Tuesday, 16 October 2012

हरेन्द्र यादव की कविताएँ



इस बार प्रस्तुत हैं कोंडागाँव के नवोदित कवि श्री हरेन्द्र यादव की चार कविताएँ। 
श्री हरेन्द्र यादव का जन्म 27 दिसम्बर 1952 को ग्राम पुरूर (जिला : बालोद, छ.ग.) में हुआ। पिता (स्व.) पीताम्बर सिंह यादव एवं माता (स्व.) श्यामबती यादव के पुत्र श्री हरेन्द्र यादव नवोदित कवि हैं और छत्तीसगढ़ी तथा हिन्दी दोनों ही भाषाओं में सृजन रत हैं। वे कहते हैं, "मैं ह बस्तर म बस के तर गेवँ (मैं बस्तर में बस कर तर गया)"। 
कोंडागाँव में साहित्य का बीज रोपने वाले और पिछले लगभग 60 वर्षों से इस नगर में साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को गतिमान बनाये रखने और साहित्य-भूमि में अंकुरित होने वाले प्रत्येक अंकुर को हमेशा सींचते रहने वाले प्रख्यात कवि एवं व्यंग्यकार श्री सुरेन्द्र रावल मेरे तथा मुझ जैसे कई औरों की तरह श्री यादव के भी साहित्यिक गुरु हैं।
यों तो हरेन्द्र यादव की हास्य-व्यंग्य की रचनाएँ विशेष ध्यान आकृष्ट करती हैं किन्तु यहाँ प्रस्तुत कविताएँ बस्तर तथा प्रकृति और वन तथा पर्यावरण से गहरा सरोकार रखती हैं : 


01. कैसे होगा मंगल?

सिसक रही हैं नदियाँ
दहक रहा है जंगल
तुम्हीं बताओ, हे मानव!
कैसे होगा मंगल?

स्वार्थ-वश पेड़ कटाई
जंगल में आग लगाई
वन-प्राणी का कर शिकार
वन का नित कर विनाश
वन के बिन कहाँ जाओगे?
हवा कहाँ से लाओगे?
पानी बिन क्या खाओगे?
चैन से रह पाओगे?
चक्र यही चलता रहा तो
निश्चय ही होगा अमंगल।

मिटा रहे वन की सीमा
बना रहे हो खेत
पानी बिन नदियों में
दिखती केवल रेत
घट रहा जल-स्तर
कम हुई हरियाली
ऐसे में कैसे आयेगी
जीवन में खुशहाली?
खेत और खलिहान बन गये
पल-पल कट कर जंगल।

चिड़ियाँ, कीट, पतंगे
खोज रहे वन हर पल
भटक रहे वन-प्राणी
बिन पानी हो व्याकुल
कल थी जो हरियाली
आज हो गया सपना
जेठ मास ज्यों सावन में
हो कोई मृग-तृष्णा
सूखा और वीरान हो गया
जो हरा-भरा था कल
तुम्हीं बताओ, हे मानव!
कैसे होगा मंगल?



































02. जंगल-झाड़ी ला झन काटव






जंगल अऊ झाड़ी ला
झन काटव मोर दाई-ददा
चुलहा बर लकड़ी 
काहाँ ले तुम लाहू गा?
काट-काट जंगल ला
तुम चातर बना देहू
घर बनाय खातिर
काँडा-पाटी काहाँ ले पाहू गा?

जंगल हावय तभे तुमला
महुआ, सरगी मिल हावय
हर्रा, बेहड़ा, आँवरा सँग
चिरोंजी घलो मिलत हावय।
बारों महिना जुहाय-जुहाय
तुमन बेंच-बेंच के ओला
घर-परिवार के गाड़ी ला
                मजा से तुम चलावत हौ।
जंगल-झाड़ी सबो ला तुम
                उरकाई देहू तब फेर
कुर्रु, चार, तेन्दू ला,
                काहाँ ले तुम पाहू गा?
अइसन जुलम तुमन जब,
                करहू मोर बहिनी-भाई
अपन करनी के भोगना ला
                तुमन इहँचे पाहू गा।

