Saturday 11 April 2020

"ककसाड़" के बहाने
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हरिहर वैष्णव 
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बस्तर अंचल (छत्तीसगढ़) के कोंडागाँव कस्बे से "ककसाड़" नामक पत्रिका का प्रकाशन होने जा रहा है। इसके दीर्घजीवी और चर्चित होने के लिये मेरी अनन्त शुभकामनाएँ। मुझे इस बात की खुशी है कि यह नाम बस्तर अंचल की सांस्कृतिक राजधानी के नाम से अभिहित इसी नगरी से वर्ष 1997 से 1998 के बीच प्रकाशित हुई पत्रिका "ककसाड़" से ही अनुप्राणित है। इस पत्रिका के कुल मिला कर तीन ही अंक निकल सके और जैसा कि प्राय: लघु पत्रिकाओं के साथ विडम्बना जुड़ी होती है, यह भी चौथे अंक तक नहीं पहुँच सकी। 

बहरहाल, यह नाम इस पत्रिका को कैसे दिया गया और इसका अर्थ क्या है, यह जानने के लिये मुझे आपको कुछ वर्षों पहले ले चलना होगा। सुप्रसिद्ध समकालीन कवि और हाल ही में अपने पहले ही उपन्यास "भूलन कान्दा" से विश्वस्तर पर चर्चित और प्रसिद्धि प्राप्त श्री संजीव बख्शी जी के जगदलपुर से कोंडागाँव आगमन के साथ ही यहाँ की साहित्यिक गतिविधि पहले से कुछ अधिक गतिशील हो गयी थी। इसी गतिशीलता के एक चरण के रूप में उन्होंने मेरे सामने एक प्रस्ताव रखा था, यहाँ से एक अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका के प्रकाशन का। चर्चा चलती रही। मन्थन होता रहा। फिर नामकरण की बात हुई तो मैंने उन्हें सुझाया "ककसाड़"। उन्होंने पूछा इसका अर्थ क्या है? मैंने विस्तार में न जा कर अपने अल्प गोंडी ज्ञान के आधार पर इसके सार-रूप के तौर पर बताया "आराधना"। यही प्रश्न परम आदरणीय श्री शिवमंगल सिंह "सुमन" जी ने भी पूछा था, जब मैंने उन्हें इस पत्रिका के प्रकाशन की सूचना देते हुए उनसे आशीर्वचन चाहे थे। उत्तर जान कर वे बहुत प्रसन्न हुए थे और लिखा था, ""यह जान कर बड़ी प्रसन्नता हुई कि आप आदिवासी बहुल बस्तर अंचल की सांस्कृतिक राजधानी कोंडागाँव से शीघ्र ही एक अनियतकालीन साहित्यिक लघु पत्रिका "ककसाड़" के प्रकाशन की तैयारी कर रहे हैं। आदिवासी क्षेत्र में आराधना के रूप में इस पत्र का आरम्भ कर निश्चय ही आप सर्जना के ज्योतिर्मय स्वरूप का आह्वान कर रहे हैं। तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले क्षेत्र से दूर, सुदूर अंचल में इस अनुष्ठान का बड़ा महत्त्व है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप अपनी निष्ठा और संवेदनशील रचनात्मकता से वहाँ की नयी पीढ़ी का पथ प्रशस्त कर सकेंगे। इस नैष्ठिक कार्य के लिये मेरी हार्दिक मंगलकामना स्वीकार कीजिये। सस्नेह एवं साभार।""

इसी तरह सुप्रसिद्ध कथाकार और प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका "पहल" के सम्पादक श्री ज्ञानरंजन जी ने लिखा था, ""आदिवासी अंचल से "ककसाड़" नाम की पत्रिका निकालने का विचार और प्रयास अपने आप में बहुत ही मूल्यवान है। हमारे आदिवासी और जनजातीय अंचलों की रचनाशीलता इस प्रकार तथाकथित सभ्य संसार तक पहुँच सकेगी। हम तो यह भी मानते हैं कि देश की यही मुख्यधारा है जो आज हाशिये पर है और धूमिल है। जिस तरह एक इलीट या भद्र समाज ने सारे तत्व पर कब्जा कर लिया है और उसके अनंत हाथ हैं समेटने के लिये, उसी तरह एक छोटे प्रयास से मंद ही सही हमें अपना चिराग जलाते रहना  होगा। आप पराजित न हों और इसे यानी "ककसाड़" को निरंतर निकाल कर बस्तर की वास्तविक आवाज प्रस्तुत कर दें। हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।"" 
