Saturday 23 June 2012

संस्कार धानी कोंडागाँव



कोंडानार से अपना सफर शुरु करने वाला और आगे चल कर कोंडागाँव नाम से अभिहित बस्तर सम्भाग की संस्कार धानी के नाम से जाना जाने वाला यह कस्बा अब नगराता जा रहा है। यह कहा जाये कि शहरीकरण के इस दानवी दौर में अपने संस्कार खोती जा रही 26898 (वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार) की आबादी वाली इस संस्कार धानी की आत्मा चीत्कार कर रही है तो कदाचित् अनुचित नहीं होगा। तथाकथित आधुनिकता और विकास की राह पर चल पड़ी इस संवेदनशील नगरी से संवेदनशीलता गधे के सिर से सींग की तरह गायब होती जा रही है। दादा-भैया जैसे आत्मीय सम्बोधन के साथ लोगों से बातें करने वाले कोंडागाँव के जन अब नयी पीढ़ी को इस आत्मीय सम्बोधन को भूलते देख गहरे विषाद से भर उठे हैं। इसकी जगह अब "सर", "हैलो" और "हाय" ने ले ली है। कभी अकूत भूमि के स्वामी रहे वनवासी अपनी भूमि कौड़ियों के मोल बेच कर हाशिये पर चले गये हैं। दिनोंदिन बढ़ती आबादी और यातायात के दबाव के चलते बन्धा तालाब के पास स्थित शिव मन्दिर से ले कर श्रीराम मन्दिर तालाब (बड़े तरई) तक मुख्य मार्ग के दोनों ओर खड़े रसीले और मीठे आमों के कई पेड़ जो कभी इस कस्बे की शोभा रहे, आज सौंदर्यीकरण की भेंट चढ़ चुके हैं। इन पेड़ों के कट जाने की पीड़ा मुझे भीतर तक सालती है और आजीवन सालती रहेगी। कारण, अपनी किशोरावस्था में इन पेड़ों से टपकते मीठे-रसीले आम बीनने के लिये सुबह 4.00 बजे जाग जाना मुझे अभी भी याद है। सड़क पर आने की देर नहीं और प्रत्येक पेड़ के नीचे आम के ढेर दिखलायी दे जाते। इन आमों पर किसी का कोई अधिकार नहीं होता था। जिसने बीन लिये आम उसके। इस तरह का एक आपसी समझौता हुआ करता था। कोई वाद-विवाद नहीं। किन्तु आज न तो आम के वे पेड़ हैं, न उनकी शीतल और गहरी छाँव और न उस तरह की आपसी समझदारी और सौहाद्र्र का कोई संस्कार और वातावरण! इसमें दोष किसी का नहीं है। यान्त्रिकता और अतिभौतिकता की ओर निरंकुश और तेजी से बढ़ते हमारे अनियन्त्रित कदमों के चलते यह तो होना ही था। संवेदनशीलता की भरी गगरी को रीतना ही था। 
यह नगरी न केवल संस्कारधानी के रूप में ख्यात रही है अपितु इस नगर की जलवायु भी आरम्भ से ही बस्तर सम्भाग के अन्य नगरों की तुलना में बिल्कुल भिन्न और स्वास्थ्यवद्र्धक रही है। शुक्र है कि आज भी जंगलों के लगातार कटते जाने के बावजूद इस नगर के तापमान में अन्य जगहों की अपेक्षा नरमाहट का अहसास होता है। 
इस गाँव के नामकरण और इतिहास को ले कर गोंडी और हल्बी भाषियों के बीच मतान्तर है। 
गोंडी भाषी श्री रमेश चन्द्र दुग्गा के अनुसार इस गाँव का नाम गोंडी जनभाषा के शब्द "कोंडा" और "नार" से मिल कर बना था। "कोंडा" अर्थात् आँख और "नार" यानी गाँव। उनका कहना है कि अन्य स्थानों की तरह "कोंडानार" का नाम भी समय के साथ "कोंडागाँव" हो गया। बस्तर के कई गाँवों के नाम मूल गोंडी और हल्बी से अब परिवर्तित हो गये हैं। उदाहरण के लिये नगुर से नारायणपुर, जगतूगुड़ा से जगदलपुर, पाड़ेक् से पालकी, कड़ावेडा से केरलापाल और सँदोड़ार से संधारा आदि। किन्तु हल्बी भाषी स्व. चमरु सिरहा (सरगीपाल पारा, कोंडागाँव) के अनुसार धान की महीन भूसी जिसे कोंडा कहा जाता है, के आधार पर इस गाँव का