Saturday, 2 February 2013

"आमचो बस्तर" : राजीव रंजन प्रसाद का ऐतिहासिक उपन्यास


2011 का शायद नवम्बर-दिसम्बर का कोई दिन या शायद जनवरी 2012 का सम्भवत: प्रथम सप्ताह। दिन ठीक से याद नहीं किन्तु इतना याद है कि एक फोन आता है भाई राजीव रंजन प्रसाद का कि वे कोंडागाँव आ रहे हैं मेरे पास अपने उपन्यास "आमचो बस्तर" की पाण्डुलिपि ले कर। वे मुझसे उस पर चर्चा के साथ-साथ मुझसे उसकी भूमिका लिखवाना चाहते हैं। इसके पहले उनके इस उपन्यास पर फोन पर कई बार बड़ी लम्बी-लम्बी बातचीत होती रही है। वे अपने इस उपन्यास को ले कर खासे उत्साहित और रोमांचित रहे हैं। 
पूर्वान्ह 10-11 बजे के आसपास उनका फोन आता है कि वे कोंडागाँव तो पहुँच गये हैं किन्तु मेरे घर के पास ही कहीं उनकी गाड़ी बिगड़ गयी है। मैं उनसे पूछता हूँ वे किस जगह हैं? वे जगह बताते हैं और मेरे घर का लोकेशन पूछते हैं। मैं तत्काल एक मित्र को फोन कर गाड़ी का लोकेशन बता देता हूँ और मिस्त्री को भेजने के लिये कहता हूँ। मेरे फोन करते ही वे मित्र मिस्त्री को फोन करते हैं और मिस्त्री बिना किसी विलम्ब के गाड़ी तक पहुँच जाता है। इसके बाद मैं उनकी बतायी जगह तक जाने के लिये निकलने को ही होता हूँ कि वे स्वयं चले आते हैं। उनकी गाड़ी मेरे घर से लगभग 150 मीटर की दूरी पर बिगड़ी खड़ी है। मैं उनका स्वागत करता हूँ। मेरे स्वागत का उत्तर वे मेरे चरण-स्पर्श कर देते हैं। वे बताते हैं कि मैकेनिक गाड़ी के पास खड़े हैं किन्तु वे आपके घर का लोकेशन नहीं जानते। तब मैं उन्हें घर पर ही छोड़ कर गाड़ी तक जाता हूँ। इसमें मुझे कुल मिला कर पाँच मिनट लगते हैं। वहाँ पहुँचता हूँ तब तक मिस्त्री गाड़ी को ठीक कर चुका होता है। वह मुझे देख कर पहचान जाता है और गाड़ी स्टार्ट कर मेरे घर तक ले आता है। मैं उससे उसका मेहनताना पूछता हूँ तो वह मुस्करा कर कहता है, "गाड़ी में कुछ खराबी थी ही नहीं। तो फिर मेहनताना किस बात का?" और अपने एक साथी के साथ मोटर सायकिल पर बैठ कर वापस चला जाता है। मैं इसके लिये उसका धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। भाई राजीव रंजन प्रसाद भी।
इसके बाद चर्चा चलती है उपन्यास पर। राजीव अपने इस उपन्यास के विषय में बताते चलते हैं। मेरा स्वास्थ्य गड़बड़ा जाने के बावजूद मैं उनके साथ चर्चा में सम्मिलित तो होता हूँ किन्तु अस्वस्थता मेरे मस्तिष्क को स्थिर नहीं रहने देती। मैं सुनता कुछ और गुनता कुछ हूँ। इसी बीच "सहारा समय" टी.