Sunday 29 April 2012

जूठी प्लेट और खुरचन


इस बार प्रस्तुत है, "नवभारत", दिनांक 5 जुलाई 1984 अंक में प्रकाशित यह रपट : 


अभी-अभी हमने अन्तर्राष्ट्रीय बाल-वर्ष बड़े ही धूम-धाम के साथ मनाया है और विभिन्न आँकड़ों के माध्यम से न केवल हमने यह साबित करने की कोशिश की है, बल्कि आश्वस्त भी हो गये हैं कि हमारे बच्चों का विकास, शारीरिक और मानसिक, दोनों ही स्तरों पर काफी हद तक हुआ है। हमने उनके समुचित विकास के लिये करोड़ों रुपये की सार्थक (?) योजनाएँ बनायी हैं और हम सदैव इसके लिये कृत-संकल्प भी हैं।
     लेकिन क्या ये आँकड़े तथ्यों पर आधारित हैं? यदि हाँ, तो आज भी सौ में से बीस बच्चे यह कहने को क्यों विवश हैं कि हमारे भाग्य में तो जूठे कप-प्लेट उठाना, और बाकी बची खुरचन खाना ही लिखा है....। आखिर क्यों...? बच्चे आज कुपोषण के शिकार होकर अकाल मृत्यु को क्यों प्राप्त हो रहे हैं? उनमें आपराधिक भावनाएँ क्यों घर कर रही हैं और क्यों उनका शारीरिक-बौद्धिक विकास न केवल रुका है, अपितु कुन्द भी पड़ता जा रहा है? तो इन सारे प्रश्नों के उत्तर में केवल आर्थिक मुद्दा ही उभर कर सामने आता है। दरअसल जब तक हम अपने आर्थिक ढाँचे को बदल कर सुदृढ़ नहीं कर लेते, तब तक ऐसी किसी भी समस्या का समाधान खोज पाना मुश्किल ही है।
     किसी बच्चे को किसी होटल में जूठी प्लेट उठाते, जलाऊ लकड़ी बेचते या अखबार बाँटते देख कर यह कहना कि बच्चा संघर्षशील है और यह भी कि संघर्ष ही जीवन है, केवल अपने दिल को बहला लेने के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। निश्चित ही ऐसी सोच तमाम ज्वलंत समस्याओं से मुँह फेर लेना ही होगा। और ऐसा कर हम अपनी जिम्मेदारियों से कतई मुक्त नहीं हो सकते। हाँ, इसके लिये न केवल सरकार को काम करना है, बल्कि हम सभी को, हमारी अन्यानेक समाज-सेवी संस्थाओं को भी इसके लिये पहल, सार्थक पहल, करनी होगी।
     हालाँकि सरकार ने कानूनन बारह वर्ष से कम उम्र के बच्चों से काम लेने पर रोक लगा रखी है, किन्तु वस्तुत: कितने लोग इस कानून का पालन करते हैं? और सरकार कानून का उल्लंघन करने वाले ऐसे कितने लोगों को सजा दे पाती है, यह भी एक प्रश्न है। किन्तु उससे भी बड़ा सवाल यह है कि यदि ये बच्चे काम न करें तो खाएँगे क्या? और यदि इन्हें काम पर लेने से रोक भी दिया जाता है, तो ये निश्चित ही भीख माँगने लग जाते हैं और आपराधिक वृत्तियों में भी संलग्न हो जाते हैं।
     इनकी इन विवशताओं का लाभ असामाजिक एवं आपराधिक तत्व उठाते हैं। वे अपने सुगठित गैंग बना कर भिक्षावृत्ति के धंधे से इन्हें लगा देते हैं या जेब काटने, चोरी करने जैसे अन्य अनेक अपराधों के लिये इनका न केवल उपयोग करते हैं, बल्कि उनका भरपूर आर्थिक-शारीरिक शोषण भी। और यह आर्थिक-शारीरिक शोषण होटल-मालिकों या अन्य प्रतिष्ठानों द्वारा भी भरपूर किया जाता है। इस तरह ये बच्चे कहीं भी, किसी भी स्थिति में न तो सुरक्षित हैं और न ही स्वतन्त्र।
आइये, ऐसे चंद कामकाजी बच्चों से आपकी मुलाकात कराएँ और उन्हें समझने की कोशिश करें। जानें कि किन परिस्थितियों के अधीन उन्हें जूठी प्लेट उठाने और बाकी बची खुरचन खाने को विवश होना पड़ता है। अपने शरीर के अनुपात से अधिक वजन की काँवड़ उठाना जिनकी नियति है और धूप-शीत-बरसात की परवाह किए बगैर आपकी सुख-सुविधा के साधन जुटाना जिनकी मजबूरी.....! आइए उनसे करें एक मुलाकात :
     परभूदास एक टपरीनुमा होटल में काम करने वाला नौ-दस साल का हरिजन बालक है। एकदम चीकट सनी एक शर्ट और काफी हद तक फट कर चीथड़ा हुआ जा रहा पैन्ट पहने वह बड़ी ही तत्परता से ग्राहकों को चाय-पानी दे रहा था। आँखों में एक विशेष किस्म की चमक, शरीर में स्फूर्ति और ग्राहकों से बात करने का उसका तरीका..........।
     यह सब देख कर लगता ही नहीं कि वह नौ-दस साल का बच्चा है। लेकिन जब हम उससे उसका नाम पूछते हैं तो पहले तो वह सहमी हुई आवाज में उत्तर देता है, फिर ढाढ़स बँधाने पर सामान्य हो जाता है और निर्भीक हो कर हमारे प्रश्नों के उत्तर देता है :
     "क्या नाम बताया तुमने अपना?"
     "परभूदास।"
     "तुम्हारे पिता का नाम?"
     "फगनूदास।"
     परभू नहरपारा, कोंडागाँव का रहने वाला है।
     "यह होटल किसका है?"
     "दयालू दादा का।"
     "तो क्या वह तुम्हारा सगा भाई है?"
     "नहीं। दूसरे पिताजी का, दूसरी माँ का है।"
     दरअसल वह स्पष्ट नहीं कर पा रहा था, लेकिन उसके कहने का मतलब यह था कि यों ही, पारा-पड़ोस में रहने के कारण उस होटल-मालिक से भाई का रिश्ता बन गया है।
     "तो तुम यहाँ काम करते हो?"
     "हाँ," उसका संक्षिप्त-सा उत्तर।
     "बदले में पैसे देता होगा?"
     "नहीं।" नकार में उसका सिर हिलता है। तभी पास में बैठा एक व्यक्ति उससे कहता है, "देता है, बोल न बे।"       और हम उसे टोक देते हैं, "आप चुप रहिए भाई। वह जो कह रहा है, उसे कहने दीजिये।"
     "हाँ परभूदास, बताओ पैसा-वैसा देता है, काम करने का न?" हम दुबारा उससे मुखातिब होते हैं।
     "नहीं, ऐसे ही खाना-पीना देता है।" बोलते हुए वह सकपका जाता है।
     "तुम पढ़ने क्यों नहीं जाते?" हमारा प्रश्न हमारा ही मुँह चिढ़ा रहा था। किन्तु फिर भी, शायद औपचारिकता   के सामने वास्तविकता को हमेशा नकारने की हमारी आदत हमें यह प्रश्न करने को उकसा रही थी।
    "पढ़ रहा था। तीसरी कक्षा तक पढ़ा।" एक पल के लिये उसकी आँखों में तेजी से एक चमक उभरी फिर यथावत् : "बाद में छोड़ दिया।"
     "क्यों?"
     "गुरुजी ने छुड़ा दिया। साटीफिकट लाने को बोला था, मैं नहीं लाया।" 
     परभूदास बाँसकोट नामक गाँव में रहता था और वहीं पढ़ रहा था। जब वे लोग कोंडागाँव आये तो बाँसकोट स्कूल से शाला स्थानान्तरण प्रमाण-पत्र नहीं ला पाए। इससे उसे यहाँ के स्कूल में प्रवेश नहीं दिया गया।      "बाँसकोट बहुत दूर है।" वह बतलाता है और खामोश हो जाता है।
     "तुम्हारे घर में कितने लोग हैं? "
     "मेरी बहनें, मेरे माँ-बाप, सब हैं। मुझे मिला कर कुल छह लोग।" वह बिना गिने ही जवाब देता है।
     "काम कौन-कौन करते हैं?"
     "मैं करता हूँ। मेरी माँ और बहनें भी करती हैं। मेरा बाप काम नहीं करता। उसके पैर नहीं चलते और हाथ भी। तीन साल हो गये।" उसके मुख पर पीड़ा की एक गहरी परछाईं उभर आती है और आँखें तरल हो उठती हैं। फिर वह बताता है, "पहले तो अच्छे थे, लेकिन ऐसा कैसे हो गया पता नहीं।"
     "तुम यहाँ काम क्यों करते हो?" तथाकथित सभ्य और बुद्धिजीवी कहलाने का खोखला वहम फिर से यह प्रश्न करता है।
     "यहाँ खाना मिलता है, न। हमारे घर में बहुत लोग हैं, इसलिये खाना पूरा नहीं पड़ता।"
परभू सुबह सात बजे से रात नौ बजे तक काम करता है। दोपहर और रात का खाना वहीं होटल में खाता है। बस, यही उसका मेहनताना है। उसका कहना है कि यदि सर्टिफिकेट मिल जाए तो वह भी पाठशाला जाने को तैयार है और पाठशाला से आने के बाद होटल में काम भी करेगा। लेकिन प्रश्न यह है कि उसे कौन दिलायेगा उसका शाला स्थानान्तरण प्रमाण-पत्र?
     इधर, अपेक्षाकृत एक बड़े होटल में काम करता है, सुकमन। सुकमन मालाकोट गाँव का रहने वाला है। कोंडागाँव से 15-20 किलोमीटर के फासले पर है उसका गाँव मालाकोट। वह एक आदिवासी बालक है। वह अपनी उम्र पन्द्रह वर्ष बताता है। पाठशाला कभी नहीं गया।
     "तुम अपना घर छोड़कर यहाँ क्यों आये?"
     "कमाने आया। हमारे गाँव में काम नहीं मिलता।"" फिर उसने बताया, "घर पर मेरी माँ है और दो भाई भी। मेरे पिता नहीं हैं। उनकी मृत्यु हो गयी है। हमारी दो एकड़ खेती है। लेकिन अभी बँटवारा नहीं हुआ है, इसलिये मैं कोंडागाँव आया। कमाने के लिये।"
     "तुम पढ़े क्यों नहीं?"
     "घर वालों ने नहीं पढ़ाया। और फिर हमारे गाँव में पाठशाला भी नहीं है। बहुत दूरी पर है, बड़े पारा में। घर वालों ने कहा कि तुम पढ़ कर क्या करोगे? यहाँ कमा कर कौन लायेगा? तो मैं पढ़ने नहीं जा सका।" 
     "यहाँ कितनी रोजी मिलती है, तुमको?"
     "तीन रुपये मिलते हैं।"
     "ये कप-प्लेट, जूठा उठाना, ये सब अच्छा लगता है तुम्हें?"
     "तब और कौन सा काम करेंगे? मुझे तो अच्छा लगता है। मेरा बाप जिन्दा होता तो मैं काम के लिये इतनी दूर मरने को आता?" फिर वह पाठशाला जा रहे बच्चों की ओर इंगित करते हुए कहता है, "अभी आप पूछ रहे थे न कि मैं क्यों पाठशाला नहीं गया? मुझे भी पढ़ाई करने का बहुत मन था। लेकिन मुझे मेरे घर वालों ने ही मना कर दिया। अब भला क्या पढ़ सकता हूँ?" मैं उसकी हसरत भरी नजरों से निगाहें नहीं मिला पाता कि तभी एक और बालक वहाँ आ जाता है। चड्डी-बनियान पहने हुए ही। आते-आते उसने सुकमन की बात सुन ली है, तभी तो वह आते ही बोल पड़ता है, "पढ़ाते नहीं कोई। बोलते हैं, कमा कर लाओ तब खाना मिलेगा।"
     इस बालक का नाम है सुरेश। लगभग परभूदास की ही उम्र का सुरेश जामकोटपारा, कोंडागाँव का रहने वाला है। यह बालक भी एक भोजनालय में काम करता है। कस्बाई क्षेत्र का रहने वाला होने के कारण बातचीत में काफी चुस्त और उसकी भाषा में भी उस परिवेश का काफी प्रभाव है।
     "तुम भी कहीं काम करते हो?" हम उसकी ओर मुखातिब होते हैं, तभी सुकमन को उसका होटल-मालिक पुकारता है और हम उसे रोक नहीं पाते। वह चला जाता है।
     "हाँ, इस दूसरे होटल में।" सुरेश कहता है।
     "क्या काम करते हो, वहाँ?"
     "हम वहाँ प्लेट धोते हैं।" सुरेश इतनी तीव्रता से और लगभग प्रसन्नता में चीखने जैसी आवाज में बोलता है कि सुन कर मैं भीतर तक काँप उठता हूँ। कितना आतंकित कर देने वाला स्वर है उसका; यानी एक आठ-दस बरस के बच्चे का! इतनी सरलता से बोल पाना हमारे लिये कितना कठिन होता है, जितनी सरलता से, सहज हो कर उसने कहा था। दरअसल उसकी सरलता ही तो भीतर तक बेधने वाली और उस बच्चे, उस जैसे कई बच्चों के भविष्य के प्रति चिंतित नहीं, बल्कि विचलित कर देने के लिये काफी थी। मतलब यह कि उसे अपने काम से कोई शिकवा नहीं। अपने अस्तित्व के प्रति कोई चिंता नहीं। जैसे उसे अच्छी तरह मालूम हो कि उसका भविष्य एकदम निश्चित है, वह हमेशा जूठी प्लेटें ही धोता रहेगा, और उसी में उसके जीवन की सार्थकता है; कि उसका जन्म ही जूठी प्लेटें धोने के लिये हुआ है। कितनी बड़ी त्रासदी है! मुझे बाद में सुरेश पर काफी गुस्सा आ रहा था कि क्यों उसने इस तरह उद्वेलित और भयभीत कर देने वाला जवाब दिया? क्यों नहीं उसके मन में स्थितियों के प्रति असन्तोष उभरा और क्यों नहीं वह अपने-आपको उससे मुक्त करना चाहता? और यह भी कि आखिर उसने इतनी स्वाभाविकता से क्यों उसे स्वीकार कर लिया कि वह प्लेट धोने के काम में ही खुश है? क्यों.....? लेकिन मैं उससे यह प्रश्न कर भी न सका.....क्योंकि मुझमें न तो प्रश्न करने का नैतिक साहस रह गया था और न उसके उत्तर को सुन पाने या उत्तर में किए गये प्रति-प्रश्न का उत्तर दे पाने की मुझमें हिम्मत रह गयी थी........। आज भी वह साहस नहीं जुटा पाया हूँ मैं। क्योंकि मैं जानता हूँ कि उसका उत्तर क्या होगा? होगा एक प्रति-प्रश्न.......बल्कि कई प्रश्न कि आखिर मैं यह काम न करूँ तो क्या भूखा मरूँ? क्या तुम मुझे खाना-कपड़ा दोगे....? ......क्या कर सकोगे तुम लिखने-पढ़ने वाले लोग......? जब हमारे भाग्य में ही जूठी प्लेटें उठाना और बाकी बची खुरचन ही खाना लिखा है, तो क्या तुम्हारे कहने से यह सब बदल जाएगा? और....और पता नहीं क्या-क्या? फिर भला मैं मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ कर क्यों मुसीबत मोल लूँ? है न सही बात?
     "तुम्हें मेहनताना क्या मिलता है यहाँ?" मैंने भयग्रस्त हो चट् से बात बदल ली। 
     "दस रुपये हफ्ता और खाना-पीना।" उसके मुस्कराते होंठ हिलते हैं और मेरी दहशत फिर बढ़ जाती है।
     "घर में कौन-कौन हैं?"
     "पिताजी हैं केवल। वो गद्दा-रजाई सीने का काम करते हैं। माँ नहीं है। पिछले साल मर गयी।" कहते हुए भी सुरेश का चेहरा न तो कुम्हलाया और न आँखें ही पनियल हुईं। यानी सब-कुछ मेरी आशाओं के विपरीत.....।
     "पढ़ते नहीं?"
     "नहीं।" सपाट उत्तर, "पढ़ने की इच्छा ही नहीं होती। और फिर घरवाले भी तो नहीं पढ़ाते।"
     मुझे लगता है, लड़का बड़ा ढीठ है। मैं उससे सामान्य होने का प्रयास करता हुआ पूछता हूँ, "और सिनेमा कितना देखते हो?"
     वह मुस्कराता है, "महीने में एक बार।"
     "पैसे का क्या करते हो?"
     "पिताजी को देते हैं। वे उससे चावल-दाल लेते हैं।" बड़ी ही तत्परता से, लेकिन एक जवाबदार व्यक्ति की तरह उसका जवाब है। मैं महसूसने लगता हूँ कि लड़का आठ-दस बरस का नहीं, एक प्रौढ़ व्यक्ति है......तमाम अनुभवों से गुज़र कर पका हुआ आदमी। और मैं स्वीकार करता हूँ कि इस आठ-दस साल के प्रौढ़ के सामने मैं निरा बच्चा हूँ....एक दूध पीता बच्चा!