नाम कोंडागाँव हुआ था। वे एक किम्वदन्ती का हवाला देते हुए बताते थे कि गाँडा जाति (सरगीपाल पारा की रहवासी और छेरकिन डोकरी के नाम से जानी जाने वाली स्व. घिनई कोराम पति सकरु कोराम तथा इसी मोहल्ले के स्व. मँगतू कोराम के अनुसार गोंड जाति) की कोई एक बुढ़िया थी, जो प्राय: दूसरों के लिये धान कूटने का काम करती थी। धान कूटने के इस काम को काँडा ले जाना कहा जाता है। काँडा का नियम होता है 20 पायली धान कूट कर 9 पायली चावल वापस करना और शेष चावल तथा कोंडा (भूसी) मेहनताना के रूप में स्वयं रख लेना। किन्तु वह बुढ़िया इस नियम के विपरीत सारा चावल चाहे वह 10 पायली हो या 11, वापस कर दिया करती और केवल भूसी अपने लिये रख लेती। वही उसका मेहनताना होता। दुनिया की नजरों में उसके इसी ऊटपटाँग किन्तु उस बुढ़िया के हिसाब से युक्तियुक्त नियम के कारण उस बुढ़िया का नाम कोंडा डोकरी और बसाहट का नाम कोंडागाँव प्रचलित हो गया। बाद में (सुकालू राम, ग्राम कोटवार एवं गोपाल पटेल, ग्राम पटेल के अनुसार) बस्तर रियासत के तत्कालीन दीवान मिस्टर मिचेल के सुझाव पर इसका नामकरण कोंडानार से कोंडागाँव किया गया। 
दूसरी किम्वदंती (दुर्योधन मरकाम) के अनुसार नारंगी नदी में बोद मछली जिसे गोंडी में "कोण्डा मीन" कहा जाता है, बहुतायत से मिला करती थी। गोंडी में कोण्डा का अर्थ आँख और मीन का अर्थ मछली है। बोद मछली कानी होती है इसीलिये इसे हल्बी परिवेश में "कानी मछरी" भी कहा जाता है। कहा जाता है कि इस "कोण्डा मीन" की बहुतायत से उपलब्धता ही इस बसाहट के नामकरण का आधार बना और यह बस्ती "कोण्डानार" प्रचलित हो गयी। उल्लेखनीय है कि नार का अर्थ गोंडी में गाँव होता है। बोद मछली का सम्बन्ध (रमेश चन्द्र दुग्गा एवं दुर्योधन मरकाम के अनुसार) गोंड जनजाति की धार्मिक आस्था एवं विश्वास से जुड़ता है। 
       तीसरी किम्वदंती (मनोज कुर्रे) के अनुसार कोई मरार (पनारा) परिवार बाहर से चल कर इधर आ रहा था तब उसकी गाड़ी के पहिये वर्तमान हिंगलाजिन मन्दिर के आसपास कान्दा (कन्द) की नार (बेल) से लिपट कर बाधित हो गये और गाड़ी वहाँ से आगे नहीं बढ़ सकी। तब वह परिवार विवशता में वहीं ठहर गया। रात में परिवार के मुखिया को स्वप्न में बड़ी-बड़ी आँख वाली किसी देवी ने दर्शन दिये और उससे उसी जगह पर अपना ठिकाना बनाने को कहा। वह व्यक्ति सुबह उठा और आसपास के लोगों से उस स्वप्न की बात कही और उस देवी के विषय में बताया। तब उसे बताया गया कि उस देवी का नाम हिंगलाजिन है और उनकी बड़ी-बड़ी आँखों के कारण उन्हें "कोण्डा देवी" भी कहा जाता है। इस तरह "कोण्डा" शब्द से इस बस्ती का नाम कोण्डानार हुआ। यानी कोण्डा देवी का गाँव, कोण्डानार जो आगे चल कर कोण्डागाँव कहा जाने लगा।
        कोंडागाँव के एक पुराने निवासी श्री महादेव यादव स्व. चमरु सिरहा, स्व. छेरकिन डोकरी और स्व. मँगतू राम कोराम द्वारा बतायी गयी किम्वदन्ती से अनभिज्ञ हैं किन्तु इसकी सत्यता पर प्रश्न चिन्ह भी नहीं लगाते। वे कोंडागाँव में जंगली जानवरों के आतंक के विषय में बताते हैं कि आज से लगभग 60-65 वर्ष पूर्व जब वे किशोर थे, उस समय शेर और जंगली सुअर कोंडागाँव बस्ती से होते हुए पूर्व दिशा की पहाड़ियों की ओर जाया-आया करते थे। तहसीलपारा में स्थित उनके घर के पीछे पेटफोड़ी (चीर घर) हुआ करता था। इसी चीर-घर के आसपास जंगली जानवर मँडराया करते थे। बड़ा खौफ था उन दिनों। 
