Wednesday, 10 February 2021

 बस्तर की गोंड जनजाति का विश्वविद्यालय : घोटुल
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हरिहर वैष्णव
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इसे बस्तर का दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिये कि इसे जाने-समझे बिना इसकी संस्कृति, विशेषत: इसकी आदिवासी संस्कृति, के विषय में जिसके मन में जो आये कह दिया जाता रहा है। गोंड जनजाति, विशेषत: इस जनजाति की मुरिया शाखा, में प्रचलित रहे आये "घोटुल" संस्था के विषय में मानव विज्ञानी वेरियर एल्विन से ले कर आज तक विभिन्न लोगों ने अपने अल्पज्ञान अथवा कहें कि अज्ञान के चलते अनाप-शनाप कह डाला है। और यह अनाप-शनाप इसीलिये कहा जाता रहा है क्योंकि आदिवासी संस्कृति के तथाकथित जानकारों ने इस संस्था के मर्म को जाना ही नहीं। न तो वे इसके इतिहास से भिज्ञ रहे हैं और न ही इसकी कार्य-प्रणाली से। अधिकांश ऐसे लोग हैं जिन्होंने वेरियर एल्विन और ग्रियर्सन के लिखे को ही अन्तिम सत्य मान लिया और उन्हीं की दुहाई दे-दे कर घोटुल जैसी पवित्र संस्था पर कीचड़ उछालने में लगे रहे। उन्होंने इसकी सत्यता जानने का कोई प्रयास ही नहीं किया। करते तो जान पाते कि घोटुल वह नहीं जो वे अब तक समझते रहे हैं। घोटुल तो गोंड जनजाति का विश्वविद्यालय है। समाज-शिक्षा का मन्दिर है। लिंगो पेन यानी लिंगो देवता की आराधना का पवित्र स्थल है। "लिंगो" पेन घोटुल के संस्थापक और नियामक रहे हैं। गोंड समाज के प्रमुखों के अनुसार लिंगो देव को ही हल्बी परिवेश में बूढ़ा देव तथा छत्तीसगढ़ी परिवेश में बड़ा देव सम्बोधित किया जाता है। और ये बूढ़ा देव, बड़ा देव या लिंगो पेन भगवान शिव (नटराज) के ही अवतार या अंश माने जाते हैं। किन्तु गोंड  जनजाति से ही सम्बद्ध जयमती कश्यप (ग्राम : नेलवाड़, जिला : नारायणपुर। सम्प्रति : पर्यवेक्षक, महिला एवं बाल विकास विभाग, कोंडागाँव) के अनुसार लिंगो पेन को इन्द्र का रूप माना जाता है, जिनके दरबार में अप्सराएँ सामूहिक नृत्य प्रस्तुत करती रहती हैं। इसी तरह पुरुष नर्तकों-गायकों को गन्धर्व का रूप माना जाता है। वे आगे कहती हैं कि लिंगो पेन यानी इन्द्र स्वयं नृत्य नहीं करते बल्कि गन्धर्व एवं अप्सरायें यानी चेलिक और मोटियारिनें "लिंगो खुटा" बीच में गाड़ कर उसके चारों ओर घूम-घूम कर नृत्य करती हैं। वहीं कुछ लोगों के अनुसार लिंगो पेन को श्रीकृष्ण का भी रूप माना गया है जो गोप-गोपियों के साथ नृत्य-संगीत में तल्लीन रहते हैं। दरअसल लिंगो के विषय में मतैक्य नहीं दिखता। गोंड समुदाय के ही भिन्न-भिन्न लोग भिन्न-भिन्न धारणाएँ रखते हैं।
गोंड समुदाय से सम्बद्ध पालकी (नारायणपुर) निवासी रमेश चन्द्र दुग्गा (सम्प्रति : सहायक वन संरक्षक, वन विभाग, छत्तीसगढ़) कहते हैं, ""हमारे समाज में यह विश्वास है कि घोटुल की परम्परा का सूत्रपात तथा सभी वाद्य-यन्त्रों की रचना भी लिंगो के द्वारा ही की गयी है। सारे नियम व रीति-रिवाज लिंगो द्वारा ही बनाये गये हैं। आज भी घोटुल की परम्परा तथा नियम व रीति-रिवाजों का पालन किया जा रहा है। घोटुल को गोंड जनजाति का विश्वविद्यालय कहा जाना चाहिये। इन्हें आगे चल कर लिंगो पेन यानी लिंगो देवता के रूप में जाना और माना गया। बेठिया प्रथा का बस्तर में चलन में है। इस प्रथा के अन्तर्गत गाँव के लोग जरुरतमंद व्यक्ति के घर का बड़ा-से-बड़ा कार्य बिना किसी मेहनताना के करते हैं। सहकार की भावना है इसके पीछे। घोटुल में यही भावना निहित होती है।""
गढ़बेंगाल (नारायणपुर) निवासी सुप्रसिद्ध काष्ठ शिल्पी पण्डीराम मण्डावी कहते हैं, ""घोटुल में हम लोग आपसी भाई-चारे की शिक्षा ग्रहण करते हैं। हम तो आदिवासी हैं। बड़ी-बड़ी बातें नहीं जानते किन्तु हमें हमारी अपनी परम्पराओं से लगाव है। हो सकता है कि हमारी परम्पराएँ दूसरों को ठीक न लगती हों। मैं तथाकथित ऊँचे लोगों की तुलना में अपने समाज को अच्छा समझता हूँ। कारण, हमारे समाज में बलात्कार नहीं होता। दूसरी बात, घोटुल से हमारे समाज को जो फायदा होता है वह यह कि जब कभी किसी प्रकार का कोई काम होता है, घोटुल के सारे सदस्य मिल-जुल कर उसे पूरा करते हैं। चाहे वह सुख हो या दु:ख की घड़ी। मसलन, आज हमारे लड़के का विवाह करना है तब हम घोटुल के सदस्यों को कुछ भेंट दे कर उन्हें बताते हैं कि आठ-दस या पन्द्रह दिनों बाद मेरे घर में विवाह है। यह सूचना पा कर घोटुल की सारी लड़कियाँ पत्ते तोड़ेंगी, लड़के लकड़ी लायेंगे, नाचेंगे, गायेंगे, खाना-वाना सब बनायेंगे। इसी तरह, यदि किसी के घर में किसी की मृत्यु हो गयी या विपत्ति आ गयी तो भी घोटुल के सदस्य हमारे काम आते हैं। एक गाँव से दूसरे गाँव तक सूचना भेजने का साधन हमारे पास नहीं है। हमारे पास तो फोन नहीं है। हमारे कुटुम्बी दूर-दराज के गाँवों में रहते हैं। तब ऐसे समय में घोटुल के सब लड़के सायकिल ले कर या पैदल खबर देने जाते हैं। यह भी अच्छा लगता है। तो मेरे हिसाब से तो घोटुल का बना रहना समाज के हित में है। कारण, यहाँ सहकार की भावना काम करती है।""
नयी पीढ़ी द्वारा घोटुल प्रथा पर उठायी जा रही आपत्ति के विषय में पण्डीराम कहते हैं, ""कई लोग घोटुल प्रथा पर आपत्ति कर रहे हैं। नयी पीढ़ी के लोग कह रहे हैं कि घोटुल प्रथा से हमें लज्जा आने लगी है। इसीलिये इसे बन्द कर दिया जाना चाहिये। किन्तु मेरा कहना है कि इसमें शर्म किस बात की? बड़े-बड़े शहरों में कितनी नंगाई होती है। उन्हें कोई नहीं देखता। रात में नाचते हैं, गाते हैं। हमारा आदिवासी भाई एक पौधे के आड़ में जा कर मूत्र विसर्जन करता है किन्तु शहर में तो लोग कहीं भी मूत्र विसर्जन कर देते हैं। वहाँ लोगों की भीड़ रहती है किसी मेले की तरह। किन्तु वहाँ लोगों को एक-दूसरे का ख्याल नहीं होता।""

क्या है यह घोटुल?

बस्तर की गोंड जनजाति की एक शाखा मुरिया के बीच प्रचलित घोटुल युवा वर्ग के लिये गृहस्थ और सामाजिक जीवन की प्राथमिक पाठशाला  से ले कर विश्वविद्यालय तक की भूमिका निभाता है। गाँव के दूसरे छोर पर, और किसी-किसी गाँव में गाँव के बीचों-बीच किन्तु आबादी से अलग-थलग बने इस युवा-गृह में चेलिक और मोटियारिनों का प्रवेश नितान्त आवश्यक होता रहा है। चेलिक का अर्थ है अविवाहित युवक और मोटियारिन का अर्थ है अविवाहित युवती।  इनके अतिरिक्त अन्य किसी भी व्यक्ति को इस युवा-गृह में प्रवेश की पात्रता नहीं होती। यहाँ ये युवक-युवती देर रात तक जागते हुए नृत्य-गीत एवं कथा-कहानी सुनने-सुनाने में लीन रहते हैं। आपसी सौहाद्र्र, भाई-चारा, आपसी सहयोग आदि की शिक्षा इन्हें इसी युवा-गृह से मिलती है। इस संस्था में युवक-युवतियों को सामाजिक दायित्वों के निर्वहन की शिक्षा दी जाती है और कर्मकाण्ड से परिचित कराया जाता है। यहाँ का प्रशासन-तन्त्र बहुत ही चुस्त-दुरुस्त होता है। संविधान अलिखित किन्तु कठोर! अनुशासन में बँधे रहना इस संस्था की अनिवार्यता है। इसके सदस्यों के मूल नाम यहाँ परिवर्तित हो जाते हैं। छद्म नामों से एक-दूसरे को जाना जाता है किन्तु घोटुल के बाहर का कोई भी व्यक्ति प्राय: इनके छद्म नामों से परिचित नहीं होता। ये छद्म नाम होते हैं बेलोसा, दुलोसा आदि।

क्या होता है घोटुल में?

घोटुल को आरम्भ से ही एक प्रभावी और सर्वमान्य सामाजिक संस्था के रूप में मान्यता मिलती रही है। इसे एक ऐसी संस्था के रूप में देखा जाता रहा है, जिसकी भूमिका गोंड जनजाति की मुरिया शाखा को संगठित करने में प्रभावी और प्रमुख रही है। यों तो मोटे तौर पर घोटुल मनोरंजन का केन्द्र रहा है, जिसमें प्रत्येक रात्रि नृत्य, गीत-गायन, कथा-वाचन एवं विभिन्न तरह के खेल खेले जाते हैं। किन्तु मनोरंजन प्रमुख नहीं अपितु गौण होता है और प्रमुखत: यह संस्था सामाजिक सरोकारों से पूरी तरह जुड़ी होती है। वे सामाजिक सरोकार क्या हैं, इन्हें निम्नानुसार देखा जा सकता है :
01. संगठन की भावना को बल दिया जाता है
02. गाँव के किसी भी किस्म के सामाजिक कार्य (विवाह, मृत्यु, निर्माण-कार्य आदि) में श्रमदान किया जाता है     
03. युवक-युवतियों को सामाजिक दायित्वों के निर्वहन की शिक्षा दी जाती है
04. भावी वर-वधू को विवाह-पूर्व सीख दी जाती है
05. हस्त-कलाओं का ज्ञान कराया जाता है
06. गाँव में आयी किसी विपत्ति का सामना एकजुट हो कर किया जाता है
07. वाचिक परम्परा का नित्य प्रसार किया जाता है
08. अनुशासित जीवन जीने की सीख दी जाती है, आदि आदि।

क्या होते हैं घोटुल के नियम?

घोटुल के नियम अलिखित किन्तु बहुत ही कठोर और सर्वमान्य होते हैं। विवाहितों को घोटुल के आन्तरिक क्रिया-कलाप में भागीदारी की अनुमति, विशेष अवसरों को छोड़ कर, प्राय: नहीं होती। इन नियमों को संक्षेप में इस तरह देखा जा सकता है :
01. प्रत्येक चेलिक को प्रति दिन लकड़ी लाना आवश्यक है
02. मोटियारिन के लिये पनेया (एक तरह का कंघा) बना कर देना आवश्यक है
03. अपने वरिष्ठों का सम्मान करना तथा कनिष्ठों के प्रति सदय होना आवश्यक है
04. संस्था के पदाधिकारियों द्वारा दिये गये कार्य को सम्पन्न करना आवश्यक है
05. मोटियारिनों के लिये आवश्यक है कि वे घोटुल के भीतर तथा बाहर साफ-सफाई रखें
06. गाँव के किसी भी काम में घोटुल की सहमति से सहायक होना आवश्यक है
07. घोटुल तथा गाँव में शान्ति बनाये रखने में सहयोगी होना आवश्यक है, आदि आदि।

नियमों के उल्लंघन पर दण्ड का प्रावधान?

