और इस बार प्रस्तुत है "नवभारत", 23 फरवरी, 1984 अंक में प्रकाशित यह रपट :
आपके सामने एक भीमकाय व्यक्ति जो आदिवासी है और निपट ग्रामीण वेश-भूषा में है, चकाचौंध से हतप्रभ भी; उसे एक निपट दुबला-पतला शहरी बिला वजह डाँट देता है और उस आदिवासी के चेहरे पर करुणा उभर आती है। कैसा महसूस करते हैं आप.......?
दो-एक चित्र देखिये। नकारात्मक भी और सकारात्मक भी :
हम बस में बैठे हैं। कोंडागाँव से नारायणपुर के लिये। बस चल पड़ती है। चालक तो रोज ही बदलते हैं बस में। किन्तु एक चेहरा इन वनवासियों का न केवल जाना-पहचाना है, बल्कि किसी बिन्दु पर बेहद आत्मीय भी। आदिवासी इस चेहरे को मिरजा (मिर्ज़ा) के नाम से जानते हैं। 52 किलोमीटर के इस जंगली रास्ते में राह चलता हुआ ऐसा कोई भी आदिवासी नहीं होगा जिसके हाथ मिर्जा भाई को नमस्कार करने के लिये बेहद आत्मीयता से न उठते हों। और भाई मिर्जा भी ऐसे कि बस चालन कर रहे हैं, सामने से कोई दूसरी गाड़ी आ रही है और उसे "साइड" देना हो या फिर पीछे से आती गाड़ी को "ओव्हरटेक" करने देना हो, हर हाल में इन आदिवासियों की नमस्ते का जवाब हाथ उठाकर देंगे ही। एक बात और काबिले गौर। बच्चों को पाठशाला में भर्ती करवाने और उनमें पढ़ाई के प्रति ललक पैदा करने में भी श्री मिर्जा जी का काफी योगदान है। पाठशाला के समय पर रास्ते में आने वाले गाँवों के बच्चों को पाठशाला तक मुफ्त पहुँचाने और पाठशाला छूटने के बाद वापस गाँव पहुँचाने की भी इनकी "रुटिन" रही है। बस में बैठने की लालच में ही सही, आदिवासी बच्चे पाठशाला जाना सीख गये.... यही क्या कम सहयोग है भाई मिर्जा जी का। मैं उन्हें लगातार चौदह-पन्द्रह बरसों से इसी रूप में देखता आ रहा हूँ।
इतनी आत्मीयता उन्हें कैसे मिली.... यह हमारे-आपके लिये उनसे सीखने की चीज है। बड़े-बुजुर्गों को उन्हें नमस्कार करता देख बच्चे भी उनका अनुसरण करते हैं और मिर्जा भाई इन बच्चों को भी उतना ही महत्त्व देते हैं, जितना बड़े-बूढ़े और युवकों को।
लेकिन यही आदिवासी अगले बिन्दु पर धोखा खा जाता है। होता यह है कि वे मिर्जा भाई की ही तरह दूसरे चालकों से भी आत्मीयता का वही रिश्ता कायम करना चाहते हैं, किन्तु भला दूसरे चालकों को इससे क्या मतलब...... या कहें कि उनके लिये इसका क्या महत्त्व? व्यंग्य, घृणा और तिरस्कार पूर्ण दृष्टि उस ओर उठकर वापस आ जाती है। हाथ उठने की बात तो जाने ही दीजिए।
इन बसों में चलने वाले कण्डक्टरों की बात पर भी जरा गौर करें। आदिवासी इनके लिये कभी आदमी नहीं होता; होता है केवल भेड़-बकरी। बस के अंदर सीट खाली हो तो भी ये बदनसीब उन पर नहीं बैठ सकते।
एक चित्र देखें :
मध्यप्रदेश राज्य परिवहन की बस काफी तेज गति से चली जा रही है। इतने में काफी दूरी पर... सड़क के बीचो-बीच एक आदिवासी अपने कन्धे पर एक बच्चे को बिठाए दोनों हाथ फैलाये खड़ा दिखता है। चालक की सीट पर इनका परिचित चेहरा नहीं बल्कि कोई और बैठा है। बस पास पहुँचती है और एक झटके के साथ रुक जाती है। आदिवासी चालक की खिड़की के पास जाता है। चालक उसे फाड़ खाने वाली नज़रों से घूर रहा है....."क्यों बे मामा, मरने को एक मेरी ही गाड़ी थी? कहीं और भी तो जाकर मर सकता है न!"