वी. चैनल के बस्तर जिला ब्यूरो चीफ श्री राजेन्द्र बाजपेई का फोन आता है, एक कार्यक्रम में "फोनो" के लिये। मैं उनसे क्षमा माँग लेता हूँ। बताता हूँ कि पिछली कई रातों से अनिद्रा का शिकार चल रहा हूँ और मानसिक रूप से तैयार नहीं हूँ इसीलिये मैं "फोनो" पर उपलब्ध नहीं हो पाऊँगा। बहरहाल। राजीव जी के उपन्यास पर चर्चा के बाद वे मुझसे इसकी भूमिका लिखने का आग्रह करते हैं। मैं कहता हूँ कि इस वृहदाकार उपन्यास की भूमिका लिखना मेरे लिये फिलहाल सम्भव नहीं होगा। कारण, इसे पढ़ने में ही मुझे कम से कम पन्द्रह दिनों की आवश्यकता होगी, जबकि उन्हें भूमिका हर हाल में जनवरी के मध्य तक चाहिये थी ताकि फरवरी में आयोजित हो रहे विश्व पुस्तक मेला के अवसर पर यह उपन्यास प्रकाशित हो कर सामने आ जाये। मेरे लिये यह अत्यन्त कठिन था कि मैं इतने कम समय में इसे पूरा पढ़ कर इसकी भूमिका लिख सकूँ। और पढ़े बिना भूमिका लिखना उपन्यास के साथ अन्याय होगा और स्वयं मेरे लिये भी उपयुक्त नहीं हो सकता। फिर वे कहते हैं कि कम से कम आशीर्वचन के रूप में दो शब्द ही लिख दूँ। यह बात मुझे जम जाती है। फिर श्रद्धेय लालाजी (लाला जगदलपुरी जी) से सम्बन्धित और बस्तर को ले कर विभिन्न बातें होती हैं। साथ बैठ कर भोजन किया जाता है। फिर वे मेरे इस आश्वासन के साथ विदा होते हैं कि मैं उनके द्वारा मुझे उपलब्ध कराये गये उनके इस उपन्यास के सार-संक्षेप के आधार पर दो शब्द अवश्य ही लिख भेजूँगा। और मैं ऐसा करता भी हूँ। वे वापस होने के बाद ईमेल से मुझे लगभग 4-5 पृष्ठों में समाया सार-संक्षेप लिख भेजते हैं। और मैं उस सार-संक्षेप के आधार पर अपना मंतव्य उन्हें लिख भेजता हूँ। मेरे उस मंतव्य को, जो किसी काम का नहीं होने के बावजूद, उन्होंने प्रथम संस्करण में फ्लैप के रूप में स्थान दिया। इसके लिये मैं उनका हार्दिक रूप से आभारी हूँ।
इस उपन्यास को ले कर इस बस्तरिया युवक की मेहनत मैंने देखी है। बस्तर का गाँव-गाँव उन्होंने छान मारा है। तथ्य जुटाने के लिये वे न जाने कितने लोगों से मिलते रहे हैं। अथक परिश्रम किया है उन्होंने। ऐसे समय में जब बस्तर पर लिखना "फैशन" की तरह चल निकला है और जिस किसी के भी पास लिखने को कुछ और नहीं है उसे "बस्तर" भा जाता है और वह एकाध-दो दिनों के लिये बस्तर के एकाध कस्बे या नगर का एक चक्कर लगा कर "पोथा" लिख जाता है; राजीव रंजन प्रसाद का ठेठ हल्बी शीर्षक वाला यह उपन्यास वाकई "आमचो बस्तर" है। इसमें राई-रत्ती भर की भी शंका की कोई गुंजाइश नहीं। कुल मिला कर यह कि उनका यह उपन्यास बस्तर पर अब तक लिखी गयी किसी भी साहित्यिक रचना की तुलना में बीस ही साबित होती है, उन्नीस नहीं। इसमें बस्तर का सच बोलता है। अतीत और वर्तमान दोनों ही।
"आमचो बस्तर {का तीसरा संस्करण}"  का विमोचन विश्व पुस्तक मेले (4-10 फरवरी); प्रगति मैदान नई दिल्ली में दिनांक 7.02.2013 को होने जा रहा है।
