पिछले एक पोस्ट में मैंने बस्तर-माटी के अन्यतम हल्बी कवि श्री सोनसिंह पुजारी के विषय में संक्षेप में चर्चा की थी। इस पोस्ट में उनके विषय में विस्तार से चर्चा है और है उनकी कविता "पोरटा"। यह ध्वन्यांकन मैंने 28 अगस्त 2008 को मेरे निवास पर किया था । मेरे अनुरोध पर श्री पुजारी जी ने मुझ पर अत्यन्त कृपा की और अस्वस्थता के बावजूद जगदलपुर से कोंडागाँव पधारे थे, जहाँ मेरी उनसे लम्बी बातचीत हुई थी और उन्होंने अपनी कविताएँ भी ध्वन्यांकित करायीं। इसके लिये मैं उनका आभारी हूँ। दरअसल मैं चाहता था की वे कविताओं का सस्वर पाठ करते किन्तु उनके गले की शल्यक्रिया होने के कारण ऐसा संभव नहीं हो सका. यहाँ मैं उनके स्वर में ही उनकी कविता प्रस्तुत करना चाहता था किन्तु कुछ तकनीकी कारणों से फिलहाल यह संभव नहीं हो पा रहा है. प्रयास करूंगा कि बहुत जल्द ऐसा संभव हो सके.
श्री पुजारी का जन्म पाठशाला-अभिलेख के अनुसार 01 जुलाई 1942 को बस्तर अंचल के बजावँड नामक गाँव में एक आदिवासी परिवार में हुआ। पिता का नाम था स्व. रामसिंह और माता का नाम था स्व. कौशल्या। किन्तु, जैसा कि वे बताते हैं, यह तिथि वास्तविक नहीं अपितु अनुमानित है। कारण, गाँवों में तब जन्म-तिथि की जानकारी किसी को भी नहीं हुआ करती थी। लोग पढ़े-लिखे नहीं थे। इसीलिये पाठशाला में प्रवेश के दौरान शिक्षक अनुमान से बालक की जन्म-तिथि अंकित कर लिया करते थे। जब इनका जन्म हुआ तब बस्तर की आदिवासी एवं लोक-परम्परा के अनुसार माता-पिता और अन्य सगे-सम्बन्धी इनके अंग-प्रत्यंग में कुछ चिन्ह खोजने लगे जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि किस पूर्वज ने इस बालक के रूप में पुनर्जन्म लिया है। इस खोज से उन्हें पता चला कि इनके एक कान में छेद है। यह छेद श्री पुजारी के कान में आज भी यथावत् है। बहरहाल, उस चिन्ह को देख कर यह निर्धारित कर दिया गया कि यह बालक बन्दीजाऊ का ही पुनर्जन्म है। "बन्दीजाऊ" इनके घराने में एक पूर्व पुरुष थे। उन्हें "बन्दीजाऊ" कहते थे। कारण, उन्हें बन्दी बनाया गया था और जेल की सजा हुई थी। 14 साल की जेल की सजा हुई थी। इसीलिये उनका नाम बाद में "बन्दीजाऊ (बन्दी हो जाना, या जेल जाने वाला)" पड़ गया था। बताते हैं कि, "बन्दीजाऊ" अपनी सजा पूरी करने के बाद जब वापस आये तो वे लाल कालीन्द्र सिंह के सहयोगी बने। जब तक वे जीवित थे, वे लाल कालीन्द्र सिंह के साथ ही बने रहे। "बन्दीजाऊ" अपने कान में बारी (बाली) पहनते थे। इसी बारी का निशान उनके एक कान में था। यही निशान श्री पुजारी के कान में पा कर निर्धारित कर दिया गया कि यह बच्चा "बन्दीजाऊ" का ही पुनर्जन्म है।
