बड़ी शान से ब्लॉग तो शुरु कर लिया किन्तु अब पता चला कि ब्लॉगिंग कोई हँसी-ठट्ठा नहीं है कि कोई भी "चला ले"। बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं। पिछले दस दिनों से मेरे नगर कोंडागाँव में चल रहे विभिन्न जनहित-कार्यों के चलते मेरे टेलीफोन की लाईन कटी पड़ी रही और मैं इसके बिना "नाकारा" हो गया था। पिछले दस दिनों के लगातार विनम्र निवेदनों के बाद आज जा कर लाईन सुधरी भी तो इस समझाइश के साथ कि आज रात में पुन: लाईन कटने की पूरी सम्भावना है। कारण, पाईप-लाईन बिछाने के लिये जेसीबी का आगमन होगा। तब मैंने तत्काल कम्प्यूटर खोला और आनन-फानन में यह दूसरा पोस्ट लगाने की जुगाड़ करने लगा हूँ।
इस पोस्ट में प्रस्तुत है बस्तर-माटी के अन्यतम हल्बी कवि श्री सोनसिंह पुजारी जी का "इँदराबती" शीर्षक गीत, जिसे आगे किसी पोस्ट में सांगीतिक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करूँगा। इनकी अन्य कविताओं से भी परिचित कराना आवश्यक होगा ताकि उन्हें बस्तर माटी के अन्यतम कवि कहे जाने का मेरा दावा सिद्ध हो सके। इन्द्रावती बस्तर की जीवन-रेखा कही जाती रही है जिसका पानी अब "जँवरा" नामक नाले में समाहित होता जा रहा है। इस नाले के विषय में पिछले दिनों सिंहावलोकन वाले श्री राहुल सिंह जी से बातचीत होती रही थी। बहरहाल, मूल विषय की ओर लौटते हैं और रू-ब-रू होते हैं उस कवि और उसकी कविता से जिसे मैं हल्बी का अन्यतम कवि कहता हूँ।
छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल बस्तर अंचल, जिसे देश के सबसे पिछड़े इलाकों में शुमार किया जाता है और समझा जाता है कि यह इलाका सभ्यता से कोसों दूर है; इतना ही नहीं अपितु जिसके रहवासियों के विषय में यह भी भ्रान्त धारणा है कि इस अंचल के लोग नंगे रहा करते हैं, और जिसकी गोंड जनजाति में प्रचलित घोटुल नामक संस्था जिसे इस जनजाति का विश्वविद्यालय कहा जाना चाहिये, के विषय में कामुकता भरी घिनौनी कहानियाँ वास्तविकता को जाने-बूझे बगैर गढ़ ली जाती हैं, में साहित्य-सृजन का सूत्रपात 1908 में प्रकाशित पं. केदार नाथ ठाकुर के बहुचर्चित ग्रन्थ "बस्तर-भूषण" के साथ माना जाता है। इसके पूर्व इस अंचल में साहित्य-सृजन का कोई उल्लेख कहीं नहीं मिलता। "बस्तर-भूषण" के लेखक पं. केदार नाथ ठाकुर (जगदलपुर) पेशे से बस्तर स्टेट के नार्दर्न सर्किल में फारेस्ट रेंजर हुआ करते थे। उन्होंने शासकीय कार्य निष्पादन के लिये अपने क्षेत्रीय भ्रमण के दौरान जो कुछ देखा-सुना और अनुभव किया उसे लेखबद्ध कर "बस्तर भूषण" शीर्षक से ग्रन्थ का प्रणयन किया। "बस्तर भूषण" के अतिरिक्त उन्होंने "सत्यनारायण कथा", "बसन्त विनोद" की भी रचना की और बाद में इन दोनों पुस्तकों को "केदार विनोद" नामक अपनी अन्य पुस्तक में संग्रहित किया। "बस्तर विनोद" और "विपिन