पूरे दस वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा और धैर्य के बाद "तीजा जगार" का प्रकाशन पिछले महीने भारतीय ज्ञानपीठ से हुआ। "तीजा जगार" (गुरुमाय सुकदई द्वारा प्रस्तुत बस्तर, छत्तीसगढ़ अंचल के नारी-लोक की महागाथा) पुस्तक का विमोचन इस महागाथा की गायिका स्वयं गुरुमाय सुकदई कोर्राम के हाथों एक सादे कार्यक्रम में बिना किसी ताम-झाम के कोंडागाँव में सम्पन्न हुआ। पुस्तक का विमोचन करते हुए गुरुमायँ सुकदई भाव-विभोर हो गयीं। उन्होंने कहा कि प्राय: पुस्तकों का विमोचन बड़े-बड़े समारोहों में नामी-गिरामी व्यक्तित्वों के द्वारा किया जाना तो उन्होंने सुन रखा था किन्तु इस अलिखित महागाथा को पुस्तक-रूप में प्रस्तुत करने वाले हरिहर वैष्णव ने बजाय किसी नामी-गिरामी व्यक्तित्व के मुझ जैसी अनपढ़ और ठेठ गँवई-श्रमिक महिला से इसका विमोचन मेरे ही घऱ पर करवा कर मुझे गौरवान्वित किया है। मेरा सम्मान बढ़ाया है। मैं उनके प्रति आभार व्यक्त करती हूँ।
ज्ञात हो कि बस्तर अंचल में चार लोक महाकाव्य वाचिक परम्परा के सहारे पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित होते आ रहे हैं। इन्हीं चार लोक महाकाव्यों में एक "तीजा जगार" भी है। "आलोचना के अमृत-पुरुष" प्रो. (डॉ.) धनंजय वर्मा जी, जो डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (मध्य प्रदेश) के कुलपति रह चुके हैं, इस पुस्तक के फ्लैप पर लिखते हैं, "वाचिक परम्परा में पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित होते आ रहे लोक-महाकाव्य "तीजा जगार" को, नारी के द्वारा, नारी के लिये, नारी की महागाथा कहना अतिशयोक्ति न होगा। आदिवासी बहुल बस्तर अंचल शुरू से ही मातृ-शक्ति का उपासक रहा है। "तीजा जगार" उसी मातृ-शक्ति की महागाथा है। इसमें नारी का मातृ-रूप ही मुखर है। नारी यहाँ तुलसी का बिरवा रोपती है, सरोवर और बावड़ी खुदवाती है, बाग़-बगीचे लगवाती है तो निष्प्रयोजन नहीं; वह इनके माध्यम से सम्पूर्ण मानवता, जीव-जन्तु और पेड़-पौधों यानि प्राणि-मात्र के लिये अपनी ममता का अक्षय कोष खुले हाथों लुटाती है। वर्षों से पिछड़ा कहे जाने को अभिशप्त बस्तर अंचल के आदिवासियों की नैतिक और सांस्कृतिक समृद्धि का दस्तावेज है, "तीजा जगार"। आदिवासियों की घोटुल जैसी पवित्र संस्था को विकृत रूप में पेश करने वाले विदेशी ही नहीं, देशी नृतत्त्वशास्त्री, साहित्यकार, छायाकार, कलाकार आदि संस्कृति-कर्मियों की दृष्टि से अब तक अछूती "तीजा जगार" महागाथा के माध्यम से हरिहर वैष्णव ने बस्तर की समृद्ध संस्कृति को समग्रता में प्रस्तुत किया है। बस्तर की लोक-संस्कृति और लोक-गाथा को एक नयी रोशनी में उद्घाटित करती उनकी यह शोधपूर्ण प्रस्तुति रचनात्मक अनुसन्धान के नये प्रतिमान भी स्थापित करती है।"
अब थोड़ी-सी बात इस महागाथा के प्रकाशन से पूर्व की। 2003 में प्रकाशित "गुरुमाय सुकदई द्वारा प्रस्तुत बस्तर की धान्य-देवी की कथा : लछमी जगार" की प्रति मैंने अन्य प्रतिष्ठानों के साथ-साथ भारतीय ज्ञानपीठ को भी अवलोकनार्थ भेजी थी। इसे भारतीय ज्ञानपीठ के तत्कालीन निदेशक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय जी ने गम्भीरता से लिया और 2003 के आखिरी महीने या 2004 के शुरुआती महीने का कोई एक दिन। सवेरे 9 बजे के आसपास उन्होंने मुझे फोन किया। मुझे याद है, उन्होंने फोन पर अपना परिचय देते हुए मुझसे कहा था, "यह आपने क्या कर दिया?"
इतना सुन कर मैं घबरा गया कि मुझसे ऐसा कौन-सा अपराध हो गया कि डॉ. साहब ऐसा कह रहे हैं? मेरा जवाब था, "जी, सर! मैं समझा नहीं।"
वे बोले थे, "आप भारतीय ज्ञानपीठ के विषय में जानते हैं?"
मैंने कहा, "जी सर।"
वे बोले, "आपने अपनी यह पाण्डुलिपि भारतीय ज्ञानपीठ को क्यों नहीं दी?"
मैंने संकोच के साथ कहा था, "सर! मैं इतने बड़े प्रतिष्ठान से छपने का सपना भी नहीं देख सकता।"
फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या इस तरह की और भी गाथाएँ हैं? तब मैंने उन्हें तीन और गाथाओं "तीजा जगार", "बाली जगार" और "आठे जगार के विषय में बताया। इस पर उन्होंने कहा कि मैं इन तीनों महागाथाओं को यथाशीघ्र पूरा कर भारतीय ज्ञानपीठ को भेज दूँ। इनका प्रकाशन वहीं से और एक साथ होगा। और बस! मैं जुट गया इन तीनों ही महागाथाओं के लिप्यन्तरण, संक्षेपीकरण और अनुवाद में। तीनों ही महागाथाएँ भेज दीं और सौभाग्य से तीनों ही महागाथाएँ प्रकाशन हेतु स्वीकृत कर ली गयीं। किन्तु पहले से ही स्वीकृत कई पाण्डुलिपियों के कारण इन महागाथाओं का प्रकाशन विलम्बित होता गया और अन्तत: इस वर्ष इनमें से एक "तीजा जगार" का प्रकाशन हो पाया। शेष दोनों महागाथाओं के प्रकाशन की भी प्रतीक्षा है। उम्मीद है अगले एक-दो वर्षों में इन दोनों महागाथाओं का भी प्रकाशन हो जायेगा।
इस पुस्तक में मूल हल्बी के साथ-साथ हिन्दी अनुवाद भी है, जिससे मूल लोक-भाषा का भी आनन्द आये और अनुवाद का भी। 388 पृष्ठीय इस हार्ड कवर पुस्तक की कीमत 490.00 रुपये है। अंचल के सुप्रसिद्ध लोक चित्रकार और मेरे अनुज खेम वैष्णव के बस्तर की लोक-चित्र-शैली में बने अद्भुत-आकर्षक रेखांकनों एवं उनकी पुत्री, मेरी भतीजी रागिनी के मुख-पृष्ठ से यह पुस्तक सुसज्जित है।
बधाई हो.. बहुत अच्छा प्रयास..
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