Sunday 27 January 2013

उमेश मण्डावी की कविता


इस बार प्रस्तुत है युवा व्यंग्यकार उमेश कुमार मण्डावी की व्यंग्य-कविता "चुनाव"। कोंडागाँव (बस्तर-छत्तीसगढ़) में 23 मई 1975 को जन्मे उमेश मण्डावी यांत्रिकी में बी.ई. और हिन्दी साहित्य में एम.ए. हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन केन्द्र जगदलपुर से कविताएँ प्रसारित। कवि सम्मेलनों में व्यंग्यकार के रूप में चर्चित। श्री सुरेन्द्र रावल एवं श्री केशव पटेल द्वारा साहित्यिक मार्ग-दर्शन। 
सम्प्रति : पंचायत (व्याख्याता) के पद पर शास. उ.मा.वि. कोकोड़ी (बस्तर-छ.ग.) में कार्यरत। छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद्, कोंडागाँव जिला के सचिव के रूप में साहित्यिक गतिविधियों में संलग्न। प्रस्तुत है उनकी कविता : 


चुनाव


उमेश मण्डावी


एक तुनकमिजाज पत्नी ने पति से कहा :
"जानते हो जी! शर्मा सर के घर में,
टी. वी. है, फ्रिज है, गाड़ी है
उनकी बीवी के पास, हर प्रांत की साड़ी है
उनके ठाट-बाट के क्या कहने हैं!"

पति ने कहा :
"वो दो नंबर का काम करते हैं,
हम तो बस! ईमानदारी की तनख्वाह लेते हैं।"

गुस्से में पत्नी बोली :
"किसने कहा था, ईमानदारी दिखाने को
यदि बेईमानी करते, रिश्वत लेते
तो हम भी सुख-चैन से रहते
अब एक काम करो,
थोड़े ही दिनों में लोक-सभा-चुनाव होने वाले हैं
तुम अपनी ड्यूटी किसी घोर नक्सल प्रभावित क्षेत्र में लगवा लो
हो सके तो, आज ही एप्लीकेशन भिजवा दो।"

पति ने कहा :
"लोग तो चुनाव में जाने से कतराते हैं
तरह-तरह के एप्लीकेशन देकर, ड्यूटी कैंसिल करवाते हैं
और तुम मुझे चुनाव में जाने को कह रही हो।"

पत्नी ने कहा :
"अजीब गँवार हो, मूर्ख हो, बेवकूफ हो
इतना भी नहीं जानते कि
चुनाव में काम करने वालों का
सरकार विशेष ध्यान रखती है
मर गये तो लाखों रुपयों की सहायता देती है
और वैसे भी
जीते जी तो कोई सुख दे नहीं पाये हो
एक सूती साड़ी तक ले नहीं पाये हो
यदि चुनाव के समय मरोगे तो
दो लाख रुपये चुनाव-बीमा का मिलेगा
जी.पी.एफ. का पैसा जल्दी निकल जायेगा
और ढेर सारे दूसरे पैसे निकल जायेंगे
हम देखते-ही-देखते लखपति बन जायेंगे
और जरा बेटी को देखो,
बेटी की शादी दहेज के कारण ही रुकी पड़ी है
आप चुनाव में जायेंगे,
शहीद हो जायेंगे
उसका घर बस जायेगा
और पप्पू को देखो,
एम.ए. फस्र्ट क्लास
पढ़-लिख कर बेरोजगार घूम रहा है
आप चुनाव में जायेंगे
तो उसकी जिंदगी सँवर जायेगी
आपकी जगह उसको अनुकम्पा नियुक्ति मिल जायेगी
वह कई बार कहता है :
"माँ! आजकल नौकरी मिलना बहुत मुश्किल है
सिर्फ अनुकम्पा नियुक्ति का ही सहारा है"
और जब कभी आप सुबह
देर तक सोते रहते हैं
वो बड़ा खुश हो जाता है
दौड़ कर आपके कमरे में जाता है
लेकिन आपको जिंदा देख कर फिर नर्वस हो जाता है
कहता है :
"माँ! पिताजी बड़ी गड़बड़ करते हैं
अपनी जिंदगी जी डाले, अब मरने से डरते हैं"
"और पप्पू के पापा जरा सोचो,
जब पप्पू छोटा था,
तब आप उसका कितना ध्यान रखते थे
उसकी हर फरमाईश पूरी करते थे
और आज वो क्या माँग रहा है?
सिर्फ मरने के लिये ही तो कह रहा है
अरे! मेरे लिये नहीं,
बच्चे का दिल रखने के लिये ही सही
एक बार मर जाओ।

देवांगन साहब को देखो,
पिछले चुनाव में शहीद हुए
उनके लड़के को शानदार नौकरी मिल गयी
अपने वर्मा साहब को देखो,
पिछले चुनाव में दुर्भाग्यवश बच गये
पर रिटायरमेंट के ठीक पहले गाड़ी के नीचे आ गये
उनके लड़के को भी नौकरी मिल गयी
यह सब देख पप्पू उदास हो जाता है,
झुँझला कर कहता है :
"माँ! हम क्या ऐसे ही तंगहाल रहेंगे?
पिताजी से पूछो ना, वे कब मरेंगे?"

"और जरा अपने आपको देखो,
सूख कर काँटा हो गये हो
यदि बेमौसम मरोगे तो
चार आदमी कंधा देने के लिये ढूँढ़ना मुश्किल है
और यदि चुनाव के समय मरोगे तो
अरे वाह! आपकी अर्थी को सरकारी गाड़ी में लायेंगे
कई लोग हमारे घर आयेंगे
मन्त्री, विधायक, अधिकारी हमसे मिलने आयेंगे
और हम देखते-ही-देखते वी.आई.पी. बन जायेंगे
टी.वी. वाले मुझसे पूछेंगे :
"आपका पति चुनाव में शहीद हो गया
आप कैसा महसूस कर रही हैं?"

