Saturday 14 April 2012

मर्दापाल की मँडई में


धान की फसल कटी और मँडई-मेलों का दौर बस्तर में शुरु हो जाता है। दिसम्बर-जनवरी से ही जगह-जगह मँडई यानी मेले भरने लगते हैं। अन्तागढ़, घोटपाल, नारायणपुर, मर्दापाल, सकलनारायण, कोंडागाँव, चपका, दन्तेवाड़ा, केसकाल, रामाराम, बारसुर, ओरछा, छोटेडोंगर आदि स्थानों में भरने वाली मँडइयों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घोटपाल, रामाराम, सकलनारायण, चपका, नारायणपुर और छोटेडोंगर की मँडइयाँ हैं। चपका की मँडई एक समय काफ़ी मशहूर हुआ करती थी। हालाँकि वहाँ के मन्दिरों में स्थापित देवी-देवताओं (शिव-पार्वती) से आदिवासी जन-जीवन का सीधे कोई सरोकार नहीं है। इस दृष्टि से घोटपाल (गीदम के पास), नारायणपुर तथा रामाराम (कोंटा के पास) की मँडइयाँ आदिवासियों में काफ़ी महत्त्व रखती हैं। इन मेलों में विभिन्न गाँवों की ग्राम-देवियाँ एकत्र होती हैं और आपस में मेल-मुलाक़ात करती हैं।
  इसी तरह आसपास के आबाल-वृद्ध, सारे के सारे लोग इन अवसरों पर जुटते हैं। एक-दूसरे से मेल-मुलाक़ात होती है और ख़रीद-फरोख़्त भी। मेलों का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार होता है। कई चीज़ें इन मेलों में ख़रीदने की योजनाएँ साल भर पहले बना ली जाती हैं।
  मँडई पहले वस्तुत: देवी-देवताओं का समारोह-स्थल ही हुआ करता था। आज की तरह ख़रीद-फरोख़्त का केन्द्र, यानी कोई बाज़ार नहीं।
  आज नारायणपुर की मँडई देशी और विदेशी सभी जिज्ञासुओं और पर्यटकों के लिये अकर्षण का केन्द्र बन गयी है। नारायणपुर नामक यह छोटा सा क़स्बा अब अनजाना नहीं रह गया है। लोग अपने-अपने साधनों से यहाँ की मँडई की तिथि पता कर अपने-अपने साजो-सामान सहित पहुँच जाते हैं।
  मँडई में देवी-देवता आपस में मिलते हैं। दूर-दूर के सगे-सम्बन्धियों की आपस में भेंट-मुलाक़ात होती है। बाज़ार भरता है। ख़रीददार और दुकानदारों का जमघट लगता है। लेकिन नारायणपुर की मँडई में बस्तर के बाहर से ऐसे लोग जो न इन आदिवासियों के सगे-सम्बन्धी होते हैं और न दुकानदार और ख़रीददार, वे क्यों आते हैं.....? क्या मिल जाता है उन्हें यहाँ की मँडई में और कौन लोग होते है वे? इन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिये आइये, हम आपको नारायणपुर की मँडई का एक छोटा सा दृश्य दिखायें :
  प्रमुख मँडई के एक दिन पहले से ही सुदूर अबूझमाड़ से अबूझमाड़ियों के दल के दल यहाँ आने लगते हैं। सड़क के एक किनारे, जहाँ तक दृष्टि जाती है, केवल ये ही ये नज़र आते हैं। जहाँ युवक अद्र्ध नग्न हैं, वहीं युवतियाँ भी। कमर में बिल्कुल छोटा सा कपड़ा.....कमर के ऊपर एकदम नंगी देह।
  यह दृश्य देख कर भी यदि आपको ऊपर के प्रश्नों के उत्तर न मिले हों तो हम ही बता देते हैं। इन्हीं दृश्यों को देखने, अपने कैमरों में क़ैद करने के लिये बाहर से आते हैं सैलानी। और अपनी तरह से उन फोटोग्राफ्स का उपयोग भी कर लेते हैं। बस! यही कारण है कि विभिन्न प्रचार माध्यमों से यहाँ के ऐसे चित्र और गढ़ी गयी आधारहीन कहानियों का प्रकाशन-प्रसारण दूर-दूर तक हो गया है और इसी आकर्षण में खिंचे सैलानी दौड़े चले आते हैं। वरना ऐसी कोई विशेष बात नहीं है कि आप सैकड़ों-हज़ारों किलोमीटर की दूरी पार कर यहाँ पहुँच जाएँ।
