इस बार प्रस्तुत है, "नवभारत", दिनांक 5 जुलाई 1984 अंक में प्रकाशित यह रपट :
अभी-अभी हमने अन्तर्राष्ट्रीय बाल-वर्ष बड़े ही धूम-धाम के साथ मनाया है और विभिन्न आँकड़ों के माध्यम से न केवल हमने यह साबित करने की कोशिश की है, बल्कि आश्वस्त भी हो गये हैं कि हमारे बच्चों का विकास, शारीरिक और मानसिक, दोनों ही स्तरों पर काफी हद तक हुआ है। हमने उनके समुचित विकास के लिये करोड़ों रुपये की सार्थक (?) योजनाएँ बनायी हैं और हम सदैव इसके लिये कृत-संकल्प भी हैं।
लेकिन क्या ये आँकड़े तथ्यों पर आधारित हैं? यदि हाँ, तो आज भी सौ में से बीस बच्चे यह कहने को क्यों विवश हैं कि हमारे भाग्य में तो जूठे कप-प्लेट उठाना, और बाकी बची खुरचन खाना ही लिखा है....। आखिर क्यों...? बच्चे आज कुपोषण के शिकार होकर अकाल मृत्यु को क्यों प्राप्त हो रहे हैं? उनमें आपराधिक भावनाएँ क्यों घर कर रही हैं और क्यों उनका शारीरिक-बौद्धिक विकास न केवल रुका है, अपितु कुन्द भी पड़ता जा रहा है? तो इन सारे प्रश्नों के उत्तर में केवल आर्थिक मुद्दा ही उभर कर सामने आता है। दरअसल जब तक हम अपने आर्थिक ढाँचे को बदल कर सुदृढ़ नहीं कर लेते, तब तक ऐसी किसी भी समस्या का समाधान खोज पाना मुश्किल ही है।
किसी बच्चे को किसी होटल में जूठी प्लेट उठाते, जलाऊ लकड़ी बेचते या अखबार बाँटते देख कर यह कहना कि बच्चा संघर्षशील है और यह भी कि संघर्ष ही जीवन है, केवल अपने दिल को बहला लेने के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। निश्चित ही ऐसी सोच तमाम ज्वलंत समस्याओं से मुँह फेर लेना ही होगा। और ऐसा कर हम अपनी जिम्मेदारियों से कतई मुक्त नहीं हो सकते। हाँ, इसके लिये न केवल सरकार को काम करना है, बल्कि हम सभी को, हमारी अन्यानेक समाज-सेवी संस्थाओं को भी इसके लिये पहल, सार्थक पहल, करनी होगी।
हालाँकि सरकार ने कानूनन बारह वर्ष से कम उम्र के बच्चों से काम लेने पर रोक लगा रखी है, किन्तु वस्तुत: कितने लोग इस कानून का पालन करते हैं? और सरकार कानून का उल्लंघन करने वाले ऐसे कितने लोगों को सजा दे पाती है, यह भी एक प्रश्न है। किन्तु उससे भी बड़ा सवाल यह है कि यदि ये बच्चे काम न करें तो खाएँगे क्या? और यदि इन्हें काम पर लेने से रोक भी दिया जाता है, तो ये निश्चित ही भीख माँगने लग जाते हैं और आपराधिक वृत्तियों में भी संलग्न हो जाते हैं।
इनकी इन विवशताओं का लाभ असामाजिक एवं आपराधिक तत्व उठाते हैं। वे अपने सुगठित गैंग बना कर भिक्षावृत्ति के धंधे से इन्हें लगा देते हैं या जेब काटने, चोरी करने जैसे अन्य अनेक अपराधों के लिये इनका न केवल उपयोग करते हैं, बल्कि उनका भरपूर आर्थिक-शारीरिक शोषण भी। और यह आर्थिक-शारीरिक शोषण होटल-मालिकों या अन्य प्रतिष्ठानों द्वारा भी भरपूर किया जाता है। इस तरह ये बच्चे कहीं भी, किसी भी स्थिति में न तो सुरक्षित हैं और न ही स्वतन्त्र।
आइये, ऐसे चंद कामकाजी बच्चों से आपकी मुलाकात कराएँ और उन्हें समझने की कोशिश करें। जानें कि किन परिस्थितियों के अधीन उन्हें जूठी प्लेट उठाने और बाकी बची खुरचन खाने को विवश होना पड़ता है। अपने शरीर के अनुपात से अधिक वजन की काँवड़ उठाना जिनकी नियति है और धूप-शीत-बरसात की परवाह किए बगैर आपकी सुख-सुविधा के साधन जुटाना जिनकी मजबूरी.....! आइए उनसे करें एक मुलाकात :
परभूदास एक टपरीनुमा होटल में काम करने वाला नौ-दस साल का हरिजन बालक है। एकदम चीकट सनी एक शर्ट और काफी हद तक फट कर चीथड़ा हुआ जा रहा पैन्ट पहने वह बड़ी ही तत्परता से ग्राहकों को चाय-पानी दे रहा था। आँखों में एक विशेष किस्म की चमक, शरीर में स्फूर्ति और ग्राहकों से बात करने का उसका तरीका..........।
यह सब देख कर लगता ही नहीं कि वह नौ-दस साल का बच्चा है। लेकिन जब हम उससे उसका नाम पूछते हैं तो पहले तो वह सहमी हुई आवाज में उत्तर देता है, फिर ढाढ़स बँधाने पर सामान्य हो जाता है और निर्भीक हो कर हमारे प्रश्नों के उत्तर देता है :
"क्या नाम बताया तुमने अपना?"