विज्ञान" उनकी अन्य पुस्तकें है, किन्तु ये उपलब्ध नहीं हैं ("बस्तर-भूषण" : पं. केदार नाथ ठाकुर, द्वितीय संस्करण, 1982, प्रकाशक : श्रीमती बेनवती मिश्र, "इतिहास दीपन", फुलवारी पारा, रतनपुर, छत्तीसगढ़)। बस्तर के विषय में हिन्दी में सर्वप्रथम लगभग सम्पूर्ण जानकारी देने वाले इस ग्रन्थ "बस्तर-भूषण" की चर्चा तब भी हुई थी और आज भी यह चर्चित बना हुआ है। आज भी लोग इसे खोजते फिरते हैं।
चर्चा लाल कालीन्द्र सिंह (जगदलपुर) द्वारा लिखित "बस्तर-भूषण" नामक ग्रन्थ की भी होती है किन्तु इसकी प्रति उपलब्ध नहीं है। कहा जाता है कि यह तत्कालीन रियासती प्रशासन की दृष्टि में आपत्तिजनक होने के कारण जब्त कर लिया गया था, जिससे उसका मुद्रण-प्रकाशन सम्भव नहीं हो सका। लाल कालीन्द्र सिंह रचित "बस्तर इतिहास" का भी उल्लेख मिलता है, जिसे उन्होंने 1908 में लिखा था। किन्तु यह ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं है ("बस्तर-लोक : कला-संस्कृति प्रसंग" : लाला जगदलपुरी, 2003 : 223, प्रकाशक : आकृति संस्थान, बस्तर हाई स्कूल रोड, जगदलपुर, बस्तर-छत्तीसगढ़)। बस्तर महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव ने "लोहण्डीगुड़ा तरंगिणी" तथा अंग्रेजी में "आई प्रवीर द आदिवासी गॉड" लिखी। पं. सुन्दरलाल त्रिपाठी (जगदलपुर) ने क्लिष्ट हिन्दी में रचना-कर्म किया।
इनके पश्चात् पं. गंगाधर सामन्त "बाल" (जगदलपुर) द्वारा रचित साहित्य स्थान पाता है। द्विवेदी युग में पण्डित जी की रचनाएँ "कर्मवीर", "विद्या", "राजस्थान केशरी", "विद्यार्थी", "सत्यसेतु" "काव्य-कौमुदी" और "विश्वमित्र" जैसे स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। इसके अलावा आप रियासत कालीन बस्तर के एकमात्र साप्ताहिक "बस्तर-समाचार" में "पंचामृत" शीर्षक स्तम्भ के स्तम्भ-लेखक थे। उनकी प्रकाशित कृतियों में "अभिषेकोत्सव", "शोकोद्गार", "प्राचीन कलिंग खारवेल", "तत्वमुद्रा धारण निर्णय" "रमलप्रश्न प्रकाशिका" और "गीता का पद्यानुवाद" का उल्लेख मिलता है ("बस्तर-लोक : कला-संस्कृति प्रसंग" : लाला जगदलपुरी, 2003 : 223, प्रकाशक : आकृति संस्थान, बस्तर हाई स्कूल रोड, जगदलपुर, बस्तर-छत्तीसगढ़)।
साहित्य-सृजन के इस क्रम को आगे बढ़ाया था ठाकुर पूरनसिंह (जगदलपुर) ने। उन्होंने हिन्दी में "बस्तर की झाँकी", और "पूरन दोहावली", तथा हल्बी में "भारत माता चो कहनी" और "छेरता तारा गीत" शीर्षक पुस्तकों की रचना की थी। 1937 में प्रकाशित "हल्बी भाषा-बोध" राजकीय अमले को हल्बी भाषा सिखाने के लिये लिखी गयी उनकी पुस्तक थी। ठाकुर पूरन सिंह को बस्तर की हल्बी लोक भाषा में लिखित साहित्य की रचना करने वाले प्रथम साहित्यकार होने का श्रेय जाता है। वे ही हल्बी के प्रथम गीतकार भी थे। उन्हीं के सहयोग से मेजर आर. के. एम. बेट्टी ने 1945 में "ए हल्बी ग्रामर" की रचना की थी। इसी क्रम में पं. गणेश प्रसाद सामन्त (जगदलपुर) ने "देबी पाठ" नामक एक पद्य पुस्तिका रची थी। 