क्षमा करें। प्रमाद वश यह पोस्ट अगस्त में नहीं जा सका था। बहरहाल, देर आयद दुरुस्त आयद की तर्ज पर नवम्बर में सही, लेकिन पोस्ट को तो जाना ही है।
बुधवार, 15 अगस्त (2012) की रात 10 बजे के आसपास बहीगाँव निवासी भाई घनश्याम सिंह नाग जी का फोन आता है, "पीना-खाना हो गे, गा (पीना-खाना हो गया, क्या)?"
मैं जवाब देता हूँ, "हो गे भइया। पी-खा के एदे अब्भी च उठे हववँ अउ बुता म जोता गे हों (हो गया, भैया। पी-खा कर अभी ही उठा हूँ और काम में लग गया हूँ)।"
"पी-खा के काय बुता ला करत हस गा? कवि सम्मेलन म कविता सुने बर नइँ आवस? (पी-खा कर कौन-सा काम कर रहे हो? कवि-सम्मेलन में कविता सुनने के लिये नहीं आओगे)?" घनश्याम नाग जी कहते हैं।
"पीये-खाये के पाछू च्च साहित्त के बुता ह होथे, तेला तैं नइँ जानस जी? तहूँ त साहित्तकार आस काय, भाई? अउ कवि सम्मेलन म आतेवँ के नइँ आतेवँ, तैं ह तो मोला नेवता च्च नइँ दे हवस भाई। अब अतेक रात कुन कोंडागाँव ले केसकाल पहुँचना तो "टेढ़ी खीर" हे गा मोर बर (पीने-खाने के बाद ही साहित्य का काम होता है, इसे आप नहीं जानते, जी? आप भी तो साहित्यकार हैं न, भाई? और फिर मैं कवि-सम्मेलन में आता या नहीं, आपने तो मुझे न्यौता ही नहीं दिया है, भाई। अब इतनी रात में कोंडागाँव से केसकाल पहुँचना तो मेरे लिये टेढ़ी खीर है)।" मेरा जवाब।
"पहिली बात तो ये आय कि मैं ह कइसे नेवता देहूँ गा तुम्हर गाँव के कवि-सम्मेलन बर? अरे बबा! मैं तो खुदे नेवता पा के आये हववँ गा। तोरे गाँव म तो होवत हावे कवि सम्मेलन ह। कोंडागाँव के टाऊन हाल म। तैं नइँ जानस काय (पहली बात तो यह है कि मैं भला आपके गाँव में हो रहे कवि-सम्मेलन का न्यौता कैसे दे सकता हूँ? अरे बाबा! मैं तो स्वयं ही न्यौता पा कर आया हुआ हूँ। आपके ही गाँव में हो रहा है कवि-सम्मेलन। कोंडागाँव के टाऊन हाल मे। आप नहीं जानते क्या)?" नाग जी कहते हैं। और इस तरह हास-परिहास से भरे बातचीत से पता चलता है कि स्वतन्त्रता-दिवस के अवसर पर प्रति वर्ष की भाँति इस वर्ष भी शासकीय आयोजन के तहत नगर के "टाऊन हॉल" में कवि सम्मेलन आयोजित है। इसी दरम्यान वे बताते हैं कि केसकाल घाट में प्रतिष्ठित "देवी माँ तेलीन सत्ती" से सम्बन्धित उनकी बहु प्रतीक्षित पुस्तिका का विमोचन शनिवार, 18 अगस्त 2012 को केसकाल के श्रीमाँ भंगाराम देवी के मन्दिर-प्रांगण में होना है। और इसके पहले कि और कुछ बात हो पाती, उनका फोन कट जाता है।