  शनिवार, 12 फरवरी 1983। मर्दापाल की मँडई। कोंडागाँव से पश्चिम की ओर 33 किलोमीटर दूर मर्दापाल के लिये कोंडागाँव से सुबह नौ बजे निकलते हैं हम। ट्रकें डिपो में लट्ठे खाली कर वापस जंगलों में जा चुकी हैं। वाहन की समस्या आ जाती है। सायकलों से चलना तय होता है। तभी एक ट्रक हमें मेंडपाल तक, यानी मर्दापाल से 7 किलोमीटर इधर तक के लिये मिल जाती है। जंगली रास्ते में ट्रक दौड़ने लगती है और ऊपर बैठे हुए यात्री डोलने लगते हैं। रास्ता बड़ा ही ख़राब है। ड्रायवर अपनी धुन में एक्सलरेटर पर दबाव बढ़ाता चला जा रहा है। रास्ते में और भी लोग ट्रक को रोकते हैं। सारे के सारे लोग मर्दापाल की मँडई देखने जा रहै हैं। सड़क के दोनों ओर आदिवासियों का रेला दिखायी पड़ता है। पैदल, सायकलों ओर बैल-गाड़ियों पर। औरतें सिर पर बोझ और बगल में बच्चों को बाँध कर लिपटाए हुए। पुरुष भी पीछे नहीं हैं। काँवड़ में एक ओर सामान तो दूसरी ओर बच्चों को बिठाए हुए। कुछ लोग सायकलों पर सामने बच्चों को और पीछे पत्नी को बिठाए मस्ती में झूमते हुए। क्या युवा, क्या बूढ़े और क्या बच्चे.....सभी के सभी, समूचा परिवार, गाँव और वह इलाक़ा ही उमंग में भरा बढ़ा चला जा रहा है। सभी को जल्दी है। बाज़ार भरने से पहले, बल्कि काफ़ी पहले पहुँचना होगा, वरना सारी तैयारियों के लिये समय कैसे मिल पाएगा.......! और इधर घने जंगलों के बीच से परम्परागत वेश-भूषा में आवृत्त आदिवासी बालाओं के झुण्ड किलकारियाँ-सी भरते सड़कों पर निकल आते हैं और उनकी चाल तेज़ होती जाती है। बीच में पड़ता है ढोल मँदरी नाम का वह स्थान, जहाँ पिछले नवम्बर-दिसम्बर में अपने-आप को परलकोटिया राजा कहने वाले बिहारी दास समर्थक लछिन-पेदा नामक आदिवासियों ने अपने साथियों के साथ लट्ठों से भरी ट्रकें खाली करवा ली थीं। वाक़ई बड़ा ही डरावना दृश्य है उस स्थान का। घने जंगल वैसे तो ज़रा भीतर जा कर हैं, फिर भी वहाँ की स्थिति कुछ ऐसी है कि एकबारगी मन में भय का समा जाना अस्वाभाविक नहीं लगता। घाटी-सी है वहाँ। सागौन का वृक्षारोपण भी उसी क्षेत्र में लगाया गया है। जंगल देख कर विश्वास करना ही पड़ेगा कि वाक़ई उस जगह आज से पन्द्रह-बीस साल पहले शेर आ निकलता रहा होगा। भाई वेलेज़ली जी इधर रह चुके हैं। वे बताने लगते हैं, "प्राय: आसपास के बाज़ारों के दिन यहाँ शेर घात लगाए बैठा होता था।" अभी भी, हालाँकि खोजने पर भी शेर तो क्या एक खरगोश भी वहाँ नहीं मिलेगा, किन्तु इसके बावज़ूद लोगों के मन में भय बराबर बना हुआ है। दरअसल जंगल वहाँ इतना घना है कि वही बड़ा भयावह लगता है। आते-जाते वनवासी भी उस जगह पहुँच कर थोड़ा-सा ठिठकते ही हैं। रास्ते में पड़ता है मँजुरडोंगर। इस गाँव के पानी के विषय में आज भी यह शिकायत है कि यह विषाक्त-सा हो गया है। कई लोग उस विषाक्त पानी के शिकार होकर काल-कवलित हो चुके हैं।
  बहरहाल, ट्रक चली जा रही है। मेंडपाल अब ज़्यादा दूर नहीं है। इतने में कण्डक्टर ऊपर आता है और किराये के पैसे वसूलने लगता है। वैसे इसके पहले ट्रक का क्लीनर भी आ चुका है। कुछ लोगों से पैसे वसूल कर एक किनारे जा टिका है। हमारी बगल में चार-पाच आदिवासी युवतियाँ खड़ी हैं। कण्डक्टर वहीं पहुँच जाता है। युवतियाँ कह उठती हैं, "अभी तो पैसे दिये हैं, क्या दुबारा लोगे?" तब कण्डक्टर अर्थ-भरी मुस्कराहट के साथ कह उठता है, "तुमसे पैसे किसने माँगे? क्यों दिये तुम लोगों ने पैसे?" युवतियाँ उसकी हँसी का अर्थ समझते हुए उत्तर देती हैं, "किराये के पैसे भला क्यों न देंगी?"
