Sunday, 6 October 2013

लोककथायें इतिहास को आगे ले जाती हैं : डॉ. कौशलेन्द्र मिश्र

इस बार बस्तर की लोक कथाओं के संकलन "बस्तर की लोक कथाएँ" पर डॉ. कौशलेन्द्र मिश्र जी का सारगर्भित आलेख प्रस्तुत है।

 

पुस्तक :- बस्तर की लोककथायें।सम्पादक द्वय :- लाला जगदलपुरी एवं हरिहर वैष्णव।प्रकाशन :- लोक संस्कृति और साहित्य श्रंखला के अंतर्गत नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया द्वारा प्रकाशित।पुस्तक का विशेष आकर्षण :- हरिहर वैष्णव का 26 पृष्ठीय निवेदन।


वागर्थाविव संप्रक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये। 
जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ॥ 

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवाशिष्यते।

   पुस्तक के प्रारम्भ में प्रस्तावना या प्राक्कथन के स्थान पर एक निवेदन प्रकाशित किया गया है जो निश्चित ही इस पुस्तक का एक विशेष आकर्षण है।  
   अविभाजित पूर्व बस्तर के वर्तमान सात जिलों के वनवासी अंचलों में प्रचलित आंचलिक भाषाओं, उन्हें बोलने वाले समुदायों, भाषायी विशेषताओं,आंचलिक भाषाओं के पारस्परिक संबन्धों-प्रभावों और इन आंचलिक भाषाओं की व्याकरणीय समृद्धता का विश्लेषण करता हुआ हरिहर जी का छब्बीस पृष्ठीय निवेदन अपने आप में एक संग्रहणीय आलेख हो गया है। लोककथाओं के इस संकलन में यदि यह प्राक्कथन न होता तो पुस्तक निष्प्राण सी रह जाती। न केवल भाषाप्रेमियों अपितु भाषाविज्ञानियों और शोधछात्रों के लिये भी यह प्राक्कथन बहुत ही उपयोगी बन गया है। बस्तर की लोकबोलियों में हमें द्रविणभाषा परिवार और भारोपीयभाषा परिवार के बीच एक सहज संबन्ध स्थापित होता हुआ स्पष्ट दिखायी देता है जो भाषा के जिज्ञासुओं के लिये आनन्ददायी है।  


