Tuesday 21 April 2020

"एकाएक नहीं होता कुछ भी"

मेरे काव्य-संग्रह "एकाएक नहीं होता कुछ भी" की समीक्षा कौशलेन्द्रजी ने की है और यह "बस्तर-मित्र" नामक -पेपर पर प्रकाशित भी हुआ है। वह समीक्षा मैं यहाँ अविकल रूप में दे रहा हूँ। सम्भवत: आप इसे पढ़ना चाहें : https://www.bastarmitr.com/2020/04/blog-post_830.html
एकाएक नहीं होता कुछ भी (कविता संग्रह). . . https://www.bastarmitr.com/2020/04/blog-post_830.html
अधिक जानकारी के लिए ऊपर दिए गए लिंक पर क्लिक करें
ब्यूरो चीफ- दीपक चौहान, बस्तर मित्र

16.04.2020
एकाएक नहीं होता कुछ भी (कविता संग्रह)
रचनाकारहरिहर वैष्णव
प्रकाशकयश पब्लिकेशन, दिल्ली
मूल्यरु. 250.00
हरिहर वैष्णव रचित छोटी-छोटी छियालीस कविताओं का यह संग्रह जंगल में एकाकी खिले हुये उस पुष्प की तरह है जिसे सजे सँवरे पार्क में खिलखिलाना कतई पसंद नहीं है खड़ी बोली के साथ ठेठ बस्तरिया शब्दों के मनके पिरोकर रची गयी कवितायें जहाँ पाठक को बस्तर की धरती की सुवास से जोड़ती हैं वहीं गुम होते लोकशब्दों को अपने आँचल में छिपाती भी हैं हरिहर वैष्णव की कविताएँ कहीं अल्हड़ हैं, कहीं शर्मीली हैं तो कहीं क्रांति की चिनगारी सी फूँकती नज़र आती हैं


...शायद उन्हें भीड़भाड़ वाले शहर में जाना अच्छा नहीं लगता सचमुच, वहाँ बहुत प्रदूषण है, हवा में भी, पानी में भी, विचारों में भी और हँसी में भी
संग्रह की पहली कविताशुक्र करोमें सभी धर्मग्रंथों के आदि मंत्रों का सार है उसने सोचा और वैसा ही हो गया
...सभी धर्मग्रंथों में सृष्टि की कहानी यहीं से प्रारम्भ होती है हरिहर वैष्णव ने सृष्टि रचना की जटिल प्रक्रिया में वनवासी जीवन की सरलता के दर्शन किए और फिर एक भोली सी चेतावनी - “शुक्र करो कि / कहा नहीं है उसने / गुस्साके साथ पाठकों के समक्ष परोस दिया
यह कहना कि इस संग्रह की कविताएँ वनवासी जीवन के आसपास घूमती हैं, न्यायपूर्ण नहीं होगा। वास्तव में इस संग्रह की सभी कविताएँ वनवासी जीवन के भीतर से निकलकर रिसती हैं और औचक ही पूछ बैठती हैं – “बोलो/ क्या तब भी/ कर पाओगे मुझसे प्यार” ? इस रिसाव में वनवासी जीवन के कई रस पहाड़ी नदी की तरह बहते से दिखायी देते हैं  पहाड़ी नदी कभी मंथर गति से बहती है, कभी ठिठक कर चारों ओर देखने लगती है तो कभी हिरणी सी छलाँग़ मारती हुयी   भागने लगती है वनवासी के मन में सुलगते अंगारे देखकर पहाड़ी नदी क्रांति करती है, और कभी-कभी अपने किनारों को भी तोड़ देती है तमाम सरकारी आँकड़ों और नियमों के बाद भी बस्तर के वनवासी जीवन को वर्गभेद का सामना करना पड़ता है
बस में सफरकरने के लिए घुसे बस्तरिया को बस की सभी सीट्स भरी दिखाई देती हैं, “एक को छोड़करजो उसके लिए कभी नहीं हुआ करती दर्द की पर्तें जमती रहती हैं एक पर एक ...सुलगती रहती हैं भीतर ही भीतर ...फिर होता है एक दिन विस्फोट, या अंकुरित होता है एक बीज, एकाएक नहीं होता कुछ भी क्रांति भी एकाएक नहीं होती, प्रतिपल होती रहती है थोड़ी-थोड़ी ...भीतर ही भीतर
घोटुल के बिना बस्तर हो, बस्तर की कविता हो और उसमें पलाश हो, गुलमोहर हो, चिड़िया हो, नेता हो
...तो कविता का कलेवर और बनेगा कहाँ से! दूर दिल्ली में बैठकर बस्तर को स्वप्न में देखने की अनुभूति में दामिनी की द्युतितो हो सकती है किंतु अनुभूति में बस्तर की ख़ुश्बू नहीं होती, हो ही नहीं सकती रचनाकार हरिहर वैष्णव का पूरा जीवन बस्तर के जंगलों में खपता रहा, तपता रहा ...और कविता बनकर निखरता रहा महानगरों में रहकर जिन लोगों को बैठ-बैठे बस्तर देखना हो उनके लिए इस काव्य संग्रह का अवलोकन सुखद होगा