मैं कहूँगी :
"बड़े गर्व की बात है कि
मेरा पति देश के काम आया
पर दु:ख इस बात का है कि मेरा सिर्फ एक ही पति था
यदि आठ-दस और होते तो
मैं सबको देश के लिये शहीद कर देती।"
और हो सकता है कि
आपके मरने के बाद
किसी राजनीतिक दल का टिकट
मुझे मिल जाये
फिर मैं आपके नाम से
बड़े-बड़े स्कूल व अस्पताल बनवाऊँगी
और यह सब देख कर आप निश्चित मानिये
आपकी भटकती आत्मा को 
नरक में शांति मिल जायेगी।"




Friday 25 January 2013

फिर भी चाहती हूँ जीना, माँ!


इस बार एक नवोदित युवा कवि सूर्यकान्त साहू की एक कविता "फिर भी जीना चाहती हूँ, माँ!" प्रस्तुत है। 

सूर्यकान्त साहू का जन्म 23 फरवरी 1989 को बालोद (छत्तीसगढ़) में हुआ था। 
माता का नाम बेलाबाई और पिता का नाम राधेश्याम साहू। वे वर्तमान में भिलाई (छत्तीसगढ़) में एम. सी. ए. की पढ़ाई कर रहे हैं। उनका वर्तमान निवास है : सरगीपालपारा, कोंडागाँव 494226। उनसे उनके मोबाइल 88179 47387 पर सम्पर्क किया जा सकता है। 

लेखन के विषय में वे कहते हैं, "मैं 10 वीं कक्षा में था तब से कलम पकड़ने की कोशिश कर रहा हूँ। इसे मैं लिखना नहीं कहता। मैं तो केवल अपने भाव व्यक्त कर रहा हूँ।" सूर्यकान्त लिखने के साथ-साथ संगीत में भी रुचि रखते हैं। प्रस्तुत है उनकी कविता : 


फिर भी चाहती हूँ जीना, माँ!


सूर्यकान्त साहू 


थम रही हैं साँसें मेरी 
फिर भी चाहती हूँ जीना, माँ
आँखें हो गयी हैं नम
फिर भी चाहती हूँ जीना, माँ

धड़कनें छोड़ रही हैं साथ
फिर भी
ज़िंदगी के इस बेबस मंजर पर
पहुँच कर भी चाहती हूँ जीना, माँ

अभी भी कुछ कर गुजर 
चाहती हूँ आगे बढ़ना, माँ
इन हैवानों को अभी मैं
चाहती हूँ सबक सिखाना, माँ

जो मेरी आबरू को नंगा कर
घूम रहे हैं खुले आम
उनके झूठ के नकाब उतार 
उनके काले-घिनौने सच को
सामने चाहती हूँ लाना, माँ

अभी तो कुछ कर गुजर कर
आगे चाहती हूँ बढ़ना, माँ

सपने तो अब भी बुन रही हूँ
मंज़िल की राहों पर मैं
अब भी आगे बढ़ रही हूँ
पर साँसें नहीं दे रही हैं मेरा साथ
ज़िंदगी से फिर भी लड़ रही हूँ, माँ

दिन ढल रहा है
फिर भी मेरे मन में
अभी सूरज ऊग रहा है, माँ
फिर भी चाहती हूँ जीना, माँ! 





Monday 14 January 2013

श्री सुरेन्द्र रावल और उनकी काव्य-यात्रा



28 दिसम्बर 1938 को जगदलपुर (बस्तर) में जन्मे आदरणीय गुरुदेव श्री सुरेन्द्र रावल बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। लब्धप्रतिष्ठ कवि एवं व्यंग्यकार होने के साथ-साथ वे चर्चित रंगकर्मी और मंच-संचालक भी रहे हैं। पंचायत शिक्षकों के आन्दोलन को अपना नैतिक समर्थन देते हुए उन्होंने अपना जन्म-दिवस मनाने से इंकार कर दिया था। किन्तु 31 अक्टूबर 2012 से संस्कार धानी कोंडागाँव में की गयी पहल के मद्देनजर अन्तत: उन्होंने 13 जनवरी को अपना जन्म-दिवस मनाने की सहमति छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद् की कोंडागाँव इकाई को दे ही दी। 
यह दिन एक साथ तीन प्रसंगों को समेटे हुए था। पहला आदरणीय गुरुदेव श्री सुरेन्द्र रावल जी का जन्म-दिन, दूसरा दिल्ली से पधारे "आऊटलुक" के संयुक्त सम्पादक आदरणीय श्री सुमन्त भट्टाचार्य जी का सम्मान और हिन्दी-छत्तीसगढ़ी के नवोदित कवि भाई श्री हरेन्द्र यादव जी की विदाई का समारोह। भाई श्री हरेन्द्र यादव अभी-अभी (31 दिसम्बर 2012 को) वन विभाग से वनक्षेत्रपाल के पद से सेवानिवृत्त हुए ही थे कि शासन ने उन्हें वन विद्यालय, भानुप्रतापपुर में प्रशिक्षक के पद पर संविदा नियुक्ति दे दी। 