"परभूदास।"
"तुम्हारे पिता का नाम?"
"फगनूदास।"
परभू नहरपारा, कोंडागाँव का रहने वाला है।
"यह होटल किसका है?"
"दयालू दादा का।"
"तो क्या वह तुम्हारा सगा भाई है?"
"नहीं। दूसरे पिताजी का, दूसरी माँ का है।"
दरअसल वह स्पष्ट नहीं कर पा रहा था, लेकिन उसके कहने का मतलब यह था कि यों ही, पारा-पड़ोस में रहने के कारण उस होटल-मालिक से भाई का रिश्ता बन गया है।
"तो तुम यहाँ काम करते हो?"
"हाँ," उसका संक्षिप्त-सा उत्तर।
"बदले में पैसे देता होगा?"
"नहीं।" नकार में उसका सिर हिलता है। तभी पास में बैठा एक व्यक्ति उससे कहता है, "देता है, बोल न बे।" और हम उसे टोक देते हैं, "आप चुप रहिए भाई। वह जो कह रहा है, उसे कहने दीजिये।"
"हाँ परभूदास, बताओ पैसा-वैसा देता है, काम करने का न?" हम दुबारा उससे मुखातिब होते हैं।
"नहीं, ऐसे ही खाना-पीना देता है।" बोलते हुए वह सकपका जाता है।
"तुम पढ़ने क्यों नहीं जाते?" हमारा प्रश्न हमारा ही मुँह चिढ़ा रहा था। किन्तु फिर भी, शायद औपचारिकता के सामने वास्तविकता को हमेशा नकारने की हमारी आदत हमें यह प्रश्न करने को उकसा रही थी।
"पढ़ रहा था। तीसरी कक्षा तक पढ़ा।" एक पल के लिये उसकी आँखों में तेजी से एक चमक उभरी फिर यथावत् : "बाद में छोड़ दिया।"
"क्यों?"
"गुरुजी ने छुड़ा दिया। साटीफिकट लाने को बोला था, मैं नहीं लाया।"
परभूदास बाँसकोट नामक गाँव में रहता था और वहीं पढ़ रहा था। जब वे लोग कोंडागाँव आये तो बाँसकोट स्कूल से शाला स्थानान्तरण प्रमाण-पत्र नहीं ला पाए। इससे उसे यहाँ के स्कूल में प्रवेश नहीं दिया गया। "बाँसकोट बहुत दूर है।" वह बतलाता है और खामोश हो जाता है।
"तुम्हारे घर में कितने लोग हैं? "
"मेरी बहनें, मेरे माँ-बाप, सब हैं। मुझे मिला कर कुल छह लोग।" वह बिना गिने ही जवाब देता है।
"काम कौन-कौन करते हैं?"
"मैं करता हूँ। मेरी माँ और बहनें भी करती हैं। मेरा बाप काम नहीं करता। उसके पैर नहीं चलते और हाथ भी। तीन साल हो गये।" उसके मुख पर पीड़ा की एक गहरी परछाईं उभर आती है और आँखें तरल हो उठती हैं। फिर वह बताता है, "पहले तो अच्छे थे, लेकिन ऐसा कैसे हो गया पता नहीं।"
"तुम यहाँ काम क्यों करते हो?" तथाकथित सभ्य और बुद्धिजीवी कहलाने का खोखला वहम फिर से यह प्रश्न करता है।
"यहाँ खाना मिलता है, न। हमारे घर में बहुत लोग हैं, इसलिये खाना पूरा नहीं पड़ता।"
परभू सुबह सात बजे से रात नौ बजे तक काम करता है। दोपहर और रात का खाना वहीं होटल में खाता है। बस, यही उसका मेहनताना है। उसका कहना है कि यदि सर्टिफिकेट मिल जाए तो वह भी पाठशाला जाने को तैयार है और पाठशाला से आने के बाद होटल में काम भी करेगा। लेकिन प्रश्न यह है कि उसे कौन दिलायेगा उसका शाला स्थानान्तरण प्रमाण-पत्र?