25 अक्टूबर 2012 को मैं जब नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया द्वारा स्वीकृत पाण्डुलिपि "बस्तर की लोक कथाएँ" के करारनामे की प्रतियाँ ले कर लाला जी के पास उनके हस्ताक्षर हेतु पहुँचा तो उन्होंने हस्ताक्षर के बाद इस उपन्यास के दूसरे संस्करण की प्रति मुझे दिखाते हुए कहा, "बस्तर पर केन्द्रित है।" फिर आगे भी बात हुई। वह बातचीत यथावत् एमपी-3 के रूप में इस पोस्ट के अन्त में प्रस्तुत है। 
और अब अधिक समय न लेते हुए इस उपन्यास पर डॉ. कौशलेन्द्र द्वारा उनके ब्लॉग "बस्तर की अभिव्यक्ति...जैसे कोई झरना..." पर प्रस्तुत दिनांक 12 जनवरी 2013 के पोस्ट को जस-का-तस रख देना उचित होगा : 


 “आमचो बस्तर” -राजीव रंजन प्रसाद का ऐतिहासिक उपन्यास


राजीव रंजन प्रसाद का हालिया लिखा उपन्यास आमचो बस्तर” अपनी ही धरती पर बेगानों के साथ मिलकर अपनों द्वारा क्रूरता से छिछियाये हुये पीड़ित संसार का इतिहास हैअतीत की गुफाओं में दफ़न किये जा चुके बस्तर के देशभक्त महानायकों की गौरवपूर्ण समाधि बनाने और उन पर श्रृद्धासुमन अर्पित कर बस्तर के इतिहास को पुनर्जीवित करने का सार्थक और स्तुत्य प्रयास हैशोषण की अजस्र प्रवाहित विषधारा के प्रति व्यापक चिंता हैछोटी-छोटी समस्याओं के विराट ज्वालामुखी हैं,विदूप हो ठठाते विकास की कड़्वी सच्चायी हैपत्रकारिता की निष्ठा पर अविश्वास है,गोलियों से बहे निर्दोष ख़ून और मासूम चीखों से अपने अहं को तुष्ट करती सत्ता की कहानी हैदुनिया के द्वारा ख़ारिज़ किये जा चुके आयातित विचारों की पोटली में छिपे बम हैं ....और हैं ढेरों प्रश्न जो किसी भी निष्पक्ष पाठक को झकझोरनेअनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोजने और एक नई क्रांति के लिये पृष्ठभूमि की आवश्यकता पर चिंतन करने को विवश करते हैं।  
उपन्यास के भीतर से एक आह उठती है – “मेरे बस्तर! क्या तुम इसी प्रजातांत्रिक,धर्मनिरपेक्षसमाजवादी लोकतंत्र का हिस्सा होक्या बस्तर भारत का ही हिस्सा है?”देश को आज़ाद हुये आधी सदी से भी अधिक समय बीत जाने के बाद इस तरह के आह भरे प्रश्न आज़ादी के स्वरूप और औचित्य के लिये चुनौती हैं।   
कई बार मैं यह सोचने के लिये विवश हुआ हूँ कि नैसर्गिक सौन्दर्य और प्राकृतिक सम्पदाओं से भरपूर बस्तर कहीं इस आर्यावर्त की अभिषप्त भूमि तो नहीं?  त्रेतायुग में रावण का उपनिवेश रहा दण्डकवनकलियुग में दुनिया के लिये अबूझ हो गया बस्तरबीसवीं शताब्दी में ब्रिटिशभोसले और अरब आततायियों से आतंकित बस्तर,स्वतंत्र भारत में स्वाधीनसत्ता की गोलियों से भूने जाते निर्दोष गिरिवासियों-वनवासियों के शवों पर सिसकता बस्तर और वर्तमान में लाल-सबेरा के लाल-रक्त से प्रतिदिन स्नान करता बस्तर कब तक शोषित होता रहेगा और क्यों?
