Wednesday, 14 November 2012

जोजोली गीत (लोरी)



मुझे लगता है कि लोक-भाषाओं में लोरी का चलन सम्भवत: आदिकाल से रहा आया है। और शायद यही पहला लोक गीत भी रहा हो। कारण, मेरी समझ में माता के पास बच्चे को सुलाने या बहलाने के केवल दो ही उपाय रहे होंगे। पहला यदि बच्चा भूख से रो रहा है तो उसे दुग्ध-पान कराना, जिससे उसका पेट भर जाये और वह सो जाये। दूसरा, यदि भरपेट दुग्ध-पान करने के बाद भी वह सोने को तैयार नहीं है और मचल रहा है तो उसे सुलाने या बहलाने के लिये लोरी सुनाना। उसे सुलाना दो कारणों से जरूरी है। पहला, उसे आराम मिल सके। दूसरा, यह कि यदि बच्चा सोयेगा नहीं तो माता घर के बाकी काम कब और कैसे निबटायेगी? 
बस्तर अंचल के हल्बी-भतरी-गोंडी परिवेश में कुछ माताएँ जब यह देखतीं कि बच्चा लोरी सुनाने पर भी नहीं सो रहा है या कि माता को किसी और काम को प्राथमिकता के आधार पर निबटाना है तो वे बच्चों को ऊपर वर्णित दूसरे कारण से सुलाने के लिये उसे "हापू (अफीम)" चटा दिया करती रही हैं, बावजूद इसके कि इस उपाय के कई दुष्परिणाम देखने में आते रहे हैं। खैर, फिलहाल यह निर्धारित करना कि कौन सा लोक गीत पहला रहा होगा या किस तरह से किस गीत का जन्म हुआ होगा, मेरा अभीष्ट नहीं है। कारण, यह तो विद्वानों और आचार्यों का काम है; मुझ जैसे विद्यार्थी का नहीं। इसीलिये इस चर्चा को यहीं विराम देते हैं और बात करते हैं मुद्दे की। 
और मुद्दे की बात यह है कि इन दिनों यह गीत, यानी लोरी का गीत प्राय: सुनने में नहीं आता। कोई एकाध ऐसी महिला मिल जाये जो यह गीत जानती हो तो गनीमत समझिये। किन्तु यह मेरा सौभाग्य ही है कि इसी वर्ष मार्च के महीने की तीसरी तारीख को जब मैं हमारे मोहल्ले सरगीपाल पारा की लोक गायिका गुरुमायँ सुकदई कोराम के साथ अपनी कार्यशाला में बैठा अपने कैनबरा (आस्ट्रेलिया) स्थित मित्र क्रिस ग्रेगोरी से स्काइप (skype) पर बातें कर रहा था कि पता नहीं किस मूड में आ कर गुरुमायँ सुकदई कोराम यह गीत अनायास ही गा उठीं। मैंने बिना समय गँवाये इस गीत को टेप कर लिया और उधर भाई क्रिस ध्यानमग्न हो कर सुनते रहे। हम दोनों ही आनन्द से भर गये।

मैं, मेरे अनुज खेम और हमारे प्रिय मित्र क्रिस ग्रेगोरी गुरुमायँ सुकदई कोराम को "बुबू" कहते हैं। "बुबू" का अर्थ हल्बी में बुआ और मामी दोनों ही होता है। यह वही गुरुमायँ सुकदई कोराम हैं, जिनके गाये "लछमी जगार" के गद्यात्मक संक्षेपीकृत रूप का प्रकाशन 2003 में आस्ट्रेलियन नेशनल युनीवर्सिटी के सहयोग से हो चुका है और जिसकी देश और देश से बाहर विदेशों में भी जम कर चर्चा हुई है। 
लगभग 80 वर्षीय गुरुमायँ सुकदई कोराम न केवल "लछमी जगार" का गायन करती रही हैं अपितु वे "तीजा जगार" भी गाती रही हैं। अब तक उन्होंने दोनों जगारों का गायन 100 से भी अधिक बार किया है। इसके साथ ही सैकड़ों लोक गीत आज भी उन्हें उसी तरह याद हैं, जैसे युवावस्था में थे।

और अब प्रस्तुत है वह लोरी जिसे वे अनायास ही गा उठीं थीं :