सुप्रसिद्ध कवि एवं आलोचक एवं उस समय भारतीय भाषा परिषद्, कलकत्ता के सचिव रहे श्री प्रभाकर श्रोत्रिय जी ने लिखा था, ""ककसाड़" के प्रकाशन की सूचना मिली। आभारी हूँ। आपने पत्रिका के शीर्षक के लिये गोंडी का शब्द चुना, यह बहुत बढ़िया है। आपकी "आराधना" सफल हो और पत्रिका के माध्यम से आप बस्तर तथा अन्यत्र के रचनाकारों की वाणी का प्रसार कर सकें, यही कामना है। आप सब स्वस्थ-सक्रिय होंगे।""
आलोचना के शिखर पुरुष और डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. (प्रो.) धनंजय वर्मा जी ने लिखा था, ""यह जान कर अच्छा लगा कि आप बहुत जल्द ही कोंडागाँव, बस्तर से एक अनियकालीन साहित्यिक लघुपत्रिका "ककसाड़" का सम्पादन और प्रकाशन कर रहे हैं। बस्तर की किसी भी साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधि से स्वाभाविक ही मेरा एक भावात्मक रिश्ता सहज ही बन जाता है। मैं कामना करता हूँ कि आप अपने मित्रों और सहयोगियों के समवेत प्रयत्न में सफल मनोरथ हों और बस्तर की साहित्यिक "आराधना" पूरे साहित्यिक जगत में प्रकाश केन्द्र बने.....अशेष मंगलकामनाओं के साथ।""
वहीं स्व. लाला जगदलपुरी जी ने इस नाम की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए लिखा था, ""ककसाड़" नाम के कलेवर में "समकालीन सृजन" का समावेश सामंजस्य स्थापित नहीं कर सकेगा। सोचो। अभी समय है। "भूमकाल" नाम उपयुक्त  होगा। परामर्शदाता के रूप में मेरा नाम रख सकते हो। तुम्हें हक है।""
स्व. लालाजी का यह सुझाव बहुत ही सटीक था किन्तु तब तक बहुतेरे लोगों को पत्र जा चुके थे और कइयों के उत्तर आ भी गये थे। शीर्षक का प्रारूप भी मेरे अनुज खेम वैष्णव ने तैयार कर लिया था। सो "ककसाड़" नाम ही अन्तिम रूप पा सका। बहरहाल। "ककसाड़" के तीनों ही अंक बस्तर अंचल, विशेषत: कोंडागाँव के ही सहृदय साहित्यकारों के  रचनात्मक और आर्थिक सम्बल से मेरे सम्पादन में प्रकाशित हो सके थे। भाई जगदीश "वागर्थ" इसके सम्पादन-सहयोगी थे। इन तीनों अंकों का मुद्रण अकरम स्क्रीन, जगदलपुर से हुआ था। मैं इसके लिये सभी सहयोगियों का हृदय से आभारी हूँ। 
अब देखें कि "ककसाड़" है क्या? क्या अर्थ है इस शब्द का और किस भाषा का है यह शब्द? बस्तर अंचल की सबसे बड़ी आबादी द्वारा बोली जाने वाली जनभाषा "गोंडी" का यह शब्द दरअसल अलग-अलग क्षेत्र में "करसाड़" और "खड़साड़" नाम से भी जाना जाता है। इसे "पेन करसाड़" भी कहा जाता है। "पेन" यानी देवता और "करसाड़" या "ककसाड़" अर्थात् "जतरा" या "जातरा" (पूजा, यात्रा)। गोंडी परिवेश का यह अतिविशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण पर्व देवी-देवताओं की वार्षिक एवं भव्य पूजा-अर्चना का पवित्र अवसर होता है। एक निश्चित परिधि में निवास करने वाले गोंड जनजाति के युवक-युवती, आबाल-वृद्ध सभी इस पूजा-अर्चना में किसी एक नियत गाँव में जुटते हैं और यह भव्य पूजा-अर्चना सम्पन्न होती है। इस आयोजन में युवक-युवतियों की विशेष भूमिका होती है। सारा उत्तरदायित्व उन्हीं का होता है। धार्मिक प्रमुख पूजा-अर्चना सम्पन्न कराते हैं जबकि युवक-युवती देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिये माँदर आदि लोक-वाद्य की संगत में नृत्य प्रस्तुत करते हैं।
