीं से उनके साहित्यिक जीवन का आरम्भ हो गया। 
अब तक जगदलपुर नगर में साहित्यिक वातावरण निर्मित हो चुका था तथा कुछ और लोग इस दिशा में सक्रिय हो चुके थे। उर्दू के क्षेत्र में सर्वश्री इशरत मीर, रऊफ परवेज; हिन्दी कहानी के क्षेत्र में सर्वसुश्री मेहरुन्निसा परवेज, जया बोस तथा श्री कृष्ण शुक्ल; हिन्दी कविताओं के क्षेत्र में सर्वश्री लाला जगदलपुरी, दयाशंकर शुक्ल, हुकुमदास अचिंत्य, पूर्णचन्द्र रथ आदि तथा हिन्दी व्यंग्य के क्षेत्र (गद्य एवं पद्य दोनों) में श्री चितरंजन रावल एवं उनके अनुज श्री सुरेन्द्र रावल ने रचनाएँ लिखीं। आज भी दोनों भाइयों की प्रमुख विधा व्यंग्य ही है। श्री चितरंजन रावल ने यद्यपि सभी विधाओं में सृजन किया किन्तु उनका विशेष झुकाव व्यंग्य विधा की ओर ही रहा। कुछ लोगों ने साहित्य के क्षेत्र से विदा भी ली। श्री कमालुद्दीन "कमाल" का निधन हो चुका था तथा श्री लक्ष्मीचंद जैन साहित्य से संन्यास ले कर पूरे मनोयोग से व्यापार में जुट गये थे। बस्तर की लोक-भाषा हल्बी एवं भतरी में श्री रघुनाथ महापात्र तथा उनके पुत्र श्री जोगेन्द्र महापात्र "जोगी" ने रचनाएँ लिखीं और वे दोनों ही बस्तर की लोक-भाषा के प्रति प्रतिबद्ध रहे। उन्होंने केवल हल्बी एवं भतरी में ही कविताएँ लिखीं। सम्भव है कि कुछ कविताएँ उन्होंने हिन्दी में भी लिखी हों, परन्तु वे हल्बी एवं भतरी में लेखन के लिये ही चर्चित रहे।
अब तक बस्तर जिले के अन्य नगरों, विशेषत: उत्तर बस्तर के काँकेर एवं कोंडागाँव में भी साहित्यिक वातावरण निर्मित होने लगा था। इस समय प्रगतिशील विचार-धारा का बोलबाला था। उस समय इस विचार-धारा का बहुत अधिक प्रचार-प्रसार हुआ। जगदलपुर, काँकेर, कोंडागाँव आदि नगरों में प्रगतिशील लेखक संघ की इकाइयों का गठन हो गया। कई कवि नयी प्रगतिशील विचार-धारा से प्रभावित हो प्रतीकात्मक कविताएँ लिखने लगे। छंदबद्ध रचनाओं को पुरातन शैली का नाम दे कर उसकी उपेक्षा की जाने लगी। यह उपेक्षा कमोबेश आज भी विद्यमान है। नयी कविता के क्षेत्र में श्री बहादुर लाल तिवारी ने कई कविताएँ लिखीं तथा आज भी लिख रहे हैं। उन्होंने अपने को इस विचार-धारा से लगभग प्रतिबद्ध कर लिया है। 