Sunday 22 April 2012

पोरटा


पिछले एक पोस्ट में मैंने बस्तर-माटी के अन्यतम हल्बी कवि श्री सोनसिंह पुजारी के विषय में संक्षेप में चर्चा की थी। इस पोस्ट में उनके विषय में विस्तार से चर्चा है और है उनकी कविता "पोरटा"। यह ध्वन्यांकन मैंने 28 अगस्त 2008 को मेरे निवास पर किया था । मेरे अनुरोध पर श्री पुजारी जी ने मुझ पर अत्यन्त कृपा की और अस्वस्थता के बावजूद जगदलपुर से कोंडागाँव पधारे थे, जहाँ मेरी उनसे लम्बी बातचीत हुई थी और उन्होंने अपनी कविताएँ भी ध्वन्यांकित करायीं। इसके लिये मैं उनका आभारी हूँ। दरअसल मैं चाहता था की वे कविताओं का सस्वर पाठ करते किन्तु उनके गले की शल्यक्रिया  होने के कारण ऐसा संभव नहीं हो सका. यहाँ मैं उनके स्वर में ही उनकी कविता प्रस्तुत करना चाहता था किन्तु कुछ तकनीकी कारणों से फिलहाल यह संभव नहीं हो पा रहा है. प्रयास करूंगा कि बहुत जल्द  ऐसा संभव हो सके. 
      श्री पुजारी का जन्म पाठशाला-अभिलेख के अनुसार 01 जुलाई 1942 को बस्तर अंचल के बजावँड नामक गाँव में एक आदिवासी परिवार में हुआ। पिता का नाम था स्व. रामसिंह और माता का नाम था स्व. कौशल्या। किन्तु, जैसा कि वे बताते हैं, यह तिथि वास्तविक नहीं अपितु अनुमानित है। कारण, गाँवों में तब जन्म-तिथि की जानकारी किसी को भी नहीं हुआ करती थी। लोग पढ़े-लिखे नहीं थे। इसीलिये पाठशाला में प्रवेश के दौरान शिक्षक अनुमान से बालक की जन्म-तिथि अंकित कर लिया करते थे। जब इनका जन्म हुआ तब बस्तर की आदिवासी एवं लोक-परम्परा के अनुसार माता-पिता और अन्य सगे-सम्बन्धी इनके अंग-प्रत्यंग में कुछ चिन्ह खोजने लगे जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि किस पूर्वज ने इस बालक के रूप में पुनर्जन्म लिया है। इस खोज से उन्हें पता चला कि इनके एक कान में छेद है। यह छेद श्री पुजारी के कान में आज भी यथावत् है। बहरहाल, उस चिन्ह को देख कर यह निर्धारित कर दिया गया कि यह बालक बन्दीजाऊ का ही पुनर्जन्म है। "बन्दीजाऊ" इनके घराने में एक पूर्व पुरुष थे। उन्हें "बन्दीजाऊ" कहते थे। कारण, उन्हें बन्दी बनाया गया था और जेल की सजा हुई थी। 14 साल की जेल की सजा हुई थी। इसीलिये उनका नाम बाद में "बन्दीजाऊ (बन्दी हो जाना, या जेल जाने वाला)" पड़ गया था। बताते हैं कि, "बन्दीजाऊ" अपनी सजा पूरी करने के बाद जब वापस आये तो वे लाल कालीन्द्र सिंह के सहयोगी बने। जब तक वे जीवित थे, वे लाल कालीन्द्र सिंह के साथ ही बने रहे। "बन्दीजाऊ" अपने कान में बारी (बाली) पहनते थे। इसी बारी का निशान उनके एक कान में था। यही निशान श्री पुजारी के कान में पा कर निर्धारित कर दिया गया कि यह बच्चा "बन्दीजाऊ" का ही पुनर्जन्म है।
      "बन्दीजाऊ" की चर्चा करते हुए श्री पुजारी कहते हैं कि उनके इस पूर्व पुरुष ने बिना किसी अपराध के जेल की सजा काटी थी। उन्हें एक हत्या के प्रकरण में उस समय तत्कालीन "गँवटेया (गाँव का एक समृद्ध् व्यक्ति)" ने झूठे तौर पर फँसाया था। उनके इस पुरखे का कसूर यह था कि वे जिस दिन खरगोश पकड़ने के लिये जंगल गये थे उसी दिन उड़ीसा की किसी औरत का उसी जंगल में खून हो गया। गाँव के गँवटेया ने बन्दीजाऊ को जंगल जाते हुए देखा था। केवल इसी बिनाह पर उसने बन्दीजाऊ को झूठे तौर पर फँसा दिया कि यह हत्या इसी ने की है। चूँकि उस समय गाँव का गँवटेया गाँव में बड़ा आदमी माना जाता था, पुलिस ने उसकी बात पर भरोसा कर लिया। उसने बन्दीजाऊ के विरूद्ध प्रकरण तैयार कर लिया और मामला न्यायालय में चला। मामले में किसी भी चश्मदीद गवाह के बिना ही उसे जेल हो गयी। केवल यह बताया गया कि उसी शाम को यह उसी जंगल में जा रहा था। जबकि वस्तुस्थिति यह थी कि वह खरगोश पकड़ने गया था। बहरहाल, सजा पूरी कर जब वह गाँव आया तो उसने प्रण किया था कि आज के बाद यदि गँवटेया उसके सामने आ गया तो वह उसका गला काट देगा। अपने प्रण के साथ ही बन्दीजाऊ ने फरसा (परशु) को नमक लगा कर तेज कर लिया था। कहते हैं, गँवटेया जब तक जिन्दा था बन्दीजाऊ के सामने कभी नहीं आया। और अन्त में वह गँवटेया कोढ़ रोग से ग्रस्त हो कर मर गया।
       श्री पुजारी के परिवार की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी। अभाव और दरिद्रता में उनका बचपन बीता था। उनके पास 12 एकड़ कृषि भूमि थी किन्तु वह असिंचित थी। इस कारण उससे परिवार का गुजर-बसर नहीं हो पाता था। परिवार में कुल 8-10 लोग थे। उस जमाने में फसल उतनी नहीं हो पाती थी। यही कारण था कि वर्ष में एक या दो बार साहूकार से कर्ज ले कर धान लाना पड़ता था। जब साहूकार के पास कर्ज लेने जाते थे तो उसे प्रसन्न करने के लिये साथ में एक बड़ा-सा मुर्गा और एक बोतल मँद (मदिरा) ले जाना पड़ता था। मुर्गा घर का ही होता था और मदिरा भी। तभी वह साहूकार बात करने को तैयार होता था। और बड़े मान-मनौव्वल के बाद वह एक खण्डी, दो खण्डी या तीन खण्डी धान दिया करता था। फसल आने के बाद उसे ड्योढ़ा वापस करना पड़ता था। 
      श्री पुजारी के पिता और बड़े पिता (ताऊ) चाहते थे, और उनकी दिली इच्छा थी कि उनका बेटा सिरहा (वह व्यक्ति जिस पर देवी की सवारी आती है) बने। और इसके लिये वे तीन जगह (बेड़ागाँव, गिरोला और पाहुरबेल) में हिंगलाजिन माता के मन्दिर में श्री पुजारी को ले कर कई बार आना-जाना किया करते थे। पिता और ताऊ ने बहुत कोशिश की कि बेटे पर देवी की सवारी आये और वह सिरहा बन जाये। इसी ख्याल से श्री पुजारी ने सिरहों की तरह केश भी बढ़ा लिये थे। लेकिन सिरहा बनना शायद उनके प्रारब्ध में नहीं था। फिर हुआ यह कि उन्हें बजावँड से लगभग ढाई-तीन किलोमीटर दूर बगल के गाँव तारापुर की प्राथमिक शाला में भर्ती करा दिया गया। उम्र की बात आयी तो माता-पिता कुछ भी नहीं बता सके, जैसा कि उन दिनों गाँवों में हुआ करता था। तब शिक्षक ने अन्दाज से इनकी जन्म-तिथि अंकित कर ली, 01 जुलाई 1942। उस समय प्राथमिक स्तर पर चार कक्षाएँ हुआ करती थीं। श्री पुजारी ने चौथी कक्षा उत्तीर्ण की और वे अपने परीक्षा-केन्द्र में प्रथम स्थान पर रहे। इसके बाद आया माध्यमिक पाठशाला में भर्ती होने का समय। उस समय माध्यमिक पाठशाला थी बस्तर नामक गाँव में। वहाँ तब छात्रावास की भी सुविधा उपलब्ध थी। चौथी कक्षा उत्तीर्ण करने वाले सभी छात्रों के अभिभावकों ने सर्व सम्मति से तय किया कि बच्चों को बस्तर के माध्यमिक पाठशाला में प्रवेश दिलाया जाये। इस निर्णय के साथ सभी बैलगाड़ी और भैंसागाड़ी में सवार हो कर बस्तर गाँव के लिये रवाना हुए। सारी रात की यात्रा के बाद सवेरे बस्तर पहुँचे। वहाँ तत्कालीन राजनीति में सक्रिय बस्तर निवासी सूर्यपाल तिवारी के सहयोग से पाठशाला के साथ-साथ छात्रावास में भी इन्हें प्रवेश मिल गया। प्रवेश के समय, 1955 में, श्री पुजारी के लम्बे केश काट दिये गये। उस जमाने में छात्रों को दस रुपये मासिक स्कॉलरशिप के रूप में मिला करते थे और उसमें ही छात्रों को गुजारा करना पड़ता था। प्रत्येक छात्र को प्रति माह घर से 9 पायली (लगभग 18 किलोग्राम) चावल अपने लिये लाना पड़ता था। किसी तरह तीन साल बस्तर के माध्यमिक पाठशाला में गुजारे और फिर जब आठवीं की परीक्षा हुई तो श्री पुजारी इस परीक्षा में भी पूरे केन्द्र में प्रथम स्थान पर रहे। आठवीं पास करने के बाद उन्हें लगा कि अब उनका ग्रामसेवक के पद पर नौकरी लगना तय है। फिर ग्रीष्मकालीन अवकाश में वे अपने घर चले गये। वे कल्पनाएँ करते थे कि अब वे ग्रामसेवक बन ही जायेंगे। इसी बीच सूर्यपाल तिवारी ने उस वर्ष आठवीं की परीक्षा में प्रथम स्थान पाने वाले छात्र के विषय में जानकारी ली। उन्हें श्री पुजारी का नाम बताया गया। तब उन्होंने किसी मैसेन्जर को श्री पुजारी के गाँव भेजा और उन्हें अपने पास बुला लिया। जब श्री पुजारी उनके पास पहुँचे तो उन्होंने उनका दाखिला जगदलपुर के हाई स्कूल में करवा दिया। 
      सूर्यपाल तिवारी उस समय एक दल विशेष के एक अच्छे स्थापित नेता थे। बताया जाता है कि बस्तर ग्राम में मिडिल स्कूल और छात्रावास शुरु करने का श्रेय उन्हें ही जाता है। उस जमाने में सन् 1955 तक या 1955 के थोड़ा पहले तक स्वर्गीय आर. सी. व्ही. पी. (रोनाल्ड कार्लटन वर्नन पीडेड) नरोन्हा, (कार्यकाल : 16.01.1949 से 21.01.1955, जो आगे चल कर पद्मभूषण से नवाजे गये) उस समय डिप्टी कमिश्नर हुआ करते थे बस्तर में। उनसे भी सूर्यपाल तिवारी के अच्छे सम्पर्क थे। बस्तर में छात्रावास के लिये स्व. नरोन्हा ने खेत भी तैयार किये थे। स्व. नरोन्हा जापानी ट्रैक्टर से स्वयं खेत तैयार करते थे। उस समय के उसके फोटोग्राफ्स छात्रावास में हुआ करते थे। बहरहाल, श्री तिवारी ने श्री पुजारी को हाई स्कूल में भर्ती कराया। पुस्तक-कॉपी के लिये "नरोन्हा फंड" से व्यवस्था गयी। स्व. नरोन्हा ने बस्तर से जाते-जाते कुछ फंड जमा किये थे गरीब और प्रतिभावान बच्चों के लिये। उसी फंड से पुस्तक-कॉपी की व्यवस्था हुई थी। श्री पुजारी जगदलपुर में भी छात्रावास में ही भर्ती कराये गये थे, जहाँ उन्होंने हाई स्कूल तक की शिक्षा प्राप्त की। 
गुरबत के दिनों की याद करते हुए श्री पुजारी दो घटनाओं का जिक्र करते हैं। सम्भवत: जब वे दसवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। एक दिन ऐसा आया कि उस दिन मेस चार्ज जमा नहीं हुआ और मेस में छात्रों का भोजन भी नहीं बना। पास में सिर्फ 2 आने थे। उस 2 आने से ही पास के एक मद्रासी होटल में उन्होंने दोसा खाया। इस तरह उस दिन के दोपहर के भोजन का तो जुगाड़ हो गया किन्तु रात के भोजन का प्रश्न मुँह बाये खड़ा था। दैवयोग से उसी दिन शाम को जगदलपुर के नयापारा स्थित नेहरू छात्रावास का उद्घाटन हुआ। उद्घाटन किया था तत्कालीन जिलाधीश श्री आर. एस. एस. राव (कार्यकाल : 25.09.60 से 01.05.62) की पत्नी ने। और सभी आदिवासी छात्र उस नये छात्रावास में स्थानान्तरित कर दिये गये। इस तरह रात का भोजन नसीब हुआ वरना पढ़ाई छोड़ कर वापस गाँव जाने की स्थिति बन गयी थी। आगे की पढ़ाई के लिये कुछ खर्च निकले इस गरज से श्री पुजारी को ग्रीष्मकालीन अवकाश में शराब भट्ठी में भी काम करना पड़ा। जगदलपुर-गीदम रोड पर रायकोट नामक गाँव की शराब भट्ठी में उन्होंने गद्दीदार की नौकरी भी की। गद्दीदार, यानी शराब बेचने वाला। इस तरह उनकी हाई स्कूल की शिक्षा पूरी हुई। मैट्रिक की परीक्षा भी श्री पुजारी ने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके बाद श्री तिवारी ने ही जनपद प्राथमिक पाठशाला, आसना (जगदलपुर) में शिक्षक के पद पर श्री पुजारी को नियुक्ति दिलवायी। श्री पुजारी अपनी सफलताओं के लिये बारम्बार श्री तिवारी को याद करते हैं और उन्हें ही इसका सारा श्रेय भी देते हैं।  
शिक्षक पद पर नियुक्ति दिलवाने के साथ-साथ श्री तिवारी ने श्री पुजारी से कॉलेज में भी प्रवेश लेने के लिये कहा। इस तरह श्री पुजारी ने जगदलपुर के कॉलेज में प्रवेश लिया और प्रात:काल कॉलेज जाया करते और उसके बाद 11 बजे से अपनी नौकरी पर पाठशाला। इस तरह 3 वर्ष तक उनका अध्ययन और अध्यापन साथ-साथ चला। सन् 1965-66 में जब स्नातक की डिग्री मिली तो उन्होंने पी.एस.सी. में भाग्य आजमाया और पी.एस.सी की परीक्षा में नायब तहसीलदार के पद पर उनका चयन हो गया। इस तरह वे सन् 1967 से नायब तहसीलदार के पद पर आये और सन् 2002 में एडीशनल कलेक्टर के रूप में सेवा निवृत्त हुए। आरम्भ से ही श्री पुजारी का जीवन संघर्षों में बीता। उन्होंने गरीबी को बहुत नजदीक से देखा है। वे इसके द्रष्टा ही नहीं बल्कि भोक्ता भी रहे हैं। बस्तर में आदिवासियों का जो शोषण होता रहा है, उसे उन्होंने न केवल देखा है अपितु भोगा भी है। इसीलिये बस्तर के अभाव-ग्रस्त और शोषित-पीड़ित आदिवासियों के सम्बन्ध में वे लगातार चिन्तन करते रहे हैं कि आखिर यह शोषण क्यों? आखिर हमारा आदिवासी समाज कब जागृत होगा? कब और कैसे हम इसके खिलाफ आवाज उठा पाएँगे? और इसी सोच के साथ उनकी सृजन-यात्रा आरम्भ हुई। उनकी सृजन-यात्रा बस्तर के आदिवासियों के शोषण से सरोकार रखती है। उनकी प्रत्येक कविता में बस्तर का यह दर्द मुखर हो कर सामने आता है। "पोरटा" उनकी पहली कविता है। इस कविता के सृजन की पृष्ठभूमि बना 1966 में बस्तर में हुआ जघन्य पुलिसिया हत्याकाण्ड। इस हत्याकाण्ड में बस्तर के सबसे चर्चित और प्रिय महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव की अमानुषिक हत्या कर दी गयी थी।  
      इस काण्ड के कुछ दिनों बाद जब श्री पुजारी अपने घर बजावँड गये और उन्होंने अपने पिता को बताया कि गोली काण्ड में बस्तर महाराजा मारे गये तो वे इस पर विश्वास करने को तैयार ही नहीं थे। उनका विश्वास था कि बस्तर-महाराजा मर ही नहीं सकते। कारण, जो भी गोली उनके ऊपर चलेगी वह गोली नहीं होगी बल्कि बन्दूक से गोली की जगह पानी निकलेगा। यह उनके मन में दृढ़ विश्वास था। श्री पुजारी ने कहा कि नहीं, ऐसी बात नहीं है। वे तो गोली काण्ड में मारे गये हैं। इसी बात से उनके पिता उनसे नाराज हो गये और उनसे लड़ बैठे। उन्हें अन्त तक श्री पुजारी किसी भी तरीके से समझा नहीं पाये कि गोली काण्ड हुआ और वे उस गोली काण्ड में मारे गये। उनका तो यही मानना था कि 1910 में हुई सशस्त्र क्रान्ति (भुमकाल) में इस क्रान्ति के महानायक गुंडाधुर के ऊपर चलायी गयी गोलियाँ पानी में परिवर्तित हो गयी थीं। इसी तरह बस्तर-महाराजा पर भी चलायी गयी गोलियाँ पानी में परिवर्तित हो गयी होंगी और वे निश्चित ही जीवित होंगे। वे अपने पिता के मन में घर कर चुके इस अन्धविश्वास को दूर नहीं कर सके। और इसी घटना की परिणति थी उनकी पहली कविता "पोरटा"।
     