  तब तक कण्डक्टर उनसे सट-सा गया है। युवतियाँ इधर-उधर खिसकने लगती हैं। लेकिन कण्डक्टर का हाथ उनमें से एक लड़की के कन्धे पर पहुँच चुका है और उनका प्रतिरोध.........! ट्रक में सवार हम में से कोई भी, यहाँ तक कि उन आदिवासी युवकों में से भी कोई नहीं बोल पाता कुछ भी। बस, भीतर तक आत्मग्लानि का भाव पैठ जाता है। हम लोगों ने उधर से निगाहें हटा ली हैं और व्यस्त हो गये हैं साहित्य-चर्चा (?) में......।
  चर्चा रुकती है, ट्रक रुकने के साथ। ट्रक रुकी है मर्दापाल से सात किलोमीटर इधर, मेंडपाल जाने के रास्ते में। हम सब उतर पड़ते हैं। युवतियाँ हमसे भी पहले ट्रक से उतर कर सड़क पर बढ़ चली हैं। उनकी गति तेज़ है, मानो अब थोड़ी देरी भी रुकना ख़तरे से ख़ाली न हो।
  अब हमें छह किलोमीटर की दूरी पैदल तय करना है। कन्धे पर टँगा झोला जिसमें टेप रिकार्डर, कैमरा और टिफ़िन हैं, बड़ा भारी लग रहा है। निगाहें सड़क पर किसी परिचित सायकल वाले की तलाश में फिसलती हैं। इतने में भाग्यवश पोलँग गाँव के एक परिचित सायकल से आते हुए दिखते हैं और हम अपने झोले उनकी सायकिल में टाँग देते हैं। वे बेचारे शिष्टता के नाते सायकिल पर से उतर कर हमारे साथ पैदल हो लेते हैं। चार किलोमीटर की दूरी हमने बातचीत करते हुए तय कर ली। तभी कोंडागाँव के एक मित्र मोटरसायकिल से आते नज़र आते हैं और हम उस पर सवार हो गये हैं। और कुछ ही मिनटों में हम पहुँच गये हैं, मर्दापाल।
  अभी हम फ़र्लांग भर इधर हैं कि सड़क के दोनों ओर पेड़ों के नीचे श्रृंगार करती आदिवासी युवतियाँ, युवक, बूढ़े और बच्चे दिखलायी पड़ते हैं। हममें से एक कह उठता है, "मेकअप हो रहा है.......।" उस स्वर में व्यंग्य छिपा है और छिपी है शहरी कामुक मानसिकता.....।
  बहरहाल, आप भी हमारे साथ मर्दापाल की मँडई घूम लीजिए। किन्तु इसके पहले कि आप मर्दापाल की मँडई घूमने चलें, आइए आपको इस गाँव के विषय में थोड़ी सी जानकारी दे दें।
  मर्दापाल गाँव के किनारे से भँवरडिही नाम की नदी बहती है। आगे कुधुर गाँव के पास से डण्डामियों का इलाक़ा शुरु हो जाता है। लोग कहते हैं कि इस इलाक़े में रहने वाले डंडामी माड़ियों का व्यसन है लूट-खसोट। माड़िया, मुरिया आदि जनजातियाँ भी इन डंडामियों से भय खाती हैं। प्रसंगवश यह स्पष्ट करना आवश्यक होगा कि माड़िया-मुरिया-डंडामी माड़िया तथा अबुझमाड़िया आदि कोई अलग-अलग जातियाँ नहीं अपितु गोंड जनजाति की ही उप शाखाएँ हैं।
  आदिवासी विकास खण्ड, कोंडागाँव के अन्तर्गत आने वाले इस मर्दापाल गाँव में विकास-कार्य को रेखांकित करते अस्पताल, मिडिल स्कूल, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, आदिमजाति सेवा सहकारी समिति आदि की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। एक पशु-चिकित्सक भी यहाँ पदस्थ हैं, किन्तु चिकित्सालय के लिये फ़िलहाल भवन उपलब्ध नहीं है। मर्दापाल, गुड़ापदर और कुसमा को मिला कर कुल तीन मुहल्ले जो कि लगभग एक-एक किलोमीटर की दूरी पर हैं, मर्दापाल गाँव कहलाता है। यहाँ की सम्मिलित आबादी लगभग पाँच हज़ार है।