जोजोली जोली रे बोंडकू, जोजोली जोली काय,
जोजोली जोली रे बुटकी,  जोजोली जोली काय।
तोर बाबा गला रे बोंडकू, ऐतवार हाटो,
तोर काजे आनी देउआय, तोर सुन्दर नाटो।
जोजोली जोली रे बुटकू, जोजोली जोली रे,
जोजोली जोली रे भाई, जोजोली जोली रे। 
उसना चाउर रला रे बोंडकू, चिवड़ा पलटी देली गा,
दतुन-पतर चाबी रे भाई मयँ चे खाई देली काय।
जोजोली जोली रे भाई, जोजोली जोली रे
जोजोली जोली रे बँधु, जोजोली जोली रे।
तोर आया गला रे बोंडकू, खोरी-खोरी बुली काय,
तोर काजे आनी देउआय तोर सुन्दर जुली काय। 
जोजोली जोली रे बोंडकू, जोजोली जोली रे,
जोजोली जोली रे भाई, जोजोली जोली रे।
ऐतवार हाट ले बाबू, आनुन दिले लाड़ू,
तुचो काजे घेनुन दिले मयँ, चाँदी चो खाड़ू। 
जोजोली जोली रे बुटकू, जोजोली जोली रे,
जोजोली जोली रे भाई, जोजोली जोली रे।
तुके घेनुन दिले भाई, टेरलिंग चो कुड़ुता,
तुचो काजे मोचो बन्धु, जाएसे मोके सुरुता। 
तारी-नारी नाना रे बाबू, ना नारी नाना रे, 
तारी-नारी नारी रे बँधु, ना नारी नाना रे।
(इस गीत से यही ध्वनित होता है कि बच्चे के माता-पिता दोनों ही अपने-अपने काम से घर से बाहर गये हुए हैं और बच्चे को उसकी दादी लोरी गा कर सुला रही है। वह बच्चे से कह रही है : सो जा रे बोंडकू, सो जा। सो जा री बुटकी, सो जा। हे बोंडकू! तेरे पिता रविवारीय बाजार गये हैं। वे वहाँ से तुम्हारे लिये बहुत सुन्दर नाट (नृत्य) ले कर आएँगे। सो जा रे बुटकू, सो जा। सो जा रे भाई, सो जा। उसना चावल था, रे बोंडकू। मैंने उसे चिवड़ा के  बदले दे दिया। फिर दतौन आदि से निवृत हो कर मैंने स्वयं ही खा लिया। सो जा रे भाई, सो जा। सो जा रे बन्धु, सो जा। तेरी माँ गयी है रे बोंडकू, गली-गली घूमने। तुम्हारे लिये वह ले कर आएगी बहुत ही सुन्दर झूला। सो जा रे बोंडकू, सो जा। सो जा रे भाई, सो जा। हे बाबू! रविवारीय बाजार से मैं तुम्हारे लिये लड्डू ले कर आयी। तुम्हारे लिये मैं चाँदी के खाड़ू (कंगन) भी लायी। सो जा रे बुटकू, सो जा। सो जा रे भाई, सो जा। हे भाई! मैंने तुम्हारे लिये "टेरीलीन" का कुर्ता खरीद दिया। और अब मुझे तुम्हारी याद सता रही है। तारी-नारी नाना रे बाबू, ना नारी नाना रे।)
टिप्पणी : 01. बोंडकू, बुटकी, बुटकू : नामवाची संज्ञा। इन्हें "बाखना नाम" या "बाखना नाव" कहा जाता है। बाखना का आशय है द्विअर्थी और उपहासात्मक। बोंडकू का शाब्दिक अर्थ है वह बच्चा या व्यक्ति जिसकी नाभि उभरी हुई हो। बुटकी का शाब्दिक अर्थ है कद में छोटी या बौनी। इसी तरह बुटकू का अर्थ है कद में छोटा या बौना। 
02. उसना चावल : धान को उबाल कर सुखाया जाता है और फिर उसके सूख जाने पर उसे कूटा जाता है। इस विधि से प्राप्त चावल ही उसना चावल कहलाता है। 
03. तारी-नारी नाना, तारी-नारी नारी, ना नारी नाना : गीत की तान।



गीत-प्रकार : लोक गीत
गीत-वर्ग : 02- सांस्कारिक गीत (अ- शिशु गीत, 02- जोजोली गीत (झूले का गीत या लोरी),
गीत-प्रकृति : अकथात्मक
गीतकार : पारम्परिक
भाषा : हल्बी-भतरी
गायिका : गुरुमायँ सुकदई कोराम, (सरगीपाल पारा, कोंडागाँव, बस्तर-छ.ग.)
ध्वन्यांकन : 07 मार्च 2012
ध्वन्यांकन एवं संग्रह : हरिहर वैष्णव 


3 comments:

  1. आम जन-जीवन से जुड़े लोकगीत और लोरी अब इतिहास हो गये हैं। इनका संग्रहण हमारी सांस्कृतिक विरासत को सहेजना है। हरिहर जी को इस अथक कार्य के लिये साधुवाद।

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  2. वाह, लाजवाब. मैदानी छत्‍तीसगढ़ आशु रचना करते हुए लोरी गाई जाती थी, बहुत समय से सुना नहीं, आशा है अब भी प्रचलन होगा.

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  3. Oliver Zeetun ENGLER जो BFC Producions, Paris, France में एक साउण्ड इंजीनियर और फिल्म एडीटर हैं, ने यह गीत इस ब्लॉग पर सुना और अपनी एक भारतीय मित्र पूनम से इसका अर्थ मालूम कर मुझे ईमेल से यह लिख भेजा है:
    On 11/24/12, OE_INASENZ wrote:
    Dear Harihar,
    I just received an interpretation from my friend Poonam about the poem
    on your blog.
    This story about children who need to sleep.
    Can we hear this kind of nursery rhymes?

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