     आज प्रस्तुत है उनकी यही कविता हिन्दी अनुवाद के साथ : 

पोरटा


तुय नी गोठयाव 
आपलो दादी-पुरखा चो गोठ के।

सुनतो बिता बाँडा बाग मरलो
जयगोपाल बले सरलो
तुचो लोहू पानी होउन
जसन की बन्दूक ले निकरली
तुचो हात हथेयार होउन
जसन की सरग ले घसरली
तुचो गागतोर-चिचयातोर उआज
ढोल आउर माँदर चो उआज सँगे मिसली
तुचो आँसू झुमका बड़गी चो गुलगुली सँगे बोहली
आउर एदाँय तुचोय दुआर चो 
तुचोय रोपलो बड़ रुक
आपलो अउर गोटोक चेर के
तुचोय राँदा घरे उतराली। 

पाली धरतो काजे मोचो टोडरा सुकली
हात के गाले देउक नीं सकें
काटा गड़लो पाँय ने टेका देउक नीं सकें

तुय पोरटा!
तुचो भुक-पियास के खातो बिता निहाय
तुचो दुख-डँड के पिवतो बिता निहाय

मान्तर दख नू!
केब ले तो उपर पारा चो डोकरी इँदराबती
गाल के माँडी ने देउन 
मने-मने गागेसे
अउर दखेसे टुकुर-टुकुर।




अनाथ


मत करो तुम बातें
अपने दादा-परदादा (और पुरखों) की

मर गया है सुनने वाला बाँडा बाग
समाप्त हो गया है जयगोपाल भी
तुम्हारा लहू पानी बन कर 
जैसे कि निकला बन्दूक से
तुम्हारे हाथ हथियार बन कर 
जैसे कि गिर पड़े स्वर्ग से 
तुम्हारे रोने-चीखने का स्वर
मिल गया ढोल और माँदर के स्वरों में
बह गये तुम्हारे आँसू झुमका बड़गी के घुँघरुओं के सँग
और अब तुम्हारे ही द्वार का
तुम्हारे ही द्वारा रोपा गया वट-वृक्ष
अपनी एक और लट को
उतार चुका है तुम्हारे रसोई-घर में

सूख गया मेरा कण्ठ तुम्हारा साथ देते
नहीं धर सकता गालों पर हाथ
नहीं ले सकता काँटे गड़े पाँवों से सहारा 

तुम अनाथ!
नहीं है कोई तुम्हारी भूख-प्यास को खाने वाला
नहीं है कोई तुम्हारे दु:ख-कष्ट को पीने वाला

किन्तु देखो तो! 
पूर्व दिशा में रहने वाली बूढ़ी इन्द्रावती न जाने कब से 
अपने गालों को घुटनों पर दिये
रो रही है मन ही मन
और देख रही है टुकुर-टुकुर। 




टिप्पणी :

01. बाँडा बाग : रियासत कालीन बस्तर राज्य के एक तोप का नाम। यहाँ दो तोप थे जिनमें से एक का नाम "बाँडा बाग" और दूसरे का नाम "जय गोपाल" था। प्राय: ओड़िसा के जयपुर और बस्तर रियासत के बीच युद्ध हुआ करते थे। इन युद्धों में इन दोनों तोपों की अहम भूमिका रहा करती थी। कहा जाता है कि इनमें से एक तोप जयपुर रियासत की किसी पहाड़ी पर आज भी पड़ा हुआ है जबकि दूसरा तोप जगदलपुर में।
02. ढोल और माँदर : दोनों ही गोंडी परिवेश के लोक वाद्य। 
03. झुमका बड़गी : गोंडी परिवेश का एक वाद्य जिसे युवतियाँ बजाती हैं। इसे "गुजरी" और "तिरडुड्डी" भी कहा जाता है।




श्री पुजारी जी का पता है : 


श्री एस. एस. पुजारी
रिटायर्ड एडीशनल कलेक्टर
सिविल लाईन के पीछे
लालबाग
जगदलपुर 494001
बस्तर-छ.ग. 
मोबाईल : 94-060-02484 