मेरे पिता शासकीय सेवा में थे और जगदलपुर से स्थानान्तरण पर 1968 के मई-जून महीने में हम कोंडागाँव आये थे। उस समय यह दरअसल एक गाँव ही था। आबादी थी यही कोई 7 से 10 हजार के बीच। जगदलपुर-रायपुर राष्ट्रीय राजमार्ग के दोनों ओर लम्बवत् बसाहट थी। गाँव के पूर्व दिशा में मुख्य मार्ग से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर दण्डकारण्य परियोजना का कार्यालय, कर्मचारियों के निवास और एक चिकित्सालय। तब इस रविन्द्रनाथ टैगोर (आरएनटी) चिकित्सालय का नाम, जिसे स्थानीय लोग डीएनके अस्पताल के नाम से जानते हैं, बहुत प्रसिद्ध हुआ करता था। चिकित्सा और चिकित्सा-सुविधाओं के लिहाज से लोग जिला मुख्यालय जगदलपुर के महारानी अस्पताल की बजाय इस अस्पताल को ज्यादा तवज्जो दिया करते थे। किन्तु इस अंचल में दण्डकारण्य परियोजना की समाप्ति के साथ ही स्थानीय जनता के पुरजोर विरोध के बावजूद राजनैतिक उदासीनता के चलते इस चिकित्सालय पर से केन्द्र शासन का नियन्त्रण समाप्त हो गया। इसके साथ ही इस अस्पताल की दुर्दशा के दिन आरम्भ हो गये। इस चिकित्सालय में पदस्थ चिकित्सक डॉ. डी. भन्ज कुशल चिकित्सकों में से थे, जो अब कोंडागाँव के ही हो कर रह गये हैं। मुख्य मार्ग पर ही बस स्टैण्ड था। आज भी उसी जगह पर है किन्तु तब उसके पूर्व दिशा में बसाहट नहीं थी। उधर झाड़ियाँ हुआ करती थीं और सूर्यास्त के साथ ही उस ओर से जाने में लोगो को पसीने छूट जाया करते थे। आज यह इलाका आबाद है और विकास नगर का नाम पा चुका है। सरगीपाल पारा में जब हमने 1970 में मकान बनाया उस समय हमारा मकान अन्तिम सिरे पर था। हमारे घर से लगभग 30 मीटर की दूरी से ही साल का छोटा-सा जंगल लगा हुआ था और इधर भी सूर्यास्त के बाद जाने की हिम्मत नहीं होती थी। कभी यहाँ साल का बड़ा-सा जंगल रहा होगा तभी इस जगह का नाम सरगीपाल हुआ। साल का स्थानीय नाम सरगी (अथवा सरई) है। 
       कोंडागाँव को संस्कार धानी कुछ यो ही नहीं कहा जाता। यह अलग बात है कि आज के बदलते परिवेश में दुर्भाग्यवश यह नाम अपनी सार्थकता खोता चला जा रहा है। बहरहाल, बाँसुरी वादन के लिये स्व. श्यामलाल रवानी, रामचरित मानस, मातासेवा और फाग गायन के लिये स्व. पूरन महाराज (पूरन शर्मा), स्व. रतनसिंह देवांगन और स्व. श्यामदास वैष्णव चर्चित रहे हैं। इसी तरह कस्बे को भागवतमय बनाने के लिये भागवत कथा के आयोजनों में स्व. अयोध्या प्रसाद पाणिग्राही एवं उनका परिवार, श्री जागेश्वर प्रसाद गुप्ता, श्री जगरुप गुप्ता, श्री हरिहर सिंह गौतम और श्री (अब स्व.) मोहन गोलछा की सक्रिय भागीदारी भी उल्लेखनीय रही है। योग को लोकप्रिय बनाने की दिशा में अहर्निश प्रयास कर रहे श्री बीरेन्द्र धर, श्री योगेन्द्र देवांगन, श्रीमती मधुलिका देवांगन, श्री लखनलाल पटेल और उनके साथियों का परिश्रम फल-फूल रहा है। प्रति वर्ष वर्षा ऋतु में जगदलपुर-रायपुर मार्ग पर भँवरदीग (जुगानी) और मार्कण्डेय नदी (काकड़ीघाट) तथा कोंडागाँव-नारायणपुर मार्ग पर भँवरदीग नदी (किबई कोकोड़ी) और छेरीबेड़ा नदी में आयी बाढ़ में फँसे सैकड़ों यात्रियों की नि:स्वार्थ सेवा के लिये कोंडागाँव भली प्रकार जाना जाता रहा है। चाहे वह व्यवसायी हो, अधिकारी या कर्मचारी अथवा राजनीतिक-गैर राजनीतिक या फिर युवा या बच्चे और बूढ़े; सभी बाढ़ में फँसे यात्रियों की तन-मन-धन से सेवा में यथाशक्ति लगे रहे हैं। 