"बन्दीजाऊ" की चर्चा करते हुए श्री पुजारी कहते हैं कि उनके इस पूर्व पुरुष ने बिना किसी अपराध के जेल की सजा काटी थी। उन्हें एक हत्या के प्रकरण में उस समय तत्कालीन "गँवटेया (गाँव का एक समृद्ध् व्यक्ति)" ने झूठे तौर पर फँसाया था। उनके इस पुरखे का कसूर यह था कि वे जिस दिन खरगोश पकड़ने के लिये जंगल गये थे उसी दिन उड़ीसा की किसी औरत का उसी जंगल में खून हो गया। गाँव के गँवटेया ने बन्दीजाऊ को जंगल जाते हुए देखा था। केवल इसी बिनाह पर उसने बन्दीजाऊ को झूठे तौर पर फँसा दिया कि यह हत्या इसी ने की है। चूँकि उस समय गाँव का गँवटेया गाँव में बड़ा आदमी माना जाता था, पुलिस ने उसकी बात पर भरोसा कर लिया। उसने बन्दीजाऊ के विरूद्ध प्रकरण तैयार कर लिया और मामला न्यायालय में चला। मामले में किसी भी चश्मदीद गवाह के बिना ही उसे जेल हो गयी। केवल यह बताया गया कि उसी शाम को यह उसी जंगल में जा रहा था। जबकि वस्तुस्थिति यह थी कि वह खरगोश पकड़ने गया था। बहरहाल, सजा पूरी कर जब वह गाँव आया तो उसने प्रण किया था कि आज के बाद यदि गँवटेया उसके सामने आ गया तो वह उसका गला काट देगा। अपने प्रण के साथ ही बन्दीजाऊ ने फरसा (परशु) को नमक लगा कर तेज कर लिया था। कहते हैं, गँवटेया जब तक जिन्दा था बन्दीजाऊ के सामने कभी नहीं आया। और अन्त में वह गँवटेया कोढ़ रोग से ग्रस्त हो कर मर गया।
श्री पुजारी के परिवार की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी। अभाव और दरिद्रता में उनका बचपन बीता था। उनके पास 12 एकड़ कृषि भूमि थी किन्तु वह असिंचित थी। इस कारण उससे परिवार का गुजर-बसर नहीं हो पाता था। परिवार में कुल 8-10 लोग थे। उस जमाने में फसल उतनी नहीं हो पाती थी। यही कारण था कि वर्ष में एक या दो बार साहूकार से कर्ज ले कर धान लाना पड़ता था। जब साहूकार के पास कर्ज लेने जाते थे तो उसे प्रसन्न करने के लिये साथ में एक बड़ा-सा मुर्गा और एक बोतल मँद (मदिरा) ले जाना पड़ता था। मुर्गा घर का ही होता था और मदिरा भी। तभी वह साहूकार बात करने को तैयार होता था। और बड़े मान-मनौव्वल के बाद वह एक खण्डी, दो खण्डी या तीन खण्डी धान दिया करता था। फसल आने के बाद उसे ड्योढ़ा वापस करना पड़ता था।
श्री पुजारी के पिता और बड़े पिता (ताऊ) चाहते थे, और उनकी दिली इच्छा थी कि उनका बेटा सिरहा (वह व्यक्ति जिस पर देवी की सवारी आती है) बने। और इसके लिये वे तीन जगह (बेड़ागाँव, गिरोला और पाहुरबेल) में हिंगलाजिन माता के मन्दिर में श्री पुजारी को ले कर कई बार आना-जाना किया करते थे। पिता और ताऊ ने बहुत कोशिश की कि बेटे पर देवी की सवारी आये और वह सिरहा बन जाये। इसी ख्याल से श्री पुजारी ने सिरहों की तरह केश भी बढ़ा लिये थे। लेकिन सिरहा बनना शायद उनके प्रारब्ध में नहीं था। फिर हुआ यह कि उन्हें बजावँड से लगभग ढाई-तीन किलोमीटर दूर बगल के गाँव तारापुर की प्राथमिक शाला में भर्ती करा दिया गया। उम्र की बात आयी