   भौगोलिक दूरियों के विस्तार के साथ-साथ उच्चारण में विभिन्न सामुदायिक और आंचलिक भिन्नताओं के कारण भाषाओं और बोलियों के स्वरूप में परिवर्तन होते रहते हैं। विभिन्न समुदायों के पारस्परिक सामाजिक संबन्ध जहाँ भाषाओं को प्रभावित करते हैं वहीं उन्हें समृद्धता भी प्रदान करते हैं। बस्तर की सीमायें आन्ध्रप्रदेश, ओड़िसा और महाराष्ट्र की सीमाओं को स्पर्श करती हैं इसी कारण बस्तर की बोलियों पर हिन्दी, पूर्वी, तेलुगु, मराठी, उड़िया और संस्कृत आदि भाषाओं के प्रभाव तो हैं ही प्रवासी विद्वानों, व्यापारियों, घुमंतू बंजारों, विभिन्न राजवंशी शासकों, राजसेवकों और विदेशी आक्रमणकारियों के सतत सम्पर्क के कारण तमिल, राजस्थानी, अरबी, फ़ारसी और अंग्रेज़ी आदि सुदूर प्रांतों एवं राष्ट्रों की भाषाओं के भी स्पष्ट प्रभाव देखे जा सकते हैं।
  संस्कृति, सभ्यता और परम्पराओं के संवहन की मौलिक विधा के रूप में वाचिक और श्रवण परम्पराओं ने लोककथाओं को जन्म दिया है। लिपि के विकास से बहुत पहले अपने अनुभवों, सन्देशों और शिक्षाओं के सम्प्रेषण तथा मनोरंजन के लिये पूरे विश्व के मानवसमाज ने लोककथाओं की मनोरंजक विधा को अपनी-अपनी बोलियों में गढ़ा और विकसित किया। निश्चित ही लोककथाओं का उद्देश्य केवल मनोरंजन न होकर समाज की बुराइयों और शिक्षाओं को वाचिक परम्परा के माध्यम से अगली पीढ़ियों को सौंपना भी था। इसीलिये, इन लोककथाओं में मनुष्य की स्वार्थ और धूर्तता जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियों के विरुद्ध बुद्धिमत्तापूर्ण उपायों से किये जाने वाले संघर्षों से प्राप्त होने वाली विजय की कामना के साथ-साथ आंचलिक विविध समस्याओं के समाधान के लिये भी कहानियाँ गढ़ी जाती रही हैं।
    कहानियाँ अपने अंचल और समुदाय का प्रतिनिधित्व करती हैं। बस्तर की लोककथाओं के माध्यम से बस्तर के जनजीवन, उनकी सरल परम्पराओं,जीवनचर्या और समस्याओं को प्रतिबिम्बित किया गया है। बस्तर की लोककथाओं की विशेषता इन कथाओं के भोलेपन और कथा कहने की शैली में दृष्टिगोचर होती है। इस नाते ये कथायें बस्तर के वनवासीसमाज की अकिंचन जीवनशैली, उनकी सोच, और उनकी परम्पराओं का एक लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं।
    इन सरल कहानियों के पात्र आम वनवासी के बीच से उठकर आते हैं इसीलिये कोस्टी लोककथा लेड़गा का राजकुमार भी शहर घूमने की इच्छा करता है और सम्पन्न होते हुये भी जीवन की आम समस्याओं से दो-चार होता है। लोककथाओं में ऐसा भोलापन अकिंचन समाज से ही स्रवित होकर आ पाता है। राजघरानों की कुटिलताओं के किस्से भी आमआदमी के पास तक पहुँचते-पहुँचते हल्बी लोककथा राजा आरू बेल-कयना एवं पनारी लोककथा राजा चो बेटीके किस्सों की तरह कोई न कोई चमत्कारिक समाधान खोज ही लेते हैं। यह लोकजीवन की सरलता और जीवन में सुख की आकांक्षा का प्रतीक है। अतीन्द्रिय शक्तियों में आस्था, दैवीय चमत्कार, तंत्र-मंत्र और जादू-टोना पर विश्वास आदिम मनुष्य की भौतिक सामर्थ्य सीमा के अंतिम बिन्दु से प्रकट हुये वे उपाय हैं जो किसी न किसी रूप में सुसंस्कृत, सुसभ्य और अत्याधुनिक समाज में आज भी अपना स्थान बनाये हुये हैं। अबूझमाड़ी कथा गुमजोलाना पिटोऔर दोरली कथा देवत्तुर वराम् के माध्यम से वनवासी समूहों द्वारा अतीन्द्रिय शक्तियों में आस्था प्रकट की गयी है जो मनुष्य को उसकी सीमित शक्तियों की आदिम अनुभूति की विनम्र स्वीकृति है।             
    मानव समाज में धूर्तों के कारण मिलने वाले दुःखों और उनसे मुक्ति के लिये युक्ति तथा दैवीय न्याय की स्थापना हेतु पशु-पक्षियों के माध्यम से मनोरंजक शैली में सतूर कोलियाल जैसी सरल-सपाट कहानियाँ गढ़ी गयी हैं जो बच्चों को मनोरंजन के साथ-साथ कुछ सीख भी देती हैं।   
   रक्त संबन्धों में विवाह किया जाना किसी भी विकसित और सभ्य समाज के लिये अकल्पनीय है तथापि कुछ जाति समूहों में रक्त सम्बन्धों में विवाह की परम्परा उन-उन समाजों द्वारा मान्य होकर स्थापित है। अबूझमाड़ की जनजातियों में ऐसे सम्बन्धों पर चिंता प्रकट करते हुये अबूझमाड़ी गोंडी लोककथाऐलड़हारी अनी तम दादाल के माध्यम से एक सुखद एवं वैज्ञानिक सन्देश देने का प्रयास किया गया है। रक्त सम्बन्धों में विवाह की वर्जना न केवल नैतिक और सामाजिक अपितु सुस्थापित वैज्ञानिक तथ्यों का भी शुभ परिणाम है। विषमगोत्री विवाह जातक के न केवल बौद्धिक और शारीरिक विकास की उत्कृष्टता के लिये अपितु जातियों को विनाश से बचाने के लिये भी अपरिहार्य है। जेनेटिक डिसऑर्डर, म्यूटेशन और ऑटोइम्यून डिसऑर्डर जैसी विनाशक व्याधियों से बचने के लिये नयीपीढ़ी को वैज्ञानिक सन्देश देने वाली ऐसी कहानी गढ़ने के लिये लोककथाकार निश्चित ही साधुवाद के पात्र हैं।