       नवयुवक सामाजिक एवं सांस्कृतिक समिति इस कस्बे की बहुत ही सक्रिय संस्था रही थी। श्री टी. एस. ठाकुर के कुशल मार्गदर्शन में इस संस्था ने वर्षों तक सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के कई कीर्तिमान स्थापित किये। इस संस्था ने कुछ समय तक एक महाविद्यालय का भी संचालन किया था। फिर जैसा कि सृजनधर्मी संस्थाओं के साथ प्राय: होता है, इस संस्था के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ और कुछ वर्षों बाद बिखर गया यह संगठन। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि सांस्कृतिक गतिविधियों पर विराम लग गया हो।  कुछ ही वर्षों बाद सांस्कृतिक क्षेत्र में नवोन्मेष के साथ फिर से हलचल हुई और एकाएक सांस्कृतिक संस्थाओं की बाढ़-सी आ गयी। "अभिव्यंजना सांस्कृतिक समिति", "गीतांजलि सांस्कृतिक समिति", "जगार सांस्कृतिक समिति" और "बनफूल सांस्कृतिक समिति" का गठन लगभग एक ही समय में हुआ। इनमें से "जगार" और "बनफूल" संस्थाओं ने कोंडागाँव के अतिरिक्त दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्र में भी लोक संस्कृति से ओतप्रोत कार्यक्रम प्रस्तुत किये। लोक भाषा हल्बी में प्रस्तुत इन संस्थाओं के कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय हुए थे। विशेषत: मध्यप्रदेश तुलसी अकादमी के आयोजन "जनरंजन" में "जगार सांस्कृतिक समिति" द्वारा प्रस्तुत हल्बी रामायण (सीता हरण प्रसंग) ने ऐसी धूम मचायी थी कि अनेक गाँवों से इसकी प्रस्तुतियों के लिये इस संस्था को आमन्त्रण प्राप्त होते रहे। किन्तु कुछ ही वर्षों बाद ये संस्थाएँ भी केवल नाम को रह गयीं और गतिविधियों पर विराम लग गया। कारण, इन संस्थाओं से जुड़े अधिकांश कलाकार शासकीय सेवक थे और कुछ वर्ष यहाँ रह कर इधर-उधर स्थानान्तरित हो गये। "अभिव्यंजना" और "गीतांजलि" का कार्यकाल सम्भवत: एक या दो वर्षों का ही रहा होगा। इसके काफी समय बाद दो नयी संस्थाओं "वन्दना आर्ट्स" और "नवरंग सांस्कृतिक समिति" का अभ्युदय हुआ जिन्होंने कुछ वर्षों तक सांस्कृतिक गतिविधियों में जान फूँकी। ये दोनों ही संस्थाएँ मुख्यत: रंगमंच से जुड़ी रहीं और बस्तर के बाहर देश के विभिन्न नगरों में भी इनकी नाट्य प्रस्तुतियों ने लोगों का ध्यान बस्तर के रंगमंच की ओर खींचा। किन्तु बुद्धू बक्सा के आने के साथ ही सांस्कृतिक गतिविधियों का टोटा पड़ गया। एक लम्बा समय रिक्तता का था। इस रिक्तता की पूर्ति कुछ वर्षों बाद "गीतांजलि आर्केस्ट्रा", "संस्कृति ग्रुप ऑफ आर्ट्स" और "भारत क्लब जूनियर" ने की है। इनमें से "संस्कृति ग्रुप ऑफ आर्ट्स" सम्भवत: निष्क्रिय हो गयी है जबकि "गीतांजलि" और "भारत क्लब जूनियर" अभी भी सक्रिय हैं। 