1982 में बस्तर पर केन्द्रित संदर्भ-ग्रंथ "इन्द्रावती" (सम्पादक : मनीषराय, बलराम) में सह-सम्पादक के रूप में अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराने वाले आदरणीय गुरुदेव श्री सुरेन्द्र रावल सर की कविताएँ, हास्य-व्यंग्य एवं निबन्ध आदि देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं आकाशवाणी तथा दूरदर्शन के प्रसारणों में स्थान पाती रही हैं। उन्होंने राज्य संसाधन केन्द्र, प्रौढ़ शिक्षा, मध्य प्रदेश, इन्दौर एवं आदिवासी विकास, मध्य प्रदेश, भोपाल के लिये भी लेखन-कार्य किया है। हिन्दी में एम. ए. तथा बी. एड. तक शिक्षा प्राप्त श्री रावल शिक्षकीय कार्य करते हुए प्राचार्य के पद से कुछ वर्षों पूर्व सेवानिवृत्त हुए हैं। वर्तमान में वे कोंडागाँव में ही रहते हुए एक स्थानीय निजी विद्यालय में प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं। उनका सम्पर्क सूत्र है : विकास नगर, कोंडागाँव 494226, बस्तर-छत्तीसगढ़, चलित वार्ता : 92003-01888
मुझे याद आता है। मैं 1966-67 में जब कक्षा 7वीं का छात्र था, तभी से मेरे मन में पुस्तकें पढ़ने के प्रति रुझान पैदा हुआ। इसका श्रेय जाता है मुझ से एक कक्षा पीछे चल रहे मेरे अभिन्न मित्र भाई कृष्णनाथ देवांगन (जिन्हें तब से ले कर आज तक हम उनके घरु नाम "बहादुर" से ही सम्बोधित करते हैं) को। हालाँकि उनका रुझान गुलशन नन्दा, वेदप्रकाश कम्बोज जैसे लेखकों की पुस्तकों की ओर था। वे मुझे इन लेखकों की पुस्तकें देते और मैं उन्हें "चन्दामामा", "पराग" और "मिलिन्द" जैसी स्तरीय बाल पत्रिकाएँ। पुस्तकें मिल-बाँट कर पढ़ी जातीं। लेकिन बाद-बाद में मैं गुलशन नन्दा और वेदप्रकाश काम्बोज आदि की पुस्तकों से कटता चला गया और फिर "चन्दामामा", "पराग", "मिलिन्द" आदि पत्रिकाओं ने आगे चल कर 9वीं-10वीं तक आते-आते लेखन के बीज भी बो दिये और मैं छिटपुट रचनाएँ लिखने लगा था।
                                                                                                                                                       शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, कोंडागाँव में तब एक सम्पन्न पुस्तकालय भी हुआ करता था। पुस्तकालय के प्रभारी हुआ करते थे आदरणीय गुरुदेव श्री टी. एस. ठाकुर जी। पुस्तकालय में एक-से-एक साहित्यिक पुस्तकें थीं। उन्हें क्रम से विद्यार्थियों को दिया जाता। विद्यार्थी उन्हें पढ़ते और फिर उन पर कक्षा में चर्चा भी हुआ करती। पाठ्यपुस्तकों से इतर अन्य लेखकों को पढ़ने का सौभाग्य कुछ इसी तरह मुझे मिला था। उसी पुस्तकालय से मैंने हिन्दी-उर्दू शब्दकोश का भी थोड़ा सा अध्ययन किया था। आज पता नहीं वे पुस्तकें हैं भी या नहीं। इसी तरह एक और पुस्तकालय हुआ करता था "भारत क्लब" के अधीन। किन्तु आज वहाँ कुछ भी नहीं है। इसी बीच मैंने हिन्द पॉकेट बुक्स की "घरेलू लायब्रेरी योजना" की सदस्यता ले ली और फिर तो प्रेमचंद जी, रेणु जी, भगवती चरण वर्मा जी जैसे प्रख्यात लेखकों की कालजयी रचनाओं से परिचय होने लगा। बहरहाल। मेरे सौभाग्य से कवि एवं व्यंग्यकार श्री सुरेन्द्र रावल जी हमारी पाठशाला में हिन्दी के शिक्षक हुआ करते थे और 9वीं से 11वीं तक हमारे कक्षा-अध्यापक भी। उन्होंने मेरी हिन्दी देखी और एक दिन पूछा, "क्यों हरिहर! तुम कुछ लिखते-विखते भी हो, क्या?" मैंने संकोच के साथ "हाँ" में अपनी मुण्डी हिलायी। और बस! तभी से वे मुझे प्रोत्साहित करने लगे। इस तरह वे न केवल विद्यालय में मेरे गुरु रहे अपितु साहित्य के क्षेत्र में भी वे मेरे आदि गुरु रहे हैं। नगराते हुए गाँव में होने वाली नियमित काव्य-गोष्ठियों में मुझे वे अनिवार्य रूप से बुलाने लगे। मैं सभी कवियों की रचनाएँ बड़े ध्यान से सुनता और जब मेरी बारी आती तो मैं बहुत ही संकोच के साथ अपनी अनगढ़ रचनाएँ सुनाता। रचनाओं को सुन कर श्री रावल सर, श्री टी. एस. ठाकुर सर और स्व. हादी भाई रिज़वी साहब बड़े ही ममत्व के साथ उसे "ठीक-ठाक" करने में अपना सहयोग देते। आदरणीय श्री टी. एस. ठाकुर सर आज भी साहित्यिक गोष्ठियों में अपनी उपस्थिति अनिवार्यत: दर्ज कराते हैं। 
13 जनवरी को जब हम आदरणीय श्री सुरेन्द्र रावल जी का जन्म दिन मना रहे थे, तब मैं श्री रावल सर और श्री ठाकुर सर के विषय में बता ही रहा था कि मेरी साहित्य-यात्रा में और अँग्रेजी भाषा-ज्ञान का सारा श्रेय इन्हीं दोनों को जाता है कि तभी श्री ठाकुर सर मुझसे पूछ बैठे, "तुम्हारी पहली रचना कौन सी थी, याद है तुम्हेंे?" मैंने कुछ याद कर कहा, "जी, ध्यानाकर्षण। एक कविता, जो लाला जी के सम्पादन में प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक पत्र "अंगारा" में छपी थी।"
इस पर श्री ठाकुर सर ने कहा, "गलत। "वैदेही-वनवास" तुम्हारी पहली रचना थी।" और मैं सन्न रह गया। कारण, मुझे स्वयं ही याद नहीं था कि वाकई "वैदेही-वनवास" ही मेरी पहली रचना थी। यह दरअसल मेरा एक खण्ड-काव्य है, जिसके कुछ ही अध्याय मैं लिख पाया था और वह आज भी उसी स्थिति में है। मुझे श्री ठाकुर सर की स्मृति पर घोर आश्चर्य हुआ। इससे यही तो साबित होता है कि उन्हें मेरी रचनाओं से कितना लगाव रहा है। अब जब बात चल ही पड़ी है तो बता ही दूँ कि श्री ठाकुर सर अँग्रेजी के शिक्षक थे और "कड़क" इतने कि हम अँग्रेजी का एक भी वाक्य गलत बोलने की जुर्रत ही नहीं कर सकते थे। पूरी पाठशाला उन्हीं के कारण अनुशासित हुआ करती थी। जिस रास्ते पर वे चलते नजर आ जाते, मजाल थी कि कोई विद्यार्थी उधर से गुजरने तक की जुर्रत करे! यह सब डर की वजह से नहीं, अनुशासन के पालन के चलते और उनके प्रति श्रद्धा और आदर के कारण हुआ करता था। आज भी आदरणीय ठाकुर सर के प्रति कोंडागाँव की पुरानी पीढ़ी के मन में वही श्रद्धा और भक्ति-भावना है, जो पहले थी। 