तो माता-पिता कुछ भी नहीं बता सके, जैसा कि उन दिनों गाँवों में हुआ करता था। तब शिक्षक ने अन्दाज से इनकी जन्म-तिथि अंकित कर ली, 01 जुलाई 1942। उस समय प्राथमिक स्तर पर चार कक्षाएँ हुआ करती थीं। श्री पुजारी ने चौथी कक्षा उत्तीर्ण की और वे अपने परीक्षा-केन्द्र में प्रथम स्थान पर रहे। इसके बाद आया माध्यमिक पाठशाला में भर्ती होने का समय। उस समय माध्यमिक पाठशाला थी बस्तर नामक गाँव में। वहाँ तब छात्रावास की भी सुविधा उपलब्ध थी। चौथी कक्षा उत्तीर्ण करने वाले सभी छात्रों के अभिभावकों ने सर्व सम्मति से तय किया कि बच्चों को बस्तर के माध्यमिक पाठशाला में प्रवेश दिलाया जाये। इस निर्णय के साथ सभी बैलगाड़ी और भैंसागाड़ी में सवार हो कर बस्तर गाँव के लिये रवाना हुए। सारी रात की यात्रा के बाद सवेरे बस्तर पहुँचे। वहाँ तत्कालीन राजनीति में सक्रिय बस्तर निवासी सूर्यपाल तिवारी के सहयोग से पाठशाला के साथ-साथ छात्रावास में भी इन्हें प्रवेश मिल गया। प्रवेश के समय, 1955 में, श्री पुजारी के लम्बे केश काट दिये गये। उस जमाने में छात्रों को दस रुपये मासिक स्कॉलरशिप के रूप में मिला करते थे और उसमें ही छात्रों को गुजारा करना पड़ता था। प्रत्येक छात्र को प्रति माह घर से 9 पायली (लगभग 18 किलोग्राम) चावल अपने लिये लाना पड़ता था। किसी तरह तीन साल बस्तर के माध्यमिक पाठशाला में गुजारे और फिर जब आठवीं की परीक्षा हुई तो श्री पुजारी इस परीक्षा में भी पूरे केन्द्र में प्रथम स्थान पर रहे। आठवीं पास करने के बाद उन्हें लगा कि अब उनका ग्रामसेवक के पद पर नौकरी लगना तय है। फिर ग्रीष्मकालीन अवकाश में वे अपने घर चले गये। वे कल्पनाएँ करते थे कि अब वे ग्रामसेवक बन ही जायेंगे। इसी बीच सूर्यपाल तिवारी ने उस वर्ष आठवीं की परीक्षा में प्रथम स्थान पाने वाले छात्र के विषय में जानकारी ली। उन्हें श्री पुजारी का नाम बताया गया। तब उन्होंने किसी मैसेन्जर को श्री पुजारी के गाँव भेजा और उन्हें अपने पास बुला लिया। जब श्री पुजारी उनके पास पहुँचे तो उन्होंने उनका दाखिला जगदलपुर के हाई स्कूल में करवा दिया।
सूर्यपाल तिवारी उस समय एक दल विशेष के एक अच्छे स्थापित नेता थे। बताया जाता है कि बस्तर ग्राम में मिडिल स्कूल और छात्रावास शुरु करने का श्रेय उन्हें ही जाता है। उस जमाने में सन् 1955 तक या 1955 के थोड़ा पहले तक स्वर्गीय आर. सी. व्ही. पी. (रोनाल्ड कार्लटन वर्नन पीडेड) नरोन्हा, (कार्यकाल : 16.01.1949 से 21.01.1955, जो आगे चल कर पद्मभूषण से नवाजे गये) उस समय डिप्टी कमिश्नर हुआ करते थे बस्तर में। उनसे भी सूर्यपाल तिवारी के अच्छे सम्पर्क थे। बस्तर में छात्रावास के लिये स्व. नरोन्हा ने खेत भी तैयार किये थे। स्व. नरोन्हा जापानी ट्रैक्टर से स्वयं खेत तैयार करते थे। उस समय के