कोंडागाँव में श्री चितरंजन रावल ने अपनी व्यंग्य रचनाएं लिखने का क्रम जारी रखा था। उर्दू में श्री उमर हयात रजवी रचनाएँ लिख रहे थे। श्री चितरंजन रावल के अनुज श्री सुरेन्द्र रावल भी काव्य-सृजन में लगे हुए थे। इस तरह कोंडागाँव में भी एक अच्छा साहित्यिक वातावरण निर्मित हो चुका था। इसी बीच कोंडागाँव में श्री मनीषराय यादव अनुविभागीय अधिकारी के पद पर तथा श्री सोनसिंह पुजारी तहसीलदार के पद पर स्थानान्तरित हो कर आये। श्री यादव स्वयं एक सुप्रसिद्ध कहानीकार तथा कवि थे और श्री सोनसिंह पुजारी बस्तर की लोक-भाषा हल्बी से प्रतिबद्ध इस लोक-भाषा के ऊर्जावान कवि। इन दोनों साहित्यकारों के इस नगर में आने से यहाँ के साहित्यिक वातावरण में एक नयी चेतना आयी। कई साहित्यिक कार्यक्रम कोंडागाँव में आयोजित किये गये। एक संदर्भ ग्रंथ "इन्द्रावती" का प्रकाशन भी हुआ, जिसके संपादक थे श्री मनीषराय और बलराम। इसके तीन सह-सम्पादक भी थे, सर्वश्री सोनसिंह पुजारी, चितरंजन रावल एवं सुरेन्द्र रावल। इस ग्रंथ के विमोचन के अवसर पर 1982 में कोंडागाँव में एक अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन भी आयोजित किया गया था जिसमें देश भर से सुप्रसिद्ध साहित्यकारों का कोंडागाँव आगमन हुआ था। बस्तर अंचल में 1950 में जगदलपुर में आयोजित अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के बाद यह दूसरा अखिल भारतीय स्तर का आयोजन था। यह संदर्भ ग्रंथ पूरी तरह बस्तर पर ही केन्द्रित और अभूतपूर्व था। आज इसकी प्रति उपलब्ध नहीं है। 
इस बीच "जनरेशन गैप" पर श्री चितरंजन रावल की लिखी एक महत्त्वपूर्ण कविता की स्व. दुष्यंत कुमार जी ने मुक्त कण्ठ से न केवल प्रशंसा की अपितु उसका प्रकाशन किसी एक महत्त्वपूर्ण पत्रिका के विशेषांक में करने हेतु श्री रावल से अनुमति भी माँगी। किन्तु अफ़सोस! जब तक श्री रावल की अनुमति उन तक पहुँचती दुष्यंत कुमार जी का निधन हो चुका था। बाद में वह कविता अन्यत्र प्रकाशित हुई। श्री चितरंजन रावल की व्यंग्य रचनाओं का प्रकाशन देश की महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में होता रहा है, जिनमें शब्द, रंग, मध्यप्रदेश संदेश, वीणा, कहानीकार आदि प्रमुख हैं। उल्लेखनीय है कि श्री चितरंजन रावल के गीति रचनाएँ भी सुंदर बन पड़ती हैं। 
श्री चितरंजन रावल की कविताओं का एक संग्रह कुछ वर्षों पहले "कुचला हुआ सूरज" शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं इसी संग्रह से उनकी कुछ विविध रंगी कविताएँ : 