  दूर गाँव से आये देवी-देवता देवगुड़ी में एकत्र हैं। मोहरी, नगाड़ों और तुड़बुड़ी से देवपाड़ की स्वर-लहरी वातावरण में गूँज कर एक अनोखा आल्हादकारी समाँ बाँध रही है। सिरहों पर देवियाँ आरूढ़ हैं और वे अपने-आप से बेख़बर देवगुड़ी के प्रांगण में झूम रहे हैं। नगाड़ों पर पड़ती नँगारची के काड़ों की चोट के साथ सिरहों के नृत्य की गति में तेज़ी आ गयी है। किलकारियाँ भरते हुए अपने ही हाथ से अपने शरीर पर काँटों की लड़ियों का प्रहार, कभी लोहे के नुकीले छड़ अपने गालों के आर-पार करते और बड़े-बड़े काँटों के झूलों में एकबारगी धँसते हुए ये लोग बड़ा ही रोमांचकारी दृश्य उपस्थित कर रहे हैं। दर्शन के लिये आये आदिवासियों के समूह उन पर पुष्प-वर्षा कर रहे हैं और उनके पाँव छू कर मंगल-कामना कर रहे हैं।
  दरअसल मँडई का प्रमुख आकर्षण यही देव-धामी होते हैं। यहाँ आसपास के कई-कई देवी-देवता अपने-अपने प्रतीकों के माध्यम से एकत्र होते हैं। बड़े-बड़े लाट-बैरक (लम्बे बाँसों में विभिन्न रंगों के झण्डे और ऊपरी सिरे पर पीतल का कलश, यही) इन देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। मँडई में काफ़ी भीड़ है। लोग अभी भी दूर गाँव से सपरिवार चले आ रहे हैं। भीड़ अभी बढ़ती ही जाएगी, ऐसा लग रहा है।
  इधर-उधर घूमते वनवासियों के बीच इस साल की मँडई चर्चा का विषय बनी हुई है। सभी को महसूस हो रहा है कि और वर्षों की अपेक्षा इस वर्ष यहाँ की मँडई में काफ़ी रौनक है। लोग अत्यधिक प्रसन्नचित्त नज़र आ रहे हैं।
वस्तुत: किसी भी बाज़ार या मँडई में दिखने वाली रौनक का सीधा-सीधा ताल्लुक उस क्षेत्र की आर्थिक स्थिति से होता है। फसल ठीक रही तो उल्लास भर जाता है। और फसल की हालत कमज़ोर रही तो सारा उल्लास फीका पड़ जाता है।
  हमने कुछेक वनवासियों से इस बाबत चर्चा की तो उन्होंने उमंग के साथ बताया कि और वर्षों की अपेक्षा इस साल फसल अच्छी हुई। इसी वज़ह से मँडई भी काफ़ी अच्छी भरी है।
  हम अब मँडई में प्रवेश कर चुके हैं। इधर बायीं ओर कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिये पुलिस-चौकी बनायी गयी है। जिलाधीश कल यहाँ के दौरे पर आये थे, शायद आज भी आयें। बिल्कुल मुहाने पर गल्लों के पसरे लगे हुए हैं। उड़द, अरहर, इमली, तिल आदि के ढेर उन पसरों में लगे हैं। आदिवासी आ-आ कर अपने साथ लायी उपज व्यापारियों के हाथों सौंप रहे हैं। हर आदिवासी का अपना पहचाना हुआ व्यापारी है। वह बुलाने पर भी दूसरे व्यापारी के पास नहीं जा रहा है। हर्रा की खरीदी वन विभाग द्वारा की जा रही है। हर्रा की क़ीमत तो ख़ैर सही मिल रही है, लेकिन दूसरे उपज की क़ीमत सही मिल रही है या नहीं, आदिवासी इससे बिल्कुल ही बेख़बर हैं।
  आगे बढ़ते हैं तो कपड़ों की दुकान, बर्तनों, आभूषणों और फैन्सी सामानों के दुकान नज़र आते हैं। इन दुकानों पर आदिवासियों की भीड़ लगी है। होटलों में लोग बैठे खा-पी रहे हैं। पान की दुकानों में युवक-युवतियाँ खड़े पान की गिलौरी ले कर एक-दूसरे को खिला रहे हैं।