इधर, अपेक्षाकृत एक बड़े होटल में काम करता है, सुकमन। सुकमन मालाकोट गाँव का रहने वाला है। कोंडागाँव से 15-20 किलोमीटर के फासले पर है उसका गाँव मालाकोट। वह एक आदिवासी बालक है। वह अपनी उम्र पन्द्रह वर्ष बताता है। पाठशाला कभी नहीं गया।
"तुम अपना घर छोड़कर यहाँ क्यों आये?"
"कमाने आया। हमारे गाँव में काम नहीं मिलता।"" फिर उसने बताया, "घर पर मेरी माँ है और दो भाई भी। मेरे पिता नहीं हैं। उनकी मृत्यु हो गयी है। हमारी दो एकड़ खेती है। लेकिन अभी बँटवारा नहीं हुआ है, इसलिये मैं कोंडागाँव आया। कमाने के लिये।"
"तुम पढ़े क्यों नहीं?"
"घर वालों ने नहीं पढ़ाया। और फिर हमारे गाँव में पाठशाला भी नहीं है। बहुत दूरी पर है, बड़े पारा में। घर वालों ने कहा कि तुम पढ़ कर क्या करोगे? यहाँ कमा कर कौन लायेगा? तो मैं पढ़ने नहीं जा सका।"
"यहाँ कितनी रोजी मिलती है, तुमको?"
"तीन रुपये मिलते हैं।"
"ये कप-प्लेट, जूठा उठाना, ये सब अच्छा लगता है तुम्हें?"
"तब और कौन सा काम करेंगे? मुझे तो अच्छा लगता है। मेरा बाप जिन्दा होता तो मैं काम के लिये इतनी दूर मरने को आता?" फिर वह पाठशाला जा रहे बच्चों की ओर इंगित करते हुए कहता है, "अभी आप पूछ रहे थे न कि मैं क्यों पाठशाला नहीं गया? मुझे भी पढ़ाई करने का बहुत मन था। लेकिन मुझे मेरे घर वालों ने ही मना कर दिया। अब भला क्या पढ़ सकता हूँ?" मैं उसकी हसरत भरी नजरों से निगाहें नहीं मिला पाता कि तभी एक और बालक वहाँ आ जाता है। चड्डी-बनियान पहने हुए ही। आते-आते उसने सुकमन की बात सुन ली है, तभी तो वह आते ही बोल पड़ता है, "पढ़ाते नहीं कोई। बोलते हैं, कमा कर लाओ तब खाना मिलेगा।"
इस बालक का नाम है सुरेश। लगभग परभूदास की ही उम्र का सुरेश जामकोटपारा, कोंडागाँव का रहने वाला है। यह बालक भी एक भोजनालय में काम करता है। कस्बाई क्षेत्र का रहने वाला होने के कारण बातचीत में काफी चुस्त और उसकी भाषा में भी उस परिवेश का काफी प्रभाव है।
"तुम भी कहीं काम करते हो?" हम उसकी ओर मुखातिब होते हैं, तभी सुकमन को उसका होटल-मालिक पुकारता है और हम उसे रोक नहीं पाते। वह चला जाता है।
"हाँ, इस दूसरे होटल में।" सुरेश कहता है।
"क्या काम करते हो, वहाँ?"