    रात में सोते समय दादी-नानी की सीधी-सरल कहानियाँ छोटे-छोटे बच्चों के लिये न केवल मनोरंजक होती हैं अपितु बालबुद्धि में संस्कारों का बीजारोपण भी करती हैं। मनोरंजन के आधुनिक साधनों ने हमारी नयी पीढ़ी को संस्कारों से वंचित कर दिया है, पारिवारिक आत्मीय सम्बन्धों की बलि ले ली है और समाज को दिशाहीन स्थिति में छोड़ दिया है। आधुनिक संसाधनों और सिमटती भौगोलिक सीमाओं के कारण विभिन्न सभ्यताओं के पारस्परिक सन्निकर्ष के परिणामस्वरूप हमारी प्राचीन विरासतें समाप्त होने के कगार पर हैं। हम अपनी नयीपीढ़ियों को कुछ बहुत अच्छा नहीं दे पा रहे हैं, ऐसे में लोककथाओं के संकलन के माध्यम से अपनी विरासत के संरक्षण का प्रयास निश्चित ही कई दृष्टियों से प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है। सम्पादक द्वय से हमारा विनम्र अनुरोध है कि बस्तर अंचल की सभी बोलियों में प्रचलित लोककथाओं का एक बार पुनः संकलन कर बस्तर की प्रतिनिधि लोककथाओं का एक और अंक निकालने के सद्प्रयास का कष्ट करें।
    लोकसाहित्य समाज की सहज और भोली अभिव्यक्ति ही नहीं है वह लोकजागरूकता का भी प्रतीक है। आधुनिक जीवनशैली और जीवन को सुविधायुक्त बनाने वाले संसाधनों ने हमारी सामाजिक संवेदनाओं को कुंठित कर दिया है जिसका सीधा दुष्प्रभाव लोकसाहित्य पर पड़ा है। हम पुराने का संकलन भर कर रहे हैं, नवीन का सृजन नहीं कर पा रहे। यह एक दुःखद और निराशाजनक स्थिति है। छोटे-छोटे बच्चे जो अभी पुस्तकें पढ़ने के योग्य नहीं हुये हैं उनके लिये तो लोककथायें और लोकगीत ही उनकी जिज्ञासाओं का रुचिकर समाधान कर सकने और संस्कारों का बीजारोपण कर पाने में सक्षम हो पाते हैं। इसीलिये मेरा स्पष्ट मत है कि आज नयी पीढ़ी में संस्काराधान के लिये नये सन्दर्भों में लोकसाहित्य के नवसृजन की महती आवश्यकता है।   
    बस्तर की लोककथाओं के इस संकलन में गुण्डाधुर और गेंदसिंह जैसे भूमकाल के महानायकों की निष्फल तलाश अपने उन पाठकों को निराश करती है जो तत्कालीन शासन व्यवस्था द्वारा किये जाने वाले शोषण के विरुद्ध वनवासी समाज में स्वस्फूर्त उठे विद्रोह और उनकी वीरता की कथाओं में न केवल रुचि रखते हैं अपितु अपने अतीत में अपने पूर्वजों के गौरव को भी तलाश करते हैं। लोककथायें इतिहास को आगे ले जाती हैं, हमें गुण्डाधुर और गेंदसिंह को ज़िन्दा रखना ही होगा।     
    यद्यपि, प्रत्येक कहानी के अंत में हिंदी के पाठकों के लिये हिन्दी अनुवाद दिया गया है किंतु इस संकलन को और भी उपयोगी बनाने की दृष्टि से अगले संस्करण में मूल कहानी के प्रत्येक पैराग्राफ़ के बाद उसका हिन्दी में अनुवाद दिया जाना उन स्वाध्यायी भाषाप्रेमियों के लिये सुविधाजनक होगा जो नयी-नयी भाषाओं को सीखने में रुचि रखते हैं।
   कथाओं के साथ-साथ इस पुस्तक में यदि बस्तर के जनजीवन को प्रदर्शित करने वाले सन्दर्भित रेखाचित्र भी दिये गये होते तो बस्तर से दूर रहने वाले पाठकों को बस्तर और भी उभर कर दिखायी दिया होता।
   त्रुटिहीन प्रकाशन और मुखपृष्ठ की साजसज्जा ने पुस्तक में चारचाँद लगा दिये हैं जिसके लिये नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया साधुवाद का पात्र है। लोककथा के इस संकलन के लिये आदरणीय लाला जगदलपुरी जी एवं हरिहरवैष्णव जी का सद्प्रयास अनुकरणीय है।

भगवानेक आसेदसग्र आर्तमा ssत्मनां विभुः।
                              आत्मेच्छानुगतावात्मा नानामत्युपलक्षणः॥

इस टिप्पणी के साथ, अन्त में आज ही दूरभाष पर अकलतरा निवासी और फिलहाल दिल्ली में कार्यरत श्री सुमेर शास्त्री जी की टिप्पणी भी देना उपयुक्त जान पड़ता है। श्री शास्त्री जी की टिप्पणी है कि उन्हें मूल में जो आनन्द आया वह अनुवाद में नहीं। उनका सुझाव है कि अगले संस्करण में इस ओर ध्यान दिया जाये तो बेहतर होगा। उनके इस सुझाव के लिये मैं उनका हार्दिक धन्यवाद ज्ञापन करता हूँ और आश्वस्त करता हूँ कि अगले संस्करण (यदि आया तो) में इस कमी को दूर करने का भरसक प्रयास करूँगा। 
-हरिहर वैष्णव