फिर शनिवार, 18 अगस्त 2012 को अपरान्ह 11 बजे के आसपास फिर से उनका फोन आता है। फोन पर वे मुझे विमोचन कार्यक्रम में सम्मिलित होने का न्यौता देते हैं और कोंडागाँव के साहित्यकारों तथा साहित्य-प्रेमियों, संस्कृतिकर्मियों आदि के मोबाइल नम्बर पूछते हैं ताकि वे उन सब को भी आमन्त्रित कर सकें। मैं उन्हें सभी के नम्बर यहाँ-वहाँ से खोज-खोज कर देता हूँ। लेकिन नम्बर देना इतना सहज नहीं होता। बारम्बार मोबाइल "डिस्कनेक्ट" हो जाता। फिर वे मुझसे कहते हैं कि "डिस्कनेक्टीविटी" के इस आलम में उन्हें नहीं लगता कि वे सभी को यथासमय आमन्त्रित कर पायेंगे। इसलिये वे मुझसे आग्रह करते हैं कि मैं उनकी ओर से यहाँ के लोगों को आमन्त्रण दे दूँ। मैं उनकी आज्ञा का पालन करते हुए सभी से सम्पर्क करता हूँ। कुछ लोग लगातार हो रही भारी बारिश के कारण तो कुछ लोग कुछ अन्य कार्यों में व्यस्तता के कारण जाने में असमर्थता जताते हैं। किसी तरह सर्वश्री महेश पाण्डे जी (कवि), खेम वैष्णव (लोकचित्रकार), रमेश नायडू (छायाकार), रामेश्वर शर्मा जी (साहित्य-प्रेमी) और मैं तैयार हो जाते हैं। एक गाड़ी की आनन-फानन में व्यवस्था होती है और हम लोग 03.00 बजे कोंडागाँव से चल पड़ते हैं। बारिश अभी भी जस की तस झमाझम हो रही है। कोई मुरव्वत नहीं। गाड़ी छोटी है और उसमें चालक को मिला कर कुल छह लोग। मुझे छोड़ कर बाकी सभी ड्योढ़े-दुगुने। चालक के साथ वाली सीट पर मेरे साथ रमेश नायडू ठस जाते हैं। फिर वे देखते हैं कि उनके कारण मुझे परेशानी हो रही है तो वे कुछ इस तरह बैठ जाते हैं कि मेरी परेशानी कुछ कम हो जाये। बहरहाल, हम कोंडागाँव से चल पड़ते हैं। अभी हम कोंडागाँव से कुछ ही दूर चले होंगे कि महेश पाण्डे जी अपनी एक कविता सुनाना चाहते हैं। इस पर मैं परिहास करते हुए कह उठता हूँ, "ठीक है। आप अपनी कविता सुनाइये और मैं यहीं रास्ते में ही गाड़ी से उतर जाता हूँ।" भाई रामेश्वर शर्मा मेरे इस कथन को गम्भीरता से लेते हैं और वे मुझसे निवेदन करने लगते हैं कि मैं ऐसा न करूँ। दरअसल शर्मा जी को यह नहीं पता था कि महेश पाण्डे जी और मेरे बीच कुछ इसी तरह के हास-परिहास के सम्बन्ध हैं। थोड़े से परिहास के बाद महेश पाण्डे जी अपनी कविता सुनाने लगते हैं। कविता हास्य-व्यंग्य-विनोद से परिपूर्ण है। सभी को उसमें आनन्द आता है। कविता में कुछ ऐसी पंक्तियाँ भी हैं कि बीच-बीच में बेसाख़्ता ठहाके भी लगने लगते हैं। 50 से 65 आयु वर्ग के हम लोगों में पता नहीं किधर से लड़कपन आ घुसता है। गम्भीरता न जाने कहाँ मुँह छिपा लेती है और बचकानी हरकतें सिर उठाने लगती हैं। हमारे साथ-साथ वाहन-चालक भी मजे लेने लगता है। ऐसे में मुझे लगने लगता है कि इस तरह के कार्यक्रम बीच-बीच में बनते रहने चाहिये। इससे एकरसता टूटती है। दिन-रात काम... काम... और काम। ये भी क्या बात हुई!