"बस्तर के पेन परब" पुस्तक (सम्पादक : किरण नुरुटी) में प्रकाशित अपने लेख "ककसाड़ : पेन करसीता" में श्रीमती बसंत नाग लिखती हैं : ""ककसाड़" वस्तुत: बस्तर की गोंड जनजाति की माड़िया शाखा का प्रमुख नृत्य प्रधान पर्व है जो सामान्यत: मई मध्य से ज्येष्ठांत तक मनाया जाता है। ग्रीष्म ऋतु के अवसान और वर्षा के आगमन के साथ ही घोर और अबूझ पहाड़ियों में अबुझमाड़िया आदिम जाति के युवा हृदय "ककसाड़" की अगवानी में धड़कने लगते हैं। वे ककसाड़ नृत्य-पर्व के लिये आतुर हो उठते हैं।  इस नृत्य का स्वरूप धार्मिक है। शाब्दिक दृष्टिकोण से ककसाड़ शब्द द्रविड़ भाषा के कर्स शब्द से सम्बन्धित है, जिसका सम्बन्ध नृत्य से होता है। अत: स्पष्ट है देवताओं से सम्बन्धित नृत्य "ककसाड़" है। और यह एक प्रकार से जात्रा नृत्य (धार्मिक नृत्य) भी है, जिसमें आदिवासी समूह अपने आराध्य देव की पूजा-अर्चना कर उनकी प्रतिमा (प्रतिरूप) का जुलूस निकालते समय नृत्याभिनय प्रस्तुत कर अपनी आस्था और संवेदनाओं को प्रदर्शित करते हैं। इसलिये यह नृत्य स्वाभाविक रूप से संगीतमय होता है।""  
अब थोड़ी-सी बात कोंडागाँव कस्बे से प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिकाओं की। मैं नहीं जानता कि "प्रस्तुति" के प्रकाशन के पहले और किसी साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन कोंडागाँव से हुआ था या नहीं। किन्तु मेरे जानते सबसे पहले यहाँ से प्रकाशित हुई थी त्रैमासिक लघु पत्रिका "प्रस्तुति", जिसका पहला अंक "साइक्लोस्टाइल्ड" था। इसके बाद इसका दूसरा अंक प्रेस से मुद्रित रूप में प्रकाशित हुआ। इस मुद्रित अंक के बाद इसके प्रकाशन पर विराम लग गया। यों तो इसके सम्पादक-मण्डल में मैंने चार महानुभावों के नाम दिये थे किन्तु वस्तुत: सम्पादन और प्रकाशन का सारा भार मैंने वहन किया था। सामग्री-संकलन से ले कर टायपिंग, साइक्लोस्टाइलिंग, पिनिंग अप और वितरण तक; सब कुछ। हाँ, मैंने अपना नाम इस पत्रिका के सम्पादक या प्रकाशक के रूप में नहीं दिया था और न ही अपनी कोई रचना प्रकाशित की थी। 
मुझे बहुत अच्छी तरह याद है, जब 10 अप्रैल 1979  को इस पत्रिका का विमोचन "बस्तर क्लब" में हिन्दी के सुप्रसिद्ध कथाकार (स्व.) मनीष राय जी और हल्बी के अन्यतम कवि श्री सोनसिंह पुजारी जी की उपस्थिति में आकाशवाणी के तत्कालीन केन्द्र निदेशक श्री राघवेन्द्र ईटिगी द्वारा "बस्तर के महाकवि" (स्व.) लाला जगदलपुरी जी की अध्यक्षता में किया गया तब इन चारों ही महानुभावों ने इस बात पर "घोर आपत्ति" की थी कि जिस व्यक्ति ने सारा परिश्रम किया उसी का नाम सम्पादक-मण्डल में नहीं है। मैं चुप रह गया था। मैंने यह इसीलिये किया था ताकि सभी लोग जुड़े रह सकें और मुझ पर "सम्पादक" बनने की "चाह" में की गयी चेष्टा का आरोप न लग सके। बहरहाल, मैं "प्रस्तुति" के लिये रचनाएँ जुटाता फिरा। बस्तर और बस्तर से बाहर