  साल भर की प्रतीक्षा के बाद तो आती है मँडई। और मँडई आती ही इसीलिये है कि मर-जी कर बचे हुए लोग आपस में मेल-मुलाक़ात कर सकें। आनन्द और उमंग के दो क्षण आपस में मिल कर गुज़ार सकें। कल पता नहीं, कौन कहाँ रहे.....! क्या पता जीते बचते भी हैं या नहीं.....? दूर-दराज़ के सगे-सम्बन्धियों से भी भेंट यहीं होती है। साल भर के दु:ख-सुख का लेखा-जोखा यहीं......किसी पेड़ के नीचे बैठ कर लगाया जाता है। साथ लायी सलफी-शराब और लंदा आपस में मिल-बाँट कर पी जाती है। मुलाक़ात और मधुर क्षणों की स्मृति में गोदने भी तो यहीं गुदवाए जाते हैं। बाँहों में, हथेलियों पर, चेहरे पर। और कंघी, चुनौटी, ककवा भी यहीं एक-दूसरे को भेंट किए जाते हैं।
  हम सोने-चाँदी, पीतल-अल्युमिनियम के आभूषणों की एक दुकान के पास रुक गये हैं। आदिवासियों ने चारों ओर से उस दुकानदार को घेर रखा है। हर किसी को सौदा जल्दी ख़रीद लेने की जल्दी पड़ी है। दुकानदार सभी की बात सुनने का भरसक प्रयास कर रहा है। और चाह रहा है कि कोई भी ग्राहक वहाँ से उठ कर दूसरी जगह न जाने पाए। हमने वहाँ बैठे हुए एक बुज़ुर्ग से बातचीत की :
  "अपना नाम बताएँगे आप?"
  इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने अपने प्रति प्रश्न में दिया, "नाम जान कर क्या करेंगे?"
  हमने दुबारा नाम नहीं पूछा।
  "अच्छा, ठीक है। कौन गाँव से आये हैं, आप?" हमारा अगला प्रश्न था।
  "नवागाँव से।"
  "क्या ख़रीद रहे हैं?"
  "कुछ नहीं।"
  "तब बैठे कैसे हैं?"
  "ऐसे ही। यह तो मेरी रोज़ बैठने की जगह है। पहचान के हैं, इसलिये बैठा हूँ।"
  हमारी बातचीत से दुकानदार को शंका हुई। उसने बातचीत रिकार्ड करते देख कर कारण पूछा था। हमने बताया, हम अख़बार के लिये रपट तैयार कर रहे हैं। तब उनकी मुखाकृति देखने लायक़ हो गयी थी। थोड़ी देर के लिये वह ग्राहकों से बातचीत करना भूल गया था। हम वहाँ से आगे बढ़ तो गये लेकिन प्रश्न घूमता रहा ज़ेहन में कि आख़िर वह बुज़ुर्ग बिना बात वहाँ क्यों बैठा है? तभी हमारे साथ घूम रहे एक स्थानीय मित्र ने बताया कि व्यापारी लोग इसी तरह हर गाँव के प्रभावशाली लोगों से साँठ-गाँठ रखते हैं। और आप देखेंगे कि हर दुकान में, विशेषत: कपड़े, बर्तन और आभूषणों की दुकानों में एक न एक क्षेत्रीय व्यक्ति बिना काम बैठा हुआ मिलेगा। दरअसल, गाँव के लोग जब यह देखते हैं कि उनके क्षेत्र का प्रतिष्ठित व्यक्ति उस दुकान में बैठा है तो वे उधर ही चले जाते हैं------इस आशा से कि वह व्यक्ति उन्हें सस्ते में सौदा दिला देगा। जबकि व्यापारी उनकी इसी मानसिकता का ग़लत फ़ायदा उठाता है। उस प्रतिष्ठित व्यक्ति या ग्राहक को पता भी नहीं चलता और व्यापारी उनसे वस्तु की अधिक क़ीमत वसूल कर लेता है।
  वाकई उनकी बात सच निकली। प्राय: इस क़िस्म की हर दुकानों में एक न एक व्यक्ति, जो उस क्षेत्र का प्रतिष्ठित व्यक्ति (जैसे सरपंच, पटेल, कोटवार, माँझी, मुखिया या गाँयता-पुजारी आदि) था, हमें तम्बाकू मल कर खाता, दुकानदार से गपियाता या ग्राहकों से बतियाता, मोल-भाव करता हुआ मिला।
  हम अब कपड़े की दुकान के सामने ठहर गये हैं। एक आदिवासी युवक को निवार ख़रीदते देख जिज्ञासा हो आयी है। क्या आग जला कर उसके चारों ओर सोने वाले आदिवासी अब निवार-बुनी चारपायी का उपयोग करने लगे हैं या कि सिंयाड़ी रस्सी का उपयोग अब नहीं होता......!