बहरहाल, इस तरह हँसी-ठिठोली करते हम पहुँच जाते हैं केसकाल। वहाँ भी बारिश का वही आलम। लेकिन तेज बारिश के बावजूद श्रीमाँ भंगाराम मन्दिर की ओर जाने वाली सड़क पर भारी भीड़ है। गाँव-गाँव से लोग अपने देवी-देवताओं के प्रतीकों के साथ वहाँ पहुँच रहे हैं। डोलियाँ, आँगा, छतर, लाट-बैरक, डँगई, तरास आदि लिये लोगों का रेला। सिरहों पर देवियाँ आरूढ़ हैं और वे हिलते-डोलते, खेलते-कूदते श्रीमाँ भंगाराम देवी के मन्दिर की ओर बढ़े चले जा रहे हैं। चाहे भारी बारिश हो या आँधी-तूफान! ये आस्था को नहीं डिगा सकते। यदि डिगा पाते तो शायद यहाँ इक्के-दुक्के लोग ही पहुँचते। किन्तु ऐसा नहीं था। भीड़ इतनी थी कि हम अपनी गाड़ी मन्दिर से लगभग एक किलोमीटर पहले ही छोड़ने को विवश हो गये थे। मन्दिर पहाड़ी की तलहटी पर है। हम सभी उधर चल पड़ते हैं। रमेश नायडू फोटो खींचना चाहते हैं किन्तु बारिश की वजह से उन्हें परेशानी हो रही है। तो भी किसी तरह वे दो-चार फोटो ले ही लेते हैं।
हम किसी तरह भीड़ में से रास्ता बनाते हुए पहुँच जाते हैं मन्दिर में और वहाँ हमारी निगाहें भाई घनश्याम सिंह नाग और "बस्तर-बन्धु" (काँकेर) के सम्पादक श्री सुशील शर्मा जी को खोजने लगती हैं। किन्तु चारों ओर छाते ही छाते और देवी-देवताओं के प्रतीकों के बीच उन्हें खोज पाना हमारे लिये कठिन हो जाता है। मैं और मेरे अनुज खेम मोबाइल पर इन दोनों से सम्पर्क करने का प्रयास करते हैं किन्तु "टावर" की अनुपलब्धता के कारण सफल नहीं हो पाते। तब खेम हम बाकी लोगों को मन्दिर के दाहिने ओर बने एक शेड में छोड़ कर नाग भाई और शर्मा जी को खोजने निकल पड़ते हैं। बड़ी मुश्किल से उनकी उनसे भेंट होती है और फिर वे वापस हम तक आ कर हमें कार्यक्रम-स्थल तक ले जाते हैं, जहाँ भाई घनश्याम सिंह नाग की पुस्तिका "बस्तर के केसकाल क्षेत्र की धार्मिक आस्था और विश्वास की प्रतीक देवी माँ तेलीन सत्ती" का विमोचन होना था।
इस पुस्तिका के विमोचन के लिये यह बड़ा ही अच्छा अवसर था। कारण, आज यहाँ का प्रसिद्ध "भादवँ जातरा" था। और इसी "भादवँ जतरा" तथा इससे जुड़े अन्य प्रसंगों पर ही यह पुस्तिका केन्द्रित है। तय कार्यक्रम के अनुसार पुस्तिका का विमोचन देवी-देवताओं की गरिमामयी उपस्थिति में क्षेत्रीय विधायक श्री सेवक राम नेताम के हाथों हुआ। कुल मिला कर 36 पृष्ठीय इस पुस्तिका में सम्मिलित विवरण को देख कर "गागर में सागर" मुहावरा चरितार्थ होता दिखायी पड़ता है। आर्ट पेपर पर कलात्मक रूप से छपी इस पुस्तिका, जिसका मूल्य महज 20 रुपये है, को प्रकाशित किया है "श्रीमाँ भंगाराम देवी समिति" केसकाल ने और इसके सह प्रकाशक हैं "बस्तर-बन्धु", काँकेर के सम्पादक सुशील शर्मा।
विधायक केसकाल श्री नेताम ने मुख्य अतिथि की आसन्दी से उपस्थित जन को सम्बोधित करते हुए कहा कि यह पुस्तिका निश्चित रूप से बस्तर की संस्कृति को प्रकाश में लाने का महत्त्वपूर्ण प्रयास है। उन्होंने इसके लेखन के लिये लेखक घनश्याम सिंह नाग तथा प्रकाशन के लिये "श्रीमाँ देवी भंगाराम समिति" एवं "बस्तर बन्धु" के सम्पादक सुशील शर्मा का आभार व्यक्त किया।