बात को और अधिक लम्बा न खींचते हुए मैं अब मूल प्रसंग की ओर लौटता हूँ। आदरणीय गुरुदेव श्री सुरेन्द्र रावल की कविताओं का एकमात्र संग्रह प्रकाशित है। शीर्षक है, "काव्य-यात्रा"। इस संग्रह की भूमिका "अपनी बात" में वे कहते हैं : 
"प्रस्तुत काव्य-संग्रह "काव्य-यात्रा" वस्तुत: मेरी साढ़े चार दशकों की काव्य-यात्रा ही है। समय के इस लम्बे अन्तराल में, देश, समाज, साहित्य, कला, संस्कृति तथा जीवन-मूल्यों में भी तीव्र गति से परिवर्तन हुए हैं। साहित्य में भाषा, कथ्य, शिल्प और अभिव्यंजना-शैली ही नहीं, सरोकार भी बदले हैं। 
"प्रस्तुत संग्रह की रचनाओं पर, अपने रचना-काल की प्रवृत्तियों का प्रभाव स्वाभाविक रूप से पड़ा है। मैंने अपने प्रिय पाठकों के रुचि-वैविध्य पर विश्वास रख कर, संग्रह में रचनाएँ काल-क्रमानुसार नहीं रखी हैं। काव्य-संग्रह में प्रारंभ से अंत तक पाठक की रुचि बनी रहे, यही मेरा अभीष्ट है।
"इसमें मेरी नई-पुरानी, छन्दबद्ध, छन्दमुक्त, छन्दमुक्त-लयबद्ध रचनाएँ हैं। गीतों, ग़ज़लों, मुक्तकों और क्षणिकाओं को भी मैंने इसमें सम्मिलित किया है। इनमें से अनेक रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित अथवा आकाशवाणी रायपुर, जगदलपुर, रींवा तथा दूरदर्शन केन्द्र जगदलपुर से प्रसारित हुई हैं। अंचल के विभिन्न स्थानों में, समय-समय पर होने वाले कवि-सम्मेलनों या काव्य-गोष्ठियों में, कुछ रचनाओं का पाठ भी मैंने किया है। पुस्तकाकार प्रकाशन की तुलना में मुझे, इन माध्यमों से अभिव्यक्ति अधिक जीवन्त और सार्थक लगती रही है। हर साहित्यकार की तरह ही, सुधी श्रोता, मुझे पाठकों से अधिक प्रिय प्रतीत होते रहे हैं। 
"यह मेरा प्रथम प्रकाशित काव्य-संग्रह है, अत: कुछ तथ्यों के प्रकाशन के साथ ही अपनों के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन मेरा कत्र्तव्य है।
"छन्दों के संस्कार मेरे काव्य-गुरु, मेरे आदर्श, आदरणीय श्री लाला जगदलपुरी जी ने मुझे स्नेहपूर्वक प्रदान किए। भाषा के संस्कार मुझे आदरणीय लाला जी के अतिरिक्त अपने पिता स्व. मगनलाल रावल, स्व. बद्री विशाल त्रिवेदी, स्व. पं. सुन्दरलाल त्रिपाठी, स्व. पं. शिवसेवक त्रिवेदी के अतिरिक्त मेरे गुरु रहे श्री रविशंकर दत्त, श्री भागीरथी दास, श्री बसन्त लाल झा, श्रीमती शकुन जोशी (तिवारी), डॉ. कृष्ण कुमार झा, श्री रमेश जोशी, डॉ. भगवत रावत, डॉ. धनञ्जय वर्मा, श्री टी. एस. ठाकुर आदि से मिले। 
"नई कविता, समकाली कविता और प्रगतिशील लेखन की समझ और तत्सम्बन्धी मार्गदर्शन डॉ. भगवत रावत ने मुझे स्नेहपूर्वक दिया। ग़ज़ल और उर्दू से मेरा परिचय श्री रऊफ परवेज, श्री हादीभाई रिज़वी और श्री हयात ने कराया। मैं आप सबके प्रति कृतज्ञ हूँ।
"लेखन के क्षेत्र में मुझे निरन्तर प्रोत्साहित करने वालों में आदरणीय लालाजी, पं. गंगाधर सामन्त, पं. रघुनाथ महापात्र, पं. दयाशंकर शुक्ल, श्री कमालुद्दीन कमाल, श्री इशरत मीर, श्री रऊफ परवेज, डॉ. के. के. झा, श्री शानी जी, श्री मोतीश बैनर्जी, श्री शेषाराव नायडू, श्री एन. सी. एन. राय, श्रीमती मीरा चौधरी, श्री देवेन्द्र ठाकुर, श्री बंशीलाल विश्वकर्मा, श्री रामसिंह ठाकुर एवं श्री हुकुमदास अचिन्त्य, श्री सुरेश कुमार वर्मा के अतिरिक्त मेरे भ्रातृवत् मित्र श्री जी. बी. वेसली, वरिष्ठ पत्रकार श्री किरीट दोशी, श्री बसन्त अवस्थी, श्री भरत अग्रवाल, श्री एस. करीमुद्दीन तथा श्री राजेन्द्र देवांगन, साहित्यकार श्री मनीष राय यादव, श्री एस. एस. पुजारी, श्री संजीव बख्शी, श्री योगेन्द्र देवांगन, प्राचार्य श्री टी. डी. मेहरा, श्री आलोक मंडल एवं परिक्षेत्राधिकारी श्री ललित दुबे रहे हैं। मेरे प्रिय युवा कवि मित्र श्री मदन आचार्य, श्री अभिलाष दवे, श्री सुभाष पाण्डेय, श्री गोपाल सिम्हा, श्री जोगेन्द्र महापात्र जोगी, श्री अवध किशोर शर्मा, श्री शिवकुमार पाण्डेय, श्री धर्मेन्द्र ठाकुर, रंगकर्मी श्री एम. ए. रहीम, श्री जी. एस. मनमोहन, श्री खुर्शीद खान, श्री विजय सिंह एवं मेरे युवा मित्र प्राचार्य डॉ. ए. के. दीक्षित, डॉ. सतीश, श्री के. परेश, श्री तरुण भटनागर और शिष्य श्री राजेन्द्र राठौर तथा श्री शिवलाल शर्मा आदि ने मुझे सम्मान और अपनापन दिया। मैं आभारी हूँ।
"प्रस्तुत संग्रह के प्रकाशन के लिए, मुझे लगभग मजबूर कर हाथ पकड़ कर काम करवाने का काम किया है, मेरे प्रिय शिष्य श्री हरिहर वैष्णव और श्री खेम वैष्णव ने। मेरे गुरु डॉ. धनञ्जय वर्मा तथा डॉ. भगवत रावत ही नहीं, मेरे ज्येष्ठ भ्राता श्री चितरंजन रावल ने मुझे डाँट-डाँट कर, प्रकाशन हेतु प्रेरित किया। परन्तु, जिनकी सविनय उलाहना और आग्रह की इसमें प्रमुख भूमिका रही है, वे हैं, मेरी पत्नी श्रीमती इन्दु रावल, पुत्र धर्मेन्द्र रावल, पुत्रवधु अ.सौ. पारुल रावल, भतीजा कमलेश रावल तथा मेरी शक्ति स्वरूपा तीन पुत्रियाँ अ.सौ. रश्मि मेहता, अ.सौ. वर्षा रावल एवं अ.सौ. प्रज्ञा त्रिवेदी। इन सबके आत्मीय आग्रह ने आखिर मेरा यह काव्य-संग्रह प्रकाशित करवा कर ही दम लिया। 
"मैं उपर्युक्त सभी अपनों के प्रति नतमस्तक हूँ। बस, इतना ही।"