बस्तर की माटी में पले-बढ़ेअपने सर्वेक्षण और चिंतन को कलम के माध्यम से अभिव्यक्त करते राजीव रंजन प्रसाद के उपन्यास आमचो बस्तर” के पात्र भी इन्हीं प्रश्नों से जूझते नज़र आते हैं। बस्तर के प्राच्य इतिहास को अपने में समेटे इस ऐतिहासिक उपन्यास की प्रथम यवनिका उठते ही एक गोला सा दगता है- आख़िर सुबह क्यों नहीं होती?” प्रश्न स्वगत उत्तर के रूप में अपने को और भी स्पष्ट करता है-रोज-रोज माओवादी हमलों में मारे जा रहे आदिवासियों से वैसे भी दुनिया का क्या उजड़ता है?”
 प्रकृति ने तो बस्तर को बड़ी उदारता से सब कुछ बाँटा पर मनुष्य ने बस्तर को छलने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी। भारत की स्वतंत्रता के 12 वर्षों बाद बस्तर के वनवासियों के साथ भारत सरकार द्वारा एक क्रूर परिहास किया गयाउन्हें बताया गया कि भारत सरकार के द्वारा विजय चन्द्र भंज देव को बस्तर का महाराजा घोषित किया गया हैअब वे ही आप सबके महाराजा हैं।
प्रवीर चन्द्र भंज देव को अपना महाराजा ...अपना अन्नदाता ...अपना भगवान मानने वाले बस्तर के भोले-भाले लोगों को नहीं पता कब किसकी हुक़ूमत आयी और कब किसकी ख़त्म हो गयी। उन्हें दिल्ली नहीं मालुमउन्हें भारत सरकार नहीं मालुम। उन्हें बदला हुआ सत्य न बताकर उनकी आस्था भंग की गयी। बस्तर राज्य को भारतसंघ में स्वेच्छा से सम्मिलित कर चुके महाराजा प्रवीर को भारत सरकार ने बस ‘नाम भर’ का पूर्व राजा  मानने से इंकार करते हुये उनके छोटे भाई को ‘नाम भर’ का राजा घोषित कर दियाएक ऐसा राजा घोषित कर दिया जिसका कोई संवैधानिक अस्तित्व नहीं था। किंतु ...इस घोषणा में जिस बात का अस्तित्व था वह था झूठी शान की दिलासा में दो भाइयों को एक-दूसरे का शत्रु बनाकर सत्ता में बैठे लोगों की अहं की तुष्टि। इस तुष्टि का परिणाम हुआ 31 मार्च 1961 को बस्तर के लोहण्डीगुड़ा में आदिवासियों पर पुलिस की बर्बर फ़ायरिंग। और फिर बस्तर राजमहल में निहत्थे प्रवीरचन्द्र भंज देव की पुलिस द्वारा बर्बर हत्या। क्या स्वतंत्र भारत की यही तस्वीर है?
 उपन्यासकार राजीव रंजन की एक बड़ी पीड़ा यह भी है कि देश के लोग बस्तर को अन्धों के हाथी की तरह देखते रहे हैं ...वह भी अपनी पूरी ज़िद के साथ। दूर दिल्ली में बस्तर के प्रति एक आम धारणा देश की संचार एवं सूचना व्यवस्था का परिहास करती है – “ ... अरे बस्तर से आये होलेकिन तुमने तो कपड़े पहन रखे हैं।
लोगों की दृष्टि में बस्तर कैसा है, लेखक ने इसका  बख़ूबी वर्णन किया है –“बस्तर में ख़ूबसूरती तलाशने के लिये दिल्ली से एक बड़ी पत्रिका के पत्रकार और प्रेस फ़ोटोग्राफ़र आये थे। जंगल-जंगल घूमे। उन्हे यहाँ की हरियाली में ख़ूबसूरती नज़र नहीं आयी। चित्रकोट और तीरथगढ़ जैसे जलप्रपात उन्हें सुन्दर नहीं लगेन ही कुटुमसर जैसी गुफ़ाओं के रहस्य ने उन्हें रोमांचित किया। जिस ख़ूबसूरती की तलाश थी वह थी पत्रिका के मुखपृष्ठ पर छपी निर्वस्त्र आदिवासी युवती।