01. वनवासी

ओ वनवासी!
सोते रहे सदियों से, तुम
कुम्भकर्णी निद्रा में।
अब तो जागो!
शायद पता नहीं तुम्हें
जिन हाथों ने तुम्हें
थपकियाँ दीं
मीठी नींद में सुलाया
उन्हीं ने तुम्हारा
सर्वस्व चुराया।
लुट चुका सब कुछ
क्या रह गया अब तुम्हारे पास
कटे हुए वृक्षों के ठूँठ,
झोपड़ी की जर्जर दीवारें,
वस्त्र के अभाव में
लजाती हुई हया
पर किसे आयी दया?
प्रकृति के चहेते बेटे,
मौसम भी
तुम्हारे अनुकूल कहाँ रहा?
कोई मलय पवन
तुम्हारे गाँव पर से कहाँ बहा?
सुना है हमने भी
जहाँ घने जंगल होते हैं
ऊँचे पर्वत होते हैं
मेघ वहीं उतर आते हैं। 
पर वनवासी!
जाने क्या हो गया
तुम्हारे देश में तो
भूगोल का सर्वमान्य
सिद्धांत भी गलत हो गया। 
तुम व्यर्थ ही
खेत पर खड़े हुए
आसमान निहारते रहे
मेघ तो सब
पड़ोस में बरस गये!
तुम चुल्लू भर पानी को
तरस गये।
कभी सोचा?
विकास के इतने चरण
गुजर गये
तुम पहले पायदान पर ही
क्यों रह गये?
तुम्हारे उत्कर्ष के लिये तो
कई नदियाँ बहायी गयीं
कई जलाशय खोदे गये
पर सारा पानी कहाँ चला गया?
तू प्यासा क्यों रह गया?
तुम्हारा अस्तित्व कहाँ है?
किसने कब कहाँ
तुम्हारे अस्तित्व को आँका?
और तुमने ही इसके लिये
कहाँ कोई प्रयत्न साधा?
जान कर तुम्हें होगा आश्चर्य
मेरे वनवासी!
तुम्हारे देश में
तुम्हारा नहीं
तुम्हारे अँगूठों का
अस्तित्व आँका गया।
इन अँगूठों के लिये
एकलव्य की तरह
तुम्हें फाँसा गया। 
तुम कहाँ समझ पाये?
तुम्हारा ही अँगूठा
तुम्हें दिखा दिया गया
और उसके बल पर
सब कुछ तुम्हारा
छीन लिया गया। 
मेरे भाई!
क्या तुम नहीं जानते?
खेतों में हल चला देने से
धरती में बीज बो देने से ही
फसल नहीं उग आती है। 
यदि उग भी आयी
तो तुम्हारे खलिहानों तक
कहाँ पहुँच पाती है?
शोषण की घास
इसे बीच में ही
निगल जाती है। 
इसलिये अपनी दराँतों से
शोषण की घास काटो
बेशरम और काँटों के
पौधे उखाड़ो
तब देखना
तुम्हारे खलिहानों में
सूर्योदय होगा
उससे सारा गाँव प्रकाशित होगा। 
मेरे भाई!
अपनी बाँहों में
पैदा करो ताकत
बहते हुए पानी को रोको,
शंकर की तरह
अपनी जटाओं से
गंगा को रोको
अन्यथा मेरे वनवासी!
कोई भगीरथ भी क्या करेगा?
स्वर्ग से उतर गंगा
पाताल में समा जायेगी। 
तुम्हारी धरती प्यासी की प्यासी
रह जायेगी। 
तुम तो अँधेरे में
जी रहे हो वनवासी।
प्रकाश की कोई किरण
तुम तक कहाँ पहुँच पायी?
और तुमने ही इसके लिये
कहाँ कोई राह बनायी?
दरअसल
तुम्हारे और रोशनी के बीच
घना जंगल है
तुम्हें रोशनी की भी जरूरत है
और जंगल की भी
इसीलिये जंगल के बीच
राह बनाओ
रोशनी को जंगल के बीच से
अपने गाँव तक पहुँचाओ
फिर देखना
तुम्हारे इशारे पर
बहेगी हवा
तुम्हारे इंगित पर
उतरेंगे मेघ
तुम्हारी धरती पर।
खेत तुम्हारे सोना उगलेंगे
धरती तुम्हें तिलक करेगी
भूमि-पुत्र के पद पर 
तुम्हें प्रतिष्ठित करेगी। 


02. गीत कहाँ बोयेंगे

धरती है बंजर जब
गीत कहाँ बोयेंगे?

पिंजरे में घिरा हुआ
अपना आवास है।
उड़ने को मुक्त मगर,
सीमित आकाश है।।

ऐसे में कहो भला
पंख कहाँ खोलेंगे?

बाहर है शोर बहुत,
भीतर सन्नाटा है। 
पीढ़ी के पाँवों में,
विषधर ने काटा है।।

बहरे हों लोग सभी,
मौन कहाँ तोड़ेंगे?