        भारत क्लब अधिकारियों के मनोरंजन के लिये स्थापित एक संस्था रही है। इस क्लब के सौजन्य से नगर में सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी संचालित होती रही हैं। इन दिनों क्लब का अस्तित्व तो नहीं रहा किन्तु इसके भवन तथा नाम का उपयोग नगर के सृजनधर्मियों द्वारा रचनात्मक गतिविधियों के संचालन के लिये किया जा रहा है। इस क्लब में वर्षों पहले एक पुस्तकालय भी हुआ करता था जिसमें महत्वपूर्ण पुस्तकें हुआ करती थीं किन्तु आज वहाँ एक भी पुस्तक नहीं है। जानने वाले बताते हैं कि सारी पुस्तकें इस क्लब से जुड़े कुछ लोगों की व्यक्तिगत सम्पत्ति बन कर रह गयी हैं। संस्कार धानी कहलाने का गौरव हासिल होने के बावजूद इस नगर में आज तक एक पुस्तकालय अथवा वाचनालय तक संचालित नहीं है; यह कमी दिल में काँटे की तरह चुभती रही है। 
        प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ की इकाइयाँ यहाँ कुछ समय के लिये सक्रिय रहीं फिर इनमें भी बिखराव आ गया। लम्बे समय तक सक्रिय रहने वाली एकमात्र संस्था थी "प्रज्ञा साहित्य समिति"। किन्तु इसका भी वही हश्र हुआ। फिर कुछेक संस्थाएँ जन्मीं, कुछ दिनों तक पलीं और फिर मृत्यु को प्राप्त हो गयीं। पिछले दिनों श्री चितरंजन रावल के संयोजन में छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद् की इकाई का गठन हुआ है जिसने फरवरी में एक उल्लेखनीय कार्यक्रम यहाँ आयोजित किया था। इसकी भी बैठकें कुछ दिनों तक नियमित रहीं किन्तु अब यह भी उसी ढर्रे पर चल पड़ी है। कारण है, रचनाकारों और साहित्यप्रेमियों का रुचि न लेना। प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के साथ ही यहाँ इप्टा की भी गतिविधियाँ कुछ दिनों तक जारी रहीं और बाद में ठप पड़ गयीं। इप्टा की गतिविधियाँ श्री मनीष श्रीवास्तव और शिशिर श्रीवास्तव तथा उनके साथी संचालित किया करते थे। 
       बस्तर की लोक कलाओं के संरक्षण, विकास और विस्तार तथा लोक कलाकारों के हितों के लिये कार्य करने के उद्देश्यों के साथ जन्मी संस्था "पारम्परिक बस्तर शिल्पी परिवार" कई वर्षों तक सक्रिय रही और इसने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य भी किये। किन्तु आज यह संस्था भी मृतप्राय है। समाज-सेवा के क्षेत्र में "साथी समाज सेवी संस्था" ने उल्लेखनीय कार्य किये और इसकी गतिविधियाँ आज भी निरन्तर चल रही हैं। अन्य संस्थाओं में "विकास मित्र" तथा "धरोहर" के नाम लिये जा सकते हैं। 
     कला-साधकों की बात करें तो सुगम संगीत के क्षेत्र में सर्वश्री सूर्यम, मन्जीत सिंह, दीनदयाल भट्ट, जयलाल देवांगन, स्व. विश्वेश्वर लाल रवानी, स्व. जान वेलेजली मिलाप, चन्द्रकान्त "साहिल", जगदीश चन्द्र कलियारी, जयलाल देवांगन, सुश्री अंजना मिलाप, स्व. प्रदीप मिलाप, सर्वश्री डी. ढाली, खीरेन्द्र यादव, सुश्री नन्दा शील और शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में श्री आर. बी. दीक्षित और श्री गोस्वामी तथा स्व. ठाकुर नूतन सिंह राठौर के नाम उल्लेखनीय रहे हैं। बाँसुरी, तबला, नाल और ढोलक वादन के क्षेत्र में श्री खेम वैष्णव तथा तबला वादन के क्षेत्र में श्री प्रणव चटर्जी और श्री सुबोध के नाम आज भी लोगों की जुबान पर हैं। श्री टंकेश्वर पाणिग्राही लोकगीत गाने के अपने विशिष्ट अंदाज के लिये जाने जाते रहे हैं। नवोदित कलाकारों में सर्वश्री सहदेव साहा, तरुण पाणिग्राही, भूपेश पाणिग्राही, जयेश, अमित दास, सिद्धार्थ वैष्णव, नवनीत, प्रद्युम्न, चोखेन्द्र डाबी, रिक्की और सुश्री डॉली घुड़ैसी आदि के नाम लिये जा सकते हैं। लोक गायकों में