वह रुँआसा होकर कहता है, "नरानपुर हत्तूर..." यानी "नारायणपुर जाऊँगा।"
"तो साले उधर से आकर बैठता क्यों नहीं? माथा क्यों खराब कर रहा है?" चालक इतनी जोर से चीखता है कि वह वनवासी भय से इधर-उधर देखने लगता है, मानो वापस जंगल के भीतर भाग जाना चाहता हो।
आप कहेंगे, गलती उसी की थी जो वह सड़क के बीचो-बीच आ खड़ा हुआ था। किन्तु इस तथ्य की ओर भी ध्यान दें कि आखिर उसे ऐसा क्यों करना पड़ा?
दरअसल होता यह है कि मध्यप्रदेश राज्य परिवहन की बसें प्राय: नहीं रुका करतीं। यह बात केवल कोंडागाँव-नारायणपुर मार्ग के साथ ही हो, ऐसी बात नहीं। आप चाहे कोंडागाँव से जगदलपुर मार्ग पर जाएँ या फिर जगदलपुर से उधर कोन्टा-सुकमा या बैलाडिला अथवा भोपालपटनम्। बस्तर के प्रत्येक मार्ग पर यही कहानी दुहरायी जाती है।
बहरहाल, उस आदिवासी का बच्चा बीमार है। उसे वह चिकित्सा के लिये नारायणपुर के अस्पताल लिये जा रहा है। वह बस में सवार होता है। सामने की कई सीटों में शहरी लोग या तो अकेले-अकेले बैठे हैं या फिर दो-दो जन। आदिवासी उनमें से किसी एक पर बैठना चाहता है, तब उन शहरियों का चेहरा घृणा से भर जाता है और वे बिदक उठते हैं, "अबे! पीछे खाली पड़ी है सीट....। उधर क्यों नहीं जाता.....?" और अन्तत: वह किंकत्र्तव्यविमूढ़ हो कर बस की फर्श पर ही उकड़ूँ बैठ जाता है।
भीतर बस में सवारियों की आवाज़ें उभरती हैं......."सरकार इनके पीछे लाखों रुपये खर्च कर चुकी, लेकिन रह गये साले जहाँ के तहाँ।" तभी कन्डक्टर आ कर पैसे वसूल कर लेता है। टिकट नहीं देता। कहता है "टिकट का क्या करेगा रे.....टी.ए. बनाएगा क्या.....?" उसके कहने के साथ ही सवारियाँ खिलखिला कर हँस पड़ती हैं। बस में बैठा हुआ कोई भी व्यक्ति प्रतिरोध नहीं कर पाता। मैं स्वयं भी नहीं।
रास्ते में कई गाँव आते हैं......जोंदरापदर, बुनागाँव, कोकोड़ी, किबईबालेंगा, छेरीबेड़ा, बेनूर, रेमावंड और देवगाँव। इन सारे गाँवों को पार कर बस पहुँचती है नारायणपुर।
नारायणपुर का विशेष आकर्षण है बाहरी लोगों के लिये.....यहाँ प्रति वर्ष भरने वाली मँडई (मेला) के कारण। इसके साथ ही अबूझमाड़ का प्रवेश-द्वार भी है यह क़स्बा। इस शहराते हुए क़स्बे की आबादी अमूमन बारह हज़ार है। क़स्बे के गौरव के रूप में यहाँ एक आदर्श उच्चतर माध्यमिक विद्यालय है। सम्पूर्ण बस्तर सम्भाग में ऐसे आदर्श विद्यालय केवल दो स्थानों में हैं। एक यहाँ और दूसरा फरसगाँव में। इस आदर्श विद्यालय के बारे में इसी विद्यालय के एक ज़िम्मेदार कर्मचारी का कथन है, "शिक्षक गण अध्यापन-कार्य में कम दिलचस्पी लेते हैं। यही इस विद्यालय का आदर्श है।" मनोरंजन के लिये एक "ओपन एयर थियेटर" यानी "टूरिंग टाकीज़" और तीन-तीन "वीडियो-हॉल हैं।