घोटुल के नियमों का उल्लंघन होने पर दोषी को दण्ड का भागी होना पड़ता है। घोटुल के नियमों का पालन नहीं करने वाले को उसकी त्रुटि के अनुरूप लघु या दीर्घ शास्तियाँ दिये जाने का प्रावधान होता है। दी जाने वाली छोटी और बड़ी सजा के कुछ उदाहरण ये हैं :
01. छोटी सजा : घोटुल के तयशुदा कत्र्तव्यों का पालन नहीं करना दोषी को प्राय: छोटी सजा का हकदार बनाता है। उदाहरण के तौर पर, लकड़ी ले कर न आना। सभी सदस्य युवकों के लिये आवश्यक होता है कि वे घोटुल में प्रति दिन कम से कम एक जलाऊ लकड़ी ले कर आयें। यदि कोई सदस्य इसमें चूक कर जाता है तब उसे छोटी सजा दी जाती है। छोटी सजा के कुछ उदाहरण ये हैं :
01.अ. आर्थिक दण्ड : छोटी सजा के रूप में प्राय: पाँच से दस रुपये तक के आर्थिक दण्ड से     दण्डित किये जाने का प्रावधान किया जाता है। किन्तु यदि दोषी चेलिक आर्थिक दण्ड भुगतने की स्थिति में न हो तो उसे शारीरिक दण्ड भोगना पड़ता है। किन्तु चूक यदि कुछ अधिक ही हो गयी हो तो उसे आर्थिक और शारीरिक दोनों ही तरह के दण्ड भुगतने पड़ सकते हैं।  
01.ब. शारीरिक दण्ड : शारीरिक दण्ड के अन्तर्गत बेंट सजा दिये जाने का प्रावधान होता है। बेंट सजा के अन्तर्गत दोषी चेलिक को उकड़ूँ बिठा कर उसके दोनों घुटनों और कोहनियों के बीच रुलरनुमा एक मोटी सी गोल लकड़ी डाल दी जाती है। इसके बाद उस पर कपड़े को ऐंठ कर बनायी गयी बेंट से उसकी देह पर प्रहार किया जाता है। इसके अतिरिक्त दूसरे प्रकार के शारीरिक दण्डों का भी प्रावधान होता है। मोटियारिनों के लिये अलग किस्म के दण्ड का प्रावधान होता है। उदाहरण के लिये यदि किसी मोटियारिन ने साफ-सफाई के काम में अपनी साथिन का सही ढंग से साथ नहीं दिया तो उसे साफ-सफाई का काम अकेले ही निपटाना पड़ता है।
01.स. प्रतिबन्धात्मक दण्ड : त्रुटियों की पुनरावृत्ति अथवा पदाधिकारियों के आदेश की अवहेलना अथवा लापरवाही की परिणति प्रतिबन्धात्मक शास्ति के रूप में होती है। इस दण्ड के अन्तर्गत दोषी पर कुछ दिनों के लिये घोटुल प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है।
02. बड़ी सजा : बड़ी चूक हो तो दोषी को घोटुल से निष्कासित कर उसका सामाजिक बहिष्कार किया जाता है। ऐसे चेलिक/मोटियारी के घर-परिवार में होने वाले किसी भी कार्य में घोटुल के सदस्य सहयोग नहीं करते।
इस तरह के कठोर नियमों के कारण घोटुल के नियमों की अनदेखी करने की हिम्मत प्राय: कोई नहीं करता। हँसी-ठिठोली उसी तरह के रिश्ते में आने वाले लड़के और लड़की के बीच ही सम्भव है, जिनके बीच हँसी-ठिठोली को सामाजिक मान्यता मिली हुई है। किन्तु हँसी-मजाक के आगे सीमा का उल्लंघन करने की अनुमति उन्हें भी नहीं होती। यदि घोटुल के किसी युवक-युवती के बीच घोटुल में या घोटुल के बाहर गलती से भी अनैतिक सम्बन्ध होने की पुष्टि हो जाती है तो उन्हें घोटुल एवं समाज के नियमों के मुताबिक दण्ड का भागी होना पड़ता है। सबसे पहला दण्ड होता है उनका घोटुल से निष्कासन। इसके बाद समाज की बैठक में उन पर निर्णय लिया जाता है। सामाजिक नियमों के अन्तर्गत विवाह-बन्धन के योग्य माने जाने पर उनका विवाह करा दिया जाता है। उल्लेखनीय है कि घोटुल के नियमों के तहत दिये गये दण्ड के विरूद्ध प्राय: कोई सुनवाई नहीं होती।

कैसे होता है संस्था का संचालन?

इस संस्था के संचालन के लिये विभिन्न अधिकारी होते हैं, जिनके अधिकार एवं कत्र्तव्य निश्चित और भिन्न-भिन्न होते हैं। ये अधिकारी अलग-अलग विभागों के प्रमुख होते हैं। इन अधिकारियों के सहायक भी हुआ करते हैं। ये अधिकारी हैं कोटवार, तसिलदार (तहसीलदार), दफेदार, मुकवान, पटेल, देवान (दीवान),  हवलदार, कानिसबिल (कॉन्स्टेबल), दुलोसा, बेलोसा, अतकरी, बुदकरी आदि। प्राय: दीवान ही संस्था का सांवैधानिक प्रमुख हुआ करता है। इन अधिकारियों के अधिकारों को घोटुल के बाहर चुनौती नहीं दी जा सकती। इसके साथ ही यदि किसी अधिकारी द्वारा अपने कत्र्तव्य-पालन में किसी भी तरह की चूक हुई तो उसे भी घोटुल-प्रशासन दण्डित करने से नहीं चूकता। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि यहाँ घोटुल-प्रशासन की तानाशाही चलती हो। पूरे प्रजातान्त्रिक ढंग से यहाँ का प्रशासन चलता है और बहुत ही कायदे से चलता है।

कौन थे घोटुल के प्रणेता लिंगो पेन?

"घोटुल" नामक इस संस्था के प्रणेता के रूप में जाने जाने वाले लिंगो पेन के विषय में गोंड समुदाय से सम्बद्ध पालकी (नारायणपुर) निवासी रमेश चन्द्र दुग्गा (सम्प्रति : सहायक वन संरक्षक, वन विभाग, छत्तीसगढ़) यह मिथकथा बताते हैं :
बहुत पहले की बात है। वर्तमान नारायणपुर जिले में रावघाट की पहाड़ियों की जो श्रृंखला है, उसी किसी क्षेत्र में कभी सात भाई रहा करते थे। वह क्षेत्र "दुगान हूर" के नाम से जाना जाता था। उन सात भाइयों में सबसे छोटे भाई का नाम था "लिंगो"। लिंगो शारीरिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक आदि सभी दृष्टि से बड़ा ही शक्तिवान था। अपने छहों भाइयों की तुलना में वह काफी शक्तिशाली और गुणी था। कहा जाता है कि वह एक साथ बारह प्रकार के वाद्य-यन्त्र समान रूप से बजाता था। खेती-खलिहान या अन्य किसी काम के समय बाकी सभी छह भाई सवेरे से अपने काम में चले जाते थे। उसके बाकी छहों भाइयों का विवाह हो चुका था और लिंगो अविवाहित था। उसका विवाह आगे चल कर हुआ। लिंगो उन सभी भाइयों का बड़ा ही लाड़ला था। न केवल भाइयों का बल्कि वह अपनी सभी छहों भाभियों का भी प्यारा था। वह संगीत-कला में निष्णात तथा उसका विशेषज्ञ था। बड़ा ही कुशल संगीतकार था वह। जैसे ही वह सुबह उठता, दैनिक कर्म से निवृत्त हो कर वह संगीत-साधना में जुट जाता। उसकी भाभियाँ उसके संगीत से इतना मन्त्र-मुग्ध हो जाया करती थीं कि वे अपने सारा काम भूल जाया करतीं और उसका संगीत सुना करती थीं। इस कारण प्राय: उसके भाइयों और भाभियों के बीच तकरार हो जाया करती थी। कारण, वे उसका संगीत सुनने में इतनी मगन हो जाया करती थीं कि न तो वे समय पर भोजन तैयार कर पातीं न अपने पतियों को समय पर खेत-खलिहान में भोजन पहुँचा पातीं। वे खेतों में अपनी पत्नियों के द्वारा लाये जाने वाले भोजन की बाट देखते रहते थे किन्तु वे मग्न रहती थीं लिंगो का संगीत सुनने में। इस कारण छहों भाई लिंगो से भी नाराज रहा करते। वे थक-हार कर जब घर लौटते तो पाते कि उनका अनुमान सही था। लिंगो संगीत-साधना में जुटा रहता और उनकी पत्नियाँ मन्त्र-मुग्ध हो कर उसका संगीत सुनती रहतीं। तब छहों भाइयों ने विचार किया कि यह तो संगीत से अलग हो नहीं सकता और इसके रहते हमारी पत्नियाँ इसके संगीत के व्यामोह से मुक्त नहीं हो सकतीं। तो उन लोगों ने पहले तो लिंगो को समझाया कि वह अपनी संगीत-साधना बन्द कर दे। लेकिन लिंगो चाह कर भी ऐसा न कर सका। तब छहों भाइयों ने तय किया कि क्यों न इसे मार दिया जाये। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। तो एक दिन उन लोगों ने एक योजना बनायी और शिकार करने चले। साथ में लिंगो को भी ले लिया। चलते-चलते वे जंगल में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने योजनानुसार एक पेड़ की खोह में छुपे "बरचे" नामक जन्तु को मारने के लिये लिंगो को पेड़ पर चढ़ा दिया और स्वयं उस पेड़ के नीचे तीर-कमान साध कर खड़े हो गये। बरचे नामक यह जन्तु गिलहरी प्रजाति का और गिलहरी से थोड़ा बड़ा होता है। रंग भूरा और पूँछ लम्बी होती है। आज भी इस जन्तु का शिकार बस्तर के वनवासी करते हैं और भोजन के रूप में बड़े ही चाव के साथ खाते हैं। बहरहाल, लिंगो पेड़ पर चढ़ गया और बरचे को तलाशने लगा। इसी समय इन छहों भाइयों में से एक ने मौका अच्छा जान कर नीचे से तीर चला दिया। तीर लिंगो की बजाय पेड़ की शाख पर जा लगा। पेड़ था बीजा का। तीर लगते ही शाख से बीजा का रस जो लाल रंग का होता है, नीचे टपकने लगा। इससे छहों भाइयों ने सोचा कि तीर लिंगो को ही लगा है और यह खून उसी का है। उन्होंने सोचा कि जब तीर उसे लग ही गया है तो उसका अब जीवित रहना मुश्किल है। ऐसा सोच कर वे वहाँ से तितर-बितर हो कर घर भाग आये। घर आ कर सब ने चैन की साँस ली, कि चलो लिंगो से छुटकारा तो मिल गया। उधर लिंगो ने देखा कि उसके भाई पता नहीं क्यों वहाँ उसे अकेला छोड़ कर भाग गये हैं। उसे सन्देह हुआ। वह धीरे-धीरे पेड़ पर से नीचे उतरा और घर की ओर चल पड़ा। उसने कुछ सोच कर पिछले दरवाजे से घर में प्रवेश किया। वहाँ उसने अपने भाई और भाभियों की बातें सुनीं तो उसके रोंगटे खड़े हो गये। लेकिन उसने यह तथ्य किसी को नहीं बताया और चुपके से भीतर आ गया जैसे कि उसने उनकी बातचीत न सुनी हो। उसे जीवित देख कर उसके भाई और भाभियों को बड़ा आश्चर्य हुआ। खैर! बात आयी-गयी हो गयी। फिर से दिन पहले की ही तरह गुजरने लगे। इस घटना के कुछ ही दिनों में उसका भी विवाह करा दिया गया। उसका विवाह एक ऐसे परिवार में हुआ, जिसके लोग जादू-टोना जानते थे। उसकी पत्नी भी यह विद्या जानती थी। समय बीतता रहा। उनके परिवार में कभी बच्चों को तो कभी उसकी भाभियों को या फिर कभी छह भाइयों को कई प्रकार की शारीरिक परेशानी होती थी। ऐसे में, जैसा कि बस्तर में रिवाज रहा है, वे सिरहा-गुनिया के पास जाते थे निदान के लिये। तब हर बार छोटी बहू पर ही शक की सुई जा ठहरती थी। वे लोग उससे काफी त्रस्त हो गये। तब छह भाइयों ने उस छोटे भाई और बहू को घर से बाहर निकालने की सोची। एक दिन लिंगो के भाइयों ने स्पष्ट शब्दों में लिंगो से कह दिया, ""तुम्हारी और तुम्हारी पत्नी की वजह से हम सभी लोगों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। अत: तुम लोग न केवल घर छोड़ कर बल्कि यह परगना छोड़ कर ही कहीं अन्यत्र चले जाओ। चूँकि तुम्हारे कारण हम लोगों को काफी परेशानियाँ हुईं अत: हम तुम्हें अपनी सम्पत्ति में से कुछ भी हिस्सा नहीं देंगे लेकिन यादगार के तौर पर तुम्हें यह "मोह्ट" (अँग्रेजी के "यू" आकार की एक चौड़ी कील जिससे हल की फाल हल से फँसी रहती है। इसे हल्बी परिवेश में "गोली" कहा जाता है) देते हैं"" ऐसा कह उन्होंने उसे वह "मोह्ट" दिया। लिंगो उसे ले कर अपनी पत्नी के साथ वहाँ से चल पड़ा। रास्ते में कन्द-मूल खाते, चलते वह वहाँ से काफी दूर, उस परगने से बाहर जा पहुँचा। चलते-चलते वह एक गाँव के पास जा पहुँचा। यह फागुन-चैत्र महीना था। उसने देखा कि वहाँ धान की मिंजाई करने के बाद निकला ढेर सारा पैरा (पुआल) रखा हुआ था कोठार (खलिहान) में। घर से निकलने के बाद से उन्हें भोजन के रूप में अन्न नसीब नहीं हुआ था। उसे देख कर उसके मन में आशा की किरण जागी और उसने विचार किया कि क्यों न इसी पैरा को दुबारा मींज कर धान के कुछ दाने इकट्ठे किये जायें। यह सोच कर उसने उस कोठार वाले किसान से अपना दुखड़ा सुनाया और उस पैरा को मींजने की अनुमति माँगी। उस किसान ने उसकी व्यथा सुन कर उसे मिंजाई करने की अनुमति दे दी। तब उसने गाँव के ही अन्य लोगों से निवेदन कर बैल माँगे और उस "मोह्ट" को उसी स्थान पर स्थापित कर उससे विनती की, कि तुम्हें मेरे भाइयों ने मुझे दिया है। मैं उनका और तुम्हारा सम्मान करते हुए तुम्हारी ईश्वर के समान पूजा करता हूँ। यदि तुममें कोई शक्ति है, तुम मेरी भक्ति की लाज रख सकते हो तो इस पैरा से भी मुझे धान मिले अन्यथा मैं तुम्हारे ऊपर मल-मूत्र कर तुम्हें फेंक दूँगा। ऐसा कह उसने मिंजाई शुरु की। मिंजाई करता चला गया। मिंजाई समाप्त होने पर न केवल उसने बल्कि गाँव वालों ने भी देखा कि उस पैरा से ढेर सारा धान निकला। सब लोग आश्चर्य चकित हो गये और लिंगो को चमत्कारी पुरुष के रूप में देखने लगे। उसका यथेष्ट सम्मान भी किया। तब लिंगो ने उस "मोह्ट" की बड़ी ही श्रद्धा-भक्ति पूर्वक पूजा की। उसे कुल देवता मान लिया और पास ही के जंगल में एक झोपड़ी बना कर बस गया। लिंगो और उसकी पत्नी ने मिल कर काफी मेहनत की। उनकी मेहनत का फल भी उन्हें मिला। यह स्थान कालान्तर में एक गाँव के रूप में परिवर्तित हो गया। समय के साथ लिंगो उस गाँव का ही नहीं बल्कि उस परगने का भी सम्मानित व्यक्ति बन गया। उस गाँव का नाम हुआ "वलेक् नार"। "वलेक्" यानी सेमल और "नार" यानी गाँव। हल्बी में सेमल को सेमर कहा जाता है। इसी से आज इस गाँव को सेमरगाँव के नाम से जानते हैं। इस तरह जब उसकी कीर्ति गाँव के बाहर दूसरे गाँवों तक फैली तब उसके भाइयों के कानों में भी यह बात पहुँची। उसकी प्रगति सुन कर उसके भाइयों को बड़ी पीड़ा हुई। वे द्वेष से भर उठे। उन लोगों ने पुन: लिंगो को मार डालने की योजना बनायी और वे सब सेमरगाँव आ पहुँचे। उस समय लिंगो घर पर नहीं था। उन्होंने उसकी पत्नी से पूछा। उसने बताया कि लिंगो किसी काम से किसी दूसरे गाँव गया हुआ है। तब उसके भाई वहाँ से वापस हो गये और अपनी योजना पर अमल करने लगे। उन्होंने 12 बैल गाड़ियों में लकड़ी इकट्ठा की और उसमें आग लगी दी। उनकी योजना थी लिंगो को पकड़ लाने और उस आग में झोंक देने की। अभी वे आग लगा कर लिंगो को पकड़ लाने के लिये उसके घर जाने ही वाले थे कि सबने देखा कि लिंगो उसी आग के ऊपर अपने 18 वाद्य-यन्त्र (1. माँदर, 2. ढुडरा (कोटोड़, ठुड़का, कोटोड़का), 3. बावँसी (बाँसुरी), 4. माँदरी 5. पराँग, 6. अकुम (तोड़ी), 7. चिटकोली, 8. गुजरी बड़गा (तिरडुड्डी या झुमका बड़गी या झुमका बड़गा), 9. हुलकी, 10. टुंडोड़ी (टुड़बुड़ी), 11. ढोल, 12. बिरिया ढोल, 13. किरकिचा, 14. कच टेहेंडोर, 15. पक टेहेंडोर, 16. ढुसिर (चिकारा), 17. कीकिड़, 18. सुलुड़)  बजाते हुए नाच रहा है। यह देख कर उन सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे थक-हार कर वहाँ से वापस चले गये। वे समझ गये कि लिंगो को मारना सम्भव नहीं।
लिंगो और उनके उन छह भाइयों के नाम का उल्लेख डॉ. के. आर. मण्डावी अपने "पूस कोलांग परब" शीर्षक लेख (बस्तर की जनजातियों के पेन-परब, 2007 : 79) में कांकेर अंचल के मुरडोंगरी ग्राम के पटेल एवं खण्डा मुदिया (आँगा देव) के पुजारी श्री धीरे सिंह मण्डावी के हवाले से इस तरह करते हैं : 1. उसप मुदिया, 2. पटवन डोकरा, 3. खण्डा डोकरा, 4. हिड़गिरी डोकरा, 5. कुपार पाट डोकरा, 6. मड़ डोकरा, 7. लिंगो डोकरा। उनके अनुसार लिंगो पेन तथा उनके छह भाई गोंड जनजाति के सात देव गुरु कहे गये हैं।