घिसी-पिटी लीकों के
दाग अभी गहरे हैं।
बीत गयीं सदियाँ, पर
लोग वहीं ठहरे हैं।।

ऐसे में तुम्हीं कहो,
पृष्ठ कहाँ खोलेंगे?

व्यूहों में घिरे लोग,
मर-मर कर जीते हैं।
जीवन की छलना में,
रोज गरल पीते हैं।।

मुर्दों की बस्ती में,
शंख कहाँ फूँकेंगे?

03. ग्रीष्म की दोपहर

जेठ की दुपहरी
सहमी-सी शाम।
उगल रही अंगारे,
धरती हे राम!

साधू से खड़े पेड़,
ध्यान-मग्न लगते हैं। 
पत्ते निस्तब्ध सभी,
सोये-से लगते हैं। 

हवा कहीं बैठ गयी
लेने विश्राम।

बंगले के कमरे में
कूलर है चलता।
गरमी है कितनी, यह
पता नहीं चलता। 

चौखट पर बैठ धूप
करती आराम।

हटरी में सुखिया
बेच रही सब्जी।
दोपहरी में सी रहा,
कपड़े है दरजी। 

मौसम के हुए सभी,
तेवर नाकाम। 

श्रमजीवी हाथों,
मौसम है हारा।
खीझ कर तलैया का,
पानी पी डारा। 

लिख दो खत कोई,
पावस के नाम। 

04. फर्क नदी, चट्टान, पर्वत और आदमी में

एक नदी, नदी होती है
वह आदमी नहीं हो सकती।
एक चट्टान, चट्टान होती है
वह आदमी नहीं हो सकती। 
एक पर्वत, पर्वत होता है
वह आदमी नहीं हो सकता। 
किन्तु आदमी!
नदी हो सकता है,
चट्टान हो सकता है,
पर्वत हो सकता है।
यही तो फर्क है
नदी, चट्टान, पर्वत और आदमी में। 


सम्पर्क सूत्र : 
श्री चितरंजन रावल
नहरपारा, कोंडागाँव 494226, बस्तर-छ.ग.
मोबा.: 93-008-01942