इस काव्य-संग्रह का प्रस्तावना लिखा है सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् डॉ. के. के. झा साहब ने। वे लिखते हैं :
"सुविख्यात कवि श्री सुरेन्द्र रावल के काव्य-संकलन "काव्य-यात्रा" को आद्योपान्त पढ़ने का मुझे सुअवसर मिला। नैसर्गिकता एवं स्वाभाविकता-समन्वित यह अनुपम काव्य-रचना सहृदय-संवेद्य है। जैसे-जैसे एक-एक कविता पढ़ता गया, ऐसा लगा मानों साहित्य-वल्लरी का एक-एक सुमन प्रस्फुटित होता चला गया। काव्य-यात्रा की रचनाओं का माधुर्य निश्चय ही अत्यंत रोचक एवं आश्चर्यजनक है। कविताओं में निहित सौन्दर्रय, भावाभिव्यंजना एवं सरसता मन को अनायास ही आकृष्ट करती है।
"बस्तर-सपूत श्री सुरेन्द्र रावल सच्चे अर्थों में समग्र साहित्यकार है। सरस गीत, गंभीर कविताएँ, हास्य-व्यंग्य, ग़ज़ल, समालोचना, कहानी तथा नाटक-लेखन में इनकी लेखनी सतत् सक्रिय रही है। "वाक्-शैली-सम्राट्" श्री रावल की लेखन-कला भी उतनी ही श्लाघनीय एवं स्वाभाविक है। 
"विविध साहित्यिक-सांस्कृतिक मंचो, आकाशवाणी तथा दूरदर्शन आदि के कार्यक्रमों में इनकी प्रस्तुतियाँ ही नहीं, इनका मंच-संचालन भी अत्यंत हृत्ताकर्षक रहा है। बस्तर के इस बेटे ने लगातार चार दशकों से मंच पर अपना अक्षुण्ण स्थान बना रखा है। शासकीय सेवा से निवृत्ति के उपरांत भी सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक क्षेत्र में इनकी सेवाओं की निरंतरता बनी हुई है। अत: इनकी रचनाएँ भी तृ-आयामी आधार पर उपजी हैं। 
"प्रस्तुत काव्य-संगलन की रचनाओं में बस्तर की माटी की सोंधी महक है। बस्तर के मन की व्यथा उनकी एक कविता "बस्तर की माटी" में मार्मिक रूप से झलकती है। उक्त कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं :
"सभ्य दुनिया से हमें कुछ पूछना है
क्या हमें उत्तर मिलेगा?
था नहीं माँगा कभी हमने,
किसी से राजपथ जब,
क्यों हमारी छिन रहीं पगडंडियाँ हैं?
"प्रगतिशील लेखन की प्रखरता भी इनकी अनेक कविताओं में निद्यमान है। उनकी कविता "मेहनतकश का रन्दा" की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं :
"क्यों किसान का रक्त, पसीन बन बहता है।
वज्र सरीखा तन गल-गल कर सब सहता है।
"सुई की नोंक" कविता में भूत, वर्तमान और भविष्य सब कुछ इस तरह प्रतिबिम्बित हुआ है, मानो यह मात्र कविता नहीं, एक निष्पक्ष दर्पण है। कुछ पंक्तियाँ इस तरह हैं :
विडम्बना कैसी/कि सतीत्व को अपमानित करने वाले हाथ
दुरभिसन्धियों के शिविर में थे सुरक्षित
क्यों शायद भूल गया था सुदर्शन-आक्रमण
वह केवल कर सकता था/लज्जा को वस्त्रदान का
सुरक्षात्मक कायर उपाय।
"संकलन के गीत तो सचमुच बाँध लेने की क्षमता रखते हैं। छन्दों की मर्यादा के साथ, भावों का माधुर्य मुग्ध कर देता है। इसका प्रमाण है, काव्य-रस की फुहारों से सराबोर एक गीत की ये पंक्तियाँ :
सागर में आग लगी, सोया दिन साँझ जगी।
किश्ती से उठी तान, वंशी की प्यार-पगी।
लहरों ने चंचल मन, साहिल पर पटका सिर,
सीपी में बाँधा था, मोती वह ढरका।।
"यह पंक्तियाँ स्पष्ट करती हैं कि हास्य-व्यंग्य के लब्ध-प्रतिष्ठ रचनाकार होने के सात ही श्री रावल सरस काव्य के मर्मज्ञ कवि हैं, जिनमें पाठकों का मन मोह लेने की अद्भुत क्षमता है। आत्मीय स्वागत है, उनके अनुपम ग्रन्थ "काव्य-यात्रा" का। 
"श्री सुरेन्द्र रावल की लेखनी में जादू है। मेरा मन कहता है कि उनका यह काव्य-संकलन हिन्दी के समकालीन साहित्य में मील का पत्थर सिद्ध होगा। श्री रावल के साहित्य-सागर में रचनाओं के अनेक बहुमूल्य मोती सुरक्षित हैं। हमारी वांछा-कामना है कि उनकी स्निग्ध आभा से हिन्दी-साहित्य प्रोद्भासित होता रहे, एक के बाद एक ऐसे ही उत्कृष्ट और कालजयी ग्रन्थ प्रकाशित होते रहें।
"आगामी प्रकाशनों की व्यग्र प्रतीक्षा के साथ।"