स्रोत-संदर्भ :
01.    सुश्री जयमती कश्यप, पर्यवेक्षक, महिला एवं बाल विकास विभाग, कोंडागाँव, छत्तीसगढ़
02.    श्री रमेश चन्द्र दुग्गा, सहायक वन संरक्षक, वन विभाग, रायपुर, छत्तीसगढ़
03.    श्री पण्डीराम मण्डावी, काष्ठ शिल्पी, गढ़बेंगाल, नारायणपुर, छत्तीसगढ़
04.    डॉ. के . आर. मण्डावी ("पूस कोलांग परब", बस्तर की जनजातियों के पेन-परब, 2007 : 79)

Thursday, 21 May 2020

बस्तर में बाल साहित्य और राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत


हरिहर वैष्णव



2002 में बाल साहित्य की दो पुस्तकें ("चलो, चलें बस्तर" और "बस्तर के तीज-त्यौहार") बस्तर सम्भाग हल्बी साहित्य परिषद् द्वारा प्रकाशित की गयीं, जिनके विषय में बस्तर के साहित्य ऋषि और बस्तर सम्भाग हल्बी साहित्य परिषद् के अध्यक्ष लाला जगदलपुरी जी ने अपने प्रकाशकीय में कहा था, ""इससे पहले तक बस्तर पर बाल-लेखन-प्रकाशन का नितान्त अभाव था।"" इन्हीं पंक्तियों में आगे उन्होंने इन दोनों पुस्तकों के लेखक का नाम लेते हुए जोड़ा था, "".....ने इस अभाव की पूर्ति की है। बातचीत की शैली में इस पुस्तिका के माध्यम से बस्तर सम्बन्धी आवश्यक जानकारियों का आकर्षक विवरण प्रस्तुत किया गया है।""
और संयोग देखिये कि उन्हीं लाला जगदलपुरी जी से मिलने राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत (नयी दिल्ली) में संपादक पंकज चतुर्वेदी जी और मैं जब 11 मार्च, 2013 को जगदलपुर जा रहे होते हैं कि वहीं रास्ते में हल्बी के अन्यतम कवि श्री सोनसिंह पुजारी जी के घर पर बैठे, उनसे चर्चा के दौरान ही बस्तर की लोक भाषाओं पर बाल साहित्य के सम्बन्ध में चर्चा होती है। चतुर्वेदी जी सुझाव रखते हैं कि क्यों न प्राथमिक प्रयास के रूप में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत द्वारा प्रकाशित बाल साहित्य का बस्तर की किसी एक लोक भाषा में अनुवाद का कार्य हाथ में लिया जाये? और फिर यह सुझाव केवल सुझाव नहीं रह जाता बल्कि ठोस रूप ले लेता है। पंकज जी इस परियोजना के पीछे ऐसी आत्मीयता से जुड़ जाते हैं कि पूरा कर के ही दम लेते हैं। उन्होंने न केवल इसी एक परियोजना पर काम किया बल्कि इसके बाद लगातार तीन और परियोजनाओं की
परिकल्पना की और उन्हें साकार भी किया। इन सभी परियोजनाओं से प्रतिभागियों के अलावा मैं भी किसी-न-किसी रूप में जुड़ा रहा। मुझे इस बात का गौरव है और प्रसन्नता भी। जगदलपुर के साथी रुद्रनारायण पाणिग्राही और विक्रम सोनी भी स्थानीय संयोजक के रूप में आरम्भ से न केवल जुड़े रहे बल्कि पूरी तरह सक्रिय बने रहे। इसी तरह मार्च 2016 में काँकेर में आयोजित पुस्तक-विमोचन-समारोह के स्थानीय संयोजक के रूप में काँकेर के साथी सुरेशचन्द्र श्रीवास्तव भी न्यास से जुड़े।

मुझे याद है, जब लाला जी और मेरे द्वारा सम्पादित पुस्तक "बस्तर की लोक कथाएँ" के विमोचन का कार्यक्रम जगदलपुर में रखने का सुझाव पंकज जी के द्वारा रखा गया था तो मैं अपने स्वास्थ्यगत कारणों से राजी नहीं हो पा रहा था। तब पंकज जी ने कहा था, "आपने मेरे साथ काम नहीं किया है वैष्णव जी, इसीलिये ऐसा कर रहे हैं। एक बार मेरे साथ काम कर लेंगे तो देखिये कितना आनन्द आता है।" और सच में बहुत आनन्द आया। विमोचन का वह कार्यक्रम ऐसा "हिट" रहा कि उसके बाद तो बस्तर की लोक भाषाओं पर केन्द्रित कुल चार कार्यशालाएँ लगातार हुईं और सफल रहीं। बस्तर की लोक भाषाओं में लिख रहे लोगों और यहाँ के लोक चित्रकारों को पहली बार इतना बड़ा मंच मिला वरना तो लोग "बस्तर" को उभरते देखना पसंद नहीं करते।