- कौशलेंद्र

Saturday 11 April 2020

बस्तर के साहित्यकार
0000000000000000

हरिहर वैष्णव
0000000000

बस्तर में साहित्य-सृजन का सूत्रपात 1908 में प्रकाशित पं. केदार नाथ ठाकुर के बहुचर्चित ग्रन्थ "बस्तर -भूषण" के साथ माना जाता है। इसके पूर्व इस अंचल में साहित्य-सृजन का कोई उल्लेख कहीं नहीं मिलता। "बस्तर-भूषण" के लेखक पं. केदार नाथ ठाकुर (जगदलपुर) पेशे से बस्तर स्टेट के नार्दर्न सर्किल में फारेस्ट रेंजर हुआ करते थे। उन्होंने शासकीय कार्य निष्पादन के लिये अपने क्षेत्रीय भ्रमण के दौरान जो कुछ देखा-सुना और अनुभव किया उसे लेखबद्ध कर "बस्तर भूषण" शीर्षक से ग्रन्थ का प्रणयन किया। "बस्तर भूषण" के अतिरिक्त उन्होंने "सत्यनारायण कथा", "बसन्त विनोद" की भी रचना की और बाद में इन दोनों पुस्तकों को "केदार विनोद" नामक अपनी अन्य पुस्तक में संग्रहित किया। "बस्तर विनोद" और "विपिन विज्ञान" उनकी अन्य पुस्तकें है, किन्तु ये उपलब्ध नहीं हैं । बस्तर के विषय में हिन्दी में सर्वप्रथम लगभग सम्पूर्ण जानकारी देने वाले इस ग्रन्थ "बस्तर-भूषण" की चर्चा तब भी हुई थी और आज भी यह चर्चित बना हुआ है। आज भी लोग इसे खोजते फिरते हैं।
चर्चा लाल कालीन्द्र सिंह (जगदलपुर) द्वारा लिखित "बस्तर-भूषण" नामक ग्रन्थ की भी होती है किन्तु इसकी प्रति उपलब्ध नहीं है। कहा जाता है कि यह तत्कालीन रियासती प्रशासन की दृष्टि में आपत्तिजनक होने के कारण जब्त कर लिया गया था, जिससे उसका मुद्रण-प्रकाशन सम्भव नहीं हो सका। लाल कालीन्द्र सिंह रचित "बस्तर इतिहास" का भी उल्लेख मिलता है, जिसे उन्होंने 1908 में लिखा था। किन्तु यह ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं है । बस्तर महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव ने "लोहण्डीगुड़ा तरंगिणी" तथा अंग्रेजी में "आई प्रवीर द आदिवासी गॉड" लिखी। पं. सुन्दरलाल त्रिपाठी (जगदलपुर) ने क्लिष्ट हिन्दी में रचनाएँ लिखीं।
इनके पश्चात् पं. गंगाधर सामन्त "बाल" (जगदलपुर) द्वारा रचित साहित्य स्थान पाता है। द्विवेदी युग में पण्डित जी की रचनाएँ "कर्मवीर", "विद्या", "राजस्थान केशरी", "विद्यार्थी", "सत्यसेतु" "काव्य-कौमुदी" और "विश्वमित्र" जैसे स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। इसके अलावा आप रियासत कालीन बस्तर के एकमात्र साप्ताहिक "बस्तर-समाचार" में "पंचामृत" शीर्षक स्तम्भ के स्तम्भ-लेखक थे। उनकी प्रकाशित कृतियों में "अभिषेकोत्सव", "शोकोद्गार", "प्राचीन कलिंग खारवेल", "तत्वमुद्रा धारण निर्णय" "रमलप्रश्न प्रकाशिका" और "गीता का पद्यानुवाद" का उल्लेख मिलता है ।
साहित्य-सृजन के इस क्रम को आगे बढ़ाया था ठाकुर पूरनसिंह (जगदलपुर) ने। उन्होंने हिन्दी में "बस्तर की झाँकी", और "पूरन दोहावली", तथा हल्बी में "भारत माता चो कहनी" और "छेरता तारा गीत" शीर्षक पुस्तकों की रचना की थी। 1937 में प्रकाशित "हल्बी भाषा-बोध" राजकीय अमले को हल्बी भाषा सिखाने के लिये लिखी गयी उनकी पुस्तक थी। ठाकुर पूरन सिंह को बस्तर की हल्बी लोक भाषा में लिखित साहित्य की रचना करने वाले प्रथम साहित्यकार होने का श्रेय जाता है। वे ही हल्बी के प्रथम गीतकार भी थे। उन्हीं के सहयोग से मेजर आर. के. एम. बेट्टी ने 1945 में "ए हल्बी ग्रामर" की रचना की थी। इसी क्रम में पं. गणेश प्रसाद सामन्त (जगदलपुर) ने "देबी पाठ" नामक एक पद्य पुस्तिका रची थी। 1950 में पं. गंभीर नाथ पाणिग्राही (जगदलपुर) रचित कविता-संग्रह "गजामूँग" प्रकाशित हुआ था। पं. वनमाली कृष्ण दाश (जगदलपुर) ने भी साहित्य-सृजन किया था किन्तु उनकी किसी प्रकाशित पुस्तक का उल्लेख नहीं मिलता । पं. देवीरत्न अवस्थी "करील" (गीदम) ने हिन्दी के साथ-साथ हल्बी में भी काव्य-रचना की। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं "देवार्चन", "मधुपर्क", "लोकरीति" और "रघुवंश"। उनकी उत्तम साहित्य-साधना के लिये उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा "साहित्य-रत्न" की उपाधि से विभूषित किया गया था। इसी तरह महाकवि कालिदास की कृति "रघुवंश" के हिन्दी छन्दानुवाद के लिये साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा पुरस्कृत किया गया था । 1960 के आसपास श्री अयोध्या दास वैष्णव (खोरखोसा, जगदलपुर) ने "चपकेश्वर महात्म्य" शीर्षक काव्य-पुस्तिका का प्रणयन किया था।
श्री लाला जगदलपुरी (जगदलपुर) ने साहित्य-साधना आरम्भ की 1936 से और उनकी रचनाएँ 1939 से ही प्रकाशित होने लगीं। उनकी प्रकाशित कृतियों में कविता एवं ग़ज़ल संग्रह "मिमियाती ज़िंदगी दहाड़ते परिवेश" (ग़ज़ल), "पड़ाव-5" (कविता), "हमसफ़र" (कविता) और "ज़िंदगी के लिये जूझती ग़ज़लें", "गीत-धन्वा" (मुक्तक एवं गीत संग्रह) तथा लोक कथा संग्रहों में "हल्बी लोक कथाएँ", "वनकुमार और अन्य लोक कथाएँ", "बस्तर की मौखिक कथाएँ" (हरिहर वैष्णव के साथ), "बस्तर की लोक कथाएँ" और इतिहास-संस्कृति विषयक "बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति", "बस्तर-लोक (कला-संस्कृति प्रसंग)", तथा "बस्तर की लोकोक्तियाँ" हैं। उनके द्वारा हल्बी में अनूदित पुस्तकें हैं, "प्रेमचन्द चो बारा कहनी", "बुआ चो चिठी मन", "रामकथा" और "हल्बी पंचतन्त्र"। इसके अतिरिक्त उनकी अनेकानेक रचनाओं ने विभिन्न मिले-जुले संग्रहों में भी स्थान पाया है। इनमें "समवाय", "पूरी रंगत के साथ", "लहरें", "इन्द्रावती", "सापेक्ष", "हिन्दी का बाल गीत साहित्य", "सुराज", "चुने हुए बाल गीत", "छत्तीसगढ़ी काव्य संकलन", "छत्तीसगढ़ के माटी चंदन", "छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह", "गुलदस्ता" "स्वर संगम", "गीत हमारे कण्ठ तुम्हारे", "बाल गीत", "बाल गीत भाग-4", "बाल गीत भाग-5" "बाल गीत भाग-7", "हम चाकर रघुवीर के", "मध्य प्रदेश की लोक कथाएँ", "स्पन्दन", "चौमासा", और "अमृत काव्यम्" आदि प्रमुख हैं। इसके साथ ही उनकी विभिन्न रचनाएँ "वेंकटेश्वर समाचार", "चाँद" "विश्वमित्र", "सन्मार्ग", "पाञ्चजन्य", "मानवता", "कल्याण", "नवनीत", "कादम्बिनी", "नोंकझोंक", "रंग", "ठिठोली", "चौमासा", "रंगायन", "ककसाड़" आदि अन्य स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाती रही हैं।
सर्वश्री गुलशेर खाँ शानी (जगदलपुर), धनञ्जय वर्मा (जगदलपुर), लक्ष्मीचंद जैन (जगदलपुर), कृष्ण कुमार झा (जगदलपुर), सुरेन्द्र रावल (कोंडागाँव), चितरंजन रावल (कोंडागाँव), कृष्ण शुक्ल (जगदलपुर) आदि ने भी साहित्य-सृजन के क्षेत्र में कदम रखा और विभिन्न विधाओं में साहित्य-सृजन किया। शानी जी एक कथाकार-उपन्यासकार के रूप में स्थापित हुए जबकि डॉ. धनञ्जय वर्मा आलोचना के क्षेत्र में मील के पत्थर साबित हुए। शानीजी की रचनाओं में "बबूल की छाँव", "डाली नहीं फूलती", "छोटे घर का विद्रोह", "एक से मकानों का घर", "युद्ध", "शर्त का क्या हुआ", "मेरी प्रिय कहानियाँ", "बिरादरी", "सड़क पार करते हुए", "जहाँपनाह जंगल", "सब एक जगह", "पत्थरों में बंद आवाज", "कस्तूरी", "काला जल", "नदी और सीपियाँ", "साँप और सीढ़ी", "एक लड़की की डायरी", "शाल वनों का द्वीप" और "एक शहर में सपने बिकते हैं" प्रमुख हैं।         डॉ. धनञ्जय वर्मा की प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं, "निराला : काव्य और व्यक्तित्व", "आस्वाद के धरातल", "निराला काव्य : पुनर्मूल्यांकन", "हस्तक्षेप", "आलोचना की रचना-यात्रा", "अँधेरे के वर्तुल", "आधुनिकता के बारे में तीन अध्याय", "आधुनिकता के प्रतिरूप", "समावेशी आधुनिकता", "हिन्दी कहानी का रचना शास्त्र", "हिन्दी कहानी का सफ़रनामा", "परिभाषित परसाई", "हिन्दी उपन्यास का पुनरावतरण", "आलोचना के सरोकार", "लेखक की आज़ादी" और "आलोचना की ज़रूरत"।