बाहर से एकदम नया आने वाला व्यक्ति तो इस भ्रम में होता है कि यहाँ केवल आदिवासी रहते होंगे। और उसकी निगाह इस क़स्बे में आदिवासियों की खोज में भटकने लगती है। किन्तु तब उसे निराशा होती है, जब उसे वह आदिवासी दिखलायी नहीं पड़ता, जिसका काल्पनिक चित्र उसके दिमाग़ में भरा होता है। अलबत्ता यदि वह रविवार का दिन हुआ या कि मँडई का.....तब उसका चित्र साकार होता देखा जा सकता है, अन्यथा नहीं।
यदि मैं कहूँ कि आदिवासी नारायणपुर में नहीं रहता तो आप और बहुत से जानकार लोग चौंक जाएँगे और मुझे सिरफिरा कहने लग जाएँगे। किन्तु सच यही है कि नारायणपुर में आदिवासी नहीं रहता। रहता था किसी ज़माने में। तब, जब यह क़स्बा निपट गाँव हुआ करता था और इसका नाम हुआ करता था, नगुर। तब यहाँ केवल आदिवासी रहा करते थे और अब केवल आदिवासी नहीं रहता, बाकी सभी रहते हैं।
आदिवासियों के विकास के लिये छोटे से ले कर बड़े तक सभी चिंतित हैं। सरकार आये दिनों सैकड़ों विकास-योजनाएँ बना रही है। बावजूद इसके कोई ठोस परिणाम आज तक सामने नहीं आ सके हैं। एक आदिवासी नेता और बीस सूत्री कमेटी के सदस्य के अनुसार, "कार्यक्रमों का सही क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। इससे विकास की दिशा नज़र नहीं आ पा रही है"। एक बुज़ुर्ग से चर्चा करने पर वे कहने लगे, "आदिवासियों के विकास के लिये बनायी गयी सरकारी नीतियों का सही ढंग से क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। इसीलिये ये लोग और भी पिछड़ते जा रहे हैं। शराब बनाने की जो छूट आदिवासियों को मिली है, इससे उनका और भी नुकसान हो रहा है। नशे में धुत् रह कर विकास की दिशा खोज पाना तो कभी सम्भव हो ही नहीं सकता। रही बात आपको यहाँ आदिवासी के नज़र न आने की, सो ऐसी बात नहीं है कि यहाँ आदिवासी नहीं है। है वह। किन्तु उसके पहनाव-ओढ़ाव में फर्क आ गया है। इसी वजह से आप उसे नहीं पहचान पा रहे हैं। और फिर सवाल उठता है कि जब हम जीवन में निरन्तर आधुनिकता को स्थान दे रहे हैं, तो फिर आदिवासी ही भला क्यों इन रूढ़ियों में बँधा रहे......?"