  "क्या ले रहे हो, जी?"
  "........." वह उत्तर में मुस्करा देता है। उस वस्तु का नाम नहीं बता पाता।
  "क्या करोगे इसका, खाट में लगाओगे?" हम फिर पूछते हैं।
  उत्तर वह अब भी नहीं देता। उसकी जगह दुकानदार कह उठता है : "नाचने के लिये यो लोग निवार लेते हैं।"
  अब हम चौंकते हैं। नाच में निवार का क्या काम? दुबारा पूछने पर दुकानदार के साथ-साथ आसपास बैठे दो-तीन दूसरे लोग बताते हैं, "नाच के समय इसे कमर में लपेट कर ऊपर से घुँघरु बाँधते हैं।" 
  नाम पूछने पर पहले तो वह सकपका-सा जाता है कि पता नहीं क्यों पूछ रहे हैं। फिर वह हकलाता हुआ अपना नाम-गाँव बतलाता है, "तातीराम, गाँव : कड़ेनार।"
  बर्तन की दुकान पास ही में लगी है। यहाँ भी वही दृश्य! एक बिना काम का आदमी बैठा हुआ है। तीन-चार आदिवासी ग्राहक थाली-गिलास आदि हाथ में उठा कर देख रहे हैं। दुकानदार बर्तन ख़रीदने के लिये बैठे एक आदिवासी से मोल-भाव कर रहा है। उस व्यक्ति को उस बर्तन की क़ीमत अधिक लग रही है और वह अब वहाँ से उठ भी गया है। हम देख रहे हैं, दुकानदार उस बर्तन का भाव अब क्रमश: कम करता जा रहा है और कोहनी से उस बिना काम के व्यक्ति को टहोका भी मारता जा रहा है। वह ख़रीददार शायद समझदार है। उठ कर बाहर भीड़ में ग़ुम हो गया है। दुकानदार अन्तिम बार चिल्लाता है, "तीन कोड़ी ने एब्बे देयँदे। ए ना एय गोतिया.....(साठ रुपये में अभी दे दूँगा। ओ भाई.....!)" किन्तु वह ख़रीददार ओझल हो चुका है। खिसिया कर वह दुकानदार अपने नौकर से कहता है, "ले बे, रख उधर। साला, चालू लगता है!"   और फिर व्यस्त हो गया है-------"आले ना आना, कोन कसला आय जाले.....? (अच्छा जी लाओ, कौन सा लोटा है......?)"
  थाली खरीद कर वहीं बैठी हुई एक युवती से हम पूछ बैठते हैं, "क्यों बाई, थाली की क़ीमत तो ठीक है, न?"
  वह उत्तर में सिर हिला देती है केवल। ग्रामीणों की आम धारणा है कि मँडई में चीज़ें सस्ती मिलती हैं। दुकानदारों को ग्रामीणों की इसी धारणा के चलते काफ़ी फ़ायदा होता है। ड्योढ़े-दोगुने क़ीमत में ये अपनी चीज़ें इन मेलों में बेच लेते हैं। वहीं कुछ ग्रामीण ऐसे भी हैं जो इस सही तथ्य से परिचित हैं। ऐसे ही एक आदिवासी युवक से हमारी भेंट हो गयी। सायतूराम वनग्राम कारसिंग के कोटवार हैं। वे बताते हैं कि मेलों में चीज़ें कभी सस्ती नहीं मिलतीं। इसलिये वे मेलों में कभी कोई सामान नहीं लेते।
  "आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?" हमने पूछा।
  "मैं रोज़ कोंडागाँव आना-जाना करता हूँ। वहाँ के बाज़ार या दुकानों में जो चीज़ें दस रुपये में मिलती हैं, यहाँ वही चीज़ें पन्द्रह रुपये से कम में नहीं दे रहे हैं दुकानदार।" सायतूराम का जवाब था।
  दुकानदारों को इन मेलों में वाक़ई फ़ायदा होता है या नहीं, इसकी जानकारी हमें मिली एक व्यापारी से ही। पूछने पर उन्होंने गर्व सहित उत्तर दिया : "अरे भाई! इन आदिवासियों को क्या मालूम, किस चीज का दाम क्या है? दस रुपये की चीज हम बीस रुपये बताते हैं। भाव उतारना इन आदिवासियों का धंधा ही है। उतरते-उतरते पन्द्रह रुपये पर तो सौदा पट ही जाता है।"
  उस व्यापारी से निबट कर आगे बढ़े तो एक आदिवासी बूढ़े को चक्की रखे देखा। बूढ़े बाबा को यही नहीं पता था कि कितने रुपये में उसे वह चक्की बेचना चाहिये। पूछने पर बताया, "बीस भी है, पचीस भी है। मैं नहीं जानता।" 
  हमने कुरेदा, "मेहनत कितने दिनों की लगी होगी?"