मुझे लगता है कि यहाँ उस प्रसंग का जिक्र अवश्य ही होना चाहिये जिसके चलते बस्तर की विभिन्न लोक भाषाओं में बाल-साहित्य पर इतने बड़े पैमाने पर सार्थक काम हुआ और आगे भी होते रहने की आशा है। तो चलिये, संक्षेप में उस प्रसंग का जिक्र हो ही जाये। वह प्रसंग इस तरह है :
11 फरवरी 2013। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत (नयी दिल्ली) में संपादक (हिंदी) पंकज चतुर्वेदी जी का ईमेल पर एक संदेश आता है। संदेश सुखद और आश्चर्यचकित कर देने वाला है। उन्होंने अपने इस संदेश में सूचना दी कि लाला जी और मेरे संयुक्त सम्पादन में "बस्तर की लोक कथाएँ" पुस्तक का प्रकाशन हो गया है।  और वे चाहते हैं कि हम मार्च महीने के किसी एक दिन एक दिवसीय आदिवासी साहित्य उत्सव का आयोजन जगदलपुर में करें। इस आयोजन में "बस्तर की लोक कथाएँ" तथा हरिराम मीणा जी की पुस्तक "आदिवासी दुनिया" का लोकार्पण हो। इसके लिये शहर के किसी स्थान से सौ-पचास लिखने-पढ़ने वाले लोग लाला जी के दरवाजे तक चलें। वहाँ उन्हें पुस्तकें भेंट कर उनका सम्मान किया जाये और वहीं उन पुस्तकों पर विमर्श और रचना-पाठ का दिन भर का आयोजन हो। इस कार्यक्रम में यदि किसी को बाहर से बुलाना हो तो उसका तथा स्थानीय आयोजन का समस्त व्यय नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया द्वारा वहन किया जायेगा। उनका यह संदेश पढ़ कर मैंने तत्काल जगदलपुर-निवासी एक कवि एवं रंगकर्मी मित्र को फोन लगाया। उनसे सारी बातें हुईं। वे आयोजन के संयोजन एवं प्रबंध हेतु सहमत हो गये। फिर इसके बाद मैंने लाला जी के अनुज श्री के. एल. श्रीवास्तव जी को फोन लगाया ताकि लाला जी की वर्तमान स्थिति की जानकारी मिल जाये और उस हिसाब से कार्यक्रम की रूप-रेखा तैयार हो। फोन लगाने पर श्रीवास्तव जी ने बताया कि लालाजी की शारीरिक और मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। इसीलिये इस आयोजन में उन्हें सम्मिलित करना सम्भव नहीं हो पायेगा। मेरे लिये यह सूचना हृदयविदारक थी। मैंने विवशता में पंकज चतुर्वेदी जी को यह सूचना दे दी। पंकज चतुर्वेदी जी के मन में लाला जी के प्रति सम्मान का भाव रहा है और इसी भावना के चलते वे यह कार्यक्रम जगदलपुर में आयोजित करना चाहते थे। बहरहाल। अन्तत: तय यह हुआ कि यह कार्यक्रम अब जगदलपुर की बजाय कोंडागाँव में हो। और इस तरह 10 मार्च को यह कार्यक्रम कोंडागाँव में आयोजित हुआ। और इसके अगले दिन यानी 11 मार्च को हम दोनों जगदलपुर गये थे लाला जी से मिलने। बहरहाल।

जैसा कि पहले ही उल्लेख हो चुका है, पंकज जी ने सबसे पहले भतरी में अनुवाद कार्यशाला करने का मन बनाया। चूँकि जगदलपुर और इसके आसपास का पूर्वी इलाका ही भतरी-भाषी है अत: इसके लिये हमने जगदलपुर के साथियों से सम्पर्क किया और कोंडागाँव में कार्यशाला आयोजित करने की बात कही किन्तु वहाँ के अधिसंख्य साथी जगदलपुर में ही कार्यशाला रखने के पक्ष में थे। इस तरह यह त्रिदिवसीय कार्यशाला जगदलपुर में जुलाई 2013 में आयोजित हुई। इस कार्यशाला में राष्ट्रीय  पुस्तक न्यास, भारत द्वारा प्रकाशित हिन्दी की निम्न पुस्तकों का भतरी में अनुवाद सम्पन्न हुआ : 01. सारी दुनिया-प्यारी दुनिया (भतरी : सबू सँवसार मयार सँवसार, अनुवादक : शम्भूनाथ कश्यप)े, 02. खरगोश और कछुए की दौड़ (भतरी : लमाहा आवरी कचिमर हारा-जिता,  अनुवादक : रुद्र नारायण पाणिग्राही), 03. तितली और उम्मीदों का संगीत (भतरी : फिलफिली आवरी आसार गीत-गोबिंद, अनुवादक : शम्भूनाथ कश्यप)े, 04. छोटा-सा मोटा-सा लोटा (भतरी : सुरु माहा ठोसोर माहा कसेला, अनुवादक : डॉ. रूपेन्द्र कवि), 05. मोर पंख (भतरी : मँजुर पाखी, अनुवादक : तुलसी राम पाणिग्राही)े, 06. मुत्थु के सपने (भतरी : लुदुर सपना,  अनुवादक : नरेन्द्र पाढ़ी)े, 07. लाल पतंग और लालू (भतरी : लाल पतंग आवरी लयखन, अनुवादक : रुद्र नारायण पाणिग्राही), 08. नेवला भी राजा (भतरी : नेवरा बले राजा आय, अनुवादक : डॉ. रूपेन्द्र कवि)े, 09. हमारा प्यारा मोर (भतरी : आमर मयार मँजुर, अनुवादक : पीताम्बर दास वैष्णव), 10. मीता और उसके जादुई जूते (भतरी : नीला आवरी तार जादु बिती पनही, अनुवादक : तुलसी राम पाणिग्राही)े, 11. मेरी कहानी (भतरी : मोर कहनी, अनुवादक : पीताम्बर दास वैष्णव)।
इस कार्यशाला की सफलता ने राष्ट्रीय पुस्तक न्यास को, विशेषत: पंकज चतुर्वेदी जी को, और भी उत्साहित किया और केवल एक महीने बाद सितम्बर 2013 में बस्तर की ही प्रमुख और बहुसंख्यक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा "हल्बी" में भी एक त्रिदिवसीय अनुवाद कार्यशाला जगदलपुर में ही आयोजित की गयी, जिसमें बस्तर, कोंडागाँव एवं नारायणपुर जिले के साथी सम्मिलित हुए। इस कार्यशाला में न्यास द्वारा प्रकाशित हिन्दी की निम्न पुस्तकों का हल्बी में अनुवाद किया गया : 01. परियों का खेल (अनुवादक : रुद्र नारायण पाणिग्राही), 02. झाड़ू लगाने वाला राजा (अनुवादक : नरेन्द्र पाढ़ी), 03. राजा जो कंचे खेलता था (अनुवादक : विक्रम कुमार सोनी), 04. चंदा गिनती भूल गया (अनुवादक : विक्रम कुमार सोनी), 05. मेंढक और साँप (अनुवादक : यशवंत गौतम), 06. जंगल के दोस्त (अनुवादक : शिवकुमार पाण्डेय), 07. पूँछ की पूछ (अनुवादक : सुभाष पाण्डेय), 08. नौ नन्हें पक्षी (अनुवादक : शोभा राम नाग), 09. रूपा हाथी (अनुवादक : नरेन्द्र कुमार मण्डन), 10. क्या हुआ? (अनुवादक : कु. वर्षा कुँवर)।
इस कार्यशाला में, जो बस्तर के साहित्य ऋषि लाला जगदलपुरी को समर्पित था, बाल-साहित्य-विशेषज्ञ के रूप में दिल्ली से सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार और "परिंदे" पत्रिका की सम्पादक कुसुम लता सिंह जी उपस्थित थीं। इनके साथ ही स्थानीय भाषा के जानकारों के रूप में बाबू थॉमस, बी. एल. झा और शशि पाण्डेय की भी उपस्थिति रही। कार्यक्रम के दौरान सुभाष पाण्डेय ने वरिष्ठ साहित्यकारों रामसिंह ठाकुर और गणेश प्रसाद पाणिग्राही जी को याद किया।
ये दोनों कार्यशालाएँ इतनी सफल सिद्ध हुईं कि न्यास और पंकज जी का उत्साह कई गुना बढ़ गया। अब बारी थी गोंडी, दोरली और धुरवी लोक भाषाओं की। जनवरी 2014 में इन तीनों भाषाओं में अनुवाद की एक त्रिदिवसीय कार्यशाला जगदलपुर में ही आयोजित की गयी, जिसमें दन्तेवाड़ा, सुकमा और बस्तर जिलों के साथियों बी.आर.कवासी, बचनू राम भोगामी, जोगाराम कश्यप, दादा जोकाल (चारों गोंडी), कट्टम सीताराम, आस मुकेश, मड़कम साहेब, कोड़े राकेश (चारों दोरली), दुरषन कुमार नाग, शिव कुमार नाग, बुधराम कश्यप और शोभा राम कश्यप (चारों धुरवी) ने सहभागिता दर्ज करायी। इन साथियों में से गोंडी वाले चार साथियों ने क्रमश: उषा जोशी की पुस्तक "इन्द्रधनुष", अनूप राय की पुस्तक "जब आये पहिये", कंगसम केंगलांग की पुस्तक "जैसे को तैसा" और गीतिका जैन की पुस्तक "जंगल में धारियाँ" का गोंडी में अनुवाद किया। इसी तरह दोरली वाले चार साथियों ने अशोक दाबर की पुस्तक "फल और मधुमक्खी", दिलीप कुमार बरुआ की पुस्तक "धनेश के बच्चे ने उड़ना सीखा", युद्धजीत सेन गुप्ता की पुस्तक "तितली का बचपन" और जयंती मनोकरण की पुस्तक "कितनी प्यारी है यह दुनिया" को दोरली में अनूदित किया। धुरवी के चार साथियों ने धुरवी में सैयद असद अली की पुस्तक "गोरा काला", जगदीश जोशी की पुस्तक "पहेली", का. सेखाराम की पुस्तक छोटे पौधे-बड़े पौधे" और रवी परांजपे की पुस्तक "पानी ही पानी" का अनुवाद किया।
इन कार्यशालाओं की लगातार सफलता ने न केवल न्यास को और पंकज जी को बल्कि बस्तर के सृजनधर्मियों को भी उत्साहित किया। सभी अब न्यास से जुड़ने को लालायित थे। पंकज जी  के मस्तिष्क में अब अनुवाद से एक कदम और आगे की बात आयी। उन्होंने बस्तर की इन भाषाओं में मौलिक लेखन की ओर रुख किया। इसकी खास बात यह थी कि लेखक भी बस्तर के हों, विषय भी बस्तर के और यहाँ तक कि चित्रकार भी बस्तर के ही। रूप-रेखा कुछ इस तरह थी कि मूल पुस्तक का तीन अलग-अलग भाषाओं में अनुवाद भी स्थानीय साथी ही प्रस्तुत करें। जैसे कि मूल गोंडी में लिखी पुस्तक का अनुवाद हल्बी, भतरी और हिन्दी में भी प्रस्तुत किया जाये। गजब की कार्य योजना थी। इस पर काम शुरु किया गया। पहले चरण में गोंडी, हल्बी और भतरी के साथियों से पाण्डुलिपि माँगी गयी। चर्चाएँ की गयीं। उन्हें प्रारूप दिया गया ताकि वे उसके हिसाब से पाण्डुलिपि तैयार कर सकें। कड़ी मेहनत के बाद लगभग 15-20 पाण्डुलिपियाँ आयीं, जिनमें से 10 का प्रकाशन करना तय किया गया। तय होते ही इन 10 पुस्तकों  के अनुवाद भी तैयार करवाये गये। इसके बाद इन पुस्तकों के चित्रांकन के लिये बस्तर के ही लोक चित्रकारों से सम्पर्क किया गया और मार्च 2014 में एक त्रिदिवसीय चित्रांकन कार्यशाला कोंडागाँव में आयोजित की गयी। दो पुस्तकों, घनश्याम सिंह नाग की हल्बी पुस्तक "मेंडका बिहाव" और अंजनी मरकाम की गोंडी पुस्तक "पदला उरसनाँद" के चित्र अन्त तक सम्बन्धित चित्रकारों द्वारा बनाये नहीं जा सके। फलत: इन दोनों पुस्तकों का प्रकाशन नहीं हो सका। इस कार्यशाला में बाल-साहित्य-विशेषज्ञ के रूप में दिल्ली से सुप्रसिद्ध साहित्यकार और "परिंदे" पत्रिका की सम्पादक कुसुम लता सिंह जी ने भी शिरकत की। प्रकाशन के बाद इन पुस्तकों का लोकार्पण एक भव्य कार्यक्रम में काँकेर में 20 मार्च 2016 को किया गया :
01- नना मुया (गोंडी) : जयमती कश्यप द्वारा लिखी इस पुस्तक के हल्बी, भतरी और हिन्दी अनुवाद भी किये गये। हल्बी में नरपति राम पटेल ने "मयँ घुलघुली आयँ" शीर्षक से, भतरी में नन्दिता वैष्णव ने "मयँ झाप आयँ" शीर्षक से और हिन्दी में हरिहर वैष्णव के सहयोग से पकज चतुर्वेदी द्वारा "घुँघरू" शीर्षक से अनुवाद किये गये। इस पुस्तक के चित्रांकन तैयार किये गये बड़े कनेरा (कोंडागाँव) के चित्रकार अशोक कुमार ठाकुर द्वारा। 02- यशवंत गौतम द्वारा हल्बी में लिखी पुस्तक "सरगी-रुख" का भतरी में "सरगी-रुक" शीर्षक से नन्दिता वैष्णव ने, "हरगी ता मड़ा" शीर्षक से गोंडी में उग्रेश चन्द्र मरकाम ने और हिन्दी में "सरगी का पेड़" शीर्षक से हरिहर वैष्णव के सहयोग से पंकज चतुर्वेदी ने अनुवाद किया। इस पुस्तक के चित्रांकन किये रागिनी वैष्णव (कोंडागाँव) ने। 03- "चेंदरू आरू बाग पिला" शीर्षक हल्बी पुस्तक के लेखक थे नारायणपुर के शिवकुमार पाण्डेय। इस पुस्तक का अनुवाद भतरी में नन्दिता वैष्णव द्वारा "चेंदरू आवरी बाग पिला" शीर्षक से, गोंडी में "चेंदरू अरीन डुवाल पिला" शीर्षक से उग्रेश चन्द्र मरकाम ने और हिन्दी में हरिहर वैष्णव के सहयोग से पंकज चतुर्वेदी ने "बस्तर का मोगली : चेंदरू" शीर्षक से किया। इस पुस्तक के चित्रांकन तैयार किये कोंडागाँव के राजेन्द्र राव राऊत ने। 04- महेश पाण्डे की हल्बी पुस्तक "बस्तर चो तिहार" का नन्दिता वैष्णव ने भतरी में "बस्तरर तिहार" शीर्षक से, उग्रेश चन्द्र मरकाम ने "बस्तेर ना तिआर" शीर्षक से गोंडी में और हरिहर वैष्णव के सहयोग से पंकज चतुर्वेदी ने हिन्दी में "बस्तर के त्यौहार" शीर्षक से अनुवाद प्रस्तुत किया। चित्रांकन तैयार किये अंचल के सुप्रसिद्ध लोकचित्रकार खेम वैष्णव (कोंडागाँव) ने। 05- हल्बी में नरपति राम पटेल ने "अमुस तिहार" शीर्षक से, गोंडी में "अमुस तिआर" शीर्षक से उग्रेश चन्द्र मरकाम ने और हिन्दी में हरिहर वैष्णव के सहयोग से पंकज चतुर्वेदी ने "बस्तर की अमावस्या" शीर्षक से पीताम्बर दास वैष्णव की भतरी पुस्तक "अमुस तिहार" का अनुवाद प्रस्तुत किया। चित्रांकन किया कोंडागाँव के लोक चित्रकार सुरेन्द्र कुलदीप ने। 06- जगदलपुर के डॉ. रूपेन्द्र कवि लिखित भतरी पुस्तक "टेंडका आवरी मेंडका" का हल्बी में "टेंडका आउर मेंडका" शीर्षक से कोंडागाँव के नरपति राम पटेल ने, गोंडी में "डोके अरीन पने" शीर्षक से उग्रेश चन्द्र मरकाम ने और हिन्दी में "गिरगिट और मेंढक" शीर्षक से पंकज चतुर्वेदी ने हरिहर वैष्णव के सहयोग से अनुवाद किया। चित्रांकन किया खेम वैष्णव ने। 07- "बालमतिर भइँस" शीर्षक सोनिका कवि की भतरी पुस्तक का हल्बी में "बालमती चो भइँस" शीर्षक से नरपति राम पटेल ने, "बालमति ता अड़मी" शीर्षक से गोंडी में उग्रेश चन्द्र मरकाम ने और हिन्दी में पंकज चतुर्वेदी ने हरिहर वैष्णव के सहयोग से "बालमती की भैंस" शीर्षक से अनुवाद प्रस्तुत किया। चित्रांकन किये लतिका वैष्णव ने। 08- गोंडी में उग्रेश चन्द्र मरकाम द्वारा लिखित पुस्तक "जाने कियानाँद अपुना मीत तून" का हल्बी में "आपलो सँगवारी के चितावा" शीर्षक से नरपति राम पटेल ने ने किया और इस पुस्तिका के चित्र तैयार किये सरला यादव ने।
शकुन्तला तरार सम्भवत: ऐसी प्रथम साहित्यकार हैं जिन्होंने हल्बी में बाल साहित्य की रचना की है। उनकी हल्बी में प्रकाशित दो पुस्तिकाएँ "बस्तर चो सुँदर माटी" और "बस्तर चो फुलबाड़ी" (दोनों बाल-गीत-संग्रह) हैं। इसके साथ ही बाल साहित्य के अन्तर्गत प्रकाशित उनकी अन्य पुस्तकें हैं, "बेटियाँ छत्तीसगढ़ की", "प्रफुल्ल कुमारी देवी" और "बस्तर की लोक कथाएँ"।
आशा की जानी चाहिये कि भविष्य में भी इस तरह के स्तुत्य प्रयास न्यास द्वारा किये जाते रहेंगे।