श्री रघुनाथ प्रसाद महापात्र (जगदलपुर) हल्बी-भतरी के बहुचर्चित कवि रहे थे। उनकी पुस्तक "फुटलो दसा, बिलई उपरे मुसा" ने बस्तर की सीमाएँ लाँघ कर ओड़िसा तक में धूम मचा दी थी। श्री लक्ष्मीचंद जैन और श्री चितरंजन रावल कविता के क्षेत्र में और श्री सुरेन्द्र रावल कविता तथा व्यंग्य के क्षेत्र में चर्चित रहे, वहीं     श्री कृष्ण शुक्ल कहानीकार के  रूप में अखिल भारतीय स्तर पर चर्चित हुए। श्री सुरेन्द्र रावल की प्रकाशित कृति है, "काव्य-यात्रा" जबकि श्री चितरंजन रावल की प्रकाशित कृति है, "कुचला हुआ सूरज"। डॉ. कृष्ण कुमार झा की कृतियाँ हैं, "स्कन्दगुप्त" और "सम्राट् समुद्रगुप्त"। बसन्त लाल झा (जगदलपुर) ने और नर्मदा प्रसाद श्रीवास्तव (जगदलपुर) ने भी साहित्य-सृजन में उल्लेखनीय योगदान दिया। मेहरुन्निसा परवेज (जगदलपुर) एक कथाकार-उपन्यासकार के रूप में उभरीं और उन्होंने अखिल भारतीय स्तर पर ख्याति प्राप्त की। श्री रऊफ परवेज (जगदलपुर) , श्री इशरत मीर (जगदलपुर), श्री हयात रजवी (कोंडागाँव), श्री पी. एल. कनवर (कोंडागाँव), श्री ओ. पी. शर्मा (कोंडागाँव) और श्री गनी आमीपुरी (जगदलपुर) ने अपनी साहित्य-साधना से उर्दू अदब की सेवा की। इसी तरह श्री हुकुमदास अचिंत्य (जगदलपुर) ने हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में साहित्य-सृजन किया। श्री रामसिंह ठाकुर (नारायणपुर) ने हल्बी में कविताओं के साथ-साथ श्री रामचरित मानस को हल्बी में प्रस्तुत करने का उल्लेखनीय और स्तुत्य कार्य किया। हल्बी में सर्वश्रेष्ठ कविताएँ लिखीं श्री सोनसिंह पुजारी (बजावंड, जगदलपुर) ने। श्री पुजारी ने यद्यपि बहुत कम, कुल मिला कर 27 कविताएँ ही लिखीं किन्तु वे सभी चर्चित हुईं। इसी काल में श्री बहादुर लाल तिवारी (कवि एवं गद्यकार, काँकेर), रामेश्वर चौहान (व्यंग्यकार, काँकेर), जोगेन्द्र महापात्र "जोगी" (हल्बी-भतरी कवि, जगदलपुर), गोपाल सिम्हा (गीतकार, जगदलपुर), परमात्मा प्रसाद शुक्ल (हिन्दी एवं गोंडी कवि, जगदलपुर), गयाप्रसाद तिवारी (गोंडी कवि, नारायणपुर), लक्ष्मीनारायण "पयोधि" (कवि एवं कथाकार, भोपालपटनम), त्रिलोक महावर (कवि, जगदलपुर), अभिलाष दवे (कवि, जगदलपुर), मदन आचार्य (आलोचना, जगदलपुर), जगदीश वागर्थ (कथाकार, कोंडागाँव), योगेन्द्र मोतीवाला (नाटक, जगदलपुर), सुश्री नसीम रहमान (कवयित्री, जगदलपुर), यशवन्त गौतम (कवि, कोंडागाँव),       हरिहर वैष्णव (कवि एवं कथाकार, कोंडागाँव), उर्मिला आचार्य (कथाकार, जगदलपुर) आदि ने भी साहित्य-सृजन के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान किया। हरिहर वैष्णव की प्रकाशित कृतियाँ हैं, "बस्तर की मौखिक कथाएँ (लोक साहित्य : लाला जगदलपुरी के साथ)", "मोहभंग" (कहानी संग्रह), "राजा और बेलकन्या" (लोक साहित्य), "गुरुमायँ सुकदई द्वारा प्रस्तुत बस्तर की धान्य देवी की कथा : लछमी जगार" (लोक साहित्य : हल्बी-हिन्दी-अंग्रेजी, सी. ए. ग्रेगोरी के साथ), "बस्तर का लोक साहित्य" (लोक साहित्य), "बस्तर की गीति कथाएँ" (लोक साहित्य : हल्बी-हिन्दी), "गुरुमायँ केलमनी द्वारा प्रस्तुत बस्तर के नारी लोक की महागाथा : धनकुल" (लोक साहित्य : हल्बी-हिन्दी), "बस्तर के धनकुल गीत" (लोक साहित्य : शोध विनिबन्ध), "चलो, चलें बस्तर" (बाल साहित्य : पर्यटन), "बस्तर के तीज-त्यौहार" (बाल साहित्य)। इनकी प्रकाश्य कृतियाँ हैं, "आदिवासी महागाथा : तीजा जगार" (लोक साहित्य : हल्बी-हिन्दी), "आठे जगार" (लोक साहित्य : हल्बी-हिन्दी), "बाली जगार" (लोक साहित्य : देसया-हिन्दी), "बस्तर की लोक कथाएँ" (लोक साहित्य : बस्तर की 11 जनभाषाओं की लोक कथाएँ हिन्दी अनुवाद सहित, लाला जगदलपुरी के साथ), "सुमिन बाई बिसेन द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी लोक गाथा : धनकुल" (छत्तीसगढ़ी-हिन्दी), "बस्तर की आदिवासी एवं लोक हस्तशिल्प परम्परा" (लोक शिल्प), "बस्तर का आदिवासी एवं लोक संगीत" (लोक संगीत), "बस्तर के अक्षरादित्य : लाला जगदलपुरी" (लाला जगदलपुरी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केन्द्रित), "क्यों बेजुबान है आदिवासी" (रिपोर्ताज संग्रह), "बस्तर समग्र" (बस्तर की आदिवासी एवं लोक संस्कृति पर केन्द्रित), "सोनसाय का गुस्सा" (कहानी संग्रह), "जंगल में बैठक" (बाल एकांकी संग्रह), "मेरी बाल कविताएँ" (बाल कविताएँ)। लक्ष्मीनारायण "पयोधि" की अब तक कुल 29 कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं और 05 कृतियाँ प्रकाशनाधीन हैं। ये कृतियाँ हैं, "सोमारु" (कविता : हिन्दी, मराठी, अंग्रेजी), "आखेटकों के विरुद्ध" (कविता), "अन्त में बची कविता" (कविता), "चिन्तलनार से चिन्तलनार तक" (कविता), "गमक" (ग़ज़ल),"कन्दील में सूरज" (ग़ज़ल), "चुप्पियों का बयान" (ग़ज़ल), "अँधेरे के पार" (ग़ज़ल), "हर्षित है ब्रह्माण्ड" (गीत), "पुनरपि" (संचयन), "सम्बन्धों के एवज में" (कहानी), "ठिबरु" (बाल साहित्य), "सूरज के देश में" (बाल उपन्यास), "वनवासी क्रान्तिवीर" (बाल साहित्य), "अजब कहानी गजब कहानी" (बाल साहित्य), "लंगूरों के देश में" (बाल साहित्य), "अबाबील की सहेली" (बाल साहित्य), "घोंसला बोला" (बाल साहित्य), "आदिवासी क्रान्ति नायक" (बाल साहित्य : कहानियाँ), "तितलीपरी" (बाल साहित्य : नाटक), "ऊँचे रखें इरादे" (बाल साहित्य), "उत्तर बन जायें" (बाल साहित्य : कविता), "गोंड जनजाति का सांस्कृतिक अध्ययन" (शोध : डिंडौरी जिला), "मानव विकास प्रतिवेदन" (शोध : डिंडौरी जिला), "भील जनजाति समूह का प्रतीकवाद" (शोध), "जनजातीय गोदना : सांस्कृतिक अध्ययन" (शोध), "भीली-हिन्दी" (शब्दकोश), "गोंडी-हिन्दी" (शब्दकोश), "कोरकू-हिन्दी" (शब्दकोश)। इनकी प्रकाश्य कृतियाँ हैं, "गुण्डाधूर", "गोन्ची", "रामबोला" (नाटक), "अन्तिम महायुद्ध" (कहानियाँ), "महूफूल" (उपन्यास)। इनके अतिरिक्त उल्लेखनीय साहित्य-सेवियों में स्व. जॉन वेलेजली "चिराग़" (हल्बी एवं हिन्दी कवि, कोंडागाँव), श्री शीतल राम कोर्राम (हल्बी कवि, कोंडागाँव), सर्वश्री सुरेश चन्द्र श्रीवास्तव, शिवसिंह भदौरिया, डॉ. कौशलेन्द्र (कवि, काँकेर), विजय सिंह (कवि एवं रंगकर्मी, जगदलपुर), शिवकुमार पाण्डेय (कवि, नारायणपुर), डॉ. सतीश (पर्यटन लेखक, जगदलपुर), नूर जगदलपुरी (शायर, जगदलपुर), अशोक "चक्र" (छत्तीसगढ़ी कवि, लारगाँव-काँकेर), गणेश यदु (छत्तीसगढ़ी कवि, सम्बलपुर-अन्तागढ़), हिमांशु शेखर झा (लेखक, जगदलपुर), सुभाष पाण्डे (व्यंग्यकार एवं रंगकर्मी, जगदलपुर), योगेन्द्र मोतीवाला (नाटक, जगदलपुर), अवध किशोर शर्मा (कवि, जगदलपुर), राजिन्दर राज (कवि, चारामा), राजेन्द्र श्रीवास्तव "शिरीष" (व्यंग्य कवि, काँकेर), डॉ. सुरेश तिवारी (कवि, तोकापाल-जगदलपुर), राजेन्द्र राठौर (कथाकार, काँकेर), लक्ष्मण गावड़े (कवि, काँकेर), अनुपम जोफर (कवि, काँकेर), प्रेमदास "डंडा काँकेरी" (कवि, काँकेर), इस्माईल जगदलपुरी (कवि, जगदलपुर), पूर्णानन्द "करेश" (कवि, काँकेर), डॉ. कौशलेन्द्र (कवि, काँकेर), बलदेव पात्र (कवि, अन्तागढ़), घनश्याम नाग (हल्बी-हिन्दी कवि, बहीगाँव), उग्रेश मरकाम (हल्बी-गोंडी कवि, कोंडागाँव), बुधेश्वर बघेल (हल्बी कवि, कोंडागाँव), सुश्री मधु तिवारी (कवयित्री, कोंडागाँव) योगेन्द्र देवांगन (कवि एवं व्यंग्यकार, कोंडागाँव), के. एल. श्रीवास्तव (कथाकार, जगदलपुर), केशव पटेल (छत्तीसगढ़ी गीतकार, कोंडागाँव), मनोहर "जख़्मी" (कवि, कोंडागाँव), उमेश मण्डावी (कवि, कोंडागाँव), सी. एल. मार्कण्डेय (छत्तीसगढ़ी गीतकार), हरेन्द्र यादव (कवि, कोंडागाँव), सुश्री बरखा भाटिया (कवयित्री, कोंडागाँव) नरेन्द्र पाढ़ी (कवि एवं रंगकर्मी, जगदलपुर), रुद्रनारायण पाणिग्राही (कवि एवं रंगकर्मी, जगदलपुर), बिक्रम सोनी (कवि एवं रंगकर्मी, जगदलपुर), दादा जोकाल (गोंडी एवं हल्बी कवि, गीदम), डुमन लाल ध्रुव (छत्तीसगढ़ी एवं हिन्दी कवि एवं लेखक), अवधेश अवस्थी (कवि, गीदम) आदि के नाम आते हैं। विजय सिंह की प्रकाशित कृति है, "बंद टाकीज"। इसी तरह के. एल. श्रीवास्तव की प्रकाशित कृतियाँ हैं, "दर्पण", "जगतूगुड़ा की विकास-यात्रा", "कबरी", "दरार", "सहारा", "सफर", "श्वान सम्मेलन" और "आत्म-बोध"। योगेन्द्र देवांगन की 3 कृतियाँ प्रकाशित हैं, "जिसकी लाठी उसकी भैंस", "दौरों का दौरा" और "बात की बात"। राजीव रंजन प्रसाद (बचेली) का उपन्यास "आमचो बस्तर" हाल ही में प्रकाशित हुआ है।
उपर्युक्त साहित्यकारों में से बहुतों की कृतियाँ प्रकाशित हुई होंगी किन्तु मेरी जानकारी में नहीं होने के कारण उनका उल्लेख करना सम्भव नहीं हो पाया है। मैं अपने अल्प ज्ञान के लिये उनसे क्षमा-प्रार्थी हूँ। और उन साहित्यकारों से भी क्षमा-याचना करता हूँ जिनका उल्लेख इस आलेख में अज्ञानता अथवा जल्दबाजी के कारण नहीं किया जा सका है।
जिन साहित्यकारों ने बस्तर में कुछ वर्ष बिताते हुए साहित्य-साधना की है उनमें रसिक लाल परमार (कवि), मनीषराय (कथाकार, कवि), ब्रह्मासिंह भदौरिया (गीतकार), राघवेन्द्र ईटिगी (तेलुगू कवि), अभय कुमार पाढ़ी (ओड़िया कवि), जब्बार ढाँकवाला (व्यंग्यकार), शंशाक (कथाकार), हृषीकेश सुलभ (कथाकार), हबीब राहत "हुबाब" (शायर), रमेश अनुपम (कवि एवं समीक्षक), संजीव बख्शी (कवि), तिलक पटेल (कवि), डॉ. देवेन्द्र "दीपक" (कवि), रमेश अधीर (गीतकार), त्रिजुगी कौशिक (कवि एवं छायाकार), राजुरकर राज (कवि) और रामराव वामनकर (कवि-गीतकार-गजलगो), राजेन्द्र गायकवाड़ (कवि) आदि के नाम याद आते हैं।