बस्तर में ख़ूबसूरती तलाशने आये एक फ़्रांसीसी जोड़े को भी किसी नग्न आदिवासी युवती की तलाश थी। घुटनों से ऊपर स्कर्ट और टीशर्ट पहनने वाली रीवा को देखकर स्थानीय युवक के मन प्रश्न उठता है कि आख़िर इतने ख़ुलेपन और न्यूनतम वस्त्रभूषा के बाद भी इन्हें बस्तर में निर्वस्त्र आदिम जीवन को ही देखने की उत्कंठा क्यों है?” आगे लेखक ने चुटकी लेते हुये लिखा है-  ....वह पिछड़ों के नंगेपन और विकसितों के नंगेपन के बीच के अंतर का विश्लेषण कर रहा था।
लेखक बस्तर की इस कृत्रिम छवि से व्यथित है इसलिये उसे ऐतिहासिक हवाला देते हुये बस्तर राज्य के पूर्व मंत्री की हैसियत वाले एक पात्र के माध्यम से यह स्पष्ट करना पड़ा कि, राजा अन्नमदेव से पहले नाग राजाओं की शासन पद्धति गणतंत्रात्मक थी। वैदिक युग से नागों के युग तक बस्तर की जनता का भौतिक,बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में विकास हुआ था। आगेलेखक ने बस्तर की त्रासदी को रेखांकित करते हुये एक स्थान पर लिखा - जब एक समाज बाहर और भीतर के द्वार बन्द करले तो समझिये उस समाज ने पीछे की ओर दौड़ लगाना आरम्भ कर दिया है। राजा अन्नमदेव गणतांत्रिक व्यवस्था को कायम नहीं रख सके ... 
 बस्तर की पृष्ठभूमि पर यह उपन्यास जंगल से दूर किसी महानगर के भव्य भवन के वातानुकूलित कक्ष में सुने-सुनाये मिथकों और कल्पना के सहारे नहीं लिखा गया बल्कि बस्तर के जंगल के भीतर बैठकर लिखा गया। इसीलिये उपन्यास एक ऐतिहासिक अभिलेख बन पड़ा है जिसके अतीत में खोये पात्र अत्याचार के विरुद्ध जूझते हुये और शोषण को अपनी नियति स्वीकार कर चुके आधुनिक पात्र विकास की आशा में बड़ी उत्सुकता से बस्तर से बाहर की ओर झाँकते नज़र आते हैं। गहन वन के अंधेरों को बेचकर ख़ुद के लिये रोशनी का ज़ख़ीरा जमा करते लोग बस्तर के अंधेरों को बनाये रखने के हिमायती हैं। अंधेरों के ख़िलाफ़ लड़ने की कसम खाते हुये कुछ तत्वों ने रूस और चीन से आयातित विचारों के सहारे एक समानांतर सत्ता कायम कर ली है जो अब ख़ुद भी अंधेरे बेचने लगी है। सत्ता के गलियारों में नक्सलवाद और माओवाद एक अज़ूबा फ़ैशन बनता जा रहा है जिसे समझने और समझाने की कोशिश में लेखक ने आदिवासी समाज की एनाटॉमीप्रशासन की फ़िज़ियोलोजी और सत्ता की पैथो-फ़िज़ियोलॉजी का पूरी ईमानदारी के साथ विश्लेषण किया है। इस विश्लेषण के प्रयास में एक कुशल जुलाहे की भूमिका निभाते हुये लेखक को अपनी बीविंग मशीन में आगे-पीछे के कई तानों-बानों को आपस में पिरोना पड़ा है जिसके कारण यह उपन्यास अतीत और वर्तमान की कई कहानियों को अपने में समेट कर चल सकने में समर्थ हो सका।
जल संसाधन की दृष्टि से बस्तर सम्पन्न है परन्तु बस्तर से होकर बहने वाली इन्द्रावती का लाभ पड़ोसी आन्ध्रप्रदेश के हिस्से में जाता हैलेखक ने इस जनसरोकार पर बहस छेड़ते हुये मुआवज़े के हक़ की बात अपने पाठकों के समक्ष रखी है। 