1950 में पं. गम्भीर नाथ पाणिग्राही (जगदलपुर) रचित कविता-संग्रह "गजामूँग" प्रकाशित हुआ था। पं. वनमाली कृष्ण दाश (जगदलपुर) ने भी साहित्य-सृजन किया था किन्तु उनकी किसी प्रकाशित पुस्तक का उल्लेख नहीं मिलता ("बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति" : लाला जगदलपुरी, 1994, प्रकाशक : मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल, मध्य प्रदेश)। पं. देवीरत्न अवस्थी "करील" (गीदम) ने हिन्दी के साथ-साथ हल्बी में भी काव्य-रचना की। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं "देवार्चन", "मधुपर्क", "लोकरीति" और "रघुवंश"। उनकी उत्तम साहित्य-साधना के लिये उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा "साहित्य-रत्न" की उपाधि से विभूषित किया गया था। इसी तरह महाकवि कालिदास की कृति "रघुवंश" के हिन्दी छन्दानुवाद के लिये साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा पुरस्कृत किया गया था ("अमृत काव्यम्", सम्पादक : अवधेश अवस्थी, 2005, प्रकाशक : अमृत प्रकाशन, ग्वालियर, मध्य प्रदेश)। 1960 के आसपास अयोध्या दास वैष्णव (खोरखोसा, जगदलपुर) ने "चपकेश्वर महात्म्य" शीर्षक काव्य-पुस्तिका का प्रणयन किया था।
लाला जगदलपुरी (जगदलपुर) ने साहित्य-साधना आरम्भ की 1936 से और उनकी रचनाएँ 1939 से ही प्रकाशित होने लगीं। उनकी प्रकाशित कृतियों में कविता एवं ग़ज़ल संग्रह "मिमियाती ज़िंदगी दहाड़ते परिवेश" (ग़ज़ल), "पड़ाव-5" (कविता), "हमसफ़र" (कविता) और "ज़िंदगी के लिये जूझती ग़ज़लें", "गीत-धन्वा" (मुक्तक एवं गीत संग्रह) तथा लोक कथा संग्रहों में "हल्बी लोक कथाएँ", "वनकुमार और अन्य लोक कथाएँ", "बस्तर की मौखिक कथाएँ" (हरिहर वैष्णव के साथ), "बस्तर की लोक कथाएँ" और इतिहास-संस्कृति विषयक "बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति", "बस्तर-लोक : कला-संस्कृति प्रसंग", तथा "बस्तर की लोकोक्तियाँ" हैं। उनके द्वारा हल्बी में अनूदित पुस्तकें हैं, "प्रेमचन्द चो बारा कहनी", "बुआ चो चिठी मन", "रामकथा" और "हल्बी पंचतन्त्र"। इसके अतिरिक्त उनकी अनेकानेक रचनाओं ने विभिन्न मिले-जुले संग्रहों में भी स्थान पाया है। इनमें "समवाय", "पूरी रंगत के साथ", "लहरें", "इन्द्रावती", "सापेक्ष", "हिन्दी का बाल गीत साहित्य", "सुराज", "चुने हुए बाल गीत", "छत्तीसगढ़ी काव्य संकलन", "छत्तीसगढ़ के माटी चंदन", "छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह", "गुलदस्ता" "स्वर संगम", "गीत हमारे कण्ठ तुम्हारे", "बाल गीत", "बाल गीत भाग-4", "बाल गीत भाग-5" "बाल गीत भाग-7", "हम चाकर रघुवीर के", "मध्य प्रदेश की लोक कथाएँ", "स्पन्दन", "चौमासा", और "अमृत काव्यम्" आदि प्रमुख हैं। इसके साथ ही उनकी विभिन्न रचनाएँ "वेंकटेश्वर समाचार", "चाँद" "विश्वमित्र", "सन्मार्ग", "पाञ्चजन्य", "मानवता", "कल्याण", "नवनीत", "कादम्बिनी", "नोंकझोंक", "रंग", "ठिठोली", "चौमासा", "रंगायन", "ककसाड़" आदि अन्य स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाती रही हैं।