Tuesday, 21 April 2020

"एकाएक नहीं होता कुछ भी"

मेरे काव्य-संग्रह "एकाएक नहीं होता कुछ भी" की समीक्षा कौशलेन्द्रजी ने की है और यह "बस्तर-मित्र" नामक -पेपर पर प्रकाशित भी हुआ है। वह समीक्षा मैं यहाँ अविकल रूप में दे रहा हूँ। सम्भवत: आप इसे पढ़ना चाहें : https://www.bastarmitr.com/2020/04/blog-post_830.html
एकाएक नहीं होता कुछ भी (कविता संग्रह). . . https://www.bastarmitr.com/2020/04/blog-post_830.html
अधिक जानकारी के लिए ऊपर दिए गए लिंक पर क्लिक करें
ब्यूरो चीफ- दीपक चौहान, बस्तर मित्र

16.04.2020
एकाएक नहीं होता कुछ भी (कविता संग्रह)
रचनाकारहरिहर वैष्णव
प्रकाशकयश पब्लिकेशन, दिल्ली
मूल्यरु. 250.00
हरिहर वैष्णव रचित छोटी-छोटी छियालीस कविताओं का यह संग्रह जंगल में एकाकी खिले हुये उस पुष्प की तरह है जिसे सजे सँवरे पार्क में खिलखिलाना कतई पसंद नहीं है खड़ी बोली के साथ ठेठ बस्तरिया शब्दों के मनके पिरोकर रची गयी कवितायें जहाँ पाठक को बस्तर की धरती की सुवास से जोड़ती हैं वहीं गुम होते लोकशब्दों को अपने आँचल में छिपाती भी हैं हरिहर वैष्णव की कविताएँ कहीं अल्हड़ हैं, कहीं शर्मीली हैं तो कहीं क्रांति की चिनगारी सी फूँकती नज़र आती हैं


...शायद उन्हें भीड़भाड़ वाले शहर में जाना अच्छा नहीं लगता सचमुच, वहाँ बहुत प्रदूषण है, हवा में भी, पानी में भी, विचारों में भी और हँसी में भी
संग्रह की पहली कविताशुक्र करोमें सभी धर्मग्रंथों के आदि मंत्रों का सार है उसने सोचा और वैसा ही हो गया
...सभी धर्मग्रंथों में सृष्टि की कहानी यहीं से प्रारम्भ होती है हरिहर वैष्णव ने सृष्टि रचना की जटिल प्रक्रिया में वनवासी जीवन की सरलता के दर्शन किए और फिर एक भोली सी चेतावनी - “शुक्र करो कि / कहा नहीं है उसने / गुस्साके साथ पाठकों के समक्ष परोस दिया
यह कहना कि इस संग्रह की कविताएँ वनवासी जीवन के आसपास घूमती हैं, न्यायपूर्ण नहीं होगा। वास्तव में इस संग्रह की सभी कविताएँ वनवासी जीवन के भीतर से निकलकर रिसती हैं और औचक ही पूछ बैठती हैं – “बोलो/ क्या तब भी/ कर पाओगे मुझसे प्यार” ? इस रिसाव में वनवासी जीवन के कई रस पहाड़ी नदी की तरह बहते से दिखायी देते हैं  पहाड़ी नदी कभी मंथर गति से बहती है, कभी ठिठक कर चारों ओर देखने लगती है तो कभी हिरणी सी छलाँग़ मारती हुयी   भागने लगती है वनवासी के मन में सुलगते अंगारे देखकर पहाड़ी नदी क्रांति करती है, और कभी-कभी अपने किनारों को भी तोड़ देती है तमाम सरकारी आँकड़ों और नियमों के बाद भी बस्तर के वनवासी जीवन को वर्गभेद का सामना करना पड़ता है
बस में सफरकरने के लिए घुसे बस्तरिया को बस की सभी सीट्स भरी दिखाई देती हैं, “एक को छोड़करजो उसके लिए कभी नहीं हुआ करती दर्द की पर्तें जमती रहती हैं एक पर एक ...सुलगती रहती हैं भीतर ही भीतर ...फिर होता है एक दिन विस्फोट, या अंकुरित होता है एक बीज, एकाएक नहीं होता कुछ भी क्रांति भी एकाएक नहीं होती, प्रतिपल होती रहती है थोड़ी-थोड़ी ...भीतर ही भीतर
घोटुल के बिना बस्तर हो, बस्तर की कविता हो और उसमें पलाश हो, गुलमोहर हो, चिड़िया हो, नेता हो
...तो कविता का कलेवर और बनेगा कहाँ से! दूर दिल्ली में बैठकर बस्तर को स्वप्न में देखने की अनुभूति में दामिनी की द्युतितो हो सकती है किंतु अनुभूति में बस्तर की ख़ुश्बू नहीं होती, हो ही नहीं सकती रचनाकार हरिहर वैष्णव का पूरा जीवन बस्तर के जंगलों में खपता रहा, तपता रहा ...और कविता बनकर निखरता रहा महानगरों में रहकर जिन लोगों को बैठ-बैठे बस्तर देखना हो उनके लिए इस काव्य संग्रह का अवलोकन सुखद होगा