आज़ादी के बाद विकास की गंगा बहाये जाने का दावा करने वाली राज्यों की देशी सरकारों के पक्षपातपूर्ण सत्य को उजागर करने में, जहाँ भी अवसर मिला लेखक पीछे नहीं हटता –“बचपन का अर्थ होता है तितली हो जानाखिलखिलानाकूदना,सपने बुनना और जगमग आँखों से आकाश के सारे तारे लूट लेना ...लेकिन ऐसा बचपन शैलेष ने एक बार फिर भरी निगाह से देखा ...नहींउसमें बचपन था ही कहाँ वह लड़की आठ वर्ष की अधेड़ थी।          
आदिवासी समाज की समस्याओं का निर्धारण वातानुकूलित कक्षों में बैठकर नहीं किया जा सकता। किंतु किया यही जाता है इसलिये बस्तर को विकास की धारा में शामिल करने का प्रयास एक पाखण्ड से अधिक और कुछ नहीं हो पाता। स्वतंत्र भारत की शिक्षानीति पर प्रहार करते हुये लेखक ने कई प्रश्न उठाये हैं- सोमली नहीं समझ पाती कि पढ़ायी क्यों ख़रीदी जानी चाहिये। .... पेट्रोल और डीजल को सब्सिडी देने वाली सरकारें शिक्षा के लिये भी ऐसा ही क्यों नहीं करतींएक जैसी स्कूल ड्रेस कर देने से एक जैसी शिक्षा तो नहीं हो जाती?  ....क्या यह ख़तरनाक नहीं है कि विद्यार्थियों में उन संस्थानों का गर्व हो जाये जहाँ सुविधा-सम्पन्नता अधिक है? ...ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि जैसे स्कूल की ड्रेस एक जैसी होती है वैसे ही सबके स्कूल भी एक जैसे ही होंउसी स्कूल में कलेक्टर का लड़का भी पढ़े तो वहीं झाड़ूराम की लड़की भी?”
देश में लागू की गयी व्यवस्था जब अपने नागरिकों में भेद करने लगे तो प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं – “ये तरक्की शालिनियों के ही हिस्से में क्यों हैयह कैसी व्यवस्था है जिसमें पिसने वाला अंततः मिट जाता है। व्यवस्था ऐसा सेतु क्यों नहीं बनती जिसका एक सिरा शालिनी हो और दूसरा सोमली?”
 सरकारी तंत्र ने वर्ग भेद समाप्त करने के नाम पर वर्ग भेद को समाज में इस कदर व्याप्त कर दिया है कि जंगल से शहर तक इसकी कटु अनुभूति पीछा नहीं छोड़ती–“कितनी अजीब बात है शालिनीजगदलपुर में आदिवासी-ग़ैरआदिवासी वाली गालियाँ सुनते रहेअब पिछड़ों और ग़ैर-पिछड़ों वाली गालियाँ सुनो।
नक्सलवाद बस्तर का मैलिग्नेण्ट कैंसर है। नक्सलवाद के प्रति आदिवासियों के स्वाभाविक झुकाव का दावा करने वाले नक्सली दावों की पोल खोलते हुये लेखक ने हक़ीक़त का बयान करते हुये स्पष्ट कर दिया है कि अपनी मोटियारिन के दैहिक शोषण से उफ़नाये ठुरलू ने फावड़े से मुंशी की हत्या कर दी और जंगल में भागकर नक्सलियों की शरण में चला गया। ठुरलू के नक्सली बन जाने की घटना की व्याख्या लेखक ने अपने एक पात्र मरकाम के द्वारा कुछ इस तरह की- ठुरलू का नक्सलवादी हो जाना परिस्थिति का परिणाम हैकिसी विचारधारा का नहीं।
सन् 1857 की क्रांति से तुलना करते हुये लेखक ने आधुनिक नक्सलियों की विचारधारा का विरोध कुछ इस तरह से किया- जैसे चिंगारी से आग लग जाती है वैसे ही क्रांति भी स्वतः स्फूर्त होती है। क्रांति आयातित नहीं होतीक्रांति के लिये बड़ी-बड़ी विचारधाराओं की किताबें नहीं चाटी जातीं, ...”