Thursday, 25 October 2012

हल्बी लिपि का निर्माण






कुछ महीनों, नहीं, नहीं। लगभग साल भर पहले की बात है। "डाइट" बस्तर में पदस्थ डॉ. (श्रीमती) आरती जैन मेरे पास आयी थीं, छत्तीसगढ़ एससीईआरटी (छत्तीसगढ़ राज्य शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद्) रायपुर द्वारा आरम्भ की गयी एक परियोजना के सन्दर्भ में। उन्हें बस्तर की वाचिक परम्परा के संकलन के सन्दर्भ में मुझसे सहायता चाहिये थी। बातों ही बातों में उनसे जानकारी मिली जगदलपुर के श्री विक्रम कुमार सोनी द्वारा हल्बी की लिपि के निर्माण की। नाम मुझे सुना-सुना सा लगा। फिर मुझे ध्यान आया, मेरे मित्र केसरी कुमार सिंह का। मैंने भाई केसरी कुमार जी के मुँह से ही कई बार श्री सोनी का नाम सुना था हल्बी-हिन्दी-अँग्रेजी शब्द-कोष एवं व्याकरण आदि के सन्दर्भ में। फिर यह भी ध्यान आया कि ये वही सोनी हैं, जिनकी आवाज हम आकाशवाणी जगदलपुर के हल्बी नाटकों और रूपकों में सुनते आये हैं। हल्बी नाटकों अथवा किसी भी कार्यक्रम में बाल चरित्रों के लिये जब भी स्वर कलाकार की आवश्यकता होती, आकाशवाणी के पास विक्रम कुमार सोनी का ही नाम होता। हल्बी-हिन्दी के नाटकों में मैं भी भाग लिया करता था। नाटकों और अन्य आलेखों की रिकार्डिंग के लिये भी कई बार आकाशवाणी केन्द्र जाना होता था किन्तु भाई विक्रम कुमार जी से कभी मुलाकात का संयोग ही नहीं बन पाया था। फिर अनायास ही यह भी ध्यान आया कि ये तो वही विक्रम कुमार सोनी हैं जिन्होंने भाई श्री रुद्रनारायण पाणिग्राही और भाई श्री नरेन्द्र पाढ़ी के साथ मिल कर पिछले वर्ष हल्बी-भतरी-गोंडी कविताओं का संकलन "चिड़खा" शीर्षक से प्रकाशित किया था। तब मैंने कम्प्यूटर पर पिछला रिकार्ड खँगाला और वह फाईल खोज निकाली जिसमें इन सभी महानुभावों की कविताएँ और इन सबके पते आदि थे। यह सामग्री मैंने हल्बी-भतरी-गोंडी आदि बस्तर की कुछ लोक भाषाओं के कवियों से जुटायी थी बिलासपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका "छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर" (सम्पादक : श्री नन्दकिशोर तिवारी) के लिये। इसमें भाई विक्रम सोनी का मोबाइल नम्बर मिला और मैंने तुरन्त उनसे बात की। बातचीत काफी लम्बी चली और फिर उन्होंने मुझे हल्बी वर्णमाला की हार्ड कॉपी अपने एक सहकर्मी मित्र के हाथों तथा हल्बी फोन्ट ईमेल से कृपा पूर्वक उपलब्ध करायी। इसके बाद एक दिन वे रायपुर से जगदलपुर जाते हुए मेरे अनुरोध पर थोड़ी देर के लिये कोंडागाँव रुक कर मुझसे भेंट करने के लिये घर तक आये। 
मेरे मन में हल्बी लिपि के निर्माण को ले कर बहुत अधिक उत्सुकता बनी हुई थी और इस विषय में विस्तार से चर्चा करने की आवश्यकता मैं महसूस कर रहा था। सो उस दिन मैंने उनसे लम्बी बातचीत की। 
इसके पहले कि मैं यहाँ लिपि-निर्माण को ले कर उनसे हुई बातचीत प्रस्तुत करूँ, उनका संक्षिप्त परिचय दे देना उपयुक्त जान पड़ता है। 
01 फरवरी 1968 को जगदलपुर में जन्मे श्री विक्रम कुमार सोनी के पिता हैं श्री विजय सोनी और माता हैं श्रीमती सुलोचना सोनी। इन्होंने इतिहास में एम. ए. किया है और वर्तमान में जिला एवं सत्र न्यायालय, जगदलपुर में लिपिक के पद पर कार्यरत हैं। इनकी अभिरुचियों में सम्मिलित हैं भाषा-शिक्षा-साहित्य, कला-संस्कृति, पुरातत्व, प्रकृति और पर्यटन। रेडियो, रंगमंच और टीवी पर अभिनय के साथ-साथ हल्बी एवं हिन्दी में कविता तथा कहानी लेखन और "बोनसाई" बागवानी भी इनकी रुचि के विषय हैं। 