- कौशलेंद्र

Saturday, 11 April 2020

बस्तर के साहित्यकार
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हरिहर वैष्णव
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बस्तर में साहित्य-सृजन का सूत्रपात 1908 में प्रकाशित पं. केदार नाथ ठाकुर के बहुचर्चित ग्रन्थ "बस्तर -भूषण" के साथ माना जाता है। इसके पूर्व इस अंचल में साहित्य-सृजन का कोई उल्लेख कहीं नहीं मिलता। "बस्तर-भूषण" के लेखक पं. केदार नाथ ठाकुर (जगदलपुर) पेशे से बस्तर स्टेट के नार्दर्न सर्किल में फारेस्ट रेंजर हुआ करते थे। उन्होंने शासकीय कार्य निष्पादन के लिये अपने क्षेत्रीय भ्रमण के दौरान जो कुछ देखा-सुना और अनुभव किया उसे लेखबद्ध कर "बस्तर भूषण" शीर्षक से ग्रन्थ का प्रणयन किया। "बस्तर भूषण" के अतिरिक्त उन्होंने "सत्यनारायण कथा", "बसन्त विनोद" की भी रचना की और बाद में इन दोनों पुस्तकों को "केदार विनोद" नामक अपनी अन्य पुस्तक में संग्रहित किया। "बस्तर विनोद" और "विपिन विज्ञान" उनकी अन्य पुस्तकें है, किन्तु ये उपलब्ध नहीं हैं । बस्तर के विषय में हिन्दी में सर्वप्रथम लगभग सम्पूर्ण जानकारी देने वाले इस ग्रन्थ "बस्तर-भूषण" की चर्चा तब भी हुई थी और आज भी यह चर्चित बना हुआ है। आज भी लोग इसे खोजते फिरते हैं।
चर्चा लाल कालीन्द्र सिंह (जगदलपुर) द्वारा लिखित "बस्तर-भूषण" नामक ग्रन्थ की भी होती है किन्तु इसकी प्रति उपलब्ध नहीं है। कहा जाता है कि यह तत्कालीन रियासती प्रशासन की दृष्टि में आपत्तिजनक होने के कारण जब्त कर लिया गया था, जिससे उसका मुद्रण-प्रकाशन सम्भव नहीं हो सका। लाल कालीन्द्र सिंह रचित "बस्तर इतिहास" का भी उल्लेख मिलता है, जिसे उन्होंने 1908 में लिखा था। किन्तु यह ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं है । बस्तर महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव ने "लोहण्डीगुड़ा तरंगिणी" तथा अंग्रेजी में "आई प्रवीर द आदिवासी गॉड" लिखी। पं. सुन्दरलाल त्रिपाठी (जगदलपुर) ने क्लिष्ट हिन्दी में रचनाएँ लिखीं।
इनके पश्चात् पं. गंगाधर सामन्त "बाल" (जगदलपुर) द्वारा रचित साहित्य स्थान पाता है। द्विवेदी युग में पण्डित जी की रचनाएँ "कर्मवीर", "विद्या", "राजस्थान केशरी", "विद्यार्थी", "सत्यसेतु" "काव्य-कौमुदी" और "विश्वमित्र" जैसे स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। इसके अलावा आप रियासत कालीन बस्तर के एकमात्र साप्ताहिक "बस्तर-समाचार" में "पंचामृत" शीर्षक स्तम्भ के स्तम्भ-लेखक थे। उनकी प्रकाशित कृतियों में "अभिषेकोत्सव", "शोकोद्गार", "प्राचीन कलिंग खारवेल", "तत्वमुद्रा धारण निर्णय" "रमलप्रश्न प्रकाशिका" और "गीता का पद्यानुवाद" का उल्लेख मिलता है ।
साहित्य-सृजन के इस क्रम को आगे बढ़ाया था ठाकुर पूरनसिंह (जगदलपुर) ने। उन्होंने हिन्दी में "बस्तर की झाँकी", और "पूरन दोहावली", तथा हल्बी में "भारत माता चो कहनी" और "छेरता तारा गीत" शीर्षक पुस्तकों की रचना की थी। 1937 में प्रकाशित "हल्बी भाषा-बोध" राजकीय अमले को हल्बी भाषा सिखाने के लिये लिखी गयी उनकी पुस्तक थी। ठाकुर पूरन सिंह को बस्तर की हल्बी लोक भाषा में लिखित साहित्य की रचना करने वाले प्रथम साहित्यकार होने का श्रेय जाता है। वे ही हल्बी के प्रथम गीतकार भी थे। उन्हीं के सहयोग से मेजर आर. के. एम. बेट्टी ने 1945 में "ए हल्बी ग्रामर" की रचना की थी। इसी क्रम में पं. गणेश प्रसाद सामन्त (जगदलपुर) ने "देबी पाठ" नामक एक पद्य पुस्तिका रची थी। 1950 में पं. गंभीर नाथ पाणिग्राही (जगदलपुर) रचित कविता-संग्रह "गजामूँग" प्रकाशित हुआ था। पं. वनमाली कृष्ण दाश (जगदलपुर) ने भी साहित्य-सृजन किया था किन्तु उनकी किसी प्रकाशित पुस्तक का उल्लेख नहीं मिलता । पं. देवीरत्न अवस्थी "करील" (गीदम) ने हिन्दी के साथ-साथ हल्बी में भी काव्य-रचना की। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं "देवार्चन", "मधुपर्क", "लोकरीति" और "रघुवंश"। उनकी उत्तम साहित्य-साधना के लिये उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा "साहित्य-रत्न" की उपाधि से विभूषित किया गया था। इसी तरह महाकवि कालिदास की कृति "रघुवंश" के हिन्दी छन्दानुवाद के लिये साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा पुरस्कृत किया गया था । 1960 के आसपास श्री अयोध्या दास वैष्णव (खोरखोसा, जगदलपुर) ने "चपकेश्वर महात्म्य" शीर्षक काव्य-पुस्तिका का प्रणयन किया था।
श्री लाला जगदलपुरी (जगदलपुर) ने साहित्य-साधना आरम्भ की 1936 से और उनकी रचनाएँ 1939 से ही प्रकाशित होने लगीं। उनकी प्रकाशित कृतियों में कविता एवं ग़ज़ल संग्रह "मिमियाती ज़िंदगी दहाड़ते परिवेश" (ग़ज़ल), "पड़ाव-5" (कविता), "हमसफ़र" (कविता) और "ज़िंदगी के लिये जूझती ग़ज़लें", "गीत-धन्वा" (मुक्तक एवं गीत संग्रह) तथा लोक कथा संग्रहों में "हल्बी लोक कथाएँ", "वनकुमार और अन्य लोक कथाएँ", "बस्तर की मौखिक कथाएँ" (हरिहर वैष्णव के साथ), "बस्तर की लोक कथाएँ" और इतिहास-संस्कृति विषयक "बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति", "बस्तर-लोक (कला-संस्कृति प्रसंग)", तथा "बस्तर की लोकोक्तियाँ" हैं। उनके द्वारा हल्बी में अनूदित पुस्तकें हैं, "प्रेमचन्द चो बारा कहनी", "बुआ चो चिठी मन", "रामकथा" और "हल्बी पंचतन्त्र"। इसके अतिरिक्त उनकी अनेकानेक रचनाओं ने विभिन्न मिले-जुले संग्रहों में भी स्थान पाया है। इनमें "समवाय", "पूरी रंगत के साथ", "लहरें", "इन्द्रावती", "सापेक्ष", "हिन्दी का बाल गीत साहित्य", "सुराज", "चुने हुए बाल गीत", "छत्तीसगढ़ी काव्य संकलन", "छत्तीसगढ़ के माटी चंदन", "छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह", "गुलदस्ता" "स्वर संगम", "गीत हमारे कण्ठ तुम्हारे", "बाल गीत", "बाल गीत भाग-4", "बाल गीत भाग-5" "बाल गीत भाग-7", "हम चाकर रघुवीर के", "मध्य प्रदेश की लोक कथाएँ", "स्पन्दन", "चौमासा", और "अमृत काव्यम्" आदि प्रमुख हैं। इसके साथ ही उनकी विभिन्न रचनाएँ "वेंकटेश्वर समाचार", "चाँद" "विश्वमित्र", "सन्मार्ग", "पाञ्चजन्य", "मानवता", "कल्याण", "नवनीत", "कादम्बिनी", "नोंकझोंक", "रंग", "ठिठोली", "चौमासा", "रंगायन", "ककसाड़" आदि अन्य स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाती रही हैं।
सर्वश्री गुलशेर खाँ शानी (जगदलपुर), धनञ्जय वर्मा (जगदलपुर), लक्ष्मीचंद जैन (जगदलपुर), कृष्ण कुमार झा (जगदलपुर), सुरेन्द्र रावल (कोंडागाँव), चितरंजन रावल (कोंडागाँव), कृष्ण शुक्ल (जगदलपुर) आदि ने भी साहित्य-सृजन के क्षेत्र में कदम रखा और विभिन्न विधाओं में साहित्य-सृजन किया। शानी जी एक कथाकार-उपन्यासकार के रूप में स्थापित हुए जबकि डॉ. धनञ्जय वर्मा आलोचना के क्षेत्र में मील के पत्थर साबित हुए। शानीजी की रचनाओं में "बबूल की छाँव", "डाली नहीं फूलती", "छोटे घर का विद्रोह", "एक से मकानों का घर", "युद्ध", "शर्त का क्या हुआ", "मेरी प्रिय कहानियाँ", "बिरादरी", "सड़क पार करते हुए", "जहाँपनाह जंगल", "सब एक जगह", "पत्थरों में बंद आवाज", "कस्तूरी", "काला जल", "नदी और सीपियाँ", "साँप और सीढ़ी", "एक लड़की की डायरी", "शाल वनों का द्वीप" और "एक शहर में सपने बिकते हैं" प्रमुख हैं।         डॉ. धनञ्जय वर्मा की प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं, "निराला : काव्य और व्यक्तित्व", "आस्वाद के धरातल", "निराला काव्य : पुनर्मूल्यांकन", "हस्तक्षेप", "आलोचना की रचना-यात्रा", "अँधेरे के वर्तुल", "आधुनिकता के बारे में तीन अध्याय", "आधुनिकता के प्रतिरूप", "समावेशी आधुनिकता", "हिन्दी कहानी का रचना शास्त्र", "हिन्दी कहानी का सफ़रनामा", "परिभाषित परसाई", "हिन्दी उपन्यास का पुनरावतरण", "आलोचना के सरोकार", "लेखक की आज़ादी" और "आलोचना की ज़रूरत"।
श्री रघुनाथ प्रसाद महापात्र (जगदलपुर) हल्बी-भतरी के बहुचर्चित कवि रहे थे। उनकी पुस्तक "फुटलो दसा, बिलई उपरे मुसा" ने बस्तर की सीमाएँ लाँघ कर ओड़िसा तक में धूम मचा दी थी। श्री लक्ष्मीचंद जैन और श्री चितरंजन रावल कविता के क्षेत्र में और श्री सुरेन्द्र रावल कविता तथा व्यंग्य के क्षेत्र में चर्चित रहे, वहीं     श्री कृष्ण शुक्ल कहानीकार के  रूप में अखिल भारतीय स्तर पर चर्चित हुए। श्री सुरेन्द्र रावल की प्रकाशित कृति है, "काव्य-यात्रा" जबकि श्री चितरंजन रावल की प्रकाशित कृति है, "कुचला हुआ सूरज"। डॉ. कृष्ण कुमार झा की कृतियाँ हैं, "स्कन्दगुप्त" और "सम्राट् समुद्रगुप्त"। बसन्त लाल झा (जगदलपुर) ने और नर्मदा प्रसाद श्रीवास्तव (जगदलपुर) ने भी साहित्य-सृजन में उल्लेखनीय योगदान दिया। मेहरुन्निसा परवेज (जगदलपुर) एक कथाकार-उपन्यासकार के रूप में उभरीं और उन्होंने अखिल भारतीय स्तर पर ख्याति प्राप्त की। श्री रऊफ परवेज (जगदलपुर) , श्री इशरत मीर (जगदलपुर), श्री हयात रजवी (कोंडागाँव), श्री पी. एल. कनवर (कोंडागाँव), श्री ओ. पी. शर्मा (कोंडागाँव) और श्री गनी आमीपुरी (जगदलपुर) ने अपनी साहित्य-साधना से उर्दू अदब की सेवा की। इसी तरह श्री हुकुमदास अचिंत्य (जगदलपुर) ने हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में साहित्य-सृजन किया। श्री रामसिंह ठाकुर (नारायणपुर) ने हल्बी में कविताओं के साथ-साथ श्री रामचरित मानस को हल्बी में प्रस्तुत करने का उल्लेखनीय और स्तुत्य कार्य किया। हल्बी में सर्वश्रेष्ठ कविताएँ लिखीं श्री सोनसिंह पुजारी (बजावंड, जगदलपुर) ने। श्री पुजारी ने यद्यपि बहुत कम, कुल मिला कर 27 कविताएँ ही लिखीं किन्तु वे सभी चर्चित हुईं। इसी काल में श्री बहादुर लाल तिवारी (कवि एवं गद्यकार, काँकेर), रामेश्वर चौहान (व्यंग्यकार, काँकेर), जोगेन्द्र महापात्र "जोगी" (हल्बी-भतरी कवि, जगदलपुर), गोपाल सिम्हा (गीतकार, जगदलपुर), परमात्मा प्रसाद शुक्ल (हिन्दी एवं गोंडी कवि, जगदलपुर), गयाप्रसाद तिवारी (गोंडी कवि, नारायणपुर), लक्ष्मीनारायण "पयोधि" (कवि एवं कथाकार, भोपालपटनम), त्रिलोक महावर (कवि, जगदलपुर), अभिलाष दवे (कवि, जगदलपुर), मदन आचार्य (आलोचना, जगदलपुर), जगदीश वागर्थ (कथाकार, कोंडागाँव), योगेन्द्र मोतीवाला (नाटक, जगदलपुर), सुश्री नसीम रहमान (कवयित्री, जगदलपुर), यशवन्त गौतम (कवि, कोंडागाँव),       हरिहर वैष्णव (कवि एवं कथाकार, कोंडागाँव), उर्मिला आचार्य (कथाकार, जगदलपुर) आदि ने भी साहित्य-सृजन के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान किया। हरिहर वैष्णव की प्रकाशित कृतियाँ हैं, "बस्तर की मौखिक कथाएँ (लोक साहित्य : लाला जगदलपुरी के साथ)", "मोहभंग" (कहानी संग्रह), "राजा और बेलकन्या" (लोक साहित्य), "गुरुमायँ सुकदई द्वारा प्रस्तुत बस्तर की धान्य देवी की कथा : लछमी जगार" (लोक साहित्य : हल्बी-हिन्दी-अंग्रेजी, सी. ए. ग्रेगोरी के साथ), "बस्तर का लोक साहित्य" (लोक साहित्य), "बस्तर की गीति कथाएँ" (लोक साहित्य : हल्बी-हिन्दी), "गुरुमायँ केलमनी द्वारा प्रस्तुत बस्तर के नारी लोक की महागाथा : धनकुल" (लोक साहित्य : हल्बी-हिन्दी), "बस्तर के धनकुल गीत" (लोक साहित्य : शोध विनिबन्ध), "चलो, चलें बस्तर" (बाल साहित्य : पर्यटन), "बस्तर के तीज-त्यौहार" (बाल साहित्य)। इनकी प्रकाश्य कृतियाँ हैं, "आदिवासी महागाथा : तीजा जगार" (लोक साहित्य : हल्बी-हिन्दी), "आठे जगार" (लोक साहित्य : हल्बी-हिन्दी), "बाली जगार" (लोक साहित्य : देसया-हिन्दी), "बस्तर की लोक कथाएँ" (लोक साहित्य : बस्तर की 11 जनभाषाओं की लोक कथाएँ हिन्दी अनुवाद सहित, लाला जगदलपुरी के साथ), "सुमिन बाई बिसेन द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी लोक गाथा : धनकुल" (छत्तीसगढ़ी-हिन्दी), "बस्तर की आदिवासी एवं लोक हस्तशिल्प परम्परा" (लोक शिल्प), "बस्तर का आदिवासी एवं लोक संगीत" (लोक संगीत), "बस्तर के अक्षरादित्य : लाला जगदलपुरी" (लाला जगदलपुरी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केन्द्रित), "क्यों बेजुबान है आदिवासी" (रिपोर्ताज संग्रह), "बस्तर समग्र" (बस्तर की आदिवासी एवं लोक संस्कृति पर केन्द्रित), "सोनसाय का गुस्सा" (कहानी संग्रह), "जंगल में बैठक" (बाल एकांकी संग्रह), "मेरी बाल कविताएँ" (बाल कविताएँ)। लक्ष्मीनारायण "पयोधि" की अब तक कुल 29 कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं और 05 कृतियाँ प्रकाशनाधीन हैं। ये कृतियाँ हैं, "सोमारु" (कविता : हिन्दी, मराठी, अंग्रेजी), "आखेटकों के विरुद्ध" (कविता), "अन्त में बची कविता" (कविता), "चिन्तलनार से चिन्तलनार तक" (कविता), "गमक" (ग़ज़ल),"कन्दील में सूरज" (ग़ज़ल), "चुप्पियों का बयान" (ग़ज़ल), "अँधेरे के पार" (ग़ज़ल), "हर्षित है ब्रह्माण्ड" (गीत), "पुनरपि" (संचयन), "सम्बन्धों के एवज में" (कहानी), "ठिबरु" (बाल साहित्य), "सूरज के देश में" (बाल उपन्यास), "वनवासी क्रान्तिवीर" (बाल साहित्य), "अजब कहानी गजब कहानी" (बाल साहित्य), "लंगूरों के देश में" (बाल साहित्य), "अबाबील की सहेली" (बाल साहित्य), "घोंसला बोला" (बाल साहित्य), "आदिवासी क्रान्ति नायक" (बाल साहित्य : कहानियाँ), "तितलीपरी" (बाल साहित्य : नाटक), "ऊँचे रखें इरादे" (बाल साहित्य), "उत्तर बन जायें" (बाल साहित्य : कविता), "गोंड जनजाति का सांस्कृतिक अध्ययन" (शोध : डिंडौरी जिला), "मानव विकास प्रतिवेदन" (शोध : डिंडौरी जिला), "भील जनजाति समूह का प्रतीकवाद" (शोध), "जनजातीय गोदना : सांस्कृतिक अध्ययन" (शोध), "भीली-हिन्दी" (शब्दकोश), "गोंडी-हिन्दी" (शब्दकोश), "कोरकू-हिन्दी" (शब्दकोश)। इनकी प्रकाश्य कृतियाँ हैं, "गुण्डाधूर", "गोन्ची", "रामबोला" (नाटक), "अन्तिम महायुद्ध" (कहानियाँ), "महूफूल" (उपन्यास)। इनके अतिरिक्त उल्लेखनीय साहित्य-सेवियों में स्व. जॉन वेलेजली "चिराग़" (हल्बी एवं हिन्दी कवि, कोंडागाँव), श्री शीतल राम कोर्राम (हल्बी कवि, कोंडागाँव), सर्वश्री सुरेश चन्द्र श्रीवास्तव, शिवसिंह भदौरिया, डॉ. कौशलेन्द्र (कवि, काँकेर), विजय सिंह (कवि एवं रंगकर्मी, जगदलपुर), शिवकुमार पाण्डेय (कवि, नारायणपुर), डॉ. सतीश (पर्यटन लेखक, जगदलपुर), नूर जगदलपुरी (शायर, जगदलपुर), अशोक "चक्र" (छत्तीसगढ़ी कवि, लारगाँव-काँकेर), गणेश यदु (छत्तीसगढ़ी कवि, सम्बलपुर-अन्तागढ़), हिमांशु शेखर झा (लेखक, जगदलपुर), सुभाष पाण्डे (व्यंग्यकार एवं रंगकर्मी, जगदलपुर), योगेन्द्र मोतीवाला (नाटक, जगदलपुर), अवध किशोर शर्मा (कवि, जगदलपुर), राजिन्दर राज (कवि, चारामा), राजेन्द्र श्रीवास्तव "शिरीष" (व्यंग्य कवि, काँकेर), डॉ. सुरेश तिवारी (कवि, तोकापाल-जगदलपुर), राजेन्द्र राठौर (कथाकार, काँकेर), लक्ष्मण गावड़े (कवि, काँकेर), अनुपम जोफर (कवि, काँकेर), प्रेमदास "डंडा काँकेरी" (कवि, काँकेर), इस्माईल जगदलपुरी (कवि, जगदलपुर), पूर्णानन्द "करेश" (कवि, काँकेर), डॉ. कौशलेन्द्र (कवि, काँकेर), बलदेव पात्र (कवि, अन्तागढ़), घनश्याम नाग (हल्बी-हिन्दी कवि, बहीगाँव), उग्रेश मरकाम (हल्बी-गोंडी कवि, कोंडागाँव), बुधेश्वर बघेल (हल्बी कवि, कोंडागाँव), सुश्री मधु तिवारी (कवयित्री, कोंडागाँव) योगेन्द्र देवांगन (कवि एवं व्यंग्यकार, कोंडागाँव), के. एल. श्रीवास्तव (कथाकार, जगदलपुर), केशव पटेल (छत्तीसगढ़ी गीतकार, कोंडागाँव), मनोहर "जख़्मी" (कवि, कोंडागाँव), उमेश मण्डावी (कवि, कोंडागाँव), सी. एल. मार्कण्डेय (छत्तीसगढ़ी गीतकार), हरेन्द्र यादव (कवि, कोंडागाँव), सुश्री बरखा भाटिया (कवयित्री, कोंडागाँव) नरेन्द्र पाढ़ी (कवि एवं रंगकर्मी, जगदलपुर), रुद्रनारायण पाणिग्राही (कवि एवं रंगकर्मी, जगदलपुर), बिक्रम सोनी (कवि एवं रंगकर्मी, जगदलपुर), दादा जोकाल (गोंडी एवं हल्बी कवि, गीदम), डुमन लाल ध्रुव (छत्तीसगढ़ी एवं हिन्दी कवि एवं लेखक), अवधेश अवस्थी (कवि, गीदम) आदि के नाम आते हैं। विजय सिंह की प्रकाशित कृति है, "बंद टाकीज"। इसी तरह के. एल. श्रीवास्तव की प्रकाशित कृतियाँ हैं, "दर्पण", "जगतूगुड़ा की विकास-यात्रा", "कबरी", "दरार", "सहारा", "सफर", "श्वान सम्मेलन" और "आत्म-बोध"। योगेन्द्र देवांगन की 3 कृतियाँ प्रकाशित हैं, "जिसकी लाठी उसकी भैंस", "दौरों का दौरा" और "बात की बात"। राजीव रंजन प्रसाद (बचेली) का उपन्यास "आमचो बस्तर" हाल ही में प्रकाशित हुआ है।
उपर्युक्त साहित्यकारों में से बहुतों की कृतियाँ प्रकाशित हुई होंगी किन्तु मेरी जानकारी में नहीं होने के कारण उनका उल्लेख करना सम्भव नहीं हो पाया है। मैं अपने अल्प ज्ञान के लिये उनसे क्षमा-प्रार्थी हूँ। और उन साहित्यकारों से भी क्षमा-याचना करता हूँ जिनका उल्लेख इस आलेख में अज्ञानता अथवा जल्दबाजी के कारण नहीं किया जा सका है।
जिन साहित्यकारों ने बस्तर में कुछ वर्ष बिताते हुए साहित्य-साधना की है उनमें रसिक लाल परमार (कवि), मनीषराय (कथाकार, कवि), ब्रह्मासिंह भदौरिया (गीतकार), राघवेन्द्र ईटिगी (तेलुगू कवि), अभय कुमार पाढ़ी (ओड़िया कवि), जब्बार ढाँकवाला (व्यंग्यकार), शंशाक (कथाकार), हृषीकेश सुलभ (कथाकार), हबीब राहत "हुबाब" (शायर), रमेश अनुपम (कवि एवं समीक्षक), संजीव बख्शी (कवि), तिलक पटेल (कवि), डॉ. देवेन्द्र "दीपक" (कवि), रमेश अधीर (गीतकार), त्रिजुगी कौशिक (कवि एवं छायाकार), राजुरकर राज (कवि) और रामराव वामनकर (कवि-गीतकार-गजलगो), राजेन्द्र गायकवाड़ (कवि) आदि के नाम याद आते हैं।