"हम वहाँ प्लेट धोते हैं।" सुरेश इतनी तीव्रता से और लगभग प्रसन्नता में चीखने जैसी आवाज में बोलता है कि सुन कर मैं भीतर तक काँप उठता हूँ। कितना आतंकित कर देने वाला स्वर है उसका; यानी एक आठ-दस बरस के बच्चे का! इतनी सरलता से बोल पाना हमारे लिये कितना कठिन होता है, जितनी सरलता से, सहज हो कर उसने कहा था। दरअसल उसकी सरलता ही तो भीतर तक बेधने वाली और उस बच्चे, उस जैसे कई बच्चों के भविष्य के प्रति चिंतित नहीं, बल्कि विचलित कर देने के लिये काफी थी। मतलब यह कि उसे अपने काम से कोई शिकवा नहीं। अपने अस्तित्व के प्रति कोई चिंता नहीं। जैसे उसे अच्छी तरह मालूम हो कि उसका भविष्य एकदम निश्चित है, वह हमेशा जूठी प्लेटें ही धोता रहेगा, और उसी में उसके जीवन की सार्थकता है; कि उसका जन्म ही जूठी प्लेटें धोने के लिये हुआ है। कितनी बड़ी त्रासदी है! मुझे बाद में सुरेश पर काफी गुस्सा आ रहा था कि क्यों उसने इस तरह उद्वेलित और भयभीत कर देने वाला जवाब दिया? क्यों नहीं उसके मन में स्थितियों के प्रति असन्तोष उभरा और क्यों नहीं वह अपने-आपको उससे मुक्त करना चाहता? और यह भी कि आखिर उसने इतनी स्वाभाविकता से क्यों उसे स्वीकार कर लिया कि वह प्लेट धोने के काम में ही खुश है? क्यों.....? लेकिन मैं उससे यह प्रश्न कर भी न सका.....क्योंकि मुझमें न तो प्रश्न करने का नैतिक साहस रह गया था और न उसके उत्तर को सुन पाने या उत्तर में किए गये प्रति-प्रश्न का उत्तर दे पाने की मुझमें हिम्मत रह गयी थी........। आज भी वह साहस नहीं जुटा पाया हूँ मैं। क्योंकि मैं जानता हूँ कि उसका उत्तर क्या होगा? होगा एक प्रति-प्रश्न.......बल्कि कई प्रश्न कि आखिर मैं यह काम न करूँ तो क्या भूखा मरूँ? क्या तुम मुझे खाना-कपड़ा दोगे....? ......क्या कर सकोगे तुम लिखने-पढ़ने वाले लोग......? जब हमारे भाग्य में ही जूठी प्लेटें उठाना और बाकी बची खुरचन ही खाना लिखा है, तो क्या तुम्हारे कहने से यह सब बदल जाएगा? और....और पता नहीं क्या-क्या? फिर भला मैं मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ कर क्यों मुसीबत मोल लूँ? है न सही बात?
"तुम्हें मेहनताना क्या मिलता है यहाँ?" मैंने भयग्रस्त हो चट् से बात बदल ली।
"दस रुपये हफ्ता और खाना-पीना।" उसके मुस्कराते होंठ हिलते हैं और मेरी दहशत फिर बढ़ जाती है।
"घर में कौन-कौन हैं?"
"पिताजी हैं केवल। वो गद्दा-रजाई सीने का काम करते हैं। माँ नहीं है। पिछले साल मर गयी।" कहते हुए भी सुरेश का चेहरा न तो कुम्हलाया और न आँखें ही पनियल हुईं। यानी सब-कुछ मेरी आशाओं के विपरीत.....।
"पढ़ते नहीं?"
"नहीं।" सपाट उत्तर, "पढ़ने की इच्छा ही नहीं होती। और फिर घरवाले भी तो नहीं पढ़ाते।"
मुझे लगता है, लड़का बड़ा ढीठ है। मैं उससे सामान्य होने का प्रयास करता हुआ पूछता हूँ, "और सिनेमा कितना देखते हो?"
वह मुस्कराता है, "महीने में एक बार।"
"पैसे का क्या करते हो?"
"पिताजी को देते हैं। वे उससे चावल-दाल लेते हैं।" बड़ी ही तत्परता से, लेकिन एक जवाबदार व्यक्ति की तरह उसका जवाब है। मैं महसूसने लगता हूँ कि लड़का आठ-दस बरस का नहीं, एक प्रौढ़ व्यक्ति है......तमाम अनुभवों से गुज़र कर पका हुआ आदमी। और मैं स्वीकार करता हूँ कि इस आठ-दस साल के प्रौढ़ के सामने मैं निरा बच्चा हूँ....एक दूध पीता बच्चा!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति. एक छोटू की कहानी अभी अभी ही कहीं पढ़ा.
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ReplyDelete5 जुलाई 1984 को जब यह संस्करण नवभारत में छपा था, तब मै 1 साल था अंकल जी, परभूराम की यह लेख पढ्कर अच्छा लगा
ReplyDeleteपरिस्थितियों के मारों की कहानी, उनकी जुबानी।
ReplyDeleteकाल को बेमानी कर देने वाली कहानी.
ReplyDeleteAap sabhii kaa aabhaar.
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