और अब उनकी एक कविता। शीर्षक है "बस्तर की माटी"


सभ्य दुनिया से हमें कुछ पूछना है,                                    
क्या हमें उत्तर मिलेगा?
था नहीं माँगा कभी हमने,
किसी से राजपथ जब,
क्यों हमारी छिन रही पगडंडियाँ हैं?

हरहराते नदी-नालों
और पर्वत, गहन वन के मध्य,
अपने खेत में हम,
मस्त "लेजा" गा रहे थे।
तुम इस क्या गलत समझे,
और "ले जाने" हमारी-
लकड़ियाँ, महुआ, खनिज, अनमोल इमली।

समझ बैठे तुम इसे आह्वान अपना,
जो हमारे रूठ बैठे देवताओं को, 
मनाने के लिए हमने
सुनाए थे उसे तुम,
सिर्फ क्या इक गीत,
एक धुन, एक लय समझे हुए थे?
प्रार्थना थी वह नहीं क्या?
पूछना वन की किसी भी
एक तितली से, सुमन से या शशक से
या कि बाँके चौकड़ी भरते-
मृगों के झुंड से,
क्या गीत हमने बेच कर,
अपनी क्षुधा को मेटने को ही रचे थे?
जब हमारे गीत फूटे थे, 
नहीं हम जानते थे,
तुम हमारे गीत को, धुन को, लयों को
जंगलों में कैद कर के,
कुछ कँटीले तार से यूँ बाँध लोगे।

हम सदा खुश थे हमारे-
नील नभ से और धरती से, वनों से,
हरहराते नदी-नालों, पर्वतों से,
गहन वन से,
थे हमें जो देवताओं ने दिए।

पर थी नहीं माँगी कभी हमने
तुम्हारी मोटरें, रेलें, सिनेमा, शहर, बिजली
और टीवी।

एक नभ, माटी, हवा, पशु-पक्षि के अतिरिक्त
कुछ पत्ते, वनों के फूल-फल बस!
और कुछ भी था नहीं चाहा, कभी कुछ।
फिर हमारे "घोटुलों" पर,
कैमरों की आँख फाड़े,
क्यों स्वयं की गंदगी,
गंदे विचारों और गंदी सभ्यता ओढ़े
चले आते रहे हो?
झाँकने घर में हमारे-
अतिथि बन कर भी
तुम्हारी दृष्टि,
पशुधन या हमारी
लाज पर पड़ती रही है।
"पेज", "सल्फी" और "लाँदा"
या कि महुए से बने मधु से
हमारी स्नेह-भीगी
अतिथि-सेवा-भावना का
क्या तुम्हारी सभ्यता में-
लूट ही प्रतिदान है?                                                    
फिर बताओ, क्यों हमारी
उच्च संस्कृति
नष्ट करने पर तुले हो?