एक नजर इनकी अब तक की उपलब्धियों की ओर भी। हिन्दी कविता के लिये द्विभाषी पत्रिका "भिलाई वाणी", जो भिलाई (छ.ग.) से हिन्दी और तेलुगु में प्रकाशित होती है, द्वारा 2010 में "भिलाई वाणी सम्मान" से विभूषित। स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रंगमंच में सक्रिय। छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्थानों के अतिरिक्त ओड़िशा के कटक, राउरकेला, टेन्सा, देवगढ़, कोटपाड़, पश्चिम बंगाल के बैरकपुर, बिहार के पटना, उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद और आगरा, राजस्थान के अलवर, हरियाणा के गुड़गाँव और उत्तराखण्ड के देहरादून में रंगमंच पर अभिनय। रंगमंच पर अभिनय के लिये इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश), देहरादून (उत्तराखण्ड), राउरकेला (ओड़िशा), अलवर (राजस्थान) तथा देवगढ़ (ओड़िशा) में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्र स्तरीय पुरस्कार प्राप्त। राजीव गांधी शिक्षा मिशन के लिये अन्य चार सहयोगियों के साथ मिल कर हल्बी-हिन्दी-अँग्रेजी शब्दकोश तैयार किया गया है। इसके अतिरिक्त प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा के प्रयोग के लिये कक्षा तीसरी, चौथी और पाँचवीं के लिये हल्बी पाठ्यक्रम के लेखक-मण्डल में भी सम्मिलित हैं। यह पाठ्यक्रम बस्तर जिले के बस्तर एवं तोकापाल विकास खण्डों में पढ़ाया जा रहा है। 
1987 से "बोनसाई" निर्माण कला में सक्रिय। वर्ष 2001 में उद्यान विभाग द्वारा आयोजित दो दिवसीय संभाग स्तरीय प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ बोनसाई के लिये तीन पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। 
भाषा, साहित्य एवं कला-संस्कृति में बचपन से ही उनकी रुचि रही है। हल्बी का व्याकरण लिखने के लिये उन्हें इसके भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता प्रतीत हुई और इस क्रम में भारतीय और विश्व की अन्य भाषाओं एवं उनकी लिपियों का भी उन्होंने अध्ययन किया। इस अध्ययन के फलस्वरूप उन्होंने पाया कि हिन्दी, मराठी और ओड़िया की मिली-जुली "बोली" (जिसे भाषा-वैज्ञानिक शब्दावली में "क्रियोल" कहा जाता है) होने पर भी हल्बी आज जिस स्वरूप में है, उसे पूरी तरह मराठी या हिन्दी या ओड़िया की बोली नहीं माना जा सकता अपितु इसे नेपाली की तरह एक पृथक् "भाषा" माना जाना चाहिये। वे आगे कहते हैं कि यह आवश्यक नहीं कि किसी बोली या उपभाषा को भाषा के रूप में विकसित करने के लिये पृथक् लिपि हो। वर्तमान किसी भी लिपि को इसके लिये स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु श्री सोनी ने पाया कि देवनागरी लिपि में लिखने पर हल्बी शब्दों के उच्चारणों के साथ न्याय नहीं हो पा रहा है। देवनागरी में हल्बी लिखने वालों पर हिन्दी वर्तनी का बहुत प्रभाव है। हल्बी उच्चारणों के अनुसार हल्बी शब्दों की वर्तनी (द्मद्रड्ढथ्थ्त्दढ़) लिखी जा रही है। अत: श्री सोनी को हल्बी शब्दों के वास्तविक उच्चारण लिखने के लिये भाषा-वैज्ञानिक आधार पर एक नयी लिपि तैयार करने की आवश्यकता महसूस हुई। 
