ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो देवता होय
हरिहर वैष्णव
ढाई आखर प्रेम का पढ़ कर पण्डित होने की बात तो सुनी थी किन्तु देवता होने की घटना हमें छत्तीसगढ़ के जनजाति बहुल अंचल बस्तर में ही सुनायी पड़ती है। केवल इतना ही नहीं किन्तु इनकी विधि-विधान पूर्वक पूजा-अर्चना भी होती है। इनमें से एक प्रेमी युगल है "झिटकू-मिटकी" और दूसरे, दो भाई और दो बहनें हैं, "सोमी-दामी" और "रुनकी-झुनकी"।
इनमें से "झिटकू-मिटकी" की कथा तो बहुचर्चित है किन्तु शेष चारों की प्रेम-कथा बहुश्रुत नहीं है। कारण, इस कथा के नायक जहाँ जनजातीय समुदाय के हैं वहीं नायिकाएँ गैर जनजातीय समुदाय की। इसीलिये इनकी पूजा-अर्चना मुख्यत: इन्हीं दोनों यानी मुरिया जनजाति तथा कलार जाति के परिवारों में होती है। इनकी यह कथा मुझे ग्राम सम्बलपुर के सुग्रीव पोयाम, जो स्वयं मुरिया जनजाति से थे तथा सोनाबाल के कलार जाति के कँवल सिंह बैद ने कई वर्षों पहले सुनायी थी।
कलार साहूकार की दो बेटियाँ थीं। इनके नाम थे "रुनकी" और "झुनकी"। रुनकी और झुनकी बहुत ही सुन्दर थीं। सोमी और दामी भी वैसे ही सुन्दर थे। एक-दूसरे को देख कर इनमें आपस में प्रेम हो गया। अब देखते-ही-देखते यह बात यहाँ-से-वहाँ होते-होते साहूकार के कानों तक गयी। सुनकर साहूकार बहुत ही क्रोधित हुआ। गाँव भर के लोगों के बीच चर्चा होने लगी। तब साहूकार ने सोमी-दामी और रुनकी-झुनकी को बुलाया और समझाया। लेकिन ये लोग नहीं माने। "जिएँगे तो साथ और मरेंगे तो भी साथ" कहा। तब साहूकार ने सोमी-दामी को मारने की युक्ति सोची। यह बात सोमी-दामी ने सुनी और स्वयं ही धान की "ढुसी" के भीतर कूद कर आत्म-हत्या कर ली। धान रखने के लिये धान के पुआल को ऐंठ कर बनायी गयी रस्सी (बेंट) को लपेट कर बनाया गया भण्डारण-उपकरण "ढुसी" कहलाता है।
इधर साहूकार उन दोनों को खोजने लगा। खोजते-खोजते इनका शव धान की ढुसी के भीतर मिला। सोमी-दामी की मृत्यु का समाचार रुनकी-झुनकी ने भी सुना। सुन कर उन दोनों ने भी आत्म-हत्या कर ली। इनके मरने के बाद साहूकार के घर में अनहोनी घटनाएँ होने लगीं। गाँव में भी दैवीय प्रकोप होने लगा।
सिरहा (जिस पर देवी की सवारी आती है) ने तन्त्र-मन्त्र से जान कर बताया कि सोमी-दामी मृत्यु के बाद प्रेत बन गए हैं। अब इनकी पूजा करनी पड़ेगी। कहते हैं कि इसी दिन से सोमी-दामी और रुनकी-झुनकी की विधि-विधान पूर्वक पूजा-अर्चना की जाती है।
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गोंड जनजाति की मुरिया शाखा में देवतेल चढ़ाने के पहले और दूल्हा या दुल्हन को नहलाने के बाद एक रस्म होती है करसा कोंडी भरने की, अर्थात् कलश में धान भरना। यह रस्म पूरी की जाती है गाँयता-पुजारी के द्वारा। कलश भरने के बाद उसे मण्डप के चारों ओर घुमाया जाता है और फिर उसे भीतर ले जा कर रख देते हैं। इस समय महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला गीत गोंडी में "करसा पसिह्ना पाटा" और हल्बी में "करसा कोंडी किंदरातो गीत" कहा जाता है। यह गीत जामपदर, कोंडागाँव (बस्तर-छ.ग.) के सोनधर कोराम और झिटकू राम कोराम (दिनांक 08.01.2006 को ध्वन्यांकित) के सौजन्य से (जो मेरी पुस्तक "बस्तर का आदिवासी एवं लोक संगीत", प्रकाशक : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, नयी दिल्ली, 2015 में सम्मिलित है) यहाँ प्रस्तुत है :
री रिलो यो रिलो रिलो री रिलो यो रिलो
री रिलो यो रिला रिला री रिलो यो रिला
री रिलो यो रिला रिला री रिलो यो रेला
सोमी-दामी दुय भाई माँदर मारते एयेत
सोमी-दामी दुय भाई माँदर मारते एयेत
री रिलो यो रिला रिला री रिलो यो रिला
री रिलो यो रिला रिला री रिलो यो रिला।
(री रिलो यो रिलो रिलो री रिलो यो रिलो। सोमी-दामी दो भाई माँदर बजाते आ रहे हैं।)