दोनों  छायाचित्र : नवनीत वैष्णव


Saturday 14 April 2012

मर्दापाल की मँडई में


धान की फसल कटी और मँडई-मेलों का दौर बस्तर में शुरु हो जाता है। दिसम्बर-जनवरी से ही जगह-जगह मँडई यानी मेले भरने लगते हैं। अन्तागढ़, घोटपाल, नारायणपुर, मर्दापाल, सकलनारायण, कोंडागाँव, चपका, दन्तेवाड़ा, केसकाल, रामाराम, बारसुर, ओरछा, छोटेडोंगर आदि स्थानों में भरने वाली मँडइयों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घोटपाल, रामाराम, सकलनारायण, चपका, नारायणपुर और छोटेडोंगर की मँडइयाँ हैं। चपका की मँडई एक समय काफ़ी मशहूर हुआ करती थी। हालाँकि वहाँ के मन्दिरों में स्थापित देवी-देवताओं (शिव-पार्वती) से आदिवासी जन-जीवन का सीधे कोई सरोकार नहीं है। इस दृष्टि से घोटपाल (गीदम के पास), नारायणपुर तथा रामाराम (कोंटा के पास) की मँडइयाँ आदिवासियों में काफ़ी महत्त्व रखती हैं। इन मेलों में विभिन्न गाँवों की ग्राम-देवियाँ एकत्र होती हैं और आपस में मेल-मुलाक़ात करती हैं।
  इसी तरह आसपास के आबाल-वृद्ध, सारे के सारे लोग इन अवसरों पर जुटते हैं। एक-दूसरे से मेल-मुलाक़ात होती है और ख़रीद-फरोख़्त भी। मेलों का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार होता है। कई चीज़ें इन मेलों में ख़रीदने की योजनाएँ साल भर पहले बना ली जाती हैं।
  मँडई पहले वस्तुत: देवी-देवताओं का समारोह-स्थल ही हुआ करता था। आज की तरह ख़रीद-फरोख़्त का केन्द्र, यानी कोई बाज़ार नहीं।
  आज नारायणपुर की मँडई देशी और विदेशी सभी जिज्ञासुओं और पर्यटकों के लिये अकर्षण का केन्द्र बन गयी है। नारायणपुर नामक यह छोटा सा क़स्बा अब अनजाना नहीं रह गया है। लोग अपने-अपने साधनों से यहाँ की मँडई की तिथि पता कर अपने-अपने साजो-सामान सहित पहुँच जाते हैं।
  मँडई में देवी-देवता आपस में मिलते हैं। दूर-दूर के सगे-सम्बन्धियों की आपस में भेंट-मुलाक़ात होती है। बाज़ार भरता है। ख़रीददार और दुकानदारों का जमघट लगता है। लेकिन नारायणपुर की मँडई में बस्तर के बाहर से ऐसे लोग जो न इन आदिवासियों के सगे-सम्बन्धी होते हैं और न दुकानदार और ख़रीददार, वे क्यों आते हैं.....? क्या मिल जाता है उन्हें यहाँ की मँडई में और कौन लोग होते है वे? इन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिये आइये, हम आपको नारायणपुर की मँडई का एक छोटा सा दृश्य दिखायें :
  प्रमुख मँडई के एक दिन पहले से ही सुदूर अबूझमाड़ से अबूझमाड़ियों के दल के दल यहाँ आने लगते हैं। सड़क के एक किनारे, जहाँ तक दृष्टि जाती है, केवल ये ही ये नज़र आते हैं। जहाँ युवक अद्र्ध नग्न हैं, वहीं युवतियाँ भी। कमर में बिल्कुल छोटा सा कपड़ा.....कमर के ऊपर एकदम नंगी देह।
  यह दृश्य देख कर भी यदि आपको ऊपर के प्रश्नों के उत्तर न मिले हों तो हम ही बता देते हैं। इन्हीं दृश्यों को देखने, अपने कैमरों में क़ैद करने के लिये बाहर से आते हैं सैलानी। और अपनी तरह से उन फोटोग्राफ्स का उपयोग भी कर लेते हैं। बस! यही कारण है कि विभिन्न प्रचार माध्यमों से यहाँ के ऐसे चित्र और गढ़ी गयी आधारहीन कहानियों का प्रकाशन-प्रसारण दूर-दूर तक हो गया है और इसी आकर्षण में खिंचे सैलानी दौड़े चले आते हैं। वरना ऐसी कोई विशेष बात नहीं है कि आप सैकड़ों-हज़ारों किलोमीटर की दूरी पार कर यहाँ पहुँच जाएँ।
  शनिवार, 12 फरवरी 1983। मर्दापाल की मँडई। कोंडागाँव से पश्चिम की ओर 33 किलोमीटर दूर मर्दापाल के लिये कोंडागाँव से सुबह नौ बजे निकलते हैं हम। ट्रकें डिपो में लट्ठे खाली कर वापस जंगलों में जा चुकी हैं। वाहन की समस्या आ जाती है। सायकलों से चलना तय होता है। तभी एक ट्रक हमें मेंडपाल तक, यानी मर्दापाल से 7 किलोमीटर इधर तक के लिये मिल जाती है। जंगली रास्ते में ट्रक दौड़ने लगती है और ऊपर बैठे हुए यात्री डोलने लगते हैं। रास्ता बड़ा ही ख़राब है। ड्रायवर अपनी धुन में एक्सलरेटर पर दबाव बढ़ाता चला जा रहा है। रास्ते में और भी लोग ट्रक को रोकते हैं। सारे के सारे लोग मर्दापाल की मँडई देखने जा रहै हैं। सड़क के दोनों ओर आदिवासियों का रेला दिखायी पड़ता है। पैदल, सायकलों ओर बैल-गाड़ियों पर। औरतें सिर पर बोझ और बगल में बच्चों को बाँध कर लिपटाए हुए। पुरुष भी पीछे नहीं हैं। काँवड़ में एक ओर सामान तो दूसरी ओर बच्चों को बिठाए हुए। कुछ लोग सायकलों पर सामने बच्चों को और पीछे पत्नी को बिठाए मस्ती में झूमते हुए। क्या युवा, क्या बूढ़े और क्या बच्चे.....सभी के सभी, समूचा परिवार, गाँव और वह इलाक़ा ही उमंग में भरा बढ़ा चला जा रहा है। सभी को जल्दी है। बाज़ार भरने से पहले, बल्कि काफ़ी पहले पहुँचना होगा, वरना सारी तैयारियों के लिये समय कैसे मिल पाएगा.......! और इधर घने जंगलों के बीच से परम्परागत वेश-भूषा में आवृत्त आदिवासी बालाओं के झुण्ड किलकारियाँ-सी भरते सड़कों पर निकल आते हैं और उनकी चाल तेज़ होती जाती है। बीच में पड़ता है ढोल मँदरी नाम का वह स्थान, जहाँ पिछले नवम्बर-दिसम्बर में अपने-आप को परलकोटिया राजा कहने वाले बिहारी दास समर्थक लछिन-पेदा नामक आदिवासियों ने अपने साथियों के साथ लट्ठों से भरी ट्रकें खाली करवा ली थीं। वाक़ई बड़ा ही डरावना दृश्य है उस स्थान का। घने जंगल वैसे तो ज़रा भीतर जा कर हैं, फिर भी वहाँ की स्थिति कुछ ऐसी है कि एकबारगी मन में भय का समा जाना अस्वाभाविक नहीं लगता। घाटी-सी है वहाँ। सागौन का वृक्षारोपण भी उसी क्षेत्र में लगाया गया है। जंगल देख कर विश्वास करना ही पड़ेगा कि वाक़ई उस जगह आज से पन्द्रह-बीस साल पहले शेर आ निकलता रहा होगा। भाई वेलेज़ली जी इधर रह चुके हैं। वे बताने लगते हैं, "प्राय: आसपास के बाज़ारों के दिन यहाँ शेर घात लगाए बैठा होता था।" अभी भी, हालाँकि खोजने पर भी शेर तो क्या एक खरगोश भी वहाँ नहीं मिलेगा, किन्तु इसके बावज़ूद लोगों के मन में भय बराबर बना हुआ है। दरअसल जंगल वहाँ इतना घना है कि वही बड़ा भयावह लगता है। आते-जाते वनवासी भी उस जगह पहुँच कर थोड़ा-सा ठिठकते ही हैं। रास्ते में पड़ता है मँजुरडोंगर। इस गाँव के पानी के विषय में आज भी यह शिकायत है कि यह विषाक्त-सा हो गया है। कई लोग उस विषाक्त पानी के शिकार होकर काल-कवलित हो चुके हैं।
  बहरहाल, ट्रक चली जा रही है। मेंडपाल अब ज़्यादा दूर नहीं है। इतने में कण्डक्टर ऊपर आता है और किराये के पैसे वसूलने लगता है। वैसे इसके पहले ट्रक का क्लीनर भी आ चुका है। कुछ लोगों से पैसे वसूल कर एक किनारे जा टिका है। हमारी बगल में चार-पाच आदिवासी युवतियाँ खड़ी हैं। कण्डक्टर वहीं पहुँच जाता है। युवतियाँ कह उठती हैं, "अभी तो पैसे दिये हैं, क्या दुबारा लोगे?" तब कण्डक्टर अर्थ-भरी मुस्कराहट के साथ कह उठता है, "तुमसे पैसे किसने माँगे? क्यों दिये तुम लोगों ने पैसे?" युवतियाँ उसकी हँसी का अर्थ समझते हुए उत्तर देती हैं, "किराये के पैसे भला क्यों न देंगी?"
  तब तक कण्डक्टर उनसे सट-सा गया है। युवतियाँ इधर-उधर खिसकने लगती हैं। लेकिन कण्डक्टर का हाथ उनमें से एक लड़की के कन्धे पर पहुँच चुका है और उनका प्रतिरोध.........! ट्रक में सवार हम में से कोई भी, यहाँ तक कि उन आदिवासी युवकों में से भी कोई नहीं बोल पाता कुछ भी। बस, भीतर तक आत्मग्लानि का भाव पैठ जाता है। हम लोगों ने उधर से निगाहें हटा ली हैं और व्यस्त हो गये हैं साहित्य-चर्चा (?) में......।
  चर्चा रुकती है, ट्रक रुकने के साथ। ट्रक रुकी है मर्दापाल से सात किलोमीटर इधर, मेंडपाल जाने के रास्ते में। हम सब उतर पड़ते हैं। युवतियाँ हमसे भी पहले ट्रक से उतर कर सड़क पर बढ़ चली हैं। उनकी गति तेज़ है, मानो अब थोड़ी देरी भी रुकना ख़तरे से ख़ाली न हो।
  अब हमें छह किलोमीटर की दूरी पैदल तय करना है। कन्धे पर टँगा झोला जिसमें टेप रिकार्डर, कैमरा और टिफ़िन हैं, बड़ा भारी लग रहा है। निगाहें सड़क पर किसी परिचित सायकल वाले की तलाश में फिसलती हैं। इतने में भाग्यवश पोलँग गाँव के एक परिचित सायकल से आते हुए दिखते हैं और हम अपने झोले उनकी सायकिल में टाँग देते हैं। वे बेचारे शिष्टता के नाते सायकिल पर से उतर कर हमारे साथ पैदल हो लेते हैं। चार किलोमीटर की दूरी हमने बातचीत करते हुए तय कर ली। तभी कोंडागाँव के एक मित्र मोटरसायकिल से आते नज़र आते हैं और हम उस पर सवार हो गये हैं। और कुछ ही मिनटों में हम पहुँच गये हैं, मर्दापाल।