मैं कहता हूँ, "नारायणपुर में आदिवासी नहीं रहता, इस प्रश्न से मेरा तात्पर्य उसके अस्तित्व से है। मुझे यहाँ उसका अस्तित्व नज़र नहीं आता। .....एक वृहद् संदर्भ में.....आदिवासियों की अस्मिता अब नहीं रह गयी है यहाँ.....। मुझे यहाँ बाहरी लोग ही ज्यादा नज़र आते हैं। सम्पन्न वे ही हैं।"
इस प्रश्न के जवाब में उन्होंने कहा, "कारण यह है कि यहाँ के लोग अपने को राजा ही मान कर चल रहे हैं। जबकि बाहर से आया व्यक्ति परिश्रम करता है रात-दिन। शासन से प्राप्त सहायता के कारण आदिवासी निष्क्रिय हो गया है। अब देखिये, जो बैल छह-सात सौ रुपये में मिला करता था, आज उसी की कीमत दो हज़ार रुपये हो गयी है। क्योंकि सब जानते हैं कि आदिवासियों को बैल-जोड़ी खरीदने के लिये सरकार दो हज़ार रुपये दे रही है। इसमें पचास प्रतिशत और माड़ क्षेत्र में तो नब्बे प्रतिशत अनुग्रह-राशि ही होती है, जिसे उन्हें लौटाना नहीं पड़ता। हश्र यह हुआ कि बिचौलियों की बन आयी है और वे उसी छह-सात सौ रुपयों के बैलों को दो हज़ार रुपये में आदिवासियों को बेच रहे हैं। आदिवासी इसलिये आराम से ख़रीद रहा है क्योंकि यह अनुग्रह-राशि है। दो हज़ार रुपयों का बन्दरबाँट से वारा-न्यारा किया जा रहा है और सरकार तथा आदिवासियों को खुले आम ठगा जा रहा है। इधर इस क़िस्म के दलाल काफ़ी संख्या में पनप रहे हैं।"
अभी हम बातचीत कर ही रहे थे कि कुछेक वनवासी वहाँ आ पहुँचे। पूछने पर पता लगा कि वे कोंगे गाँव से बैलों के लिये ऋण के सम्बन्ध में आये हैं।
"निया बाता पोरोय् (क्या नाम है तुम्हारा)?"
"मोड़ाराम।" एक व्यक्ति अपना नाम बतलाता है।
"निया पोरोय् वेह्हा....(तुम्हारा नाम बताओ)।" आये हुए सभी लोगों के नाम बताने के लिये कहता हूँ मैं।
एक-एक कर सब अपना नाम बताने लगते हैं : डाँडो, पेका, बुडँगा, पाँडरा, राजो।
"बदनार टा.....(किस गाँव के हो)?" मैं फिर पूछता हूँ।
"कोंगे।" मोड़ाराम बतलाता है।
"निया नार बच्चोक धूर मन्ता......(तुम्हारा गाँव कितनी दूर है)?" मैं पूछता हूँ।
"उन्दी एटा हर.....(एक दिन का रास्ता है)।" पेका बतलाता है।
"इगा वारातो बात्तोर....(यहाँ क्यों आये हो)?"
मेरा प्रश्न सुन कर मोड़ाराम हिन्दी बोलने की कोशिश करता हुआ बोलता है, "क्या पूचना.....? अम बताएँगे सीदा-सीदा.....(क्या पूछना चाहते हैं आप.....? हम बताएँगे सीधे-सीधे)।"
वह बतलाता है कि वे लोग बैल खरीदने के लिये ऋण-प्राप्ति हेतु यहाँ आये हैं। मैंने पूछा, "बैंक आये थे तो क्या बातचीत हुई? पैसे देंगे या बैल?"
"देको ए, अबी फोटो खींचने के लिये आया था। फेर खबर देयगा ना गरामसेउक, तब फेर आयेगा (देखो, हम अभी फोटो खिंचवाने के लिये आये हुए थे। ग्रामसेवक सूचना देगा तब दुबारा आयेंगे)।"
"अच्छा तो ग्रामसेवक खबर करेगा तब फिर आओगे?"
"हाँ, पयसा वाला को पयसा देयगा, बयला वाला को बयला देयगा (हाँ, जिन्हें रुपये चाहिये उन्हें रुपये और जिन्हें बैल चाहिये उन्हें बैल दिये जाएँगे)।"
"अच्छा, तो क्या पैसा वापस भी करना पड़ेगा?"