"ककसाड़" के बहाने
00000000000000

हरिहर वैष्णव 
0000000000


बस्तर अंचल (छत्तीसगढ़) के कोंडागाँव कस्बे से "ककसाड़" नामक पत्रिका का प्रकाशन होने जा रहा है। इसके दीर्घजीवी और चर्चित होने के लिये मेरी अनन्त शुभकामनाएँ। मुझे इस बात की खुशी है कि यह नाम बस्तर अंचल की सांस्कृतिक राजधानी के नाम से अभिहित इसी नगरी से वर्ष 1997 से 1998 के बीच प्रकाशित हुई पत्रिका "ककसाड़" से ही अनुप्राणित है। इस पत्रिका के कुल मिला कर तीन ही अंक निकल सके और जैसा कि प्राय: लघु पत्रिकाओं के साथ विडम्बना जुड़ी होती है, यह भी चौथे अंक तक नहीं पहुँच सकी। 

बहरहाल, यह नाम इस पत्रिका को कैसे दिया गया और इसका अर्थ क्या है, यह जानने के लिये मुझे आपको कुछ वर्षों पहले ले चलना होगा। सुप्रसिद्ध समकालीन कवि और हाल ही में अपने पहले ही उपन्यास "भूलन कान्दा" से विश्वस्तर पर चर्चित और प्रसिद्धि प्राप्त श्री संजीव बख्शी जी के जगदलपुर से कोंडागाँव आगमन के साथ ही यहाँ की साहित्यिक गतिविधि पहले से कुछ अधिक गतिशील हो गयी थी। इसी गतिशीलता के एक चरण के रूप में उन्होंने मेरे सामने एक प्रस्ताव रखा था, यहाँ से एक अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका के प्रकाशन का। चर्चा चलती रही। मन्थन होता रहा। फिर नामकरण की बात हुई तो मैंने उन्हें सुझाया "ककसाड़"। उन्होंने पूछा इसका अर्थ क्या है? मैंने विस्तार में न जा कर अपने अल्प गोंडी ज्ञान के आधार पर इसके सार-रूप के तौर पर बताया "आराधना"। यही प्रश्न परम आदरणीय श्री शिवमंगल सिंह "सुमन" जी ने भी पूछा था, जब मैंने उन्हें इस पत्रिका के प्रकाशन की सूचना देते हुए उनसे आशीर्वचन चाहे थे। उत्तर जान कर वे बहुत प्रसन्न हुए थे और लिखा था, ""यह जान कर बड़ी प्रसन्नता हुई कि आप आदिवासी बहुल बस्तर अंचल की सांस्कृतिक राजधानी कोंडागाँव से शीघ्र ही एक अनियतकालीन साहित्यिक लघु पत्रिका "ककसाड़" के प्रकाशन की तैयारी कर रहे हैं। आदिवासी क्षेत्र में आराधना के रूप में इस पत्र का आरम्भ कर निश्चय ही आप सर्जना के ज्योतिर्मय स्वरूप का आह्वान कर रहे हैं। तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले क्षेत्र से दूर, सुदूर अंचल में इस अनुष्ठान का बड़ा महत्त्व है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप अपनी निष्ठा और संवेदनशील रचनात्मकता से वहाँ की नयी पीढ़ी का पथ प्रशस्त कर सकेंगे। इस नैष्ठिक कार्य के लिये मेरी हार्दिक मंगलकामना स्वीकार कीजिये। सस्नेह एवं साभार।""