गुरुमाय सुकदई कोराम एक ऐसा नाम है जिनके गाये बस्तर की धान्य देवी की कथा "लछमी जगार" का पुस्तकाकार प्रकाशन न केवल आस्ट्रेलियन नेशनल युनीवर्सिटी के सहयोग से हुआ अपितु जिसकी चर्चा राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी हुई है। लोककलाओं के क्षेत्र में इस नगर के सर्वश्री जयदेव बघेल (घड़वा शिल्पी), खेम वैष्णव (लोक चित्रकार), पंचूराम सागर, राजेन्द्र बघेल, भूपेन्द्र बघेल (तीनों घड़वा शिल्पी) आदि ने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की है। कला के क्षेत्र में श्री सुशील सखूजा का नाम गिनीज बुक आफ वल्र्ड रिकार्ड में दर्ज होना भी कोंडागाँव की एक बड़ी उपलब्धि कही जायेगी। देश के पाँच राज्यों की लोक कथाओं को हल्बी में एनीमेशन फिल्म के जरिये स्कॉटलैंड की संस्था "वेस्ट हाईलैंड एनीमेशन" के साथ मिल कर अन्तर्राष्ट्रीय दर्शकों तक पहुँचाने में भी कोंडागाँव के कलाकारों का योगदान उल्लेखनीय है। 
       साहित्य के क्षेत्र में कोंडागाँव को अग्रिम पंक्ति में लाने का श्रेय यदि किसी को जाता है तो वे हैं सुपरिचित कवि और व्यंग्यकार श्री सुरेन्द्र रावल। उन दिनों जब मैं रचना-कर्म से जुड़ा तब यहाँ स्व. पी.एल.कनवर, स्व. ओ.पी.शर्मा, श्री सुरेन्द्र रावल और जनाब उमर हयात रज़वी वरिष्ठ कवि और शायर हुआ करते थे। प्राय: प्रत्येक 8-10 दिनों में एक गोष्ठी अवश्य ही हुआ करती थी। गोष्ठी न हो तो पेट में दर्द होने लगता था। इसके ठीक विपरीत गोष्ठी के नाम पर आज पेट में दर्द उठने लगता है। बहरहाल, वरिष्ठ रचनाकारों के आग्रह पर मैं भी अपनी अनगढ़ कविताएँ बड़े ही संकोच के साथ सुना दिया करता था जिन पर वरिष्ठ रचनाकारों की स्वस्थ टिप्पणियाँ प्राप्त होती थीं। गोष्ठियों में स्थायी सुधी श्रोता हुआ करते थे सर्वश्री टी. एस. ठाकुर, हेमसिंह राठौर और स्व. हादी भाई रिज़वी। ये तीनों ही साहित्य-पिपासु, साहित्य-मर्मज्ञ और विद्वान थे और भाषा पर भी इनका गजब का अधिकार था। रचनाकार इन सुधी श्रोताओं से मार्गदर्शन प्राप्त करते रहे हैं। कहते हैं कि खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है। सो इसी कहावत को चरितार्थ करते हुए इनमें से श्री हेमचन्द्र सिंह सिंह राठौर आगे चल कर स्वयं भी कवि हो गये। श्री टी.एस.ठाकुर आज भी गोष्ठियों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। स्व. हादी भाई रिज़वी की कमी सभी को खलती है। बहरहाल, आगे चल कर सुप्रसिद्ध कथाकार और कवि श्री मनीषराय और बस्तर की जनभाषा हल्बी के वरेण्य कवि श्री सोनसिंह पुजारी के इस नगर में आगमन ने यहाँ की साहित्यिक गतिविधियों की सक्रियता में और भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। श्री पुजारीजी के सान्निध्य में यहाँ के कई रचनाकारों ने लोकभाषा में सृजन आरम्भ किया। यों तो मैं पहले से ही हल्बी जनभाषा में सृजन कर रहा था किन्तु श्री पुजारीजी के सान्निध्य ने मुझे इस ओर गम्भीरता पूर्वक काम करने की प्रेरणा दी। इसके लिये मैं श्री पुजारीजी का हृदय से आभारी हूँ। 