उसके फोटोग्राफ्स छात्रावास में हुआ करते थे। बहरहाल, श्री तिवारी ने श्री पुजारी को हाई स्कूल में भर्ती कराया। पुस्तक-कॉपी के लिये "नरोन्हा फंड" से व्यवस्था गयी। स्व. नरोन्हा ने बस्तर से जाते-जाते कुछ फंड जमा किये थे गरीब और प्रतिभावान बच्चों के लिये। उसी फंड से पुस्तक-कॉपी की व्यवस्था हुई थी। श्री पुजारी जगदलपुर में भी छात्रावास में ही भर्ती कराये गये थे, जहाँ उन्होंने हाई स्कूल तक की शिक्षा प्राप्त की।
गुरबत के दिनों की याद करते हुए श्री पुजारी दो घटनाओं का जिक्र करते हैं। सम्भवत: जब वे दसवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। एक दिन ऐसा आया कि उस दिन मेस चार्ज जमा नहीं हुआ और मेस में छात्रों का भोजन भी नहीं बना। पास में सिर्फ 2 आने थे। उस 2 आने से ही पास के एक मद्रासी होटल में उन्होंने दोसा खाया। इस तरह उस दिन के दोपहर के भोजन का तो जुगाड़ हो गया किन्तु रात के भोजन का प्रश्न मुँह बाये खड़ा था। दैवयोग से उसी दिन शाम को जगदलपुर के नयापारा स्थित नेहरू छात्रावास का उद्घाटन हुआ। उद्घाटन किया था तत्कालीन जिलाधीश श्री आर. एस. एस. राव (कार्यकाल : 25.09.60 से 01.05.62) की पत्नी ने। और सभी आदिवासी छात्र उस नये छात्रावास में स्थानान्तरित कर दिये गये। इस तरह रात का भोजन नसीब हुआ वरना पढ़ाई छोड़ कर वापस गाँव जाने की स्थिति बन गयी थी। आगे की पढ़ाई के लिये कुछ खर्च निकले इस गरज से श्री पुजारी को ग्रीष्मकालीन अवकाश में शराब भट्ठी में भी काम करना पड़ा। जगदलपुर-गीदम रोड पर रायकोट नामक गाँव की शराब भट्ठी में उन्होंने गद्दीदार की नौकरी भी की। गद्दीदार, यानी शराब बेचने वाला। इस तरह उनकी हाई स्कूल की शिक्षा पूरी हुई। मैट्रिक की परीक्षा भी श्री पुजारी ने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके बाद श्री तिवारी ने ही जनपद प्राथमिक पाठशाला, आसना (जगदलपुर) में शिक्षक के पद पर श्री पुजारी को नियुक्ति दिलवायी। श्री पुजारी अपनी सफलताओं के लिये बारम्बार श्री तिवारी को याद करते हैं और उन्हें ही इसका सारा श्रेय भी देते हैं।
शिक्षक पद पर नियुक्ति दिलवाने के साथ-साथ श्री तिवारी ने श्री पुजारी से कॉलेज में भी प्रवेश लेने के लिये कहा। इस तरह श्री पुजारी ने जगदलपुर के कॉलेज में प्रवेश लिया और प्रात:काल कॉलेज जाया करते और उसके बाद 11 बजे से अपनी नौकरी पर पाठशाला। इस तरह 3 वर्ष तक उनका अध्ययन और अध्यापन साथ-साथ चला। सन् 1965-66 में जब स्नातक की डिग्री मिली तो उन्होंने पी.एस.सी. में भाग्य आजमाया और पी.एस.