इसी तरह सुप्रसिद्ध कथाकार और प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका "पहल" के सम्पादक श्री ज्ञानरंजन जी ने लिखा था, ""आदिवासी अंचल से "ककसाड़" नाम की पत्रिका निकालने का विचार और प्रयास अपने आप में बहुत ही मूल्यवान है। हमारे आदिवासी और जनजातीय अंचलों की रचनाशीलता इस प्रकार तथाकथित सभ्य संसार तक पहुँच सकेगी। हम तो यह भी मानते हैं कि देश की यही मुख्यधारा है जो आज हाशिये पर है और धूमिल है। जिस तरह एक इलीट या भद्र समाज ने सारे तत्व पर कब्जा कर लिया है और उसके अनंत हाथ हैं समेटने के लिये, उसी तरह एक छोटे प्रयास से मंद ही सही हमें अपना चिराग जलाते रहना  होगा। आप पराजित न हों और इसे यानी "ककसाड़" को निरंतर निकाल कर बस्तर की वास्तविक आवाज प्रस्तुत कर दें। हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।"" 
सुप्रसिद्ध कवि एवं आलोचक एवं उस समय भारतीय भाषा परिषद्, कलकत्ता के सचिव रहे श्री प्रभाकर श्रोत्रिय जी ने लिखा था, ""ककसाड़" के प्रकाशन की सूचना मिली। आभारी हूँ। आपने पत्रिका के शीर्षक के लिये गोंडी का शब्द चुना, यह बहुत बढ़िया है। आपकी "आराधना" सफल हो और पत्रिका के माध्यम से आप बस्तर तथा अन्यत्र के रचनाकारों की वाणी का प्रसार कर सकें, यही कामना है। आप सब स्वस्थ-सक्रिय होंगे।""
आलोचना के शिखर पुरुष और डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. (प्रो.) धनंजय वर्मा जी ने लिखा था, ""यह जान कर अच्छा लगा कि आप बहुत जल्द ही कोंडागाँव, बस्तर से एक अनियकालीन साहित्यिक लघुपत्रिका "ककसाड़" का सम्पादन और प्रकाशन कर रहे हैं। बस्तर की किसी भी साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधि से स्वाभाविक ही मेरा एक भावात्मक रिश्ता सहज ही बन जाता है। मैं कामना करता हूँ कि आप अपने मित्रों और सहयोगियों के समवेत प्रयत्न में सफल मनोरथ हों और बस्तर की साहित्यिक "आराधना" पूरे साहित्यिक जगत में प्रकाश केन्द्र बने.....अशेष मंगलकामनाओं के साथ।""
वहीं स्व. लाला जगदलपुरी जी ने इस नाम की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए लिखा था, ""ककसाड़" नाम के कलेवर में "समकालीन सृजन" का समावेश सामंजस्य स्थापित नहीं कर सकेगा। सोचो। अभी समय है। "भूमकाल" नाम उपयुक्त  होगा। परामर्शदाता के रूप में मेरा नाम रख सकते हो। तुम्हें हक है।""
स्व. लालाजी का यह सुझाव बहुत ही सटीक था किन्तु तब तक बहुतेरे लोगों को पत्र जा चुके थे और कइयों के उत्तर आ भी गये थे। शीर्षक का प्रारूप भी मेरे अनुज खेम वैष्णव ने तैयार कर लिया था। सो "ककसाड़" नाम ही अन्तिम रूप पा सका। बहरहाल। "ककसाड़" के तीनों ही अंक बस्तर अंचल, विशेषत: कोंडागाँव के ही सहृदय साहित्यकारों के  रचनात्मक और आर्थिक सम्बल से मेरे सम्पादन में प्रकाशित हो सके थे। भाई जगदीश "वागर्थ" इसके सम्पादन-सहयोगी थे। इन तीनों अंकों का मुद्रण अकरम स्क्रीन, जगदलपुर से हुआ था। मैं इसके लिये सभी सहयोगियों का हृदय से आभारी हूँ। 
अब देखें कि "ककसाड़" है क्या? क्या अर्थ है इस शब्द का और किस भाषा का है यह शब्द? बस्तर अंचल की सबसे बड़ी आबादी द्वारा बोली जाने वाली जनभाषा "गोंडी" का यह शब्द दरअसल अलग-अलग क्षेत्र में "करसाड़" और "खड़साड़" नाम से भी जाना जाता है। इसे "पेन करसाड़" भी कहा जाता है। "पेन" यानी देवता और "करसाड़" या "ककसाड़" अर्थात् "जतरा" या "जातरा" (पूजा, यात्रा)। गोंडी परिवेश का यह अतिविशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण पर्व देवी-देवताओं की वार्षिक एवं भव्य पूजा-अर्चना का पवित्र अवसर होता है। एक निश्चित परिधि में निवास करने वाले गोंड जनजाति के युवक-युवती, आबाल-वृद्ध सभी इस पूजा-अर्चना में किसी एक नियत गाँव में जुटते हैं और यह भव्य पूजा-अर्चना सम्पन्न होती है। इस आयोजन में युवक-युवतियों की विशेष भूमिका होती है। सारा उत्तरदायित्व उन्हीं का होता है। धार्मिक प्रमुख पूजा-अर्चना सम्पन्न कराते हैं जबकि युवक-युवती देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिये माँदर आदि लोक-वाद्य की संगत में नृत्य प्रस्तुत करते हैं।
"बस्तर के पेन परब" पुस्तक (सम्पादक : किरण नुरुटी) में प्रकाशित अपने लेख "ककसाड़ : पेन करसीता" में श्रीमती बसंत नाग लिखती हैं : ""ककसाड़" वस्तुत: बस्तर की गोंड जनजाति की माड़िया शाखा का प्रमुख नृत्य प्रधान पर्व है जो सामान्यत: मई मध्य से ज्येष्ठांत तक मनाया जाता है। ग्रीष्म ऋतु के अवसान और वर्षा के आगमन के साथ ही घोर और अबूझ पहाड़ियों में अबुझमाड़िया आदिम जाति के युवा हृदय "ककसाड़" की अगवानी में धड़कने लगते हैं। वे ककसाड़ नृत्य-पर्व के लिये आतुर हो उठते हैं।  इस नृत्य का स्वरूप धार्मिक है। शाब्दिक दृष्टिकोण से ककसाड़ शब्द द्रविड़ भाषा के कर्स शब्द से सम्बन्धित है, जिसका सम्बन्ध नृत्य से होता है। अत: स्पष्ट है देवताओं से सम्बन्धित नृत्य "ककसाड़" है। और यह एक प्रकार से जात्रा नृत्य (धार्मिक नृत्य) भी है, जिसमें आदिवासी समूह अपने आराध्य देव की पूजा-अर्चना कर उनकी प्रतिमा (प्रतिरूप) का जुलूस निकालते समय नृत्याभिनय प्रस्तुत कर अपनी आस्था और संवेदनाओं को प्रदर्शित करते हैं। इसलिये यह नृत्य स्वाभाविक रूप से संगीतमय होता है।""  
अब थोड़ी-सी बात कोंडागाँव कस्बे से प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिकाओं की। मैं नहीं जानता कि "प्रस्तुति" के प्रकाशन के पहले और किसी साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन कोंडागाँव से हुआ था या नहीं। किन्तु मेरे जानते सबसे पहले यहाँ से प्रकाशित हुई थी त्रैमासिक लघु पत्रिका "प्रस्तुति", जिसका पहला अंक "साइक्लोस्टाइल्ड" था। इसके बाद इसका दूसरा अंक प्रेस से मुद्रित रूप में प्रकाशित हुआ। इस मुद्रित अंक के बाद इसके प्रकाशन पर विराम लग गया। यों तो इसके सम्पादक-मण्डल में मैंने चार महानुभावों के नाम दिये थे किन्तु वस्तुत: सम्पादन और प्रकाशन का सारा भार मैंने वहन किया था। सामग्री-संकलन से ले कर टायपिंग, साइक्लोस्टाइलिंग, पिनिंग अप और वितरण तक; सब कुछ। हाँ, मैंने अपना नाम इस पत्रिका के सम्पादक या प्रकाशक के रूप में नहीं दिया था और न ही अपनी कोई रचना प्रकाशित की थी। 
मुझे बहुत अच्छी तरह याद है, जब 10 अप्रैल 1979  को इस पत्रिका का विमोचन "बस्तर क्लब" में हिन्दी के सुप्रसिद्ध कथाकार (स्व.) मनीष राय जी और हल्बी के अन्यतम कवि श्री सोनसिंह पुजारी जी की उपस्थिति में आकाशवाणी के तत्कालीन केन्द्र निदेशक श्री राघवेन्द्र ईटिगी द्वारा "बस्तर के महाकवि" (स्व.) लाला जगदलपुरी जी की अध्यक्षता में किया गया तब इन चारों ही महानुभावों ने इस बात पर "घोर आपत्ति" की थी कि जिस व्यक्ति ने सारा परिश्रम किया उसी का नाम सम्पादक-मण्डल में नहीं है। मैं चुप रह गया था। मैंने यह इसीलिये किया था ताकि सभी लोग जुड़े रह सकें और मुझ पर "सम्पादक" बनने की "चाह" में की गयी चेष्टा का आरोप न लग सके। बहरहाल, मैं "प्रस्तुति" के लिये रचनाएँ जुटाता फिरा। बस्तर और बस्तर से बाहर के भी रचनाकारों से। (स्व.) नारायण लाल परमार जी, श्री त्रिभुवन पाण्डे जी, स्व. चेतन आर्य जी, स्व. लतीफ घोंघी जी से रचना-सहयोग लिया। इस अंक में जिन रचनाकारों की रचनाएँ प्रकाशित हुई थीं वे थे, स्व. नारायणलाल परमार, स्व. लाला जगदलपुरी, सर्वश्री आर. सी. मेरिया, अभय कुमार पाढ़ी, गोपाल सिम्हा, शंकरलाल क्षत्री, मिर्जा बदरुल हसन "सौदाई", मोहन जैन, विजय वानखेड़े, मनोहर नेताम, सुरेन्द्र रावल,  प्रह्लाद पटेल, पारसनाथ मिश्रा, सोनसिंह पुजारी, राघवेन्द्र ईटिगी, रामेश्वर वैष्णव, लतीफ घोंघी, राजेन्द्र राठौर, मनीषराय यादव, बिमल चन्द्र गुप्ता, योगेन्द्र देवांगन, चितरंजन रावल, सुश्री नसीम  रहमान और सुश्री उषा लता जारी। और इस दूसरे अंक के साथ ही "प्रस्तुति" की यात्रा थम गयी। 
फिर इसके बाद एक और पत्रिका "घूमर" नाम से प्रकाशित हुई, जो "बस्तर सम्भाग हल्बी साहित्य परिषद्" का प्रकाशन थी और इसमें बस्तर की जनभाषाओं की ही रचनाओं को स्थान दिया गया था। इसके सम्पादक-मण्डल में भी (स्व.) लाला जगदलपुरी जी एवं अन्य चार लोगों के नाम थे, जिनमें मेरा नाम यथापूर्व शामिल नहीं था। इसके पीछे भी मंशा यही थी कि मुझ पर "सम्पादक बन जाने" की लालसा का ठप्पा न लग जाये। किन्तु दुर्भाग्य से यह पत्रिका भी एक ही अंक के बाद बन्द हो गयी। 
इसके बाद जन्म हुआ "ककसाड़" नामक अनियतकालीन पत्रिका का। श्री संजीव बख्शी जी के प्रोत्साहन और जगदीश "वागर्थ" के सहयोग से और इन दोनों के ही आग्रह के परिणाम-स्वरूप मेरे सम्पादन में "स्क्रीन प्रिÏन्टग" विधि से इस पत्रिका का पहला अंक जनवरी-मार्च 1997 में प्रकाशित हुआ। दूसरा अंक अप्रैल-जून 1997 में एवं तीसरा अंक जुलाई 1998 में। बस! यही तीसरा अंक "समापन अंक" साबित हुआ। इन तीनों ही अंकों के लिये स्थानीय साहित्यकारों एवं कुछ विज्ञापन-दाताओं ने रचना एवं आर्थिक सम्बल प्रदान किया था। यह भूलने वाली बात नहीं है। किन्तु इस तरह के अल्पकालिक सहयोग से भला किस तरह कोई पत्रिका दीर्घजीवी हो सकती थी? स्पष्ट है, सभी पत्रिकाओं के अल्पजीवी होने के पीछे केवल एक ही कारण था, अर्थाभाव। इन तीनों अंकों में क्रमश: फिर अभी पिछले ही वर्ष "छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद्" के बैनर-तले अस्तित्व में आयी एक और लघु पत्रिका "चेलिक"। अब तक इसके दो अंक निकल चुके हैं। आगे कितने निकल पाएँगे, कहा नहीं जा सकता। सुनने में आया है कि "चेलिक" पर भी आर्थिक संकट के घने बादल घिर आये हैं। दूसरा अंक बड़ी ही कठिनाई से निकल सका है। किन्तु अब प्रकाशित होने जा रही पत्रिका "ककसाड़" इस अर्थाभाव से सम्भवत: ग्रसित नहीं होगी और दीर्घजीवी होगी, ऐसा विश्वास है। कारण, इससे जुड़े लोग सामथ्र्यवान हैं। इस पत्रिका के दीर्घजीवी, सार्थक और ख्यात होने के लिये मेरी अशेष शुभकामनाएँ। 
अन्त में मैं यहाँ "प्रस्तुति", "घूमर" और "ककसाड़" के प्रकाशन से किसी भी तरह जुड़े, चाहे वे नाम से ही जुड़े क्यों न हों, सभी सहयोगियों का आभार व्यक्त करना अपना नैतिक दायित्व समझता हूँ। इसी तरह प्रकाश्य पत्रिका "ककसाड़" हेतु आलेख माँगने हेतु मान्यवर डॉ. राजाराम त्रिपाठी जी का भी आभार।