  अभी हम फ़र्लांग भर इधर हैं कि सड़क के दोनों ओर पेड़ों के नीचे श्रृंगार करती आदिवासी युवतियाँ, युवक, बूढ़े और बच्चे दिखलायी पड़ते हैं। हममें से एक कह उठता है, "मेकअप हो रहा है.......।" उस स्वर में व्यंग्य छिपा है और छिपी है शहरी कामुक मानसिकता.....।
  बहरहाल, आप भी हमारे साथ मर्दापाल की मँडई घूम लीजिए। किन्तु इसके पहले कि आप मर्दापाल की मँडई घूमने चलें, आइए आपको इस गाँव के विषय में थोड़ी सी जानकारी दे दें।
  मर्दापाल गाँव के किनारे से भँवरडिही नाम की नदी बहती है। आगे कुधुर गाँव के पास से डण्डामियों का इलाक़ा शुरु हो जाता है। लोग कहते हैं कि इस इलाक़े में रहने वाले डंडामी माड़ियों का व्यसन है लूट-खसोट। माड़िया, मुरिया आदि जनजातियाँ भी इन डंडामियों से भय खाती हैं। प्रसंगवश यह स्पष्ट करना आवश्यक होगा कि माड़िया-मुरिया-डंडामी माड़िया तथा अबुझमाड़िया आदि कोई अलग-अलग जातियाँ नहीं अपितु गोंड जनजाति की ही उप शाखाएँ हैं।
  आदिवासी विकास खण्ड, कोंडागाँव के अन्तर्गत आने वाले इस मर्दापाल गाँव में विकास-कार्य को रेखांकित करते अस्पताल, मिडिल स्कूल, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, आदिमजाति सेवा सहकारी समिति आदि की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। एक पशु-चिकित्सक भी यहाँ पदस्थ हैं, किन्तु चिकित्सालय के लिये फ़िलहाल भवन उपलब्ध नहीं है। मर्दापाल, गुड़ापदर और कुसमा को मिला कर कुल तीन मुहल्ले जो कि लगभग एक-एक किलोमीटर की दूरी पर हैं, मर्दापाल गाँव कहलाता है। यहाँ की सम्मिलित आबादी लगभग पाँच हज़ार है।
  दूर गाँव से आये देवी-देवता देवगुड़ी में एकत्र हैं। मोहरी, नगाड़ों और तुड़बुड़ी से देवपाड़ की स्वर-लहरी वातावरण में गूँज कर एक अनोखा आल्हादकारी समाँ बाँध रही है। सिरहों पर देवियाँ आरूढ़ हैं और वे अपने-आप से बेख़बर देवगुड़ी के प्रांगण में झूम रहे हैं। नगाड़ों पर पड़ती नँगारची के काड़ों की चोट के साथ सिरहों के नृत्य की गति में तेज़ी आ गयी है। किलकारियाँ भरते हुए अपने ही हाथ से अपने शरीर पर काँटों की लड़ियों का प्रहार, कभी लोहे के नुकीले छड़ अपने गालों के आर-पार करते और बड़े-बड़े काँटों के झूलों में एकबारगी धँसते हुए ये लोग बड़ा ही रोमांचकारी दृश्य उपस्थित कर रहे हैं। दर्शन के लिये आये आदिवासियों के समूह उन पर पुष्प-वर्षा कर रहे हैं और उनके पाँव छू कर मंगल-कामना कर रहे हैं।
  दरअसल मँडई का प्रमुख आकर्षण यही देव-धामी होते हैं। यहाँ आसपास के कई-कई देवी-देवता अपने-अपने प्रतीकों के माध्यम से एकत्र होते हैं। बड़े-बड़े लाट-बैरक (लम्बे बाँसों में विभिन्न रंगों के झण्डे और ऊपरी सिरे पर पीतल का कलश, यही) इन देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। मँडई में काफ़ी भीड़ है। लोग अभी भी दूर गाँव से सपरिवार चले आ रहे हैं। भीड़ अभी बढ़ती ही जाएगी, ऐसा लग रहा है।
  इधर-उधर घूमते वनवासियों के बीच इस साल की मँडई चर्चा का विषय बनी हुई है। सभी को महसूस हो रहा है कि और वर्षों की अपेक्षा इस वर्ष यहाँ की मँडई में काफ़ी रौनक है। लोग अत्यधिक प्रसन्नचित्त नज़र आ रहे हैं।
वस्तुत: किसी भी बाज़ार या मँडई में दिखने वाली रौनक का सीधा-सीधा ताल्लुक उस क्षेत्र की आर्थिक स्थिति से होता है। फसल ठीक रही तो उल्लास भर जाता है। और फसल की हालत कमज़ोर रही तो सारा उल्लास फीका पड़ जाता है।
  हमने कुछेक वनवासियों से इस बाबत चर्चा की तो उन्होंने उमंग के साथ बताया कि और वर्षों की अपेक्षा इस साल फसल अच्छी हुई। इसी वज़ह से मँडई भी काफ़ी अच्छी भरी है।
  हम अब मँडई में प्रवेश कर चुके हैं। इधर बायीं ओर कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिये पुलिस-चौकी बनायी गयी है। जिलाधीश कल यहाँ के दौरे पर आये थे, शायद आज भी आयें। बिल्कुल मुहाने पर गल्लों के पसरे लगे हुए हैं। उड़द, अरहर, इमली, तिल आदि के ढेर उन पसरों में लगे हैं। आदिवासी आ-आ कर अपने साथ लायी उपज व्यापारियों के हाथों सौंप रहे हैं। हर आदिवासी का अपना पहचाना हुआ व्यापारी है। वह बुलाने पर भी दूसरे व्यापारी के पास नहीं जा रहा है। हर्रा की खरीदी वन विभाग द्वारा की जा रही है। हर्रा की क़ीमत तो ख़ैर सही मिल रही है, लेकिन दूसरे उपज की क़ीमत सही मिल रही है या नहीं, आदिवासी इससे बिल्कुल ही बेख़बर हैं।
  आगे बढ़ते हैं तो कपड़ों की दुकान, बर्तनों, आभूषणों और फैन्सी सामानों के दुकान नज़र आते हैं। इन दुकानों पर आदिवासियों की भीड़ लगी है। होटलों में लोग बैठे खा-पी रहे हैं। पान की दुकानों में युवक-युवतियाँ खड़े पान की गिलौरी ले कर एक-दूसरे को खिला रहे हैं।
  साल भर की प्रतीक्षा के बाद तो आती है मँडई। और मँडई आती ही इसीलिये है कि मर-जी कर बचे हुए लोग आपस में मेल-मुलाक़ात कर सकें। आनन्द और उमंग के दो क्षण आपस में मिल कर गुज़ार सकें। कल पता नहीं, कौन कहाँ रहे.....! क्या पता जीते बचते भी हैं या नहीं.....? दूर-दराज़ के सगे-सम्बन्धियों से भी भेंट यहीं होती है। साल भर के दु:ख-सुख का लेखा-जोखा यहीं......किसी पेड़ के नीचे बैठ कर लगाया जाता है। साथ लायी सलफी-शराब और लंदा आपस में मिल-बाँट कर पी जाती है। मुलाक़ात और मधुर क्षणों की स्मृति में गोदने भी तो यहीं गुदवाए जाते हैं। बाँहों में, हथेलियों पर, चेहरे पर। और कंघी, चुनौटी, ककवा भी यहीं एक-दूसरे को भेंट किए जाते हैं।
  हम सोने-चाँदी, पीतल-अल्युमिनियम के आभूषणों की एक दुकान के पास रुक गये हैं। आदिवासियों ने चारों ओर से उस दुकानदार को घेर रखा है। हर किसी को सौदा जल्दी ख़रीद लेने की जल्दी पड़ी है। दुकानदार सभी की बात सुनने का भरसक प्रयास कर रहा है। और चाह रहा है कि कोई भी ग्राहक वहाँ से उठ कर दूसरी जगह न जाने पाए। हमने वहाँ बैठे हुए एक बुज़ुर्ग से बातचीत की :
  "अपना नाम बताएँगे आप?"
  इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने अपने प्रति प्रश्न में दिया, "नाम जान कर क्या करेंगे?"
  हमने दुबारा नाम नहीं पूछा।
  "अच्छा, ठीक है। कौन गाँव से आये हैं, आप?" हमारा अगला प्रश्न था।
  "नवागाँव से।"
  "क्या ख़रीद रहे हैं?"
  "कुछ नहीं।"
  "तब बैठे कैसे हैं?"
  "ऐसे ही। यह तो मेरी रोज़ बैठने की जगह है। पहचान के हैं, इसलिये बैठा हूँ।"
  हमारी बातचीत से दुकानदार को शंका हुई। उसने बातचीत रिकार्ड करते देख कर कारण पूछा था। हमने बताया, हम अख़बार के लिये रपट तैयार कर रहे हैं। तब उनकी मुखाकृति देखने लायक़ हो गयी थी। थोड़ी देर के लिये वह ग्राहकों से बातचीत करना भूल गया था। हम वहाँ से आगे बढ़ तो गये लेकिन प्रश्न घूमता रहा ज़ेहन में कि आख़िर वह बुज़ुर्ग बिना बात वहाँ क्यों बैठा है? तभी हमारे साथ घूम रहे एक स्थानीय मित्र ने बताया कि व्यापारी लोग इसी तरह हर गाँव के प्रभावशाली लोगों से साँठ-गाँठ रखते हैं। और आप देखेंगे कि हर दुकान में, विशेषत: कपड़े, बर्तन और आभूषणों की दुकानों में एक न एक क्षेत्रीय व्यक्ति बिना काम बैठा हुआ मिलेगा। दरअसल, गाँव के लोग जब यह देखते हैं कि उनके क्षेत्र का प्रतिष्ठित व्यक्ति उस दुकान में बैठा है तो वे उधर ही चले जाते हैं------इस आशा से कि वह व्यक्ति उन्हें सस्ते में सौदा दिला देगा। जबकि व्यापारी उनकी इसी मानसिकता का ग़लत फ़ायदा उठाता है। उस प्रतिष्ठित व्यक्ति या ग्राहक को पता भी नहीं चलता और व्यापारी उनसे वस्तु की अधिक क़ीमत वसूल कर लेता है।
  वाकई उनकी बात सच निकली। प्राय: इस क़िस्म की हर दुकानों में एक न एक व्यक्ति, जो उस क्षेत्र का प्रतिष्ठित व्यक्ति (जैसे सरपंच, पटेल, कोटवार, माँझी, मुखिया या गाँयता-पुजारी आदि) था, हमें तम्बाकू मल कर खाता, दुकानदार से गपियाता या ग्राहकों से बतियाता, मोल-भाव करता हुआ मिला।
  हम अब कपड़े की दुकान के सामने ठहर गये हैं। एक आदिवासी युवक को निवार ख़रीदते देख जिज्ञासा हो आयी है। क्या आग जला कर उसके चारों ओर सोने वाले आदिवासी अब निवार-बुनी चारपायी का उपयोग करने लगे हैं या कि सिंयाड़ी रस्सी का उपयोग अब नहीं होता......!
  "क्या ले रहे हो, जी?"
  "........." वह उत्तर में मुस्करा देता है। उस वस्तु का नाम नहीं बता पाता।
  "क्या करोगे इसका, खाट में लगाओगे?" हम फिर पूछते हैं।
  उत्तर वह अब भी नहीं देता। उसकी जगह दुकानदार कह उठता है : "नाचने के लिये यो लोग निवार लेते हैं।"