सी की परीक्षा में नायब तहसीलदार के पद पर उनका चयन हो गया। इस तरह वे सन् 1967 से नायब तहसीलदार के पद पर आये और सन् 2002 में एडीशनल कलेक्टर के रूप में सेवा निवृत्त हुए। आरम्भ से ही श्री पुजारी का जीवन संघर्षों में बीता। उन्होंने गरीबी को बहुत नजदीक से देखा है। वे इसके द्रष्टा ही नहीं बल्कि भोक्ता भी रहे हैं। बस्तर में आदिवासियों का जो शोषण होता रहा है, उसे उन्होंने न केवल देखा है अपितु भोगा भी है। इसीलिये बस्तर के अभाव-ग्रस्त और शोषित-पीड़ित आदिवासियों के सम्बन्ध में वे लगातार चिन्तन करते रहे हैं कि आखिर यह शोषण क्यों? आखिर हमारा आदिवासी समाज कब जागृत होगा? कब और कैसे हम इसके खिलाफ आवाज उठा पाएँगे? और इसी सोच के साथ उनकी सृजन-यात्रा आरम्भ हुई। उनकी सृजन-यात्रा बस्तर के आदिवासियों के शोषण से सरोकार रखती है। उनकी प्रत्येक कविता में बस्तर का यह दर्द मुखर हो कर सामने आता है। "पोरटा" उनकी पहली कविता है। इस कविता के सृजन की पृष्ठभूमि बना 1966 में बस्तर में हुआ जघन्य पुलिसिया हत्याकाण्ड। इस हत्याकाण्ड में बस्तर के सबसे चर्चित और प्रिय महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव की अमानुषिक हत्या कर दी गयी थी।
इस काण्ड के कुछ दिनों बाद जब श्री पुजारी अपने घर बजावँड गये और उन्होंने अपने पिता को बताया कि गोली काण्ड में बस्तर महाराजा मारे गये तो वे इस पर विश्वास करने को तैयार ही नहीं थे। उनका विश्वास था कि बस्तर-महाराजा मर ही नहीं सकते। कारण, जो भी गोली उनके ऊपर चलेगी वह गोली नहीं होगी बल्कि बन्दूक से गोली की जगह पानी निकलेगा। यह उनके मन में दृढ़ विश्वास था। श्री पुजारी ने कहा कि नहीं, ऐसी बात नहीं है। वे तो गोली काण्ड में मारे गये हैं। इसी बात से उनके पिता उनसे नाराज हो गये और उनसे लड़ बैठे। उन्हें अन्त तक श्री पुजारी किसी भी तरीके से समझा नहीं पाये कि गोली काण्ड हुआ और वे उस गोली काण्ड में मारे गये। उनका तो यही मानना था कि 1910 में हुई सशस्त्र क्रान्ति (भुमकाल) में इस क्रान्ति के महानायक गुंडाधुर के ऊपर चलायी गयी गोलियाँ पानी में परिवर्तित हो गयी थीं। इसी तरह बस्तर-महाराजा पर भी चलायी गयी गोलियाँ पानी में परिवर्तित हो गयी होंगी और वे निश्चित ही जीवित होंगे। वे अपने पिता के मन में घर कर चुके इस अन्धविश्वास को दूर नहीं कर सके। और इसी घटना की परिणति थी उनकी पहली कविता "पोरटा"।
आज प्रस्तुत है उनकी यही कविता हिन्दी अनुवाद के साथ :
पोरटा
तुय नी गोठयाव
आपलो दादी-पुरखा चो गोठ के।
सुनतो बिता बाँडा बाग मरलो
जयगोपाल बले सरलो
तुचो लोहू पानी होउन
जसन की बन्दूक ले निकरली
तुचो हात हथेयार होउन
जसन की सरग ले घसरली
तुचो गागतोर-चिचयातोर उआज
ढोल आउर माँदर चो उआज सँगे मिसली
तुचो आँसू झुमका बड़गी चो गुलगुली सँगे बोहली
आउर एदाँय तुचोय दुआर चो
तुचोय रोपलो बड़ रुक
आपलो अउर गोटोक चेर के
तुचोय राँदा घरे उतराली।
पाली धरतो काजे मोचो टोडरा सुकली
हात के गाले देउक नीं सकें
काटा गड़लो पाँय ने टेका देउक नीं सकें
तुय पोरटा!