संस्कार धानी कोंडागाँव
00000000000000000


हरिहर वैष्णव
0000000000


कोंडानार से अपना सफर शुरू करने वाला और आगे चल कर कोंडागाँव नाम से अभिहित बस्तर सम्भाग की संस्कार धानी के नाम से जाना जाने वाला यह कस्बा अब नगराता जा रहा है। यह कहा जाये कि शहरीकरण के इस दानवी दौर में अपने संस्कार खोती जा रही 26898 (वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार) की आबादी वाली इस संस्कार धानी की आत्मा चीत्कार कर रही है तो कदाचित् अनुचित नहीं होगा। तथाकथित आधुनिकता और विकास की राह पर चल पड़ी इस संवेदनशील नगरी से संवेदनशीलता गधे के सिर से सींग की तरह गायब होती जा रही है। दादा-भैया जैसे आत्मीय सम्बोधन के साथ लोगों से बातें करने वाले कोंडागाँव के जन अब नयी पीढ़ी को इस आत्मीय सम्बोधन को भूलते देख गहरे विषाद से भर उठे हैं। इसकी जगह अब "सर", "हैलो" और "हाय" ने ले ली है। कभी अकूत भूमि के स्वामी रहे वनवासी अपनी भूमि कौड़ियों के मोल बेच कर हाशिये पर चले गये हैं। दिनोंदिन बढ़ती आबादी और यातायात के दबाव के चलते बन्धा तालाब के पास स्थित शिव मन्दिर से ले कर श्रीराम मन्दिर तालाब (बड़े तरई) तक मुख्य मार्ग के दोनों ओर खड़े रसीले और मीठे आमों के कई पेड़ जो कभी इस कस्बे की शोभा रहे, आज सौंदर्यीकरण की भेंट चढ़ चुके हैं। इन पेड़ों के कट जाने की पीड़ा मुझे भीतर तक सालती है और आजीवन सालती रहेगी। कारण, अपनी किशोरावस्था में इन पेड़ों से टपकते मीठे-रसीले आम बीनने के लिये सुबह 4.00 बजे जाग जाना मुझे अभी भी याद है। सड़क पर आने की देर नहीं और प्रत्येक पेड़ के नीचे आम के ढेर दिखलायी दे जाते। इन आमों पर किसी का कोई अधिकार नहीं होता था। जिसने बीन लिये आम उसके। इस तरह का एक आपसी समझौता हुआ करता था। कोई वाद-विवाद नहीं। किन्तु आज न तो आम के वे पेड़ हैं, न उनकी शीतल और गहरी छाँव और न उस तरह की आपसी समझदारी और सौहाद्र्र का कोई संस्कार और वातावरण! इसमें दोष किसी का नहीं है। यान्त्रिकता और अतिभौतिकता की ओर निरंकुश और तेजी से बढ़ते हमारे अनियन्त्रित कदमों के चलते यह तो होना ही था। संवेदनशीलता की भरी गगरी को रीतना ही था। 
यह नगरी न केवल संस्कारधानी के रूप में ख्यात रही है अपितु इस नगर की जलवायु भी आरम्भ से ही बस्तर सम्भाग के अन्य नगरों की तुलना में बिल्कुल भिन्न और स्वास्थ्यवद्र्धक रही है। शुक्र है कि आज भी जंगलों के लगातार कटते जाने के बावजूद इस नगर के तापमान में अन्य जगहों की अपेक्षा नरमाहट का अहसास होता है। 
इस गाँव के नामकरण और इतिहास को ले कर गोंडी और हल्बी भाषियों के बीच मतान्तर है। 
गोंडी भाषी श्री रमेश चन्द्र दुग्गा (निवासी ग्राम : पालकी, नारायणपुर जिला, वर्तमान में सहायक वन संरक्षक, रायपुर) के अनुसार इस गाँव का नाम गोंडी जनभाषा के शब्द "कोंडा" और "नार" से मिल कर बना था। "कोंडा" अर्थात् आँख और "नार" यानी गाँव। उनका कहना है कि अन्य स्थानों की तरह "कोंडानार" का नाम भी समय के साथ "कोंडागाँव" हो गया। बस्तर के कई गाँवों के नाम मूल गोंडी और हल्बी से अब परिवर्तित हो गये हैं। उदाहरण के लिये नगुर से नारायणपुर, जगतूगुड़ा से जगदलपुर, पाड़ेक् से पालकी, कड़ावेडा से केरलापाल और सँदोड़ार से संधारा आदि। किन्तु हल्बी भाषी स्व. चमरु सिरहा (सरगीपाल पारा, कोंडागाँव) के अनुसार धान की महीन भूसी जिसे कोंडा कहा जाता है, के आधार पर इस गाँव का नाम कोंडागाँव हुआ था। वे एक किम्वदन्ती का हवाला देते हुए बताते थे कि गाँडा जाति (सरगीपाल पारा की रहवासी और छेरकिन डोकरी के नाम से जानी जाने वाली स्व. घिनई कोराम पति सकरु कोराम तथा इसी मोहल्ले के स्व. मँगतू कोराम के अनुसार गोंड जाति) की कोई एक बुढ़िया थी, जो प्राय: दूसरों के लिये धान कूटने का काम करती थी। धान कूटने के इस काम को काँडा ले जाना कहा जाता है। काँडा का नियम होता है 20 पायली धान कूट कर 9 पायली चावल वापस करना और शेष चावल तथा कोंडा (भूसी) मेहनताना के रूप में स्वयं रख लेना। किन्तु वह बुढ़िया इस नियम के विपरीत सारा चावल चाहे वह 10 पायली हो या 11, वापस कर दिया करती और केवल भूसी अपने लिये रख लेती। वही उसका मेहनताना होता। दुनिया की नजरों में उसके इसी ऊटपटाँग किन्तु उस बुढ़िया के हिसाब से युक्तियुक्त नियम के कारण उस बुढ़िया का नाम कोंडा डोकरी और बसाहट का नाम कोंडागाँव प्रचलित हो गया। बाद में (सुकालू राम, ग्राम कोटवार एवं गोपाल पटेल, ग्राम पटेल के अनुसार) बस्तर रियासत के तत्कालीन दीवान मिस्टर मिचेल के सुझाव पर इसका नामकरण कोंडानार से कोंडागाँव किया गया। 
दूसरी किम्वदंती (दुर्योधन मरकाम) के अनुसार नारंगी नदी में बोद मछली जिसे गोंडी में "कोण्डा मीन" कहा जाता है, बहुतायत से मिला करती थी। गोंडी में कोण्डा का अर्थ आँख और मीन का अर्थ मछली है। बोद मछली कानी होती है इसीलिये इसे हल्बी परिवेश में "कानी मछरी" भी कहा जाता है। कहा जाता है कि इस "कोण्डा मीन" की बहुतायत से उपलब्धता ही इस बसाहट के नामकरण का आधार बना और यह बस्ती "कोण्डानार" प्रचलित हो गयी। उल्लेखनीय है कि नार का अर्थ गोंडी में गाँव होता है। बोद मछली का सम्बन्ध (रमेश चन्द्र दुग्गा एवं दुर्योधन मरकाम के अनुसार) गोंड जनजाति की धार्मिक आस्था एवं विश्वास से जुड़ता है। 
तीसरी किम्वदंती (मनोज कुर्रे) के अनुसार कोई मरार (पनारा) परिवार बाहर से चल कर इधर आ रहा था तब उसकी "गोडेल गाड़ी" के पहिये वर्तमान हिंगलाजिन मन्दिर के आसपास कान्दा (कन्द) की नार (बेल) से लिपट कर बाधित हो गये और गाड़ी वहाँ से आगे नहीं बढ़ सकी। तब वह परिवार विवशता में वहीं ठहर गया। रात में परिवार के मुखिया को स्वप्न में बड़ी-बड़ी आँख वाली किसी देवी ने दर्शन दिये और उससे उसी जगह पर अपना ठिकाना बनाने को कहा। वह व्यक्ति सुबह उठा और आसपास के लोगों से उस स्वप्न की बात कही और उस देवी के विषय में बताया। तब उसे बताया गया कि उस देवी का नाम हिंगलाजिन है और उनकी बड़ी-बड़ी आँखों के कारण उन्हें "कोण्डा देवी" भी कहा जाता है। इस तरह "कोण्डा" शब्द से इस बस्ती का नाम कोण्डानार हुआ। यानी कोण्डा देवी का गाँव, कोण्डानार जो आगे चल कर कोण्डागाँव कहा जाने लगा।
कोंडागाँव के एक पुराने निवासी श्री महादेव यादव स्व. चमरु सिरहा, स्व. छेरकिन डोकरी और स्व. मँगतू राम कोराम द्वारा बतायी गयी किम्वदन्ती से अनभिज्ञ हैं किन्तु इसकी सत्यता पर प्रश्न चिन्ह भी नहीं लगाते। वे कोंडागाँव में जंगली जानवरों के आतंक के विषय में बताते हैं कि आज से लगभग 60-65 वर्ष पूर्व जब वे किशोर थे, उस समय शेर और जंगली सुअर कोंडागाँव बस्ती से होते हुए पूर्व दिशा की पहाड़ियों की ओर जाया-आया करते थे। तहसीलपारा में स्थित उनके घर के पीछे पेटफोड़ी (चीर घर) हुआ करता था। इसी चीर-घर के आसपास जंगली जानवर मँडराया करते थे। बड़ा खौफ था उन दिनों। 
मेरे पिता शासकीय सेवा में थे और जगदलपुर से स्थानान्तरण पर 1968 के मई-जून महीने में हम कोंडागाँव आये थे। उस समय यह दरअसल एक गाँव ही था। आबादी थी यही कोई 7 से 10 हजार के बीच। जगदलपुर-रायपुर राष्ट्रीय राजमार्ग के दोनों ओर लम्बवत् बसाहट थी। गाँव के पूर्व दिशा में मुख्य मार्ग से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर दण्डकारण्य परियोजना का कार्यालय, कर्मचारियों के निवास और एक चिकित्सालय। तब इस रविन्द्रनाथ टैगोर (आरएनटी) चिकित्सालय का नाम, जिसे स्थानीय लोग डीएनके अस्पताल के नाम से जानते हैं, बहुत प्रसिद्ध हुआ करता था। चिकित्सा और चिकित्सा-सुविधाओं के लिहाज से लोग जिला मुख्यालय जगदलपुर के महारानी अस्पताल की बजाय इस अस्पताल को ज्यादा तवज्जो दिया करते थे। किन्तु इस अंचल में दण्डकारण्य परियोजना की समाप्ति के साथ ही स्थानीय जनता के पुरजोर विरोध के बावजूद राजनैतिक उदासीनता के चलते इस चिकित्सालय पर से केन्द्र शासन का नियन्त्रण समाप्त हो गया। इसके साथ ही इस अस्पताल की दुर्दशा के दिन आरम्भ हो गये। इस चिकित्सालय में पदस्थ चिकित्सक डॉ. डी. भन्ज कुशल चिकित्सकों में से थे, जो अब कोंडागाँव के ही हो कर रह गये हैं। मुख्य मार्ग पर ही बस स्टैण्ड था। आज भी उसी जगह पर है किन्तु तब उसके पूर्व दिशा में बसाहट नहीं थी। उधर झाड़ियाँ हुआ करती थीं और सूर्यास्त के साथ ही उस ओर से जाने में लोगो को पसीने छूट जाया करते थे। आज यह इलाका आबाद है और विकास नगर का नाम पा चुका है। सरगीपाल पारा में जब हमने 1970 में मकान बनाया उस समय हमारा मकान अन्तिम सिरे पर था। हमारे घर से लगभग 30 मीटर की दूरी से ही साल का छोटा-सा जंगल लगा हुआ था और इधर भी सूर्यास्त के बाद जाने की हिम्मत नहीं होती थी। कभी यहाँ साल का बड़ा-सा जंगल रहा होगा तभी इस जगह का नाम सरगीपाल हुआ। साल का स्थानीय नाम सरगी (अथवा सरई) है। 
कोंडागाँव को संस्कार धानी कुछ यो ही नहीं कहा जाता। यह अलग बात है कि आज के बदलते परिवेश में दुर्भाग्यवश यह नाम अपनी सार्थकता खोता चला जा रहा है। बहरहाल, बाँसुरी वादन के लिये स्व. श्यामलाल रवानी, रामचरित मानस, मातासेवा और फाग गायन के लिये स्व. पूरन महाराज (पूरन शर्मा), स्व. रतनसिंह देवांगन और स्व. श्यामदास वैष्णव चर्चित रहे हैं। इसी तरह कस्बे को भागवतमय बनाने के लिये भागवत कथा के आयोजनों में स्व. अयोध्या प्रसाद पाणिग्राही एवं उनका परिवार, श्री जागेश्वर प्रसाद गुप्ता, श्री जगरुप गुप्ता, श्री हरिहर सिंह गौतम और स्व. मोहन गोलछा की सक्रिय भागीदारी भी उल्लेखनीय रही है। योग को लोकप्रिय बनाने की दिशा में अहर्निश प्रयास कर रहे श्री बीरेन्द्र धर, श्री योगेन्द्र देवांगन, श्रीमती मधुलिका देवांगन, श्री लखनलाल पटेल और उनके साथियों का परिश्रम फल-फूल रहा है। प्रति वर्ष वर्षा ऋतु में जगदलपुर-रायपुर मार्ग पर भँवरडिही (जुगानी) और मार्कण्डेय नदी (काकड़ीघाट) तथा कोंडागाँव-नारायणपुर मार्ग पर भँवरडिह नदी (किबई कोकोड़ी) और छेरीबेड़ा नदी में आयी बाढ़ में फँसे सैकड़ों यात्रियों की नि:स्वार्थ सेवा के लिये कोंडागाँव भली प्रकार जाना जाता रहा है। चाहे वह व्यवसायी हो, अधिकारी या कर्मचारी अथवा राजनीतिक-गैर राजनीतिक या फिर युवा या बच्चे और बूढ़े; सभी बाढ़ में फँसे यात्रियों की तन-मन-धन से सेवा में यथाशक्ति लगे रहे हैं। 