दूसरी बात, वे आगे कहते हैं, बस्तर आदिकाल से एक पृथक् जनपद या अंचल रहा है। इसकी भौगोलिक और ऐतिहासिक पृथकता ने इसकी जन-भाषाओं और संस्कृति को भी पड़ोसी अंचलों से पृथक् किया है। किन्तु पड़ोसी भाषाओं की तुलना में लिखित धार्मिक-लौकिक साहित्य और उदात्त "साहित्यिक संस्कृति" की कमी उन्हें हमेशा खटकती रही है। उन्होंने देखा कि अभी सौ वर्षों के भीतर ही संथाली, सँवरा, गोण्डी इत्यादि के लिये नयी लिपियाँ तैयार की गयी हैं। मणिपुरी के लिये 1980 में बंगला लिपि के स्थान पर उसकी विलुप्त लिपि "मेइतेइ" को पुन: स्वीकृत किया गया। इन सब तथ्यों ने श्री सोनी को हल्बी के लिये पृथक् लिपि बनाने के लिये प्रेरित किया। 
वे हल्बी के लिये लिपि तैयार करने के दो कारण बताते हैं, एक भाषा-वैज्ञानिक और दूसरा साहित्यिक-सांस्कृतिक। बहरहाल, हल्बी के लिये पृथक् लिपि तैयार करने के पूर्व उन्होंने वर्तमान भारतीय लिपियों के साथ ही भारतीय लिपियों से विकसित मध्य एशियाई, तिब्बती, दक्षिण एशियाई, दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों की वर्तमान और प्राचीन लिपियों का अध्ययन किया। यूरोपीय तथा अफ्रीकी लिपियों का भी अध्ययन किया। उत्तर भारतीय, तिब्बती एवं दक्षिण-पूर्वी एशियाई लिपियों के अध्ययन से उन्हें ज्ञात हुआ कि इन सभी लिपियों को मूल ब्राह्मी लिपि में कुछ परिवर्तन कर विकसित किया गया है और इसी कारण ये सभी लिपियाँ थोड़ा प्रयास करने पर सीखी जा सकती हैं। इस तरह श्री सोनी ने निर्णय लिया कि हल्बी की लिपि भी इसी प्रकार की होगी। उन्होंने देवनागरी लिपि में ही थोड़ा परिवर्तन कर नयी लिपि बनाने का प्रयास लगभग दस वर्ष पहले आरम्भ किया। 2006 में उन्होंने इसे लोगों के सामने रखा। "वर्णमाला-पुस्तिका" हाथ से तैयार कर लोगों के बीच बाँटते फिरते और उनके विचार सुनते गये। उन्होंने जन साधारण और बुद्धिजीवी, दोनों ही वर्गों के विचार एवं सुझाव प्राप्त किये। कुछ लोगों ने इस विचार को स्वीकार नहीं किया तो कुछ को रोचक लगा और कुछ ने इसे बस्तर की आवश्यकता कहा। इसमें कुछ संशोधन किये गये और अन्तत: 2011 में इसके फोन्ट भी तैयार हुए और अब यह लिपि सबके सामने है। 
श्री सोनी ने जब हल्बी व्याकरण लिखना आरम्भ किया तो उनके इस कार्य को देख कर उनके सहकर्मी और मित्र डॉ. योगेन्द्र सिंह राठौर ने उन्हें पहले भाषा-विज्ञान पढ़ने का सुझाव दिया। तब उन्होंने व्याकरण लिखना स्थगित कर भाषा-विज्ञान पढ़ना आरम्भ किया। हल्बी में अनुसंधान और लेखन के चलते उन्हें अपने ही जैसे अभिरुचि वाले कुछ लोग मिले। इनमें से एक श्री बाबू थॉमस भी हैं, जो स्वयं हल्बी और भाषा-विज्ञान के अच्छे ज्ञाता हैं। उन्होंने श्री सोनी को भाषा-विज्ञान की अँग्रेजी की कुछ पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद का काम सौंपा। इस कार्य को करते हुए श्री सोनी को भाषा-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का गहराई से अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ। इन दो लोगों के सुझाव और समय-समय पर विचार-विमर्श ने श्री सोनी