  अब हम चौंकते हैं। नाच में निवार का क्या काम? दुबारा पूछने पर दुकानदार के साथ-साथ आसपास बैठे दो-तीन दूसरे लोग बताते हैं, "नाच के समय इसे कमर में लपेट कर ऊपर से घुँघरु बाँधते हैं।" 
  नाम पूछने पर पहले तो वह सकपका-सा जाता है कि पता नहीं क्यों पूछ रहे हैं। फिर वह हकलाता हुआ अपना नाम-गाँव बतलाता है, "तातीराम, गाँव : कड़ेनार।"
  बर्तन की दुकान पास ही में लगी है। यहाँ भी वही दृश्य! एक बिना काम का आदमी बैठा हुआ है। तीन-चार आदिवासी ग्राहक थाली-गिलास आदि हाथ में उठा कर देख रहे हैं। दुकानदार बर्तन ख़रीदने के लिये बैठे एक आदिवासी से मोल-भाव कर रहा है। उस व्यक्ति को उस बर्तन की क़ीमत अधिक लग रही है और वह अब वहाँ से उठ भी गया है। हम देख रहे हैं, दुकानदार उस बर्तन का भाव अब क्रमश: कम करता जा रहा है और कोहनी से उस बिना काम के व्यक्ति को टहोका भी मारता जा रहा है। वह ख़रीददार शायद समझदार है। उठ कर बाहर भीड़ में ग़ुम हो गया है। दुकानदार अन्तिम बार चिल्लाता है, "तीन कोड़ी ने एब्बे देयँदे। ए ना एय गोतिया.....(साठ रुपये में अभी दे दूँगा। ओ भाई.....!)" किन्तु वह ख़रीददार ओझल हो चुका है। खिसिया कर वह दुकानदार अपने नौकर से कहता है, "ले बे, रख उधर। साला, चालू लगता है!"   और फिर व्यस्त हो गया है-------"आले ना आना, कोन कसला आय जाले.....? (अच्छा जी लाओ, कौन सा लोटा है......?)"
  थाली खरीद कर वहीं बैठी हुई एक युवती से हम पूछ बैठते हैं, "क्यों बाई, थाली की क़ीमत तो ठीक है, न?"
  वह उत्तर में सिर हिला देती है केवल। ग्रामीणों की आम धारणा है कि मँडई में चीज़ें सस्ती मिलती हैं। दुकानदारों को ग्रामीणों की इसी धारणा के चलते काफ़ी फ़ायदा होता है। ड्योढ़े-दोगुने क़ीमत में ये अपनी चीज़ें इन मेलों में बेच लेते हैं। वहीं कुछ ग्रामीण ऐसे भी हैं जो इस सही तथ्य से परिचित हैं। ऐसे ही एक आदिवासी युवक से हमारी भेंट हो गयी। सायतूराम वनग्राम कारसिंग के कोटवार हैं। वे बताते हैं कि मेलों में चीज़ें कभी सस्ती नहीं मिलतीं। इसलिये वे मेलों में कभी कोई सामान नहीं लेते।
  "आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?" हमने पूछा।
  "मैं रोज़ कोंडागाँव आना-जाना करता हूँ। वहाँ के बाज़ार या दुकानों में जो चीज़ें दस रुपये में मिलती हैं, यहाँ वही चीज़ें पन्द्रह रुपये से कम में नहीं दे रहे हैं दुकानदार।" सायतूराम का जवाब था।
  दुकानदारों को इन मेलों में वाक़ई फ़ायदा होता है या नहीं, इसकी जानकारी हमें मिली एक व्यापारी से ही। पूछने पर उन्होंने गर्व सहित उत्तर दिया : "अरे भाई! इन आदिवासियों को क्या मालूम, किस चीज का दाम क्या है? दस रुपये की चीज हम बीस रुपये बताते हैं। भाव उतारना इन आदिवासियों का धंधा ही है। उतरते-उतरते पन्द्रह रुपये पर तो सौदा पट ही जाता है।"
  उस व्यापारी से निबट कर आगे बढ़े तो एक आदिवासी बूढ़े को चक्की रखे देखा। बूढ़े बाबा को यही नहीं पता था कि कितने रुपये में उसे वह चक्की बेचना चाहिये। पूछने पर बताया, "बीस भी है, पचीस भी है। मैं नहीं जानता।" 
  हमने कुरेदा, "मेहनत कितने दिनों की लगी होगी?"
  "पाँच दिन कम से कम।"
  हम चौंक गये। पाँच दिनों की हाड़-तोड़ मेहनत की क़ीमत वह बेचारा केवल बीस या पचीस रुपये आँक रहा है।
  अब ऐसा नहीं है कि आदिवासी की आवश्यकताएँ मात्र नमक-मिर्च तक ही सीमित रह गयी हों। उनकी आवश्यकताएँ भी दिनों-दिन बढ़ती जा रही हैं। आसपास भरने वाले साप्ताहिक बाजार और मेले-मँडई के कारण और दूसरी चीजों से भी ये लोग परिचित हो गये हैं और उनका उपयोग जानने के बाद आवश्यकता महसूस करने लगे हैं। इधर इन मेलों में काफी फर्क भी आ गया है। कोरमेल गाँव से यहाँ मँडई देखने आये एक आदिवासी बुजुर्ग श्री कमलू से बातचीत करने पर वह अन्तर स्पष्ट हो जाता है, "बहुत अन्तर आ गया है, अब तो।" कमलू की बूढ़ी आँखों में पिछला दृश्य उभरने लगा है और स्वर में वर्तमान के प्रति असन्तोष भी...."देवता के उतरे हुए कपड़ों को हम पहना करते थे। आज तो स्थिति दूसरी है। किसम-किसम के कपड़े पहनने लगे हैं लोग। हमने पिछौरी और कुरता तो कभी पहना ही नहीं था।" 
  पुराने लोग पता नहीं क्यों अपनी उन परम्पराओं को ओढ़े रहना चाहते हैं, जबकि नयी पीढ़ी एकदम उनके खिलाफ है। वह अब रंग-बिरंगे और नए फैशन के कपड़े पहनना चाहती है।
  बात को मँडई की ओर ले जाते हुए हमारा प्रश्न है, "आप बताइये, मँडई में क्या फर्क नजर आता है आपको?" 
  इस पर वे सामने गुजर रहे देव-धामी की ओर इंगित कर कहते हैं, "ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। वो   देखिए, सामने लाट-बैरक जा रहे हैं और ये लड़के-लड़कियाँ कैसे उन देवताओं के सामने बन-ठन कर घूम रहे हैं! पहले ऐसा नहीं था। किसी की क्या मजाल थी कि देव बिहरने के समय सामने आ जाए।" वे पल भर रुकते हैं, फिर कुछ याद कर कहने लगते हैं, "घोटिया गाँव की मँडई की बात है। देव बिहरने के समय देवगुड़ी से दुलारदई देवी निकलीं और मँडई में प्रवेश किया ही था कि एक सजी-धजी औरत उनके सामने पड़ गयी। देवी ने कहा, अब मैं क्या घूमूँगी मँडई में। यहाँ तो यह औरत ही मुझसे अधिक सजी-सँवरी है। और देवी देवगुड़ी में वापस हो गयी। शाम होते न होते उस स्त्री की मृत्यु हो गयी।"
  ऐसी बात नहीं है कि आज की पीढ़ी के मन में देवी-देवताओं के प्रति श्रद्धा नहीं रह गयी है। किन्तु हाँ, पुरानी ऐसी परम्पराओं को वे जरूर छोड़ देना चाहते हैं, जिनके चलते उन्हें नुकसान उठाना पड़ रहा है।
  एक नर्तक-दल ने अभी-अभी मँडई-स्थल में प्रवेश किया था। सिर में सींग पहने, गले में माँदर और ठुड़का वाद्य-यन्त्र लटकाए मस्ती में बजाते-नाचते आदिवासी युवा मँडई में घूम रहे थे। हमने उनमें से एक को रोक कर पूछा, "कौन गाँव के हो?" हमारा इस तरह रोक कर पूछना उसे शायद अच्छा नहीं लगा, "......अरे, पुसपाल का। पुसपाल गाँव किसका, मर्दापाल किसका........?" उत्तर दिया उसने, लेकिन उनकी आँखों में हमारे प्रति घृणा और स्वर में आक्रोश स्पष्ट परिलक्षित हो रहा था। वह फिर बजाता-झूमता आगे बढ़ गया।
  मँडई में हम देख रहे हैं, लोग जहाँ पास के गाँवों पुसपाल, नवागाँव, कुधुर, कोरमेल, रानापाल, हड़ेली, पड़ेली, सुदापाल वगैरह से आये हैं, वहीं काफी दूर-दूर, जैसे तोकापाल, लोहंडीगुड़ा, चारामा आदि से भी आये हुए हैं। इस साल इधर गन्ने की फसल भी अच्छी हुई है। तभी तो यहाँ गन्ने का रस और गुड़ बहुत सस्ता बिक रहा है।
  मनोरंजन के लिये यहाँ बाहर से झूला वाले आये हैं। फोटो स्टूडियो और सर्कस वालों का प्रवेश अभी इधर नहीं हुआ है। हाँ, पिछली रात में दूर-दूर से आये हुए आदिवासी नर्तक-दलों ने कोकरेंग नृत्य सारी रात किया था। आज की रात बारह ओड़िया-नाच-दलों के आने की सम्भावना है। छत्तीसगढ़ी नाचा के भी आने की सम्भावना है।
  बहुत अच्छी बात जो यहाँ की मँडई में देखने को मिली, वह थी आदिवासी युवतियों का वस्त्र धारण किए होना। अद्र्धनग्न कोई भी नहीं दिख रही थी, जबकि नारायणपुर की मँडई में सुदूर अबूझमाड़ से आने वाली आदिवासी युवतियों के वक्ष प्राय: नग्न होते हैं। बहुत से शहरी यहाँ भी इसी आशा से आये हुए थे कि आदिवासी बालाओं के उघड़े बदन देख कर तृप्त हो लें। लेकिन जब ऐसा दृश्य उन्हें यहाँ नहीं दिखा तो वे लोग स्पष्ट कहते सुने गये, "यहाँ आने का कोई मतलब ही नहीं निकला। साले, सारे के सारे कपड़े पहने हुए हैं।"
  जिज्ञासा बढ़ी। हमने कुछेक आदिवासी युवकों से पूछा तो उन्होंने बताया, "लछिन-पेदा (इनका ज़िक्र पहले भी आ चुका है) ने हमें यह सब सिखाया है। अब इस इलाके के लोग, जो उनके सम्पर्क में हैं, न रात में घोटुल जाते हैं और न अद्र्धनग्न रहते हैं।"
  अधिकांश लोग प्रसन्न हैं कि इस साल की मँडई में कोई उपद्रव नहीं हुआ। पिछले साल तो माड़ियों ने लूट-पाट मचायी थी।
  शाम घिरने से पहले ही आसपास के गाँवों के लोग अपने-अपने बोझे ले कर वापस होने लगे हैं। जल्दी घर पहुँचेंगे तभी तो खा-पी कर रात में नाच देखने आयेंगे। दूर से आये आदिवासी भी अपने-अपने डेरों की ओर, जो कि पेड़ों के नीचे बने हुए हैं, जाने लगे हैं। अब कुछ घंटों के बाद नाच शुरु होंगे। नर्तक-दलों का आना तो शुरु हो ही गया है। और तब रात में मँडई की रौनक एक बार फिर देखते ही बनेगी।
("नवभारत" दिनांक 27 फरवरी 1983 अंक में प्रकाशित)