नवयुवक सामाजिक एवं सांस्कृतिक समिति इस कस्बे की बहुत ही सक्रिय संस्था रही थी। श्री टी. एस. ठाकुर के कुशल मार्गदर्शन में इस संस्था ने वर्षों तक सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के कई कीर्तिमान स्थापित किये। इस संस्था ने कुछ समय तक एक महाविद्यालय का भी संचालन किया था। फिर जैसा कि सृजनधर्मी संस्थाओं के साथ प्राय: होता है, इस संस्था के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ और कुछ वर्षों बाद बिखर गया यह संगठन। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि सांस्कृतिक गतिविधियों पर विराम लग गया हो।  कुछ ही वर्षों बाद सांस्कृतिक क्षेत्र में नवोन्मेष के साथ फिर से हलचल हुई और एकाएक सांस्कृतिक संस्थाओं की बाढ़-सी आ गयी। "अभिव्यंजना सांस्कृतिक समिति", "गीतांजलि सांस्कृतिक समिति", "जगार सांस्कृतिक समिति" और "बनफूल सांस्कृतिक समिति" का गठन लगभग एक ही समय में हुआ। इनमें से "जगार" और "बनफूल" संस्थाओं ने कोंडागाँव के अतिरिक्त दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्र में भी लोक संस्कृति से ओतप्रोत कार्यक्रम प्रस्तुत किये। लोक भाषा हल्बी में प्रस्तुत इन संस्थाओं के कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय हुए थे। विशेषत: मध्यप्रदेश तुलसी अकादमी के आयोजन "जनरंजन" में "जगार सांस्कृतिक समिति" द्वारा प्रस्तुत हल्बी रामायण (सीता हरण प्रसंग) ने ऐसी धूम मचायी थी कि अनेक गाँवों से इसकी प्रस्तुतियों के लिये इस संस्था को आमन्त्रण प्राप्त होते रहे। किन्तु कुछ ही वर्षों बाद ये संस्थाएँ भी केवल नाम को रह गयीं और गतिविधियों पर विराम लग गया। कारण, इन संस्थाओं से जुड़े अधिकांश कलाकार शासकीय सेवक थे और कुछ वर्ष यहाँ रह कर इधर-उधर स्थानान्तरित हो गये। "अभिव्यंजना" और "गीतांजलि" का कार्यकाल सम्भवत: एक या दो वर्षों का ही रहा होगा। इसके काफी समय बाद दो नयी संस्थाओं "वन्दना आर्ट्स" और "नवरंग सांस्कृतिक समिति" का अभ्युदय हुआ जिन्होंने कुछ वर्षों तक सांस्कृतिक गतिविधियों में जान फूँकी। ये दोनों ही संस्थाएँ मुख्यत: रंगमंच से जुड़ी रहीं और बस्तर के बाहर देश के विभिन्न नगरों में भी इनकी नाट्य प्रस्तुतियों ने लोगों का ध्यान बस्तर के रंगमंच की ओर खींचा। किन्तु बुद्धू बक्सा के आने के साथ ही सांस्कृतिक गतिविधियों का टोटा पड़ गया। एक लम्बा समय रिक्तता का था। इस रिक्तता की पूर्ति कुछ वर्षों बाद "गीतांजलि आर्केस्ट्रा", "संस्कृति ग्रुप ऑफ आर्ट्स" और "भारत क्लब जूनियर" ने की है। इनमें से "संस्कृति ग्रुप ऑफ आर्ट्स" सम्भवत: निष्क्रिय हो गयी है जबकि "गीतांजलि" और "भारत क्लब जूनियर" अभी भी सक्रिय हैं। 
भारत क्लब अधिकारियों के मनोरंजन के लिये स्थापित एक संस्था रही है। इस क्लब के सौजन्य से नगर में सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी संचालित होती रही हैं। इन दिनों क्लब का अस्तित्व तो नहीं रहा किन्तु इसके भवन तथा नाम का उपयोग नगर के सृजनधर्मियों द्वारा रचनात्मक गतिविधियों के संचालन के लिये किया जा रहा है। इस क्लब में वर्षों पहले एक पुस्तकालय भी हुआ करता था जिसमें महत्वपूर्ण पुस्तकें हुआ करती थीं किन्तु आज वहाँ एक भी पुस्तक नहीं है। जानने वाले बताते हैं कि सारी पुस्तकें इस क्लब से जुड़े कुछ लोगों की व्यक्तिगत सम्पत्ति बन कर रह गयी हैं। संस्कार धानी कहलाने का गौरव हासिल होने के बावजूद इस नगर में आज तक एक पुस्तकालय अथवा वाचनालय तक संचालित नहीं है; यह कमी दिल में काँटे की तरह चुभती रही है। 
प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ की इकाइयाँ यहाँ कुछ समय के लिये सक्रिय रहीं फिर इनमें भी बिखराव आ गया। लम्बे समय तक सक्रिय रहने वाली एकमात्र संस्था थी "प्रज्ञा साहित्य समिति"। किन्तु इसका भी वही हश्र हुआ। फिर कुछेक संस्थाएँ जन्मीं, कुछ दिनों तक पलीं और फिर मृत्यु को प्राप्त हो गयीं। पिछले दिनों श्री चितरंजन रावल के संयोजन में छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद् की इकाई का गठन हुआ है जिसने फरवरी में एक उल्लेखनीय कार्यक्रम यहाँ आयोजित किया था। इसकी भी बैठकें कुछ दिनों तक नियमित रहीं किन्तु अब यह भी उसी ढर्रे पर चल पड़ी है। कारण है, रचनाकारों और साहित्यप्रेमियों का रुचि न लेना। प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के साथ ही यहाँ इप्टा की भी गतिविधियाँ कुछ दिनों तक जारी रहीं और बाद में ठप पड़ गयीं। इप्टा की गतिविधियाँ श्री मनीष श्रीवास्तव और शिशिर श्रीवास्तव तथा उनके साथी संचालित किया करते थे। 
बस्तर की लोक कलाओं के संरक्षण, विकास और विस्तार तथा लोक कलाकारों के हितों के लिये कार्य करने के उद्देश्यों के साथ जन्मी संस्था "पारम्परिक बस्तर शिल्पी परिवार" कई वर्षों तक सक्रिय रही और इसने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य भी किये। किन्तु आज यह संस्था भी मृतप्राय है। समाज-सेवा के क्षेत्र में "साथी समाज सेवी संस्था" ने उल्लेखनीय कार्य किये और इसकी गतिविधियाँ आज भी निरन्तर चल रही हैं। अन्य संस्थाओं में "विकास मित्र" तथा "धरोहर" के नाम लिये जा सकते हैं। 
कला-साधकों की बात करें तो सुगम संगीत के क्षेत्र में सर्वश्री सूर्यम, मन्जीत सिंह, दीनदयाल भट्ट, जयलाल देवांगन, स्व. विश्वेश्वर लाल रवानी, स्व. जान वेलेजली मिलाप, स्व. नूतन सिंह राठौर, चन्द्रकान्त "साहिल", जगदीश चन्द्र कलियारी, जयलाल देवांगन, सुश्री अंजना मिलाप, स्व. प्रदीप मिलाप, सर्वश्री डी. ढाली, खीरेन्द्र यादव, सुश्री नन्दा शील और शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में श्री आर. बी. दीक्षित और श्री गोस्वामी के नाम उल्लेखनीय रहे हैं। बाँसुरी, तबला, नाल और ढोलक वादन के क्षेत्र में श्री खेम वैष्णव तथा तबला वादन के क्षेत्र में श्री प्रणव चटर्जी और श्री सुबोध के नाम आज भी लोगों की जुबान पर हैं। श्री टंकेश्वर पाणिग्राही लोकगीत गाने के अपने विशिष्ट अंदाज के लिये जाने जाते रहे हैं। नवोदित कलाकारों में सर्वश्री सहदेव साहा, तरुण पाणिग्राही, भूपेश पाणिग्राही, जयेश, अमित दास, सिद्धार्थ वैष्णव, नवनीत, प्रद्युम्न, चोखेन्द्र डाबी, रिक्की और सुश्री डॉली घुड़ैसी आदि के नाम लिये जा सकते हैं। लोक गायकों में गुरुमाय सुकदई कोराम एक ऐसा नाम है जिनके गाये बस्तर की धान्य देवी की कथा "लछमी जगार" का पुस्तकाकार प्रकाशन न केवल आस्ट्रेलियन नेशनल युनीवर्सिटी के सहयोग से हुआ अपितु जिसकी चर्चा राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी हुई है। लोककलाओं के क्षेत्र में इस नगर के सर्वश्री जयदेव बघेल (घड़वा शिल्पी), खेम वैष्णव (लोक चित्रकार), पंचूराम सागर, राजेन्द्र बघेल, भूपेन्द्र बघेल (तीनों घड़वा शिल्पी) आदि ने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की है। कला के क्षेत्र में श्री सुशील सखूजा का नाम गिनीज बुक आफ वल्र्ड रिकार्ड में दर्ज होना भी कोंडागाँव की एक बड़ी उपलब्धि कही जायेगी। देश के पाँच राज्यों की लोक कथाओं को हल्बी में एनीमेशन फिल्म के जरिये स्कॉटलैंड की संस्था "वेस्ट हाईलैंड एनीमेशन" के साथ मिल कर अन्तर्राष्ट्रीय दर्शकों तक पहुँचाने में भी कोंडागाँव के कलाकारों का योगदान उल्लेखनीय है। 
साहित्य के क्षेत्र में कोंडागाँव को अग्रिम पंक्ति में लाने का श्रेय यदि किसी को जाता है तो वे हैं सुपरिचित कवि और व्यंग्यकार श्री सुरेन्द्र रावल। उन दिनों जब मैं रचना-कर्म से जुड़ा तब यहाँ स्व. पी.एल.कनवर, स्व. ओ.पी.शर्मा, श्री सुरेन्द्र रावल और जनाब हयात रज़वी वरिष्ठ कवि और शायर हुआ करते थे। प्राय: प्रत्येक 8-10 दिनों में एक गोष्ठी अवश्य ही हुआ करती थी। गोष्ठी न हो तो पेट में दर्द होने लगता था। इसके ठीक विपरीत गोष्ठी के नाम पर आज पेट में दर्द उठने लगता है। इसके बावजूद सर्वश्री सुरेन्द्र रावल, चितरंजन रावल और श्री राजाराम त्रिपाठी द्वारा गोष्ठियाँ आयोजित करने की पहल चलती रहती है। बहरहाल, वरिष्ठ रचनाकारों के आग्रह पर मैं भी अपनी अनगढ़ कविताएँ बड़े ही संकोच के साथ सुना दिया करता था जिन पर वरिष्ठ रचनाकारों की स्वस्थ टिप्पणियाँ प्राप्त होती थीं। गोष्ठियों में स्थायी सुधी श्रोता हुआ करते थे सर्वश्री टी. एस. ठाकुर, हेमचन्द्र सिंह राठौर और स्व. हादी भाई रिज़वी। ये तीनों ही साहित्य-पिपासु, साहित्य-मर्मज्ञ और विद्वान थे और भाषा पर भी इनका गजब का अधिकार था। श्री टी. एस. ठाकुर हिन्दी के साथ-साथ अँग्रेजी के भी विद्वान रहे हैं। उनके द्वारा रचित अँग्रेजी ग्रामर हाई स्कूल के पाठ्यक्रम में सम्मिलित रहा है। रचनाकार इन सुधी श्रोताओं से मार्गदर्शन प्राप्त करते रहे हैं। श्री टी.एस.ठाकुर आज भी गोष्ठियों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। स्व. हादी भाई रिज़वी की कमी सभी को खलती है। बहरहाल, आगे चल कर सुप्रसिद्ध कथाकार और कवि श्री मनीषराय और बस्तर की जनभाषा हल्बी के वरेण्य कवि श्री सोनसिंह पुजारी के इस नगर में आगमन ने यहाँ की साहित्यिक गतिविधियों की सक्रियता में और भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। श्री पुजारीजी के सान्निध्य में यहाँ के कई रचनाकारों ने लोकभाषा में सृजन आरम्भ किया। यों तो मैं पहले से ही हल्बी जनभाषा में सृजन कर रहा था किन्तु श्री पुजारीजी के सान्निध्य ने मुझे इस ओर गम्भीरता पूर्वक काम करने की प्रेरणा दी। इसके लिये मैं श्री पुजारीजी का हृदय से आभारी हूँ। 