  "पाँच दिन कम से कम।"
  हम चौंक गये। पाँच दिनों की हाड़-तोड़ मेहनत की क़ीमत वह बेचारा केवल बीस या पचीस रुपये आँक रहा है।
  अब ऐसा नहीं है कि आदिवासी की आवश्यकताएँ मात्र नमक-मिर्च तक ही सीमित रह गयी हों। उनकी आवश्यकताएँ भी दिनों-दिन बढ़ती जा रही हैं। आसपास भरने वाले साप्ताहिक बाजार और मेले-मँडई के कारण और दूसरी चीजों से भी ये लोग परिचित हो गये हैं और उनका उपयोग जानने के बाद आवश्यकता महसूस करने लगे हैं। इधर इन मेलों में काफी फर्क भी आ गया है। कोरमेल गाँव से यहाँ मँडई देखने आये एक आदिवासी बुजुर्ग श्री कमलू से बातचीत करने पर वह अन्तर स्पष्ट हो जाता है, "बहुत अन्तर आ गया है, अब तो।" कमलू की बूढ़ी आँखों में पिछला दृश्य उभरने लगा है और स्वर में वर्तमान के प्रति असन्तोष भी...."देवता के उतरे हुए कपड़ों को हम पहना करते थे। आज तो स्थिति दूसरी है। किसम-किसम के कपड़े पहनने लगे हैं लोग। हमने पिछौरी और कुरता तो कभी पहना ही नहीं था।" 
  पुराने लोग पता नहीं क्यों अपनी उन परम्पराओं को ओढ़े रहना चाहते हैं, जबकि नयी पीढ़ी एकदम उनके खिलाफ है। वह अब रंग-बिरंगे और नए फैशन के कपड़े पहनना चाहती है।
  बात को मँडई की ओर ले जाते हुए हमारा प्रश्न है, "आप बताइये, मँडई में क्या फर्क नजर आता है आपको?" 
  इस पर वे सामने गुजर रहे देव-धामी की ओर इंगित कर कहते हैं, "ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। वो   देखिए, सामने लाट-बैरक जा रहे हैं और ये लड़के-लड़कियाँ कैसे उन देवताओं के सामने बन-ठन कर घूम रहे हैं! पहले ऐसा नहीं था। किसी की क्या मजाल थी कि देव बिहरने के समय सामने आ जाए।" वे पल भर रुकते हैं, फिर कुछ याद कर कहने लगते हैं, "घोटिया गाँव की मँडई की बात है। देव बिहरने के समय देवगुड़ी से दुलारदई देवी निकलीं और मँडई में प्रवेश किया ही था कि एक सजी-धजी औरत उनके सामने पड़ गयी। देवी ने कहा, अब मैं क्या घूमूँगी मँडई में। यहाँ तो यह औरत ही मुझसे अधिक सजी-सँवरी है। और देवी देवगुड़ी में वापस हो गयी। शाम होते न होते उस स्त्री की मृत्यु हो गयी।"
  ऐसी बात नहीं है कि आज की पीढ़ी के मन में देवी-देवताओं के प्रति श्रद्धा नहीं रह गयी है। किन्तु हाँ, पुरानी ऐसी परम्पराओं को वे जरूर छोड़ देना चाहते हैं, जिनके चलते उन्हें नुकसान उठाना पड़ रहा है।
  एक नर्तक-दल ने अभी-अभी मँडई-स्थल में प्रवेश किया था। सिर में सींग पहने, गले में माँदर और ठुड़का वाद्य-यन्त्र लटकाए मस्ती में बजाते-नाचते आदिवासी युवा मँडई में घूम रहे थे। हमने उनमें से एक को रोक कर पूछा, "कौन गाँव के हो?" हमारा इस तरह रोक कर पूछना उसे शायद अच्छा नहीं लगा, "......अरे, पुसपाल का। पुसपाल गाँव किसका, मर्दापाल किसका........?" उत्तर दिया उसने, लेकिन उनकी आँखों में हमारे प्रति घृणा और स्वर में आक्रोश स्पष्ट परिलक्षित हो रहा था। वह फिर बजाता-झूमता आगे बढ़ गया।
  मँडई में हम देख रहे हैं, लोग जहाँ पास के गाँवों पुसपाल, नवागाँव, कुधुर, कोरमेल, रानापाल, हड़ेली, पड़ेली, सुदापाल वगैरह से आये हैं, वहीं काफी दूर-दूर, जैसे तोकापाल, लोहंडीगुड़ा, चारामा आदि से भी आये हुए हैं। इस साल इधर गन्ने की फसल भी अच्छी हुई है। तभी तो यहाँ गन्ने का रस और गुड़ बहुत सस्ता बिक रहा है।