नक्सलियों द्वारा बारूदी सुरंगों के ज़रिये की जाने वाली हत्याओं की दैनिक परम्परा में शासकीय कर्मचारी की मौत पर लेखक का आक्रोश बहुत ही सधे शब्दों में व्यक्त होता है –“देवांगन आम आदमी थे या नहीं इस पर बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों में मतभिन्नता हो सकती है। देवांगन तथाकथित क्रांतिकारियों के मापक में कितने डिग्री के आम आदमी कहलायेंगे इस पर समाजसेवियों तथा प्रबुद्ध लेखकों में महीनों का विचारमंथन अवश्यम्भावी है।
 नक्सलियों द्वारा बलात् स्थापित आदिवासी क्रांति के हश्र की एक निहायत भोली और विवश अनुभूति लेखक की कलम से कुछ इस तरह व्यक्त होती है – “ .....अपने घर से उठाये जाने के बाद बोदी को महीनों शारीरिक और मानसिक यातनाओं के दौर से गुज़रना पड़ा। अब उसे याद नहीं कि वह कितने शरीरों के लिये मोम की गुड़िया बनी। क्या क्रांतिकारियों के शरीर नहीं होते?”
 नक्सलियों के सच को प्रतिबिम्बित करती एक अभिव्यक्ति देखिये – “झोपड़ी के दरवाजे पर एक कागज़ चिपकाया गया जिस पर लाल स्याही से कुछ लिखा हुआ था। लिखे हुये अक्षर कोई नहीं समझता किंतु लाल रंग के आतंक से अब कौन परिचित नहींसुबह अंधेरा और फैला ....गाँव खाली हो गया।
 नक्सलियों की तथाकथित जनक्रांति पर लेखक की चिंता पाठक को झकझोरती है – “यह कैसी क्रांति होने जा रही है जिसमें मरने और मारने वाला तो आदिवासी होगा लेकिन इस खेल के सूत्रधार शतरंज खेलेंगे।
कुख्यात ताड़मेटला काण्डजिसमें केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के 76 जवानों को नक्सलियों द्वारा उड़ा दिया गया थापर चर्चा करते हुये लेखक ने कहा है – “वे क्रांति कर रहे थे। उन्हें इतना लहू चुआना था कि एक-एक दिल में दहशत घर कर जाये। वे उन सभी के घरों में घना अंधेरा करने की नीयत से ही आये थे जो क्रांति की राह में रोड़ा बन गये हैं। ..... वो औरंगज़ेब के ज़माने थे जब व्यवस्थायें तलवार की नोक पर बदला करती होंगी। माओ के नाम पर ख़ून-ख़राबों ने कई दशक देख लियेक्या बदल गया कहाँ आयी वह लाल सुबह क्या आवाज़ उठाने का तरीका हथियार ही है क्या लहू बहेगा तो ही बदलाव की कालीन बनेगा?” 