Tuesday 10 April 2012

बस्तर-माटी के अन्यतम हल्बी कवि सोनसिंह पुजारी


बड़ी शान से ब्लॉग तो शुरु कर लिया किन्तु अब पता चला कि ब्लॉगिंग कोई हँसी-ठट्ठा नहीं है कि कोई भी "चला ले"। बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं। पिछले दस दिनों से मेरे नगर कोंडागाँव में चल रहे विभिन्न जनहित-कार्यों के चलते मेरे टेलीफोन की लाईन कटी पड़ी रही और मैं इसके बिना "नाकारा" हो गया था। पिछले दस दिनों के लगातार विनम्र निवेदनों के बाद आज जा कर लाईन सुधरी भी तो इस समझाइश के साथ कि आज रात में पुन: लाईन कटने की पूरी सम्भावना है। कारण, पाईप-लाईन बिछाने के लिये जेसीबी का आगमन होगा। तब मैंने तत्काल कम्प्यूटर खोला और आनन-फानन में यह दूसरा पोस्ट लगाने की जुगाड़ करने लगा हूँ।
इस पोस्ट में प्रस्तुत है बस्तर-माटी के अन्यतम हल्बी कवि श्री सोनसिंह पुजारी जी का "इँदराबती" शीर्षक गीत, जिसे आगे किसी पोस्ट में सांगीतिक  रूप में प्रस्तुत  करने का प्रयास करूँगा। इनकी अन्य कविताओं से भी परिचित कराना आवश्यक होगा ताकि उन्हें बस्तर माटी के अन्यतम कवि कहे जाने का मेरा दावा सिद्ध हो सके। इन्द्रावती बस्तर की जीवन-रेखा कही जाती रही है जिसका पानी अब "जँवरा" नामक नाले में समाहित होता जा रहा है। इस नाले के विषय में पिछले दिनों सिंहावलोकन वाले श्री राहुल सिंह जी से बातचीत होती रही थी। बहरहाल, मूल विषय की ओर लौटते हैं और रू-ब-रू होते हैं उस कवि और उसकी कविता से जिसे मैं हल्बी का अन्यतम कवि कहता हूँ।

छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल बस्तर अंचल, जिसे देश के सबसे पिछड़े इलाकों में शुमार किया जाता है और समझा जाता है कि यह इलाका सभ्यता से कोसों दूर है; इतना ही नहीं अपितु जिसके रहवासियों के विषय में यह भी भ्रान्त धारणा है कि इस अंचल के लोग नंगे रहा करते हैं, और जिसकी गोंड जनजाति में प्रचलित घोटुल नामक संस्था जिसे इस जनजाति का विश्वविद्यालय कहा जाना चाहिये, के विषय में कामुकता भरी घिनौनी कहानियाँ वास्तविकता को जाने-बूझे बगैर गढ़ ली जाती हैं, में साहित्य-सृजन का सूत्रपात 1908 में प्रकाशित पं. केदार नाथ ठाकुर के बहुचर्चित ग्रन्थ "बस्तर-भूषण" के साथ माना जाता है। इसके पूर्व इस अंचल में साहित्य-सृजन का कोई उल्लेख कहीं नहीं मिलता। "बस्तर-भूषण" के लेखक पं. केदार नाथ ठाकुर (जगदलपुर) पेशे से बस्तर स्टेट के नार्दर्न सर्किल में फारेस्ट रेंजर हुआ करते थे। उन्होंने शासकीय कार्य निष्पादन के लिये अपने क्षेत्रीय भ्रमण के दौरान जो कुछ देखा-सुना और अनुभव किया उसे लेखबद्ध कर "बस्तर भूषण" शीर्षक से ग्रन्थ का प्रणयन किया। "बस्तर भूषण" के अतिरिक्त उन्होंने "सत्यनारायण कथा", "बसन्त विनोद" की भी रचना की और बाद में इन दोनों पुस्तकों को "केदार विनोद" नामक अपनी अन्य पुस्तक में संग्रहित किया। "बस्तर विनोद" और "विपिन विज्ञान" उनकी अन्य पुस्तकें है, किन्तु ये उपलब्ध नहीं हैं ("बस्तर-भूषण" : पं. केदार नाथ ठाकुर, द्वितीय संस्करण, 1982, प्रकाशक : श्रीमती बेनवती मिश्र, "इतिहास दीपन", फुलवारी पारा, रतनपुर, छत्तीसगढ़)। बस्तर के विषय में हिन्दी में सर्वप्रथम लगभग सम्पूर्ण जानकारी देने वाले इस ग्रन्थ "बस्तर-भूषण" की चर्चा तब भी हुई थी और आज भी यह चर्चित बना हुआ है। आज भी लोग इसे खोजते फिरते हैं।

चर्चा लाल कालीन्द्र सिंह (जगदलपुर) द्वारा लिखित "बस्तर-भूषण" नामक ग्रन्थ की भी होती है किन्तु इसकी प्रति उपलब्ध नहीं है। कहा जाता है कि यह तत्कालीन रियासती प्रशासन की दृष्टि में आपत्तिजनक होने के कारण जब्त कर लिया गया था, जिससे उसका मुद्रण-प्रकाशन सम्भव नहीं हो सका। लाल कालीन्द्र सिंह रचित "बस्तर इतिहास" का भी उल्लेख मिलता है, जिसे उन्होंने 1908 में लिखा था। किन्तु यह ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं है ("बस्तर-लोक : कला-संस्कृति प्रसंग" : लाला जगदलपुरी, 2003 : 223, प्रकाशक : आकृति संस्थान, बस्तर हाई स्कूल रोड, जगदलपुर, बस्तर-छत्तीसगढ़)। बस्तर महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव ने "लोहण्डीगुड़ा तरंगिणी" तथा अंग्रेजी में "आई प्रवीर द आदिवासी गॉड" लिखी। पं. सुन्दरलाल त्रिपाठी (जगदलपुर) ने क्लिष्ट हिन्दी में रचना-कर्म किया।

