अन्याय पर न्याय की विजय-गाथा "आठे जगार" विमोचित
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बस्तर अंचल के हल्बी परिवेश में तीन लोक महाकाव्य "तीजा जगार" या "धनकुल", "लछमी जगार" और "आठे जगार" तथा भतरी परिवेश में एक लोक महाकाव्य "बाली जगार" प्रचलन में रहे हैं। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि इन चारों जगारों के केन्द्र में नारी है। नारी द्वारा ही इनका गायन भी किया जाता है, जिन्हें गुरुमायँ कहते हैं। "आठे जगार" श्रीकृष्ण के जन्म का उत्सव तो है ही किन्तु उससे भी कहीं अधिक यह अन्याय पर न्याय की विजय-गाथा है, आततायियों से मानवता को मुक्त कराने की गाथा है; कारण, रैनी (रइनी) बाबी को अबुड़ असुर के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिये यदि रैनी (रइनी) बाबी के गर्भ से कंस का जन्म होता है तो वहीं कंस के उत्पीड़न से देबकी को मुक्ति दिलाने के लिये किरिस्ना का। मातृत्व का एक और रूप इस महागाथा में "उसी" नामक चिड़िया के प्रसंग में भी देखने को मिलता है। यह नारी को उत्पीड़न से उसकी सन्तान द्वारा मुक्ति दिलाने की महागाथा है।
भगवान श्री कृष्ण की कथा के लोक-रूप का गायन इस जगार के अन्तर्गत किया जाता है। कथा लोक-संस्कृति से अनुप्राणित होती है। इसे बच्चों का पर्व माना गया है। बच्चों के साथ-साथ अन्य श्रद्धालु जन भी इस अवसर पर व्रत रखते हैं। इस जगार की प्रमुख गायिका रही हैं बस्तर (जगदलपुर) जिले में खुटीगुड़ा नामक गाँव की गुरुमाय देवला। इन्हीं की शिष्य परम्परा में आने वाली इसी जिले की सोनारपाल (सिवनागुड़ा) निवासी गुरुमायँ हीरामनी और गुरुमायँ भानमती की ननद गुरुमायँ चमेली अभी भी इस जगार का गायन करती हैं। गुरुमायँ भानमती का असामयिक निधन 2013 में हो गया। प्रकाशित "आठे जगार" इन्हीं दोनों गुरुमायों (हीरामनी और भानमती) की प्रस्तुति है।
19 जनवरी 1955 को अविभाजित बस्तर जिले के दन्तेवाड़ा में जन्मे हरिहर वैष्णव अंचल के लोक साहित्य, विशेषत: वाचिक परम्परा के गंभीर अध्येता के रूप में जाने जाते हैं। बस्तर पर केन्द्रित उनकी अब तक 24 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और 7 प्रकाशनाधीन हैं।