1982 में मनीषरायजी के प्रयासों और श्री सोनसिंह पुजारी तथा श्री के. सी. दास के सहयोग से यहाँ "सर्जना 82" नामक एक विराट् सम्मेलन सम्पन्न हुआ जिसमें अखिल भारतीय ख्याति के सुप्रसिद्ध कथाकारों सर्वश्री हरिनारायण ("कथादेश" के सम्पादक), बलराम ("सारिका" के उप सम्पादक), संजीव, अब्दुल बिस्मिल्लाह, पुन्नीसिंह, धीरेन्द्र अस्थाना, रऊफ परवेज़, किरीट दोशी, लक्ष्मीनारायण पयोधि आदि ने भी शिरकत की। कोंडागाँव के साथ-साथ सम्पूर्ण बस्तर अंचल के साहित्य-प्रेमियों के लिये यह एक ऐतिहासिक और अविस्मरणीय आयोजन सिद्ध हुआ। इसी आयोजन में बस्तर पर केन्द्रित महत्वपूर्ण ग्रन्थ "इन्द्रावती" का विमोचन भी हुआ। इस ग्रन्थ के सम्पादक थे स्व. मनीषराय और श्री बलराम। सृजन-यात्रा अविराम चलती रही किन्तु बीच-बीच में कुछ व्यवधान भी उपस्थित हो जाया करते। फिर कुछ दिनों के लिये शून्य की स्थिति निर्मित हो गयी। तभी समकालीन कविता के सुपरिचित हस्ताक्षर श्री संजीव बख्शी जगदलपुर से स्थानान्तरित हो कर कोंडागाँव आये और उनकी पहल पर गोष्ठियों का दौर फिर से चल पड़ा। प्रमुख रचनाकारों में सर्वश्री यशवन्त गौतम, मनोहर सिंह "जख्मी", चन्द्रकान्त "साहिल", अब्दुल करीम, आर.सी.मेरिया, चितरंजन रावल, राजेन्द्र राठौर, ब्रजकिशोर राठौर, महेश पाण्डे, योगेन्द्र देवांगन, रमेश अधीर, जगदीश दास, केशव पटेल, पी.के.राघव, बी.बी.वर्मा, उमेश मण्डावी और स्व. सी.एल.मार्कण्डेय आदि उल्लेखनीय रहे हैं। नवोदित कवियों में सर्वश्री हरेन्द्र यादव और सुश्री बरखा भाटिया के नाम लिये जा सकते हैं। इन दिनों देश ही नहीं अपितु विदेश में भी अपने हर्बल उत्पादों के लिये अपनी विशिष्ट पहचान बना चुके श्री राजाराम त्रिपाठी की संस्था दंतेश्वरी हर्बल एस्टेट यहाँ की साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र बनी हुई है। 
        इस नगरी से "प्रस्तुति", "घुमर" और "ककसाड़" नामक स्तरीय लघु पत्रिकाओं का प्रकाशन भी होता रहा है। किन्तु जैसा कि लघु पत्रिकाओं की नियति होती है, ये पत्रिकाएँ भी अपने शैशव-काल में ही काल-कवलित हो गयीं। "बस्तर सम्भाग हल्बी साहित्य परिघद्" और "ककसाड़ प्रकाशन" को यहाँ से बस्तर के लोक साहित्य सम्बन्धी महत्वपूर्ण ग्रन्थों (बस्तर की मौखिक कथाएँ, लछमी जगार, बस्तर का लोक साहित्य, बस्तर की गीति कथाएँ, धनकुल) और बस्तर सम्बन्धी बाल साहित्य (चलो चलें बस्तर तथा बस्तर के तीज त्यौहार) के प्रकाशन का श्रेय जाता है। श्री चितरंजन रावल का काव्य संग्रह "कुचला हुआ सूरज" और श्री सुरेन्द्र रावल का काव्य संग्रह "काव्य-यात्रा" तथा श्री योगेन्द्र देवांगन के दो व्यंग्य संग्रह "जिसकी लाठी उसकी भैंस" और "बात की बात" एवं एक काव्य संग्रह "दौरों का दौरा" भी प्रकाशित हो चुके हैं। 




Sunday 3 June 2012

जहाँ पेड़ से भी होती है मित्रता

छत्तीसगढ़, बस्तर अंचल और ओड़िसा में "मीत" यानी मित्र बनाने की सुदीर्घ परम्परा रही है। माहापरसाद (महाप्रसाद), सखी, फूल, तुलसीजल (तुलसीदल), भोजली, गंगाजल, गंगाबारु, बालीफुल, कोदोमाली, जँवारा,गजामुँग आदि विशेषणों से सुशोभित मित्र सम्भवत: इन्हीं अंचलों में बनाये जाते हैं। एक बार जब इन विशेषणों से युक्त मित्र बना लिये गये तो फिर यह मित्रता आजीवन बनी रहती है। कहीं कोई दुराव नहीं, कोई छल नहीं, कोई कपट नहीं। मनसा-वाचा-कर्मणा एक से। मित्रता की ऐसी मिसाल आप कहीं और तो पा ही नहीं सकते। एक बार मित्रता हुई और हुआ जीवन भर का साथ। साथ भी कैसा?  