गुलशेर खाँ शानी (जगदलपुर), धनञ्जय वर्मा (जगदलपुर), लक्ष्मीचंद जैन (जगदलपुर), कृष्ण कुमार झा (जगदलपुर), सुरेन्द्र रावल (कोंडागाँव), चितरंजन रावल (कोंडागाँव), कृष्ण शुक्ल (जगदलपुर) आदि ने भी साहित्य-सृजन के क्षेत्र में कदम रखा और विभिन्न विधाओं में साहित्य-सृजन किया। शानी एक कथाकार-उपन्यासकार के रूप में स्थापित हुए जबकि डॉ. धनञ्जय वर्मा आलोचना के क्षेत्र में मील के पत्थर साबित हुए। वे आज आलोचना के शिखर-पुरुष के रूप में जाने और माने जाते हैं। शानी की रचनाओं में "बबूल की छाँव", "डाली नहीं फूलती", "छोटे घर का विद्रोह", "एक से मकानों का घर", "युद्ध", "शर्त का क्या हुआ", "मेरी प्रिय कहानियाँ", "बिरादरी", "सड़क पार करते हुए", "जहाँपनाह जंगल", "सब एक जगह", "पत्थरों में बंद आवाज", "कस्तूरी", "काला जल", "नदी और सीपियाँ", "साँप और सीढ़ी", "एक लड़की की डायरी", "शाल वनों का द्वीप" और "एक शहर में सपने बिकते हैं" प्रमुख हैं।
डॉ. धनञ्जय वर्मा की प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं, "निराला : काव्य और व्यक्तित्व", "आस्वाद के धरातल", "निराला काव्य : पुनर्मूल्यांकन", "हस्तक्षेप", "आलोचना की रचना-यात्रा", "अँधेरे के वर्तुल", "आधुनिकता के बारे में तीन अध्याय", "आधुनिकता के प्रतिरूप", "समावेशी आधुनिकता", "हिन्दी कहानी का रचना शास्त्र", "हिन्दी कहानी का सफ़रनामा", "परिभाषित परसाई", "हिन्दी उपन्यास का पुनरावतरण", "आलोचना के सरोकार", "लेखक की आज़ादी" और "आलोचना की ज़रूरत"।
यह कहा जाये कि हल्बी जनभाषा में उल्लेखनीय काव्य-सृजन के लिये सोनसिंह पुजारी का नाम सर्वोपरि रहा है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यद्यपि उन्होंने कुल मिला कर 27 कविताएँ ही लिखी किन्तु ये 27 कविताएँ आरम्भ से आज तक हल्बी जनभाषा में लिखी गयी विभिन्न कवियों की कविताओं पर भारी साबित होती हैं। इसीलिये उन्हें हल्बी का अनन्य कवि कहे जाने में कोई संशय नहीं होना चाहिये। 1982-84 के बीच उनके साथ एक ऐसी भयावह और मर्मान्तक साहित्यिक घटना घटी कि साहित्य से उनका मोह-भंग हो गया। कारण वे बताना नहीं चाहते। वह कारण मैं जानता हूँ किन्तु न तो उन्हें कुरेदना चाहता हूँ और न ही उसका उल्लेख यहाँ करना चाहता हूँ। एक अतिसंवेदनशील और इस अंचल के महत्त्वपूर्ण कवि का कविता से दूर हो जाना स्वयं उस कवि के लिये कितना मर्मान्तक है, इसे वे बहुत भली प्रकार अनुभव करते हैं; किन्तु विवश हैं।