हम तुम्हारे बिन
"नवाखानी", "दियारी" और "गोंचा"-"दसराहा" में
नाच लेंगे।
देखना हमको नहीं दिल्ली,
नहीं भोपाल,
झूठे रंगमंचों की छटाएँ।

सच बताना!
तुम हमारी नृत्य-शैली,
या हमारी नग्न देहों का
प्रदर्शन चाहते हो?
अब हमें कुछ-कुछ समझ
आने लगा है।
हम नहीं बिकते-
तुम्हारे झूठ या आश्वासनों पर।

याद रक्खो, शेर को तुमने
उसी की माँद में जा कर 
झिंझोड़ा है, जगाया है।
अगर धोखा किया उससे
भले हम पूर्व पीढ़ी के निरक्षर,
साध कर चुप्पी सदा
बैठे रहे थे,
पर नहीं अब,
सिंह के शावक कभी चुप
रह सकेंगे।
धूप, सर्दी, आँधियों के बीच पलते-
आज के पौधे बड़े मजबूत हैं।

वे झेल जाएँगे,
तपिश, आँधी, थपेड़े,
पर नहीं स्पर्श करने
दे सकेंगे-
लाज अपनी,
गीत अपने,
और उनको गुनगुनाते
राजपथ को चीर डालेंगे,
बढ़ेंगे,
देश के प्रहरी बनेंगे
लाल बस्तर के-
बनेंगे देश के प्रहरी।

और सचमुच देखना तुम
एक दिन जब
इसी बस्तर की यही-
खुशबू भरी माटी कभी
इस देश का गौरव बनेगी। 


टीप : लेजा : बस्तर का एक हल्बी लोक-गीत, पेज : चावल के टूटे दानों (कनकी) को उबाल कर बनाया गया पेय, भोजन। सल्फी : इसी नाम के पेड़ से स्रवित होने वाला सफेद मादक पेय। लाँदा : चावल को सड़ा कर बनाया गया मादक पेय जो मादक होने के साथ-साथ भूख को भी मिटाता है। नवाखानी : नवान्न के स्वागत का पर्व। दियारी : अन्नकूट का पर्व। गोंचा : रथयात्रा का पर्व। दसराहा : बस्तर का विश्व प्रसिद्ध दशहरा। 

Wednesday 9 January 2013

डॉ. कौशलेन्द्र मिश्रा की एक कविता और एक कहानी


इस बार प्रस्तुत है डॉ. कौशलेन्द्र मिश्रा की एक कविता और एक कहानी : 



कविता



भारत की धरा पर हर कोई लिखता सफ़रनामा /
आया प्रेत 'माओ' का, यहाँ अब होश में चलना //

कभी गौरी, कभी गज़नी, कभी बाबर ने है लूटा /
कभी चंगेज़ ने काटा, कभी अंग्रेज़ ने लूटा //

गौतम बुद्ध के घर में, हैं बहती ख़ून की नदियाँ /
सहम कर देखते हैं सब, तड़पना और मर जाना //

माओवाद के सुर में, जहाँ रोकर भी है गाना /
पता बारूद की दुर्गन्ध से तुम पूछ कर आना //

बिना दीवारों का कोई किला ग़र देखना चाहो /
तो बस्तर के घने जंगल में चुपके से चले आना //

धुआँ बस्तर में उठता है तो बीज़िंग से नज़र आता /
हमारे ख़ून से लिखते हैं माओ का वे अफ़साना //

वे लिख दें लाल स्याही से तो ट्रेने भी नहीं चलतीं /
कंटीले तार के भीतर डरा सहमा पुलिस थाना //

ड्रेगन के इशारों पर कभी रुकना कभी चलना /
यहाँ तिल-तिल के है जीना यहाँ तिल-तिल के है मरना //

यहाँ इस देश की कोई हुक़ूमत है नहीं चलती /
कि बंदूकों से उगला हर हुकुम सरकार ने माना //

यहाँ जंगल धधकते हैं, वहाँ बादल बरसते हैं /
ये बादल मौसमी इनको गरज कर है गुज़र जाना //

जो रखवाले थे हम सबके, वो अब केवल उन्हीं के हैं /
नूरा कुश्तियों में ही ये बंटते अब ख़ज़ाने हैं //

हमने ज़िंदगी ख़ुद की ख़रीदी तो बुरा क्या है /
यहाँ सरकार भी उनको नज़र करती है नज़राना //

वो मंगल के बहाने से दंगल करने आते हैं /
जंगल को निगल कर वो हमें कंगाल करते हैं //

ये कैसी रहनुमाई है, ये कैसी बदनसीबी है /
जी भर खेलना मुझसे, कुचलकर फिर चले जाना //

तन के ग्राहकों ने कब किसी के मन को है जाना /
ये बस्तर है यहाँ केवल हमें खोना उन्हें पाना //

भरत का मर गया भारत, इसे अब इंडिया कहना /
लहू भी बन गया पानी, ये दुनिया भर ने है जाना //

चबाकर जी नहीं भरता, न भरता पीढ़ियाँ खाकर /
सुना है इंडिया ही है, बिछाती रात का बिस्तर //

सिसकता रात-दिन भारत, इंडिया मुस्कुराती है /
शरण जब माँगते हिन्दू, इंडिया खिलखिलाती है //

धर्म ने देश को बांटा, मगर फिर भी वो प्यारा है /
जिताने को चुनावों में, वही तो एक सहारा है //

चलो एक बार फिर से हम, उन्हें कुछ और हक़ देदें /
ये भारत जो बचा इतना, टुकड़े कुछ और फिर कर दें //

जो आये थे लुटेरे बन, वो हक़ से अब यहीं रहते /
किरण से माँगते हैं अब, अँधेरे भी हलफ़नामा //

कभी इतिहास लिखना हो, तो इतना काम कर लेना /
तुम, ढूँढते हुए हिन्दू , किसी टापू में आ जाना //