को उनके विचार को सुदृढ़ करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। इसके साथ-साथ उनके रंगकर्मी और साहित्यकार साथी द्वय श्री रुद्रनारायण पाणिग्राही और श्री नरेन्द्र पाढ़ी ने उन्हें लगातार प्रोत्साहन और सुझाव दिये। उनके सहकर्मी भी उन्हें लगातार प्रोत्साहित करते रहे। वे कहते हैं, "अब तो स्थिति यह है कि श्री पाणिग्राही जी और श्री पाढ़ी जी ने मुझसे हिन्दी में बातें करना ही छोड़ दिया है। वे अब सिर्फ और सिर्फ हल्बी में ही मुझसे बातें करते हैं।" श्री पाणिग्राही जी ने ही हल्बी का फोण्ट-निर्माता खोजा। श्री सोनी कहते हैं कि फिलहाल फोण्ट-निर्माता का नाम उन्हीं के अनुरोध पर सार्वजनिक करना उपयुक्त नहीं है। समय आने पर उनका नाम बहुत ही सम्मान के साथ सबके सामने होगा। 
एक प्रश्न के उत्तर में कि क्या उन्होंने इस लिपि के सम्बन्ध में शासन से कोई सम्पर्क किया, वे कहते हैं, "नहीं, अब तक नहीं। हाँ, कॉपीराइट एक्ट के अन्तर्गत इस लिपि के पंजीयन की कार्यवाही जारी है।" 
वे बताते हैं कि हल्बी लिपि का फोण्ट बनवाने के लिये उन्होंने इन्टरनेट के माध्यम से बहुत से फोण्ट-निर्माताओं से सम्पर्क किया। भारत में चेन्नई, बंगलौर जैसे शहरों की संस्थाओं से ले कर संयुक्त राज्य अमेरिका के फोण्ट-निर्माताओं और सॉफ्टवेयर निर्माताओं से उन्होंने सम्पर्क किया किन्तु उनमें से अधिसंख्य लोग तैयार ही नहीं थे। एक अमेरिकी फोण्ट निर्माता ने इस लिपि के विषय में पूरी जानकारी प्राप्त करने के बाद यह उत्तर दिया कि यह एक "छोटा प्रोजेक्ट" है और वे "छोटा प्रोजेक्ट" नहीं लेते। सौभाग्य से श्री सोनी के मित्र श्री रुद्रनारायण पाणिग्राही जी को एक फोण्ट निर्माता का पता लगा और उनसे फोण्ट बनवाया गया। श्री सोनी कहते हैं कि वे फोण्ट निर्माता अभी अपना परिचय नहीं देना चाहते। वे कभी सहमत हुए तो वे उनका परिचय सब को देंगे। वे आगे कहते हैं कि जिन भाषा-विदों ने इस लिपि को देखा, वे इस लिपि की वैज्ञानिकता से सहमत है। एक प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं कि इस लिपि को प्रचलन में लाने के लिये शासकीय सहयोग प्राप्त करने का प्रयास फिलहाल नहीं किया गया है। वे कहते हैं कि उनकी मंशा है कि वे पहले हल्बी जानने वालों से इस लिपि की स्वीकृति प्राप्त कर लें। 
उनकी अपेक्षा है और वे अपनी अपेक्षा के सन्दर्भ में बस्तर अथवा बस्तर से बाहर रहने वाले प्रत्येक हल्बी भाषी या हल्बी के जानकार लोगों से अनुरोध करते हैं कि वे सभी इस लिपि को सीखें। वे कहते हैं कि उनके द्वारा तैयार की गयी हल्बी लिपि बहुत सरल और वैज्ञानिक लिपि है। इसीलिये वे चाहते हैं कि लोग इसे सीखें और प्रयोग में लाना प्रारम्भ करें। वे हल्बी साहित्यकारों से निवेदन भी करते हैं कि वे अपनी रचनाएँ हल्बी तथा देवनागरी दोनों ही लिपियों में प्रकाशित कराने का प्रयास करें ताकि हल्बी साहित्य पढ़ने वाले पाठकों को हल्बी लिपि सीखने का अवसर मिले। वे कहते हैं कि वे बस्तरिया समाज का बौद्धिक उन्नयन करना चाहते हैं। वे आगे यह भी स्पष्ट करते हैं कि उनकी मातृभाषा हल्बी नहीं होने के बावजूद वे हल्बी की स्थिति और महत्ता को देखते हुए इसके विकास के लिये हरसम्भव प्रयास करने को तत्पर हैं।