प्रस्तुत है उनका यह गीत :
इँदराबती
बोहुन जाएसे इँदराबती, बोहुन जाएसे इँदराबती
गोरस-धारा चो असन, बोहुन जाएसे।
मायँ बलें मयँ इँदराबती, आया बलें मयँ इँदराबती
कोरा धरुन मया करे, बोहुन जाएसे।
गाँव-गुड़ा ने इँदराबती, बेड़ा-खाड़ा ने इँदराबती
रान-बन चो मँजगते, बोहुन जाएसे।
लोलो-बालो के इँदराबती, गाय-गरु के इँदराबती
मायँ असन मया करे, बोहुन जाएसे।
गंगा बलें मयँ इँदराबती, जमुना बलें मयँ इँदराबती
गोरस धारा चो असन, बोहुन जाएसे।
इन्द्रावती
बह रही है इन्द्रावती, बह रही है इन्द्रावती
गोरस-धारा की तरह बहती जा रही है।
माँ कहूँ मैं इन्द्रावती, माता कहूँ मैं इन्द्रावती
गोद में ले कर स्नेह करती, बहती जा रही है।
गाँव-गाँव में इन्द्रावती, खेत-खार में इन्द्रावती
जंगलों के बीच से, बहती जा रही है।
बाल-बच्चों को इन्द्रावती, गाय-बैलों को इन्द्रावती
माँ की तरह स्नेह करती, बहती जा रही है।
गंगा कहूँ मैं इन्द्रावती, यमुना कहूँ मैं इन्द्रावती
दूध की धार जैसी, बहती जा रही है।
श्री पुजारी जी का सम्पर्क-सूत्र है :
श्री एस. एस. पुजारी
रिटायर्ड एडीशनल कलेक्टर
सिविल लाईन के पीछे
लालबाग
जगदलपुर 494001
बस्तर-छ.ग.
मोबाईल : 94-060-02484
श्री सोनसिंह पुजारी से प्रारंभ कर आपने बस्तर के सभी साहित्य सृजन करने वाले माटी पुत्रों की जानकारी दे दी. आभार. कोंडागांव के एक मास्साब की याद आ रही है जो सन ६० के दशक में अंग्रेजी में कवितायें/गीत लिखा करते थे. उनका नाम तो याद नहीं आ रहा लेकिन एक गीत का शीर्षक "Flowers for Sale " था.
ReplyDeleteश्री सुब्रमणियम जी,
Deleteमेरे पूज्य गुरुदेव श्री टी. एस. ठाकुर के अनुसार अँग्रेजी में कविता-गीत लिखने वाले उन मास्साब का नाम लीलाधर राय था। वे यह भी बताते हैं कि उन दिनों कोई श्री सुब्रमणियम जयस्तम्भ चौक के पास राव होटल वाले के घर के बगल में रहा करते थे और वे डीएनके प्रोजेक्ट में अधिकारी थे। लगता है, आपका सम्बन्ध उन्हीं श्री सुब्रमणियम जी से है।
बड़े दिनों बाद पुजारी साहब की जानकारी मिली, अच्छा लगा.
ReplyDeleteआपके माध्यम से हमें भी जानकारी मिली……… आभार
ReplyDeleteआपकी कविता हल्बी वाली बहुत अच्छी लगी
ReplyDeleteहमें हल्बा समाज के बारे में अधिक जानकारी चाहिए
ReplyDeleteDinank 25-26 April 2015 ko saahitya academy New Delhi dwara Bastar Vishwvidyalay ke sahyog se Jagdalpur, Bastar, Chhattisgarh mein Halbi bhasha evam Halba Janjaati par kendrit seminar aayojit hai. Padhaar kar jaankaarii haasil kii jaa saktii hai
ReplyDeleteHalba smaj ke Mul sthan ke bare me btaye
ReplyDeleteJaankaari ke liye apnaa shubh naam to bataayein maanyawar.
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