कहानी


बदलती हैं आस्थायें तो बदलती हैं प्रतिबद्धतायें


हमारे घर के ठीक पीछे एक झोपड़ी में रहती है मंगली। दुबली-पतली कंकाल सी मंगली, उसके तीन दुबले-पतले बच्चे और मर्द ...बस यही परिवार है मंगली का। कभी-कभी मंगली के घर से तालियाँ बजाने और भजन गाने की सामूहिक आवाज़ें आती हैं जो धीरे-धीर चीख में बदल जाती हैं। चीख रुदन में और फिर रुदन भयानक आर्तनाद में। बच्चे इस तरह चीखने लगते हैं जैसे कि कोई बाघ उन्हें ज़िन्दा चबाने लगा हो। पहली बार जब सुना तो मुझे निकल कर बाहर आना पड़ा, लगा जैसे भजन गाते-गाते कोई अनहोनी हो गयी है। आर्तनाद हृदयविदारक था। पूछने पर पता चला कि कि यह प्रार्थना की उच्चावस्था है। अब मैं अभ्यस्त हो गया हूँ।

  पड़ोसियों ने बताया यह एक कैथोलिक परिवार है जो अभी कुछ ही साल पूर्व हिन्दू से ईसाई बना है। उनके घर प्रायः कुछ नन आती हैं जो अपनी केरली हिन्दी में उन्हें उपदेश देती हैं, उनकी चंगाई के लिये प्रार्थना करती हैं, सामूहिक भजन होता है और फिर आती है भजन की हृदयविदारक भयानक उच्चावस्था।

  ज़िस्म और रूह के रिश्ते को समझने का जितना दावा किया गया, रूह उतनी ही दूर होती गयी। ज़िस्म क़रीब ...और क़रीब आता गया ...और सब कुछ उसी पर आकर ठहर गया।

  रूह स्वच्छन्द है, और ज़िस्म किसी का ग़ुलाम। दोनो के बीच पीरबाबा हैं या भैरमदेव या ईसा या साईंबाबा या कोई और। मंगली अब भी झूमती है, उस के ज़िस्म पर आती है एक रूह ....लोग उसे ईसा कहते हैं। बिसरू के ऊपर आते हैं भैरमदेव। सब कुछ वैसा ही है ..बदला है तो सिर्फ़ वह जिसे कोई देख नहीं पाया आज तक। लोग रूह कहते हैं उसे ..जिसके कुछ ठेकेदार हैं जो बड़ी मुस्तैदी से अपने काम को अंजाम देते आ रहे हैं।

  इन रूहों की पसन्द हैं ग़रीबों के बीमार ज़िस्म, इन रूहों की पसन्द हैं दो जून की रोटी के लिये खटते इंसान, इन रूहों की पसन्द हैं अशिक्षित लोगों के दिमाग। ज़िस्म और रूहों के बीच के ठेकेदार शांति, सुख और समृद्धि दिलाने का ठेका लेते हैं, बस! आप रूह का विभाग भर बदलने की इज़ाज़त दे दीजिये; और यह इज़ाज़त लेने वाले ठेकेदार ऐन-केन-प्रकारेण ले ही लेते हैं इसे।

  जगदलपुर में चर्चों की भरमार है। कुछ् चर्चों में रविवार के दिन भक्तों की उन्मादपूर्ण चीखें सुनी हैं मैंने। पादरियों के उत्तेजक भाषण सुने हैं। मुझे सब कुछ भयानक और अशांत सा लगता है। उपदेश सौम्य भाषा में नहीं हो सकता क्या? मैं अक्सर ख़ुद से पूछता रहता हूँ। आराधना स्थल में जाकर तो शांति की अनुभूति होनी चाहिये ...पर यहाँ यह क्या होता है? जगदलपुर में प्रति रविवार को चर्चों की ओर उमड़ती भीड़ मुझे ज़वाब देती है कि सब कुछ ठीक चल रहा है ...वे ख़ुश हैं ...उनकी प्रार्थनायें क़ुबूल हो रही हैं।

  मैं उनके घरों में गया हूँ, सबकी प्रार्थनायें क़ुबूल हो गयी हों ऐसा नहीं लगता। दुःख, बीमारियाँ, कलह, ग़रीबी, अशिक्षा, जादू-टोना, रूह का ज़िस्म पर आना, अन्धविश्वास ...सब कुछ वैसा ही है ...जैसा पहले था। सिर्फ़ उनकी आस्था का डिपार्टमेंट बदला है, भैरमदेव की जगह प्रभु यीशु की आत्मा उनके ज़िस्म पर सवार हो जाती है। मथुरा और अयोध्या का स्थान येरुशलम और बेथहेलम ने ले लिया है। उनकी प्रतिबद्धतायें बदल गयी हैं। यीशु को बुरी तरह चीख-चीख कर रोते-बिलखते लोगों की प्रार्थनायें ही क़ुबूल होती हैं। मैंने एक से पूछा, जब सब कुछ वैसा ही है तो डिपार्ट्मेंट बदलने से क्या लाभ? उत्तर मिला, हमारा गॉड सच्चा है, हिन्दुओं का भगवान झूठा है। हमें हमारा प्यारा यीशु शांति देता है जो आपका भगवान कभी नहीं दे सकता।

  मैं अक्सर सोचा करता हूँ क्या हमारे बीच के वंचित और उपेक्षित लोग भगवानों के डिपार्टमेंट्स की राजनीति को कभी समझ भी सकेंगे, ....और यदि नहीं समझ सकेंगे तो यह समझाने का उत्तरदायित्व किसका है?

  मैं आज तक नहीं समझ नहीं सका कि कोई व्यक्ति धरनिरपेक्ष कैसे हो सकता है? वैज्ञानिक युग का यह कितना बड़ा प्रतिष्ठित झूठ है जो मान्यताप्राप्त है। आस्थायें बदलें और प्रतिबद्धतायें न बदलें ऐसा सम्भव है क्या?