 शहरों में बैठकर जंगल के बारे में की जा रही पत्रकारिता की संदिग्ध निष्ठा लेखक को उद्वेलित करती है। प्रकाशन का व्यापार किसी लेखक के लेखनधर्म को किस तरह दुष्प्रभावित करता है इस पर एक व्यंग्य देखिये – “जानकारियाँ काफ़ी नहीं होतीं। ......पाठक क्या पढ़ेंगे उसकी नब्ज़ पकड़ो। फिर नक्सलवाद क्या हैयह सोशियो-इकोनॉमिक प्रॉब्लेम है। ...तुम दोनों को अभी और पढ़ने की ज़रूरत है। मार्क्स को पढ़ोलेनिन और माओ को जानोचे ग्वेरा के संघर्ष को समझो तभी नक्सलवाद को गहराई से जान सकोगे। तभी तुम बस्तर के नक्सलवाद का सही विश्लेषण कर सकोगे।
 मैंने बस्तर पर आर्टिकल लिखा था। मुझे नारायणपुर में रहते बीस साल से अधिक हो गये। मुझे सिखाता है कि बस्तर कैसा है और मुझे क्या लिखना चाहिये।
पत्रकारिता के हो रहे नैतिक पतन से आहत लेखक का एक व्यंग्य देखिये –“ देवी जी प्रयोग करके देखिये। आप ग़ुलाब हैंग़ुलाबी ड्रेस में ख़ूबसूरत दिखती हैं। कल हमारी रिपोर्ट ले जाइयेगा और अदब से झुककर खन्ना से मिलियेगा।
खन्ना के केबिन से बाहर आने के बाद निधि सीधे दीपक के पास आयी और बगल में बैठ गयी ...
क्या हुआ दीपक मुस्कराया।
कल मैटर लग जायेगा।
यह मेरी लिखी हुयी लाइन का नहीं, तुम्हारी नेक-लाइन का कमाल है। 
पक्षपातपूर्ण पत्रकारिता भी बस्तर की त्रासदियों में अपनी बहुत बड़ी भूमिका निभाती हैलेखक की यह पीड़ा कुछ इस तरह अभिव्यक्त हुयी है – “ .....इन घटनाओं में राष्ट्रीयसमाचार बनने के तत्व क्यों नहीं हैंदिल्ली के पास साउण्ड हैकैमरा है और एक्शन है ...नौकर ने मालिक का क़त्ल किया राष्ट्रीय ख़बर है। बाप ने बेटी का क़त्ल कर दिया सी.बी.आई. जाँच करेगी। बियर-बार में क़त्ल हुआ समूचा राष्ट्र आन्दोलन करेगा। मानव केवल दिल्ली या कि नगरों-महानगरों में रहते हैं जिनके अधिकार हैं?”
 बस्तर के सच्चे इतिहास की सदा ही उपेक्षा की जाती रही है। लेखक ने प्रश्न किया है– “क्यों इतिहास बाबरों-अकबरों और अंग्रेजों के ही लिखे जाते हैंभारत देश के इतने विशाल भूभाग के प्रति ओढ़ा गया अन्धकार क्या नक्सलियों को प्रोत्साहन नहीं है?क्या जयचन्दों और मीर ज़ाफरों की कहानिय़ाँ ही पाठ्यपुस्तकों में परोसी जायेंगी ?क्या गुण्डाधुरडेबरीधुरयादव रावव्यंकटरवगेंद सिंह जैसे संकल्पी और साहसी आदिवासी इतिहास के किसी पन्ने को दस्तक देने की क्षमता रख सकते हैंक्या यह होगा कि अगले सौ-पचास साल बाद जब बस्तर का इतिहास लिखा जायेगा तो इसके नायक बदल चुके होंगेअतीत के इन आदर्शों की स्मृतियों पर लाल खम्बे गड़ चुके होंगे?”
बस्तर की जनजातीय परम्परायें अनोखी और आकर्षक रही हैं। बस्तर एक दीर्घकाल तक शेष विश्व के लिये अबूझ रहा। बस्तर अपने घरेलू और बाहरी शोषकों के लिये उर्वर चारागाह रहा। बस्तर एक जीती जागती प्रयोगशाला रहा। पर्यटन की दृष्टि से विश्व स्तर का स्थान होते हुये भी बस्तर उपेक्षित रहा। बस्तर की धरती अमीर है पर इसके निवासी सदा ग़रीब रहे। बस्तर को दूर बैठकर करीब से देखने का एक अवसर है “आमचो बस्तर”।