  मनोरंजन के लिये यहाँ बाहर से झूला वाले आये हैं। फोटो स्टूडियो और सर्कस वालों का प्रवेश अभी इधर नहीं हुआ है। हाँ, पिछली रात में दूर-दूर से आये हुए आदिवासी नर्तक-दलों ने कोकरेंग नृत्य सारी रात किया था। आज की रात बारह ओड़िया-नाच-दलों के आने की सम्भावना है। छत्तीसगढ़ी नाचा के भी आने की सम्भावना है।
  बहुत अच्छी बात जो यहाँ की मँडई में देखने को मिली, वह थी आदिवासी युवतियों का वस्त्र धारण किए होना। अद्र्धनग्न कोई भी नहीं दिख रही थी, जबकि नारायणपुर की मँडई में सुदूर अबूझमाड़ से आने वाली आदिवासी युवतियों के वक्ष प्राय: नग्न होते हैं। बहुत से शहरी यहाँ भी इसी आशा से आये हुए थे कि आदिवासी बालाओं के उघड़े बदन देख कर तृप्त हो लें। लेकिन जब ऐसा दृश्य उन्हें यहाँ नहीं दिखा तो वे लोग स्पष्ट कहते सुने गये, "यहाँ आने का कोई मतलब ही नहीं निकला। साले, सारे के सारे कपड़े पहने हुए हैं।"
  जिज्ञासा बढ़ी। हमने कुछेक आदिवासी युवकों से पूछा तो उन्होंने बताया, "लछिन-पेदा (इनका ज़िक्र पहले भी आ चुका है) ने हमें यह सब सिखाया है। अब इस इलाके के लोग, जो उनके सम्पर्क में हैं, न रात में घोटुल जाते हैं और न अद्र्धनग्न रहते हैं।"
  अधिकांश लोग प्रसन्न हैं कि इस साल की मँडई में कोई उपद्रव नहीं हुआ। पिछले साल तो माड़ियों ने लूट-पाट मचायी थी।
  शाम घिरने से पहले ही आसपास के गाँवों के लोग अपने-अपने बोझे ले कर वापस होने लगे हैं। जल्दी घर पहुँचेंगे तभी तो खा-पी कर रात में नाच देखने आयेंगे। दूर से आये आदिवासी भी अपने-अपने डेरों की ओर, जो कि पेड़ों के नीचे बने हुए हैं, जाने लगे हैं। अब कुछ घंटों के बाद नाच शुरु होंगे। नर्तक-दलों का आना तो शुरु हो ही गया है। और तब रात में मँडई की रौनक एक बार फिर देखते ही बनेगी।
("नवभारत" दिनांक 27 फरवरी 1983 अंक में प्रकाशित)

9 comments:

  1. आनंददायक सतरंगी मेला.

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  2. जोंहार....... अंकल जी लेख के लिये बधाई

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  3. अंकल जी टेलीफोन लाईन बनने के लिए बधाई.... अब रोज कुछ ना कुछ पडने को मिलेगा

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  4. Aap dono kaa bahut-bhaut aabhaar.

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  5. बहुत बढ़िया ...

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  6. Rajesh Chandrakar ji ne email par likhaa:
    बहुत बढ़िया ...

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  7. बहुत बढ़िया प्रस्तुति,सुंदर लेख,...

    MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: कवि,...

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  8. सुन्दर प्रस्तुति. हम लोग पुलिस थाने में लगे नोटिस बोर्ड से पता करते थे कि कौन सी मंडई कब लग रही है. चपका हम लोगों का प्रिय रहा.

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  9. मड़ई का जीवंत चित्रण,हमने भी आपके साथ मर्दापाल की मड़ई का आनंद ले लिया। समय की मार का असर इन परम्परागत मड़ई मेलों पर भी पड़ा है। बढिया लेख आभार

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