"ककसाड़" के बहाने
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हरिहर वैष्णव 
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बस्तर अंचल (छत्तीसगढ़) के कोंडागाँव कस्बे से "ककसाड़" नामक पत्रिका का प्रकाशन होने जा रहा है। इसके दीर्घजीवी और चर्चित होने के लिये मेरी अनन्त शुभकामनाएँ। मुझे इस बात की खुशी है कि यह नाम बस्तर अंचल की सांस्कृतिक राजधानी के नाम से अभिहित इसी नगरी से वर्ष 1997 से 1998 के बीच प्रकाशित हुई पत्रिका "ककसाड़" से ही अनुप्राणित है। इस पत्रिका के कुल मिला कर तीन ही अंक निकल सके और जैसा कि प्राय: लघु पत्रिकाओं के साथ विडम्बना जुड़ी होती है, यह भी चौथे अंक तक नहीं पहुँच सकी। 

बहरहाल, यह नाम इस पत्रिका को कैसे दिया गया और इसका अर्थ क्या है, यह जानने के लिये मुझे आपको कुछ वर्षों पहले ले चलना होगा। सुप्रसिद्ध समकालीन कवि और हाल ही में अपने पहले ही उपन्यास "भूलन कान्दा" से विश्वस्तर पर चर्चित और प्रसिद्धि प्राप्त श्री संजीव बख्शी जी के जगदलपुर से कोंडागाँव आगमन के साथ ही यहाँ की साहित्यिक गतिविधि पहले से कुछ अधिक गतिशील हो गयी थी। इसी गतिशीलता के एक चरण के रूप में उन्होंने मेरे सामने एक प्रस्ताव रखा था, यहाँ से एक अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका के प्रकाशन का। चर्चा चलती रही। मन्थन होता रहा। फिर नामकरण की बात हुई तो मैंने उन्हें सुझाया "ककसाड़"। उन्होंने पूछा इसका अर्थ क्या है? मैंने विस्तार में न जा कर अपने अल्प गोंडी ज्ञान के आधार पर इसके सार-रूप के तौर पर बताया "आराधना"। यही प्रश्न परम आदरणीय श्री शिवमंगल सिंह "सुमन" जी ने भी पूछा था, जब मैंने उन्हें इस पत्रिका के प्रकाशन की सूचना देते हुए उनसे आशीर्वचन चाहे थे। उत्तर जान कर वे बहुत प्रसन्न हुए थे और लिखा था, ""यह जान कर बड़ी प्रसन्नता हुई कि आप आदिवासी बहुल बस्तर अंचल की सांस्कृतिक राजधानी कोंडागाँव से शीघ्र ही एक अनियतकालीन साहित्यिक लघु पत्रिका "ककसाड़" के प्रकाशन की तैयारी कर रहे हैं। आदिवासी क्षेत्र में आराधना के रूप में इस पत्र का आरम्भ कर निश्चय ही आप सर्जना के ज्योतिर्मय स्वरूप का आह्वान कर रहे हैं। तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले क्षेत्र से दूर, सुदूर अंचल में इस अनुष्ठान का बड़ा महत्त्व है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप अपनी निष्ठा और संवेदनशील रचनात्मकता से वहाँ की नयी पीढ़ी का पथ प्रशस्त कर सकेंगे। इस नैष्ठिक कार्य के लिये मेरी हार्दिक मंगलकामना स्वीकार कीजिये। सस्नेह एवं साभार।""