"अयसी तो नइँ बोलता है। लेकिन आदा पयसा आपस करना पड़ेगा। दो सौ....(नहीं, ऐसा तो नहीं कहा है। किन्तु आधे पैसे वापस करने पड़ेंगे। शायद दो सौ रुपये...)।"
"ऐसा क्यों?"
"नइँ जानता (नहीं जानता)।"
"कितने पैसे मिलने की बात है?"
"वो तो डेढ़ हजार।" फिर उसने सुधार कर कहा, "डेढ़ नइँ, दो हजार मिलेगा। उसमें से दो सौ आपस करना।"
"अभी तक कितने लोगों को मिले हैं, बैल?"
"दो-तीन गाँव का मिला है। बयला भी देका है, बयँसा भी देका है। बड़या है। तुरुत नाँगेर-ऊँगेर, गाड़ी-ऊड़ी, बयला गाड़ी ले जाता है।"
मोड़ाराम नाम का यह व्यक्ति परलकोट इलाके के कोंगे गाँव का सरपंच है। पढ़ा-लिखा नहीं है। ये लोग नारायणपुर कई बार आ चुके हैं। कोंगे से नारायणपुर की दूरी इनके अनुसार एक दिन की है। सायकिल से सुबह कोंगे से निकलने पर दोपहर तक नारायणपुर पहुँच जाते हैं। यह गाँव पखांजूर थाने और नारायणपुर तहसील के अन्तर्गत आता है। ये लोग खेती करते हैं। धान के अलावा कोसरा, उड़द वगैरह भी बो लेते हैं।
पाँडरा कहता है, "दुनिया में जितना चीज होता है, वो सब बोता है हम।" सब बड़े हँसमुख और विनोदी स्वभाव से परिपूर्ण। सभी ने अपना नाम बताया था किन्तु एक व्यक्ति ने कहा, "मेरा नाम नहीं है।" सब हँस पड़े।
"क्या बिना नाम के हो?" मैंने मुस्करा कर पूछा।
राजो बोलता है, "उसका नाम कुछ नहीं।" एक बार फिर सब के सब हँस पड़ते हैं। मानो झरना गा उठा हो।
"फिर क्या नाम लिखाओगे, आफिस में?"
"आदमी, आदमी नाम लिखता है।" पाँडरा मुस्कराते हुए बोल पड़ता है और सब के सब खिलखिला कर हँस पड़ते हैं। मुक्त हास्य.......।
आदिम समुदाय के सर्वांगीण विकास के लिये एकीकृत आदिवासी विकास परियोजना, आदिवासी विकास परिषद्, विकास खण्ड कार्यालय, जंगलात के आला अफसरों के कार्यालय, जिला संयोजक और इसी प्रकार कई सरकारी-गैर सरकारी संस्थान यहाँ भरे पड़े हैं......किन्तु प्रगति की दौड़ में आदिम समुदाय के कितने सदस्य आ पाये हैं.....अभी इसके सही आँकड़े खोज पाना व्यर्थ है। ईसाई मिशनरियों की विशेष कृपादृष्टि है इस क्षेत्र में। पास्टर का एक बंगला काफी विस्तृत क्षेत्र के भीतर खड़ा है। इनका अस्पताल भी है। इसके साथ ही एक और संस्था यहाँ क्रियाशील है, "ग्रामीण सहजीवन संस्था"। इस संस्था का मुख्यालय बम्बई में और शाखा नारायणपुर में है। आदिवासियों के विकास में ये संस्थाएँ कहाँ तक साथ हैं.........इस पर चर्चा फिर कभी।