के भी रचनाकारों से। (स्व.) नारायण लाल परमार जी, श्री त्रिभुवन पाण्डे जी, स्व. चेतन आर्य जी, स्व. लतीफ घोंघी जी से रचना-सहयोग लिया। इस अंक में जिन रचनाकारों की रचनाएँ प्रकाशित हुई थीं वे थे, स्व. नारायणलाल परमार, स्व. लाला जगदलपुरी, सर्वश्री आर. सी. मेरिया, अभय कुमार पाढ़ी, गोपाल सिम्हा, शंकरलाल क्षत्री, मिर्जा बदरुल हसन "सौदाई", मोहन जैन, विजय वानखेड़े, मनोहर नेताम, सुरेन्द्र रावल,  प्रह्लाद पटेल, पारसनाथ मिश्रा, सोनसिंह पुजारी, राघवेन्द्र ईटिगी, रामेश्वर वैष्णव, लतीफ घोंघी, राजेन्द्र राठौर, मनीषराय यादव, बिमल चन्द्र गुप्ता, योगेन्द्र देवांगन, चितरंजन रावल, सुश्री नसीम  रहमान और सुश्री उषा लता जारी। और इस दूसरे अंक के साथ ही "प्रस्तुति" की यात्रा थम गयी। 
फिर इसके बाद एक और पत्रिका "घूमर" नाम से प्रकाशित हुई, जो "बस्तर सम्भाग हल्बी साहित्य परिषद्" का प्रकाशन थी और इसमें बस्तर की जनभाषाओं की ही रचनाओं को स्थान दिया गया था। इसके सम्पादक-मण्डल में भी (स्व.) लाला जगदलपुरी जी एवं अन्य चार लोगों के नाम थे, जिनमें मेरा नाम यथापूर्व शामिल नहीं था। इसके पीछे भी मंशा यही थी कि मुझ पर "सम्पादक बन जाने" की लालसा का ठप्पा न लग जाये। किन्तु दुर्भाग्य से यह पत्रिका भी एक ही अंक के बाद बन्द हो गयी। 
इसके बाद जन्म हुआ "ककसाड़" नामक अनियतकालीन पत्रिका का। श्री संजीव बख्शी जी के प्रोत्साहन और जगदीश "वागर्थ" के सहयोग से और इन दोनों के ही आग्रह के परिणाम-स्वरूप मेरे सम्पादन में "स्क्रीन प्रिÏन्टग" विधि से इस पत्रिका का पहला अंक जनवरी-मार्च 1997 में प्रकाशित हुआ। दूसरा अंक अप्रैल-जून 1997 में एवं तीसरा अंक जुलाई 1998 में। बस! यही तीसरा अंक "समापन अंक" साबित हुआ। इन तीनों ही अंकों के लिये स्थानीय साहित्यकारों एवं कुछ विज्ञापन-दाताओं ने रचना एवं आर्थिक सम्बल प्रदान किया था। यह भूलने वाली बात नहीं है। किन्तु इस तरह के अल्पकालिक सहयोग से भला किस तरह कोई पत्रिका दीर्घजीवी हो सकती थी? स्पष्ट है, सभी पत्रिकाओं के अल्पजीवी होने के पीछे केवल एक ही कारण था, अर्थाभाव। इन तीनों अंकों में क्रमश: फिर अभी पिछले ही वर्ष "छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद्" के बैनर-तले अस्तित्व में आयी एक और लघु पत्रिका "चेलिक"। अब तक इसके दो अंक निकल चुके हैं। आगे कितने निकल पाएँगे, कहा नहीं जा सकता। सुनने में आया है कि "चेलिक" पर भी आर्थिक संकट के घने बादल घिर आये हैं। दूसरा अंक बड़ी ही कठिनाई से निकल सका है। किन्तु अब प्रकाशित होने जा रही पत्रिका "ककसाड़" इस अर्थाभाव से सम्भवत: ग्रसित नहीं होगी और दीर्घजीवी होगी, ऐसा विश्वास है। कारण, इससे जुड़े लोग सामथ्र्यवान हैं। इस पत्रिका के दीर्घजीवी, सार्थक और ख्यात होने के लिये मेरी अशेष शुभकामनाएँ। 
अन्त में मैं यहाँ "प्रस्तुति", "घूमर" और "ककसाड़" के प्रकाशन से किसी भी तरह जुड़े, चाहे वे नाम से ही जुड़े क्यों न हों, सभी सहयोगियों का आभार व्यक्त करना अपना नैतिक दायित्व समझता हूँ। इसी तरह प्रकाश्य पत्रिका "ककसाड़" हेतु आलेख माँगने हेतु मान्यवर डॉ. राजाराम त्रिपाठी जी का भी आभार।

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