1982 में स्व. मनीषरायजी के प्रयासों और श्री सोनसिंह पुजारी तथा श्री के. सी. दास के सहयोग से यहाँ "सर्जना 82" नामक एक विराट् साहित्यिक सम्मेलन सम्पन्न हुआ जिसमें अखिल भारतीय ख्याति के सुप्रसिद्ध कथाकारों सर्वश्री हरिनारायण ("कथादेश" के सम्पादक), बलराम ("सारिका" के उप सम्पादक), संजीव, अब्दुल बिस्मिल्लाह, पुन्नीसिंह, धीरेन्द्र अस्थाना, रऊफ परवेज़, किरीट दोशी, लक्ष्मीनारायण पयोधि आदि ने भी शिरकत की। कोंडागाँव के साथ-साथ सम्पूर्ण बस्तर अंचल के साहित्य-प्रेमियों के लिये यह एक ऐतिहासिक और अविस्मरणीय आयोजन सिद्ध हुआ। इसी आयोजन में बस्तर पर केन्द्रित महत्वपूर्ण ग्रन्थ "इन्द्रावती" का विमोचन भी हुआ। इस ग्रन्थ के सम्पादक थे स्व. मनीषराय और श्री बलराम। सृजन-यात्रा अविराम चलती रही किन्तु बीच-बीच में कुछ व्यवधान भी उपस्थित हो जाया करते। फिर कुछ दिनों के लिये शून्य की स्थिति निर्मित हो गयी। तभी समकालीन कविता के सुपरिचित हस्ताक्षर श्री संजीव बख्शी जगदलपुर से स्थानान्तरित हो कर कोंडागाँव आये और उनकी पहल पर गोष्ठियों का दौर फिर से चल पड़ा। प्रमुख रचनाकारों में सर्वश्री यशवन्त गौतम, मनोहर सिंह "जख्मी", चन्द्रकान्त "साहिल", अब्दुल करीम, आर.सी.मेरिया, चितरंजन रावल, राजेन्द्र राठौर, ब्रजकिशोर राठौर, महेश पाण्डे, योगेन्द्र देवांगन, रमेश अधीर, जगदीश दास, केशव पटेल, पी.के.राघव, बी.बी.वर्मा, उमेश मण्डावी और स्व. सी.एल.मार्कण्डेय आदि उल्लेखनीय रहे हैं। नवोदित कवियों में सुश्री बरखा भाटिया और श्री हरेन्द्र यादव और के नाम लिये जा सकते हैं। नवोदित होने के बावजूद सुश्री बरखा भाटिया की गजलें बेहतरीन मानी जाती हैं। 
इस नगरी से "प्रस्तुति", "घुमर" और "ककसाड़" नामक स्तरीय लघु पत्रिकाओं का प्रकाशन भी होता रहा है। किन्तु जैसा कि लघु पत्रिकाओं की नियति होती है, ये पत्रिकाएँ भी अपने शैशव-काल में ही काल-कवलित हो गयीं। "बस्तर सम्भाग हल्बी साहित्य परिषद्" और "ककसाड़ प्रकाशन" को यहाँ से बस्तर के लोक साहित्य सम्बन्धी महत्वपूर्ण ग्रन्थों (बस्तर की मौखिक कथाएँ, लछमी जगार, बस्तर का लोक साहित्य, बस्तर की गीति कथाएँ, धनकुल) और बस्तर सम्बन्धी बाल साहित्य (चलो चलें बस्तर तथा बस्तर के तीज त्यौहार) के प्रकाशन का श्रेय जाता है। श्री चितरंजन रावल का काव्य संग्रह ""कुचला हुआ सूरज"" और श्री सुरेन्द्र रावल का काव्य संग्रह ""काव्य-यात्रा"" तथा श्री योगेन्द्र देवांगन के दो व्यंग्य संग्रह ""जिसकी लाठी उसकी भैंस"" और ""बात की बात"" एवं एक काव्य संग्रह ""दौरों का दौरा"" भी प्रकाशित हो चुके हैं।
हल्बी की आद्य कृति "हल्बी भाषा-बोध"
--------------------------------------------
हरिहर वैष्णव
----------------
बस्तर में साहित्य-सृजन और वह भी हल्बी लोक-भाषा में साहित्य-सृजन! यह अभूतपूर्व घटना थी 1937 की। हल्बी के पहले साहित्यकार होने का गौरव अर्जित किया था (स्व.) ठाकुर पूरन सिंह जी ने। उन्होंने "हल्बी भाषा-बोध" कृति की रचना की थी। इसके बाद एक और कृति प्रकाश में आयी थी, "देबी पाठ", जिसके रचनाकार थे (स्व.) पं. गणेश प्रसाद सामन्त। इस विषय में श्री लाला जगदलपुरी जी लिखते हैं, ""साहित्य के नाम पर इधर केवल मनोरंजनार्थ लोक-साहित्य का ही अस्तित्व ध्वनित होता आ रहा था। बोलियाँ केवल मौखिक परम्परा तक सिमट कर रह गयी थीं। क्षेत्र की किसी भी बोली में लिखित साहित्य के लिये मानसिकता नहीं बन पायी थी। बस्तर की सम्पर्क भाषा हल्बी में पहली बार सन् 1937 में लिखित साहित्य की शुरुआत हुई थी। "हल्बी भाषा-बोध" और "देबी पाठ" नामक दो कृतियाँ बस्तर स्टेट पिं्रटिंग प्रेस, जगदलपुर से मुद्रित हो कर लेखकों द्वारा प्रकाशित की गयी थीं। "हल्बी भाषा-बोध" के लेखक थे ठाकुर पूरन सिंह और "देबी पाठ" के रचनाकार थे पं. गणेश प्रसाद सामन्त। "हल्बी भाषा-बोध" के प्रकाशन का प्रमुख उद्देश्य था तत्कालीन सरकारी अफ़सरों और कर्मचारियों को हल्बी के सम्पर्क में लाना, क्योंकि उन दिनों यहाँ हल्बी एक ऐसी बोली थी, जो अंग्रेजी और हिन्दी के बाद बस्तर रियासत के राज-काज में काम आती थी। "देबी पाठ" एक छोटी-सी भजन पुस्तिका थी। जाहिर है कि उन दिनों उधर राज्याश्रयी और पारम्परिक गतिविधियाँ ही स्वीकृत हुआ करती थीं।""
श्री लालाजी ने यद्यपि 1936 से साहित्य-सृजन आरम्भ कर दिया था किन्तु तब वह सृजन केवल हिन्दी में था। हल्बी-लेखन की शुरुआत उन्होंने सन् 1940 में की थी। वे कहते हैं कि अध्ययन हेतु लोकोक्तियों की खोज के दौरान उनका ध्यान "हल्बी भाषा-बोध" की ओर गया। "हल्बी भाषा-बोध" में देखने पर उदाहरणार्थ कुल चौदह कहकुक (कहावतें) और बारह धंदे (पहेलियाँ) ही प्राप्त हुए। लोकोक्तियों के अन्तर्गत मुहावरे भी आते हैं। लालाजी कहते हैं कि उन्हें उसमें मुहावरे नहीं मिले। वे आगे कहते हैं, ""वैसे, "हल्बी भाषा-बोध" आज भी अपनी उपयोगिता सिद्ध करने में सक्षम सिद्ध हो सकता है, यदि उसका पुनप्र्रकाशन हो सके। ठाकुर पूरन सिंह हल्बी के प्रथम गद्यकार और गीति-प्रणेता थे। राष्ट्रीय भावना से युक्त "भारत माता चो कहनी" शीर्षक उनकी एक हल्बी कविता और कई उद्बोधक हल्बी गीत स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् प्रकाशित हुए थे।""
इस तरह 1937 में हल्बी में साहित्य-सृजन का जो अलख (स्व.) ठाकुर पूरन सिंह जी ने जगाया वह भले ही मन्थर गति से, किन्तु आगे बढ़ता गया और आज की स्थिति में हल्बी में उल्लेखनीय सृजन हो रहा है। कविताएँ, गीत, कहानियाँ, एकांकी, नाटक और यहाँ तक कि उपन्यास भी लिखे जा रहे हैं। इसीलिये कहा जा सकता है कि हल्बी को न केवल लिखित स्वरूप में लाने बल्कि इस जनभाषा में साहित्य-सृजन आरम्भ करने में (स्व.) ठाकुर पूरन सिंह जी का ऐतिहासिक योगदान उल्लेखनीय है। वे निर्विवाद रूप से हल्बी के पहले साहित्यकार कहे जा सकते हैं। ठीक उसी तरह, जिस तरह बस्तर अंचल में हिन्दी साहित्य के प्रणेता के रूप में पण्डित केदारनाथ ठाकुर जाने जाते हैं, जिनका बहुचर्चित ग्रंथ "बस्तर-भूषण" 1908 में प्रकाशित हुआ था। इस ग्रंथ की चर्चा आज भी होती है और यह बस्तर के भूगोल, इतिहास तथा यहाँ की आदिवासी एवं लोक संस्कृति के विषय में सम्पूर्ण विवरण उपलब्ध कराने वाला ग्रंथ सिद्ध होता आ रहा है। शोधार्थियों के लिये ये दोनों ही कृतियाँ बहुमूल्य साबित होती रही हैं।
(स्व.) ठाकुर पूरन सिंह जी द्वारा रचित कुछ और हल्बी कृतियों का उल्लेख मिलता है। ये कृतियाँ हैं, "भारत माता चो कहनी" और "छेरता तारा गीत"। "हल्बी भाषा-बोध" के विषय में कहा जाता है कि यह पुस्तक राजकीय अमले को हल्बी भाषा सिखाने के लिये लिखी गयी थी। उन्हीं के सहयोग से मेजर आर. के. एम. बेट्टी ने 1945 में "ए हल्बी ग्रामर" की रचना की थी। 1950 में पं. गंभीर नाथ पाणिग्राही रचित कविता-संग्रह "गजामूँग" प्रकाशित हुआ था। पं. वनमाली कृष्ण दाश ने भी साहित्य-सृजन किया था किन्तु उनकी किसी प्रकाशित पुस्तक का उल्लेख नहीं मिलता ("बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति" : लाला जगदलपुरी, 1994, प्रकाशक : मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल (मध्य प्रदेश)। (स्व.) पं. देवीरत्न अवस्थी जी "करील" ने हिन्दी के साथ-साथ हल्बी में भी काव्य-रचना की। उनका 1910 में बस्तर में हुई सशस्त्र क्रान्ति (भूमकाल) के सन्दर्भ में लिखा हल्बी गीत "इलो-इलो" तथा एक अन्य गीत "बास्तानारिन बाई" चर्चित रहे हैं। "बास्तारिन बाई" गीत बैंसवाड़ी लोकभाषा में भी स्वयं उन्हीं के द्वारा अनूदित है।
श्री लाला जगदलपुरी जी ने 1940 से हल्बी में साहित्य-सृजन आरम्भ किया। उन्होंने कुछ हिन्दी पुस्तकों का हल्बी में अनुवाद भी प्रस्तुत किया। उनके द्वारा हल्बी में अनूदित पुस्तकें हैं, "प्रेमचन्द चो बारा कहनी", "बुआ चो चिठी मन", "रामकथा" और "हल्बी पंचतन्त्र"।
लाला जी के समकालीनों में (स्व.) पं. रघुनाथ प्रसाद महापात्र जी हल्बी-भतरी के बहुचर्चित कवि रहे थे। उनकी पुस्तक "फुटलो दसा, बिलई उपरे मुसा" ने बस्तर की सीमाएँ लाँघ कर ओड़िसा तक में धूम मचा दी थी। (स्व.) ठाकुर पूरन सिंह जी की साहित्यिक विरासत को आगे बढ़ाया उन्हीं के सुयोग्य पुत्र श्री रामसिंह ठाकुर जी ने। उन्होंने हल्बी गीत-कविता-कहानी और निबन्ध के साथ-साथ श्री रामचरित मानस को हल्बी में प्रस्तुत करने का उल्लेखनीय और स्तुत्य कार्य किया। उन्हीं के द्वारा हल्बी में अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता का प्रकाशन 2014 में राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली द्वारा किया गया है। हल्बी में श्रेष्ठ कविताएँ लिखीं श्री सोनसिंह पुजारी जी ने। श्री पुजारी जी ने यद्यपि बहुत कम, कुल मिला कर केवल 27 कविताएँ लिखीं किन्तु वे सभी चर्चित हुईं। उनकी इन 27 कविताओं का संग्रह "अन्धकार का देश" 2015 में देश की अग्रणी साहित्यिक संस्था साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली से प्रकाशित हुआ है।
इसी काल में पं. काशीनाथ सामन्त, पं. गणेश प्रसाद पाणिग्राही, जॉन वेलेजली "चिराग" आदि ने भी हल्बी साहित्य-सृजन के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया।
हल्बी लोक-भाषा-साहित्य को प्रकाश में लाने का श्रेय निर्विवाद रूप से दिया जाना चाहिये "दण्डकारण्य समाचार" और "बस्तरिया" समाचार पत्रों को तथा आकाशवाणी के जगदलपुर केन्द्र को। इन तीनों ने हल्बी लोक-भाषा के लिखित तथा अलिखित दोनों ही प्रकार के साहित्य को प्रकाश में लाने का यथासम्भव प्रयास किया, उर्वर भूमि तैयार की, बीजारोपण किया, सिंचित-पल्लवित और पुष्पित-फलित भी।
जैसा कि "हल्बी भाषा-बोध" के पुनप्र्रकाशन के सम्बन्ध में श्री लाला जगदलपुरी जी के उद्गार का उल्लेख ऊपर हुआ है, यह बहुत ही प्रसन्नता का विषय है कि स्व. ठाकुर पूरन सिंह जी के सुयोग्य पौत्र श्री विजय सिंह ने इस पुस्तक का पुनप्र्रकाशन किया है। ऐसा कर के उन्होंने हम सभी बस्तरवासियों पर जो उपकार किया है, सम्भवत: वे उससे अनजान नहीं हैं। उनका आभार और अनन्त मंगलकामनाएँ।