इसी तरह सुप्रसिद्ध कथाकार और प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका "पहल" के सम्पादक श्री ज्ञानरंजन जी ने लिखा था, ""आदिवासी अंचल से "ककसाड़" नाम की पत्रिका निकालने का विचार और प्रयास अपने आप में बहुत ही मूल्यवान है। हमारे आदिवासी और जनजातीय अंचलों की रचनाशीलता इस प्रकार तथाकथित सभ्य संसार तक पहुँच सकेगी। हम तो यह भी मानते हैं कि देश की यही मुख्यधारा है जो आज हाशिये पर है और धूमिल है। जिस तरह एक इलीट या भद्र समाज ने सारे तत्व पर कब्जा कर लिया है और उसके अनंत हाथ हैं समेटने के लिये, उसी तरह एक छोटे प्रयास से मंद ही सही हमें अपना चिराग जलाते रहना  होगा। आप पराजित न हों और इसे यानी "ककसाड़" को निरंतर निकाल कर बस्तर की वास्तविक आवाज प्रस्तुत कर दें। हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।"" 
सुप्रसिद्ध कवि एवं आलोचक एवं उस समय भारतीय भाषा परिषद्, कलकत्ता के सचिव रहे श्री प्रभाकर श्रोत्रिय जी ने लिखा था, ""ककसाड़" के प्रकाशन की सूचना मिली। आभारी हूँ। आपने पत्रिका के शीर्षक के लिये गोंडी का शब्द चुना, यह बहुत बढ़िया है। आपकी "आराधना" सफल हो और पत्रिका के माध्यम से आप बस्तर तथा अन्यत्र के रचनाकारों की वाणी का प्रसार कर सकें, यही कामना है। आप सब स्वस्थ-सक्रिय होंगे।""
आलोचना के शिखर पुरुष और डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. (प्रो.) धनंजय वर्मा जी ने लिखा था, ""यह जान कर अच्छा लगा कि आप बहुत जल्द ही कोंडागाँव, बस्तर से एक अनियकालीन साहित्यिक लघुपत्रिका "ककसाड़" का सम्पादन और प्रकाशन कर रहे हैं। बस्तर की किसी भी साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधि से स्वाभाविक ही मेरा एक भावात्मक रिश्ता सहज ही बन जाता है। मैं कामना करता हूँ कि आप अपने मित्रों और सहयोगियों के समवेत प्रयत्न में सफल मनोरथ हों और बस्तर की साहित्यिक "आराधना" पूरे साहित्यिक जगत में प्रकाश केन्द्र बने.....अशेष मंगलकामनाओं के साथ।""
वहीं स्व. लाला जगदलपुरी जी ने इस नाम की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए लिखा था, ""ककसाड़" नाम के कलेवर में "समकालीन सृजन" का समावेश सामंजस्य स्थापित नहीं कर सकेगा। सोचो। अभी समय है। "भूमकाल" नाम उपयुक्त  होगा। परामर्शदाता के रूप में मेरा नाम रख सकते हो। तुम्हें हक है।""
स्व. लालाजी का यह सुझाव बहुत ही सटीक था किन्तु तब तक बहुतेरे लोगों को पत्र जा चुके थे और कइयों के उत्तर आ भी गये थे। शीर्षक का प्रारूप भी मेरे अनुज खेम वैष्णव ने तैयार कर लिया था। सो "ककसाड़" नाम ही अन्तिम रूप पा सका। बहरहाल। "ककसाड़" के तीनों ही अंक बस्तर अंचल, विशेषत: कोंडागाँव के ही सहृदय साहित्यकारों के  रचनात्मक और आर्थिक सम्बल से मेरे सम्पादन में प्रकाशित हो सके थे। भाई जगदीश "वागर्थ" इसके सम्पादन-सहयोगी थे। इन तीनों अंकों का मुद्रण अकरम स्क्रीन, जगदलपुर से हुआ था। मैं इसके लिये सभी सहयोगियों का हृदय से आभारी हूँ। 
अब देखें कि "ककसाड़" है क्या? क्या अर्थ है इस शब्द का और किस भाषा का है यह शब्द? बस्तर अंचल की सबसे बड़ी आबादी द्वारा बोली जाने वाली जनभाषा "गोंडी" का यह शब्द दरअसल अलग-अलग क्षेत्र में "करसाड़" और "खड़साड़" नाम से भी जाना जाता है। इसे "पेन करसाड़" भी कहा जाता है। "पेन" यानी देवता और "करसाड़" या "ककसाड़" अर्थात् "जतरा" या "जातरा" (पूजा, यात्रा)। गोंडी परिवेश का यह अतिविशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण पर्व देवी-देवताओं की वार्षिक एवं भव्य पूजा-अर्चना का पवित्र अवसर होता है। एक निश्चित परिधि में निवास करने वाले गोंड जनजाति के युवक-युवती, आबाल-वृद्ध सभी इस पूजा-अर्चना में किसी एक नियत गाँव में जुटते हैं और यह भव्य पूजा-अर्चना सम्पन्न होती है। इस आयोजन में युवक-युवतियों की विशेष भूमिका होती है। सारा उत्तरदायित्व उन्हीं का होता है। धार्मिक प्रमुख पूजा-अर्चना सम्पन्न कराते हैं जबकि युवक-युवती देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिये माँदर आदि लोक-वाद्य की संगत में नृत्य प्रस्तुत करते हैं।
"बस्तर के पेन परब" पुस्तक (सम्पादक : किरण नुरुटी) में प्रकाशित अपने लेख "ककसाड़ : पेन करसीता" में श्रीमती बसंत नाग लिखती हैं : ""ककसाड़" वस्तुत: बस्तर की गोंड जनजाति की माड़िया शाखा का प्रमुख नृत्य प्रधान पर्व है जो सामान्यत: मई मध्य से ज्येष्ठांत तक मनाया जाता है। ग्रीष्म ऋतु के अवसान और वर्षा के आगमन के साथ ही घोर और अबूझ पहाड़ियों में अबुझमाड़िया आदिम जाति के युवा हृदय "ककसाड़" की अगवानी में धड़कने लगते हैं। वे ककसाड़ नृत्य-पर्व के लिये आतुर हो उठते हैं।  इस नृत्य का स्वरूप धार्मिक है। शाब्दिक दृष्टिकोण से ककसाड़ शब्द द्रविड़ भाषा के कर्स शब्द से सम्बन्धित है, जिसका सम्बन्ध नृत्य से होता है। अत: स्पष्ट है देवताओं से सम्बन्धित नृत्य "ककसाड़" है। और यह एक प्रकार से जात्रा नृत्य (धार्मिक नृत्य) भी है, जिसमें आदिवासी समूह अपने आराध्य देव की पूजा-अर्चना कर उनकी प्रतिमा (प्रतिरूप) का जुलूस निकालते समय नृत्याभिनय प्रस्तुत कर अपनी आस्था और संवेदनाओं को प्रदर्शित करते हैं। इसलिये यह नृत्य स्वाभाविक रूप से संगीतमय होता है।""  
अब थोड़ी-सी बात कोंडागाँव कस्बे से प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिकाओं की। मैं नहीं जानता कि "प्रस्तुति" के प्रकाशन के पहले और किसी साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन कोंडागाँव से हुआ था या नहीं। किन्तु मेरे जानते सबसे पहले यहाँ से प्रकाशित हुई थी त्रैमासिक लघु पत्रिका "प्रस्तुति", जिसका पहला अंक "साइक्लोस्टाइल्ड" था। इसके बाद इसका दूसरा अंक प्रेस से मुद्रित रूप में प्रकाशित हुआ। इस मुद्रित अंक के बाद इसके प्रकाशन पर विराम लग गया। यों तो इसके सम्पादक-मण्डल में मैंने चार महानुभावों के नाम दिये थे किन्तु वस्तुत: सम्पादन और प्रकाशन का सारा भार मैंने वहन किया था। सामग्री-संकलन से ले कर टायपिंग, साइक्लोस्टाइलिंग, पिनिंग अप और वितरण तक; सब कुछ। हाँ, मैंने अपना नाम इस पत्रिका के सम्पादक या प्रकाशक के रूप में नहीं दिया था और न ही अपनी कोई रचना प्रकाशित की थी। 
मुझे बहुत अच्छी तरह याद है, जब 10 अप्रैल 1979  को इस पत्रिका का विमोचन "बस्तर क्लब" में हिन्दी के सुप्रसिद्ध कथाकार (स्व.) मनीष राय जी और हल्बी के अन्यतम कवि श्री सोनसिंह पुजारी जी की उपस्थिति में आकाशवाणी के तत्कालीन केन्द्र निदेशक श्री राघवेन्द्र ईटिगी द्वारा "बस्तर के महाकवि" (स्व.) लाला जगदलपुरी जी की अध्यक्षता में किया गया तब इन चारों ही महानुभावों ने इस बात पर "घोर आपत्ति" की थी कि जिस व्यक्ति ने सारा परिश्रम किया उसी का नाम सम्पादक-मण्डल में नहीं है। मैं चुप रह गया था। मैंने यह इसीलिये किया था ताकि सभी लोग जुड़े रह सकें और मुझ पर "सम्पादक" बनने की "चाह" में की गयी चेष्टा का आरोप न लग सके। बहरहाल, मैं "प्रस्तुति" के लिये रचनाएँ जुटाता फिरा। बस्तर और बस्तर से बाहर के भी रचनाकारों से। (स्व.) नारायण लाल परमार जी, श्री त्रिभुवन पाण्डे जी, स्व. चेतन आर्य जी, स्व. लतीफ घोंघी जी से रचना-सहयोग लिया। इस अंक में जिन रचनाकारों की रचनाएँ प्रकाशित हुई थीं वे थे, स्व. नारायणलाल परमार, स्व. लाला जगदलपुरी, सर्वश्री आर. सी. मेरिया, अभय कुमार पाढ़ी, गोपाल सिम्हा, शंकरलाल क्षत्री, मिर्जा बदरुल हसन "सौदाई", मोहन जैन, विजय वानखेड़े, मनोहर नेताम, सुरेन्द्र रावल,  प्रह्लाद पटेल, पारसनाथ मिश्रा, सोनसिंह पुजारी, राघवेन्द्र ईटिगी, रामेश्वर वैष्णव, लतीफ घोंघी, राजेन्द्र राठौर, मनीषराय यादव, बिमल चन्द्र गुप्ता, योगेन्द्र देवांगन, चितरंजन रावल, सुश्री नसीम  रहमान और सुश्री उषा लता जारी। और इस दूसरे अंक के साथ ही "प्रस्तुति" की यात्रा थम गयी। 
फिर इसके बाद एक और पत्रिका "घूमर" नाम से प्रकाशित हुई, जो "बस्तर सम्भाग हल्बी साहित्य परिषद्" का प्रकाशन थी और इसमें बस्तर की जनभाषाओं की ही रचनाओं को स्थान दिया गया था। इसके सम्पादक-मण्डल में भी (स्व.) लाला जगदलपुरी जी एवं अन्य चार लोगों के नाम थे, जिनमें मेरा नाम यथापूर्व शामिल नहीं था। इसके पीछे भी मंशा यही थी कि मुझ पर "सम्पादक बन जाने" की लालसा का ठप्पा न लग जाये। किन्तु दुर्भाग्य से यह पत्रिका भी एक ही अंक के बाद बन्द हो गयी। 
इसके बाद जन्म हुआ "ककसाड़" नामक अनियतकालीन पत्रिका का। श्री संजीव बख्शी जी के प्रोत्साहन और जगदीश "वागर्थ" के सहयोग से और इन दोनों के ही आग्रह के परिणाम-स्वरूप मेरे सम्पादन में "स्क्रीन प्रिÏन्टग" विधि से इस पत्रिका का पहला अंक जनवरी-मार्च 1997 में प्रकाशित हुआ। दूसरा अंक अप्रैल-जून 1997 में एवं तीसरा अंक जुलाई 1998 में। बस! यही तीसरा अंक "समापन अंक" साबित हुआ। इन तीनों ही अंकों के लिये स्थानीय साहित्यकारों एवं कुछ विज्ञापन-दाताओं ने रचना एवं आर्थिक सम्बल प्रदान किया था। यह भूलने वाली बात नहीं है। किन्तु इस तरह के अल्पकालिक सहयोग से भला किस तरह कोई पत्रिका दीर्घजीवी हो सकती थी? स्पष्ट है, सभी पत्रिकाओं के अल्पजीवी होने के पीछे केवल एक ही कारण था, अर्थाभाव। इन तीनों अंकों में क्रमश: फिर अभी पिछले ही वर्ष "छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद्" के बैनर-तले अस्तित्व में आयी एक और लघु पत्रिका "चेलिक"। अब तक इसके दो अंक निकल चुके हैं। आगे कितने निकल पाएँगे, कहा नहीं जा सकता। सुनने में आया है कि "चेलिक" पर भी आर्थिक संकट के घने बादल घिर आये हैं। दूसरा अंक बड़ी ही कठिनाई से निकल सका है। किन्तु अब प्रकाशित होने जा रही पत्रिका "ककसाड़" इस अर्थाभाव से सम्भवत: ग्रसित नहीं होगी और दीर्घजीवी होगी, ऐसा विश्वास है। कारण, इससे जुड़े लोग सामथ्र्यवान हैं। इस पत्रिका के दीर्घजीवी, सार्थक और ख्यात होने के लिये मेरी अशेष शुभकामनाएँ। 
अन्त में मैं यहाँ "प्रस्तुति", "घूमर" और "ककसाड़" के प्रकाशन से किसी भी तरह जुड़े, चाहे वे नाम से ही जुड़े क्यों न हों, सभी सहयोगियों का आभार व्यक्त करना अपना नैतिक दायित्व समझता हूँ। इसी तरह प्रकाश्य पत्रिका "ककसाड़" हेतु आलेख माँगने हेतु मान्यवर डॉ. राजाराम त्रिपाठी जी का भी आभार।