अबूझमाड़ के अबूझमाड़ियों को अपेक्षाकृत अधिक पिछड़े हुए मान कर उनके विकास की दृष्टि से 1974-75 में एक अबूझमाड़ विकास अभिकरण की स्थापना की गयी। इसी तरह अबूझमाड़ विकास खण्ड भी विशेष रूप से बनाया गया। नारायणपुर तहसील के 189, बीजापुर तहसील के 39 और दन्तेवाड़ा तहसील के 8 ग्राम अबूझमाड़ के अन्तर्गत आते हैं। इन में से कुल 23 गाँव आबादी विहीन हैं। 4000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले राजस्व एवं वन कानूनों से अछूते इस भू-भाग में रहने वाली जनसंख्या 19 से 20 हजार के बीच है। इस क्षेत्र में निवास करने वाले अबूझमाड़ियों के पास भू-स्वामित्व के अधिकार नहीं हैं।
इस अभिकरण के लिये काफी महत्त्वपूर्ण उद्देश्य निर्धारित किए गये थे। क्षेत्र में नि:शुल्क नमक एवं कपड़ों का वितरण, आश्रम शालाओं की स्थापना, मलेरिया उन्मूलन, पहुँच-मार्गों का निर्माण, सेटलमेन्ट सर्वे, निस्तारी तालाबों का निर्माण, सहकारी उपभोक्ता भण्डारों की स्थापना, पेय-जल के लिये कुँओं का निर्माण और फलदार वृक्षारोपण इसके प्रमुख कार्य निर्धारित किए गये थे।
वर्ष 74-75 से आज तक यानी कुल मिला कर दस वर्षों में विकास की गति का अंदाजा निम्न आँकड़ों से लग जाता है। पेयजल के लिये कुँए एवं हैण्डपम्प : 14, निस्तारी तालाब : 5, आश्रम शालाएँ : 9, प्राथमिक शालाएँ : 56, पूर्व माध्यमिक शालाएँ : 9, उपभोक्ता भण्डार : कोहकामेटा, आदेर और कच्चापाल। ये तीनों ही उपभोक्ता भण्डार फिलहाल बन्द पड़े हैं। लैम्प्स की शाखाएँ : कोहकामेटा और गारपा। ये दोनों भी बन्द पड़ी हैं। फिलहाल केवल ओरछा में आदिम जाति सहकारी समिति और हान्दावाड़ा में स्थापित उपभोक्ता भण्डार क्रियाशील हैं।
इसी तरह प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना ओरछा, कुतुल, लंका एवं हान्दावाड़ा में की गयी है। इनमें से ओरछा, कोहकामेटा और कुतुल के स्वास्थ्य केन्द्र क्रियाशील हैं, जबकि हान्दावाड़ा और लंका में चिकित्सकों की अभी तक कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की जा सकी है। पूर्व में यहाँ पदस्थ चिकित्सकों ने बाहर कहीं अपने स्थानान्तरण करवा लिये।
जानकार लोगों का कहना है कि इस वर्ष एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम के तहत, बल्कि जब से यह कार्यक्रम लागू हुआ है, तब से पहली दफा आदिवासियों को इतनी बड़ी तादाद में ऋण उपलब्ध कराया जा रहा है। बताया जाता है कि अकेले वर्ष 82-83 में ही लगभग तेरह सौ प्रकरण बनाए गये हैं, जिनमें से आधे से अधिक प्रकरणों की स्वीकृति भी दी जा चुकी है। किन्तु सवाल यही उठता है कि क्या इनका सही लाभ उन्हें मिल पाएगा जिनके लिये यह सब किया जा रहा है........?