अब यदि "भादवँ जातरा" अथवा श्रीमाँ भंगाराम देवी के विषय में बात न की जाये तो बात अधूरी न रह जायेगी? तो चलिये, बात करते हैं "भादवँ जातरा" की भी और श्रीमाँ भंगाराम देवी की भी। केसकाल स्थित श्रीमाँ भंगाराम देवी को नौ परगनों के देवी-देवताओं का मुखिया (राजा) और न्यायाधीश होने का गौरव प्राप्त है। नौ परगनों के जिस किसी भी देवी अथवा देवता ने लोगों के लिये किसी भी तरह की परेशानी खड़ी की तो उसे दण्डित करने का अधिकार केवल और केवल श्रीमाँ भंगाराम देवी को ही है। प्रति वर्ष भाद्रपद मास में केसकाल में आयोजित होने वाला यह "भादवँ जातरा" दरअसल उसी वार्षिक न्यायालय के लगने का अवसर होता है।
विस्तार में न जाते हुए इस 36 पृष्ठीय पुस्तिका का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है :
रवाना
किसी गाँव में या परिवार विशेष में कोई दैवीय प्रकोप होता है तब देवता बिठा कर सिरहा के सिर पर अपने इष्ट देव को आमन्त्रित कर उनके द्वारा यह ज्ञात किया जाता है कि पूरे गाँव वालों को या किसी परिवार विशेष को कौन देव परेशान कर रहा है। जिस देवता का नाम सामने आता है उस देवता को विधान-पूर्वक श्रीमाँ भंगाराम देवी की ओर रवाना कर दिया जाता है। रवाना में सम्बन्धित देवी के प्रतीक-चिन्ह (लाट, डोली या अन्य सामग्री) को सम्बन्धित गाँव की सरहद के बाहर निकाल दिया जाता है। इसी को "रवाना" कहा जाता है। दूसरे गाँव के निवासी जिसकी सरहद में "रवाना" आया है, वे उस "रवाना" को अपने गाँव की सरहद के बाहर पहुँचा देते हैं। फिर तीसरे गाँव, चौथे गाँव वाले यही प्रक्रिया अपनाते हैं और "रवाना"-सामग्री उपर्युक्त प्रक्रिया से केसकाल घाट स्थित श्रीमाँ भंगाराम देवी तक पहुँच जाती है। मान्यता है कि जो भी देवी-देवता रवानगी से भंगाराम माई के दरबार तक पहुँच जाते हैं, वे फिर कभी किसी को नहीं सताते। कारण, श्रीमाँ भंगाराम देवी उन्हें कठोर नियन्त्रण में रखती हैं। "रवाना" में कभी-कभी मुर्गा-बकरा, सुअर या बछिया आदि जीव-जन्तु भी होते हैं जिन्हें गाँव की सरहद के पार बाँध दिया जाता है और उपर्युक्त प्रक्रिया से गुजरते हुए वे जीव-जन्तु भी श्रीमाँ भंगाराम देवी के दरबार तक पहुँच जाते हैं।
परेशान करने वाले देवी-देवता को किसी सामग्री या जीव-जन्तु के माध्यम से ही श्रीमाँ भंगाराम देवी के दरबार तक पहुँचाया जाता है। कभी यह सामग्री सोना-चाँदी, तांबा, सिक्के आदि के रूप में होती है तो कभी पत्थर की चक्की, आभूषण के रूप में। यहाँ तक कि बैलगाड़ी भी "रवाना"-सामग्री हो सकती है। उपर्युक्त रवाना-सामग्री को भादवँ जातरा के दिन मंदिर के पास एक निर्धारित स्थान में विधान-पूर्वक फेंक दिया जाता है। जो जीव-जन्तु रवाना के रूप में लाये जाते हैं उन्हें भी यहाँ जीवित फेंक दिया जाता है। उनकी बलि नहीं दी जाती। काँसे की थाली, लोटा, चाँदी के पुराने सिक्के, पुराने सिक्कों की माला, मंगल-सूत्र आदि सोना-चाँदी के अनेक कीमती आभूषण अब भी इस निर्धारित स्थान पर फेंक दिये जाते हैं, जिन्हें ग्रामीण दुबारा छूने से भी डरते हैं।