इनके पश्चात् पं. गंगाधर सामन्त "बाल" (जगदलपुर) द्वारा रचित साहित्य स्थान पाता है। द्विवेदी युग में पण्डित जी की रचनाएँ "कर्मवीर", "विद्या", "राजस्थान केशरी", "विद्यार्थी", "सत्यसेतु" "काव्य-कौमुदी" और "विश्वमित्र" जैसे स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। इसके अलावा आप रियासत कालीन बस्तर के एकमात्र साप्ताहिक "बस्तर-समाचार" में "पंचामृत" शीर्षक स्तम्भ के स्तम्भ-लेखक थे। उनकी प्रकाशित कृतियों में "अभिषेकोत्सव", "शोकोद्गार", "प्राचीन कलिंग खारवेल", "तत्वमुद्रा धारण निर्णय" "रमलप्रश्न प्रकाशिका" और "गीता का पद्यानुवाद" का उल्लेख मिलता है ("बस्तर-लोक : कला-संस्कृति प्रसंग" : लाला जगदलपुरी, 2003 : 223, प्रकाशक : आकृति संस्थान, बस्तर हाई स्कूल रोड, जगदलपुर, बस्तर-छत्तीसगढ़)।

साहित्य-सृजन के इस क्रम को आगे बढ़ाया था ठाकुर पूरनसिंह (जगदलपुर) ने। उन्होंने हिन्दी में "बस्तर की झाँकी", और "पूरन दोहावली", तथा हल्बी में "भारत माता चो कहनी" और "छेरता तारा गीत" शीर्षक पुस्तकों की रचना की थी। 1937 में प्रकाशित "हल्बी भाषा-बोध" राजकीय अमले को हल्बी भाषा सिखाने के लिये लिखी गयी उनकी पुस्तक थी। ठाकुर पूरन सिंह को बस्तर की हल्बी लोक भाषा में लिखित साहित्य की रचना करने वाले प्रथम साहित्यकार होने का श्रेय जाता है। वे ही हल्बी के प्रथम गीतकार भी थे। उन्हीं के सहयोग से मेजर आर. के. एम. बेट्टी ने 1945 में "ए हल्बी ग्रामर" की रचना की थी। इसी क्रम में पं. गणेश प्रसाद सामन्त (जगदलपुर) ने "देबी पाठ" नामक एक पद्य पुस्तिका रची थी। 1950 में पं. गम्भीर नाथ पाणिग्राही (जगदलपुर) रचित कविता-संग्रह "गजामूँग" प्रकाशित हुआ था। पं. वनमाली कृष्ण दाश (जगदलपुर) ने भी साहित्य-सृजन किया था किन्तु उनकी किसी प्रकाशित पुस्तक का उल्लेख नहीं मिलता ("बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति" : लाला जगदलपुरी, 1994, प्रकाशक : मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल, मध्य प्रदेश)। पं. देवीरत्न अवस्थी "करील" (गीदम) ने हिन्दी के साथ-साथ हल्बी में भी काव्य-रचना की। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं "देवार्चन", "मधुपर्क", "लोकरीति" और "रघुवंश"। उनकी उत्तम साहित्य-साधना के लिये उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा "साहित्य-रत्न" की उपाधि से विभूषित किया गया था। इसी तरह महाकवि कालिदास की कृति "रघुवंश" के हिन्दी छन्दानुवाद के लिये साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा पुरस्कृत किया गया था ("अमृत काव्यम्", सम्पादक : अवधेश अवस्थी, 2005, प्रकाशक : अमृत प्रकाशन, ग्वालियर, मध्य प्रदेश)। 1960 के आसपास अयोध्या दास वैष्णव (खोरखोसा, जगदलपुर) ने "चपकेश्वर महात्म्य" शीर्षक काव्य-पुस्तिका का प्रणयन किया था।

लाला जगदलपुरी (जगदलपुर) ने साहित्य-साधना आरम्भ की 1936 से और उनकी रचनाएँ 1939 से ही प्रकाशित होने लगीं। उनकी प्रकाशित कृतियों में कविता एवं ग़ज़ल संग्रह "मिमियाती ज़िंदगी दहाड़ते परिवेश" (ग़ज़ल), "पड़ाव-5" (कविता), "हमसफ़र" (कविता) और "ज़िंदगी के लिये जूझती ग़ज़लें", "गीत-धन्वा" (मुक्तक एवं गीत संग्रह) तथा लोक कथा संग्रहों में "हल्बी लोक कथाएँ", "वनकुमार और अन्य लोक कथाएँ", "बस्तर की मौखिक कथाएँ" (हरिहर वैष्णव के साथ), "बस्तर की लोक कथाएँ" और इतिहास-संस्कृति विषयक "बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति", "बस्तर-लोक : कला-संस्कृति प्रसंग", तथा "बस्तर की लोकोक्तियाँ" हैं। उनके द्वारा हल्बी में अनूदित पुस्तकें हैं, "प्रेमचन्द चो बारा कहनी", "बुआ चो चिठी मन", "रामकथा" और "हल्बी पंचतन्त्र"। इसके अतिरिक्त उनकी अनेकानेक रचनाओं ने विभिन्न मिले-जुले संग्रहों में भी स्थान पाया है। इनमें "समवाय", "पूरी रंगत के साथ", "लहरें", "इन्द्रावती", "सापेक्ष", "हिन्दी का बाल गीत साहित्य", "सुराज", "चुने हुए बाल गीत", "छत्तीसगढ़ी काव्य संकलन", "छत्तीसगढ़ के माटी चंदन", "छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह", "गुलदस्ता" "स्वर संगम", "गीत हमारे कण्ठ तुम्हारे", "बाल गीत", "बाल गीत भाग-4", "बाल गीत भाग-5" "बाल गीत भाग-7", "हम चाकर रघुवीर के", "मध्य प्रदेश की लोक कथाएँ", "स्पन्दन", "चौमासा", और "अमृत काव्यम्" आदि प्रमुख हैं। इसके साथ ही उनकी विभिन्न रचनाएँ "वेंकटेश्वर समाचार", "चाँद" "विश्वमित्र", "सन्मार्ग", "पाञ्चजन्य", "मानवता", "कल्याण", "नवनीत", "कादम्बिनी", "नोंकझोंक", "रंग", "ठिठोली", "चौमासा", "रंगायन", "ककसाड़" आदि अन्य स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाती रही हैं।

गुलशेर खाँ शानी (जगदलपुर), धनञ्जय वर्मा (जगदलपुर), लक्ष्मीचंद जैन (जगदलपुर), कृष्ण कुमार झा (जगदलपुर), सुरेन्द्र रावल (कोंडागाँव), चितरंजन रावल (कोंडागाँव), कृष्ण शुक्ल (जगदलपुर) आदि ने भी साहित्य-सृजन के क्षेत्र में कदम रखा और विभिन्न विधाओं में साहित्य-सृजन किया। शानी एक कथाकार-उपन्यासकार के रूप में स्थापित हुए जबकि डॉ. धनञ्जय वर्मा आलोचना के क्षेत्र में मील के पत्थर साबित हुए। वे आज आलोचना के शिखर-पुरुष के रूप में जाने और माने जाते हैं। शानी की रचनाओं में "बबूल की छाँव", "डाली नहीं फूलती", "छोटे घर का विद्रोह", "एक से मकानों का घर", "युद्ध", "शर्त का क्या हुआ", "मेरी प्रिय कहानियाँ", "बिरादरी", "सड़क पार करते हुए", "जहाँपनाह जंगल", "सब एक जगह", "पत्थरों में बंद आवाज", "कस्तूरी", "काला जल", "नदी और सीपियाँ", "साँप और सीढ़ी", "एक लड़की की डायरी", "शाल वनों का द्वीप" और "एक शहर में सपने बिकते हैं" प्रमुख हैं।        

डॉ. धनञ्जय वर्मा की प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं, "निराला : काव्य और व्यक्तित्व", "आस्वाद के धरातल", "निराला काव्य : पुनर्मूल्यांकन", "हस्तक्षेप", "आलोचना की रचना-यात्रा", "अँधेरे के वर्तुल", "आधुनिकता के बारे में तीन अध्याय", "आधुनिकता के प्रतिरूप", "समावेशी आधुनिकता", "हिन्दी कहानी का रचना शास्त्र", "हिन्दी कहानी का सफ़रनामा", "परिभाषित परसाई", "हिन्दी उपन्यास का पुनरावतरण", "आलोचना के सरोकार", "लेखक की आज़ादी" और "आलोचना की ज़रूरत"।

यह कहा जाये कि हल्बी जनभाषा में उल्लेखनीय काव्य-सृजन के लिये सोनसिंह पुजारी का नाम सर्वोपरि रहा है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यद्यपि उन्होंने कुल मिला कर 27 कविताएँ ही लिखी किन्तु ये 27 कविताएँ आरम्भ से आज तक हल्बी जनभाषा में लिखी गयी विभिन्न कवियों की कविताओं पर भारी साबित होती हैं। इसीलिये उन्हें हल्बी का अनन्य कवि कहे जाने में कोई संशय नहीं होना चाहिये। 1982-84 के बीच उनके साथ एक ऐसी भयावह और मर्मान्तक साहित्यिक घटना घटी कि साहित्य से उनका मोह-भंग हो गया। कारण वे बताना नहीं चाहते। वह कारण मैं जानता हूँ किन्तु न तो उन्हें कुरेदना चाहता हूँ और न ही उसका उल्लेख यहाँ करना चाहता हूँ। एक अतिसंवेदनशील और इस अंचल के महत्त्वपूर्ण कवि का कविता से दूर हो जाना स्वयं उस कवि के लिये कितना मर्मान्तक है, इसे वे बहुत भली प्रकार अनुभव करते हैं; किन्तु विवश हैं।

प्रस्तुत है उनका यह गीत : 
















इँदराबती


बोहुन जाएसे इँदराबती, बोहुन जाएसे इँदराबती
गोरस-धारा चो असन, बोहुन जाएसे।

मायँ बलें मयँ इँदराबती, आया बलें मयँ इँदराबती
कोरा धरुन मया करे, बोहुन जाएसे।

गाँव-गुड़ा ने इँदराबती, बेड़ा-खाड़ा ने इँदराबती
रान-बन चो मँजगते, बोहुन जाएसे।

लोलो-बालो के इँदराबती, गाय-गरु के इँदराबती
मायँ असन मया करे, बोहुन जाएसे।

गंगा बलें मयँ इँदराबती, जमुना बलें मयँ इँदराबती
गोरस धारा चो असन, बोहुन जाएसे।


इन्द्रावती


बह रही है इन्द्रावती, बह रही है इन्द्रावती
गोरस-धारा की तरह बहती जा रही है।

माँ कहूँ मैं इन्द्रावती, माता कहूँ मैं इन्द्रावती
गोद में ले कर स्नेह करती, बहती जा रही है।

गाँव-गाँव में इन्द्रावती, खेत-खार में इन्द्रावती
जंगलों के बीच से, बहती जा रही है।

बाल-बच्चों को इन्द्रावती, गाय-बैलों को इन्द्रावती
माँ की तरह स्नेह करती, बहती जा रही है।

गंगा कहूँ मैं इन्द्रावती, यमुना कहूँ मैं इन्द्रावती
दूध की धार जैसी, बहती जा रही है।



श्री पुजारी जी का सम्पर्क-सूत्र है :

श्री एस. एस. पुजारी
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सिविल लाईन के पीछे
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