यहाँ मुझे उन बुजुर्गवार की बात याद आ जाती है, "दलाल काफी पनप रहे हैं इधर, जो आदिवासियों के विकास के नाम पर अपनी रोटी सेंकने में मसरूफ़ हैं।" निश्चित रूप से ठगी रोकने के लिये सबसे अहम बात है कि लोग शिक्षित हों। ऐसी बात नहीं है कि पाठशालाएँ नहीं खोली गयी हैं। गाँव-गाँव में पाठशालाएँ हैं। एक शिक्षक बन्धु सरकार की इस नीति से बड़े क्षुब्ध हैं। कहते हैं, "सरकार का क्या जाता है? खोल रही है गाँव-गाँव में पाठशालाएँ। हमारी सुख-सुविधा का तो तिल भर भी ख्याल नहीं है.......।"
वही बुजुर्ग फिर कह उठते हैं, "अब भइया, ऐसा है कि मास्टर अब या तो शराब बना कर बेच रहा है या फिर खेती या दूसरा कोई व्यापार कर रहा है। पाठशाला में पढ़ाना तो उसका "पार्ट टाइम जॉब" हो गया है। चाहे तो पाठशाला जाए, चाहे तो न जाए....। कोई बन्दिश नहीं है।"
शिक्षण संस्थाओं की स्थिति जानने के लिये उनका वृहद् सर्वेक्षण ज़रूरी है। वैसे तो सरकार ने अधिकारियों की नियुक्ति की है कि समय-समय पर, जब उन्हें फुरसत मिले, प्रत्येक पाठशाला का निरीक्षण करें। किन्तु कौन देखता है यह सब? अफसर को प्रसन्न करने के बाद भला ऐसा कौन सा काम रह जाता है अपने देश में जो ठीक-ठाक न हो सकता हो? गाँव वालों में यदि इतनी चेतना होती तो फिर बात ही क्या थी.....। बहरहाल, बावजूद इन सारी बातों के, सारे के सारे लोग आदिम समुदाय के विकास की चिन्ता में घुले जा रहे हैं। यह सच है। हाँ, अभी हाल ही में यहाँ, नारायणपुर में एक सिविल अस्पताल खुला है; मध्यप्रदेश शासन के स्वास्थ्य विभाग के अधीन। इससे कितनी चिकित्सा-सुविधाएँ मिलेंगी उस आदिम जन समुदाय को, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
बहुत बढिया पोस्ट……… आभार सूचनार्थ: ब्लॉग4वार्ता के पाठकों के लिए खुशखबरी है कि वार्ता का प्रकाशन नित्य प्रिंट मीडिया में भी किया जा रहा है, जिससे चिट्ठाकारों को अधिक पाठक उपलब्ध हो सकें।
ReplyDeleteवैष्णव जी लिखने के लिए कुछ भी मत लिखिए आपके लेखन में बस्तर की खुशबु कम और माओवादी की महक ज्यादा नज़र आती है .आप शुक्ष्म अवलोकन कर लिखें आरोप बुरी बात है . आप अपने वाक्य पर विचार करें किसी एक आदमी के कृत्य के लिए पुरे समाज पर दोषारोपण ?
ReplyDelete"अब भइया, ऐसा है कि मास्टर अब या तो शराब बना कर बेच रहा है या फिर खेती या दूसरा कोई व्यापार कर रहा है। पाठशाला में पढ़ाना तो उसका "पार्ट टाइम जॉब" हो गया है। चाहे तो पाठशाला जाए, चाहे तो न जाए....। कोई बन्दिश नहीं है।".
.आदिवासियों की अस्मिता अब नहीं रह गयी है यहाँ.....। मुझे यहाँ बाहरी लोग ही ज्यादा नज़र आते हैं। सम्पन्न वे ही हैं।"
"शिक्षक गण अध्यापन-कार्य में कम दिलचस्पी लेते हैं। यही इस विद्यालय का आदर्श है
AAP LIKHANE KE PAHALE 100000000000 BAR WICHARKAR LIKHANE KA KASHT KAREN, TAKI AAPAKI BATEN STHAPIT HON NA KI USAKO KOI KAATE .
प्रतिक्रिया के लिये दोनों का आभार। रमाकांत सिंह जी का विशेष आभार उनकी आलोचनात्मक प्रतिक्रिया के लिये। कारण, इसी से मार्गदर्शन होता है। "माओवादी महक" को छोड़ कर आपकी शेष सभी बातें शिरोधार्य हैं। आपको ठेस लगी, इसके लिये क्षमा प्रार्थी हूँ।
ReplyDeleteइतनी बुरी दशा !!!!!!!!
ReplyDeleteचिंता मत कीजिए घूरे के भी दिन पलटते हैं.