जैसा की पूर्वोक्त है, श्रीमाँ भंगाराम देवी को पूरे नौ परगनों के देवी-देवताओं का मुखिया माना जाता है। इसलिये इन नौ परगनों में कहीं भी देवी-देवताओं से सम्बन्धित विवाद उत्पन्न होने पर उसका फैसला राजा अर्थात् श्रीमाँ भंगाराम देवी को ही करना पड़ता है। उल्लेखनीय है कि इस देवी का फैसला सभी देवी-देवता, सिरहा-पुजारी एवं आम जनता को मान्य होता है।
नौ परगनों के गाँव में किसी भी बीमारी या प्राकृतिक संकट का निवारण यदि स्थानीय देवी-देवता नहीं कर पाते तो श्रीमाँ भंगाराम देवी के पास कष्ट-निवारण हेतु गुहार लगाते हैं। यह बीमारी अथवा दैवीय प्रकोप व्यक्तिगत, पारिवारिक या सामुदायिक अथवा ग्राम्य-स्तरीय भी हो सकता है।
यदि किसी व्यक्ति, परिवार या गाँव को कोई दुष्ट प्रवृत्ति का देवता परेशान करता है तो उसे श्रीमाँ भंगाराम देवी के दरबार में पहुँचा दिया जाता है। मान्यता है कि श्रीमाँ भंगाराम देवी उस दुष्ट प्रवृत्ति के देवी-देवता को अपने नियन्त्रण में रखती हैं। यदि किसी परिवार की कुल-देवी अपने ही आराधकों को कष्ट देती हैं तो उसके लिये भी श्रीमाँ भंगाराम देवी से गुहार की जाती है। तब श्रीमाँ भंगाराम देवी उस देवी अथवा देवता को उसके अपराध के अनुसार 05 या 10 वर्ष अथवा अनिश्चित काल के लिये कारागार में डाल देती हैं।
कारागार में बंद देवी अथवा देवता का दण्ड-काल समाप्त होने पर वे इसकी सूचना जिस कुल की वह देवी या देवता है, उस परिवार को देती हैं तब सम्बन्धित परिवार के सदस्य श्रीमाँ भंगाराम देवी के पास पुन: आ कर अपने देवी-देवता को वापस ले जाते हैं और उसे घर में स्थापित कर विधि-विधान के साथ उसकी पूजा-अर्चना करते हैं। क्षेत्र में नये देवी-देवता का जन्म होने पर उसे श्रीमाँ भंगाराम देवी को अपना परिचय देना पड़ता है। न केवल इतना अपितु उसे परीक्षा की प्रक्रिया से भी गुजरना पड़ता है। परीक्षा में सफल सिद्ध हो जाने पर उस देवी को श्रीमाँ भंगाराम देवी द्वारा उपयुक्त मान लिये जाने पर ही उस देवी अथवा देवता की पूजा विधान-पूर्वक की जाती है तथा उसे देवताओं के समूह में शामिल माना जाता है।
इस पुस्तिका की प्राप्ति के लिये लेखक से उनके मोबाइल नम्बर 9424277354 (बहीगाँव), तथा सह प्रकाशक सुशील शर्मा (काँकेर) से उनके मोबाइल नम्बर 9425259049 पर सम्पर्क किया जा सकता है। इसके साथ ही यह पुस्तिका केसकाल घाट में स्थित तेलिन सती माँ के मन्दिर एवं मन्दिर-परिसर में स्थित नारियल-फूल-अगरबत्ती की सभी दुकानों में भी विक्रय हेतु उपलब्ध है।
श्रीमाँ भंगाराम देवी और उस पूरी परम्परा को घनश्याम सिंह नाग, सुशील शर्मा और आपके माध्यम से प्रणाम.
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण जानकारी आपके माध्यम से प्राप्त हुई। देवी माँ तेलीन सत्ती के प्रकाशन पर मेरी हार्दिक शुभकामनाएं
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