तुचो भुक-पियास के खातो बिता निहाय
तुचो दुख-डँड के पिवतो बिता निहाय
मान्तर दख नू!
केब ले तो उपर पारा चो डोकरी इँदराबती
गाल के माँडी ने देउन
मने-मने गागेसे
अउर दखेसे टुकुर-टुकुर।
अनाथ
मत करो तुम बातें
अपने दादा-परदादा (और पुरखों) की
मर गया है सुनने वाला बाँडा बाग
समाप्त हो गया है जयगोपाल भी
तुम्हारा लहू पानी बन कर
जैसे कि निकला बन्दूक से
तुम्हारे हाथ हथियार बन कर
जैसे कि गिर पड़े स्वर्ग से
तुम्हारे रोने-चीखने का स्वर
मिल गया ढोल और माँदर के स्वरों में
बह गये तुम्हारे आँसू झुमका बड़गी के घुँघरुओं के सँग
और अब तुम्हारे ही द्वार का
तुम्हारे ही द्वारा रोपा गया वट-वृक्ष
अपनी एक और लट को
उतार चुका है तुम्हारे रसोई-घर में
सूख गया मेरा कण्ठ तुम्हारा साथ देते
नहीं धर सकता गालों पर हाथ
नहीं ले सकता काँटे गड़े पाँवों से सहारा
तुम अनाथ!
नहीं है कोई तुम्हारी भूख-प्यास को खाने वाला
नहीं है कोई तुम्हारे दु:ख-कष्ट को पीने वाला
किन्तु देखो तो!
पूर्व दिशा में रहने वाली बूढ़ी इन्द्रावती न जाने कब से
अपने गालों को घुटनों पर दिये
रो रही है मन ही मन
और देख रही है टुकुर-टुकुर।
टिप्पणी :
01. बाँडा बाग : रियासत कालीन बस्तर राज्य के एक तोप का नाम। यहाँ दो तोप थे जिनमें से एक का नाम "बाँडा बाग" और दूसरे का नाम "जय गोपाल" था। प्राय: ओड़िसा के जयपुर और बस्तर रियासत के बीच युद्ध हुआ करते थे। इन युद्धों में इन दोनों तोपों की अहम भूमिका रहा करती थी। कहा जाता है कि इनमें से एक तोप जयपुर रियासत की किसी पहाड़ी पर आज भी पड़ा हुआ है जबकि दूसरा तोप जगदलपुर में।
02. ढोल और माँदर : दोनों ही गोंडी परिवेश के लोक वाद्य।
03. झुमका बड़गी : गोंडी परिवेश का एक वाद्य जिसे युवतियाँ बजाती हैं। इसे "गुजरी" और "तिरडुड्डी" भी कहा जाता है।
श्री पुजारी जी का पता है :
श्री एस. एस. पुजारी
रिटायर्ड एडीशनल कलेक्टर
सिविल लाईन के पीछे
लालबाग
जगदलपुर 494001
बस्तर-छ.ग.
मोबाईल : 94-060-02484
दोनों छायाचित्र : नवनीत वैष्णव
हल्बी कवि श्री सोनसिंह पुजारी जी के विषय में विस्तार पूर्वक जानकारी देने के लिए के लिए आपका बहुत- बहुत आभार ...
ReplyDeleteएक पूरे लोक की इस तरह रचना आपने संभव की है, बधाई और पुजारी जी को मेरा और रायकवार जी का अभिवादन.
ReplyDeleteJaisaa ki main Pujari ji ke swar mein kaavy-Paath prastut karnaa chaahtaa thaa, merii is manshaa ko bhaaii Lalit Sharma ji ne atyant vyastataa ke baavzood saphal kiyaa hai. Main unkaa hriday se aabhaarii hun.
ReplyDeleteShri Rahul Singh jii aur Shri Raikwar jii, aap dono ke abhiwaadan shri Pujari ji tak pahunch gaye hain. Aap dono kaa aabhaar. Aabhaar Sandhya Sharma jii kaa bhii.