बड़ा ही पवित्र! जीना-मरना साथ-साथ। चाहे वह सुख हो या कि दु:ख! साथ देंगे बराबर। पीढ़ी-दर-पीढ़ी मित्रता का मान रखना सम्भवत: इन्हीं अंचलों के लोग जानते हैं। जाति, धर्म, सम्प्रदाय.....कोई रोक-टोक नहीं। उल्लेखनीय है कि प्राय: उच्च एवं कुलीन वर्ग के लोग निम्न और अछूतों से करते हैं मित्रता। इस मित्रता में जाति-धर्म-सम्प्रदाय.......कुछ भी तो आड़े नहीं आता। है न यह बहुत बड़ी बात! मनुवादी संस्कृति के बीच क्या आप पा सकते हैं ऐसा कोई उदाहरण कहीं और......? बस्तर में निम्न और अछूतों से मित्रता की परिपाटी का उद्भव यहाँ प्रचलित और बहुश्रुत लोक महाकाव्य "लछमी जगार" से हुआ माना जाता है। प्रसंग कुछ इस तरह है :
नरायन (नारायण) राजा की इक्कीस रानियों से प्रताड़ित और अन्तत: अपने पति स्वयं नरायन राजा से भी प्रताड़ित नरायन राजा की नयी-नवेली बाईसवीं पत्नी लछमी (लक्ष्मी) जब नरायन राजा का घर छोड़ कर अन्यत्र चली जाती हैं तब नरायन राजा और उनकी इक्कीस रानियाँ निर्धनता झेलने लगती हैं। वे भूख से व्याकुल हो जाती हैं। स्वयं नरायन राजा भी भूखे-प्यासे निढाल हो जाते हैं। तब वे लछमी की खोज में यहाँ-वहाँ भटकने लगते हैं। तभी उन्हें आत्म-ज्ञान होता है कि जब तक वे किसी निम्न वर्ग के व्यक्ति के साथ मित्रता स्थापित कर लछमी की खोज नहीं करेंगे, तब तक उन्हें लछमी की प्राप्ति नहीं होगी। वे तत्क्षण एक अछूत व्यक्ति से मित्रता कर लेते हैं और उस व्यक्ति के साथ लछमी की खोज में निकल पड़ते हैं। दैवयोग से उन्हें लछमी का पता मिल जाता है और वे अपने उसी मित्र द्वारा सुझाये गये उपाय से ही लछमी को पुन: प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।
बहरहाल, यह तो बात हुई मानव मित्रों की। बस्तर में वनवासी वृक्षों से भी ऐसी ही अभिन्न मित्रता स्थापित करते दिखलायी पड़ते हैं। मित्रता के लिये चुने जाने वाले वृक्षों में ऐसा ही एक पेड़ है कुल्लू। छत्तीसगढ़ी परिवेश में यह कराट के नाम से जाना जाता है और इसका वानस्पतिक नाम है  स्टरकुलिया यूरेन्स। नीचे से ऊपर तक झक् सफेद और एकदम चिकना-लम्बा यह पेड़ प्राय: चट्टानी इलाकों में पाया जाता है। इस पेड़ से निकलने वाला गोंद जिसे हल्बी जनभाषा में "लसा" कहा जाता है, सबसे महँगा एवं प्रथम श्रेणी का होता है और स्वास्थ्य के लिये परम हितकारी। दन्तरक्षक औषधियों एवं सामग्री में इसका उपयोग प्रमुखत: होता है। इतना ही नहीं, बस्तर के वनवासी विभिन्न पूजा आदि में इस गोंद की लाई बना कर प्रसाद रूप में खाते-खिलाते हैं। प्रसूति के बाद प्रसूता महिलाओं को यह गोंद औषधि के रूप में अनिवार्यत: खिलाया जाता है ताकि शीघ्र ही उनका स्वास्थ्य-वर्धन हो सके।
बस्तर के वनवासियों के बीच मान्यता है कि इस वृक्ष से मीत या सखी बदने पर पैरों में बिवाई नहीं होती। एड़ियाँ इसी वृक्ष की तरह स्वच्छ, सुघड़ और चिकनी होती हैं। इसी मान्यता के तहत यहाँ के वनवासी इस वृक्ष से विधि-विधान पूर्वक मित्रता करते हैं। उसे नारियल, फूल, चावल, धूप, कपड़ा आदि भेंट करते हैं तथा उधर से आते-जाते उसे "सीताराम मीत" कह कर नमस्कार करते हैं। इतना ही नहीं, किसी उत्सव विशेष या तीज-त्योहार में भी अपने इस मीत से नियम पूर्वक भेंट करने जाते हैं और नारियल, फूल, चावल, कपड़े आदि उपहार स्वरूप अर्पित करते हैं।