डेरा ला ऊँखर तुम
                उजाड़ बनाई देहू
चिरई-चिरगुन-फाफा
                मिरगा काहाँ जाहीं गा?
बरन-बरन के इहाँ
                जंगल के जीव-जन्तु
काहाँ जा के अपन-अपन
                डेरा ला बनाहीं गा?
उजाड़-उजाड़ के बन ला
               तुम मरहान बनाई देहू
बछर के तेन्दू-पान ला
               काहाँ ले तुम लाहू गा?
भगवान के बरदान ला
               नास कर देहू तब
जियत-जियत तुम
               नरक के दुख पाहू गा। 

काली कहूँ जंगल
              उरक जाही मोर बबा
सुघर लेहरा ला
              काहाँ ले तुम पाहू गा?
परकिरती कहूँ अपन
              कोप ला देखाय दिही
काखर कोरा मा अपन
              मुँड़ी ला लुकाहू गा?
एखर खातिर तुमला
              कहत हावयँ मोर संगी हो
जंगल ला बचाय के
              खातिर, सबो ला चेतावव गा। 
जंगल अऊ झाड़ी ला
              झन काटौ मोर दाई-ददा
चुलहा बर लकड़ी
              काहाँ ले तुम लाहू गा? 






















03. बस्तर में स्नेह मिला है

बस्तर में स्नेह मिला मुझको
जन-जन का मुझको प्यार मिला
बस्तर की माटी में मुझको
जीने का आधार मिला।

कल-कल करती नदियाँ बहतीं
किलकारी भरते झरने
ऊँचे-ऊँचे पर्वत से वह
नीचे आती है बहने
मन को लुभाते हैं वन-उपवन
सृष्टि का नया श्रृंगार मिला। 

बेशकीमती औषधियाँ हैं
कन्द-मूल-फल मिलते हैं
जिनसे रोग-निदान यहाँ पर
वैद-हकीम भी करते हैं
वनौषधि का भरा खजाना
ईश्वर का चमत्कार मिला।

भिन्न-भिन्न जन-जातियाँ
लगतीं भोली-भाली हैं
आने वाले हर अतिथि का
मन मोहने वाली हैं
अलग-अलग संस्कार, किन्तु
उनसे इक-सा प्यार मिला।
बस्तर की माटी में मुझको
जीने का आधार मिला।। 


04. बस्तर के माटी

दन्तेस्वरी माई के पाँव पखारौं
काहू से अब का डरना हे
बस्तर के माटी मा जीना हे
इही मा हमला मरना हे। 

कोरा मा एखर इँदराबती
नारंगी नदी बोहावत हे
गोदावरी, डंकिनी, संखनी, 
सबरी ह फकफकावत हे
चारोमुड़ा मा डोंगरी-पाहाड़ी
सुग्घर-सुग्घर झरना हे। 

बैलाडिला के लोहा ह संगी
दुनिया मा नाम कमावत हे
बस्तर के बियाबान जंगल ह
जम्मो के मन ला लोभावत हे
इनखर सब रखवारी कर के
परकिरती के खजाना ला भरना हे। 

केसकाल अऊ हुर्रा-पिंजोड़ी
राव दरभा के घाटी हे
ठउर-ठउर कन्हार-मटासी
घात उपजाऊ माटी हे
फसल-चक्र परिवरतन करके
उन्नत खेती ला करना हे। 

इहाँ के जंगल मा बनभँइसा
साँभर, चितर, कोटरी हे
बघवा, भालू, बेंदरा, चितवा
लिलवा, गँवर अऊ घुटरी हे
कोलिहा, खेखर्री, बिघवा, हुँडरा
नेवरा, खरहा, हरिना हे।

कठफोड़वा, लंपुछिया, किदर्री,
बरन-बरन के चिड़िया हे
भेंगराज सँग मंजुर, टेहर्रा
सुआ अउ मइना बढ़िया हे
नान्हे-बड़े सब झन जुर-मिल के
इनखर राखा ला करना हे। 

रहन-सहन दुनिया ले अलग हे
अलग-अलग हे तीज-तिहार
खान-पान मा काँदा-कुसा हे
रोजे होवय नवा बिहान
बस्तर मा उजियारा करे बर
दिया-बाती कस बरना हे।  


सम्पर्क : 
श्री हरेन्द्र यादव
सरगीपाल पारा, कोंडागाँव 494226, बस्तर-छ.ग.
मोबाइल : 94-242-91952


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