इधर कुछ दिनों से लोकगीतों और लोक-कलाओं के संग्रहण तथा लोक कलाकारों से मुलाकात करने की गरज से हमारी टोली लगातार आसपास और दूर-दराज के क्षेत्रों का दौरा कर रही थी। इस टोली में विश्व प्रसिद्ध धातुशिल्पी जयदेव बघेल, हल्बी और हिन्दी के युवा साहित्यकार यशवंत गौतम और अंचल के सुप्रसिद्ध लोक-संगीतकार एवं चित्रकार खेम वैष्णव भी थे। अभी तक इस टोली ने कारसिंग, हंगवा, अनतपुर, बड़े सोहंगा, छिनारी, खोरखोसा, बम्हनी, ईसलनार, बकावंड, चारगाँव और गढ़बेंगाल का दौरा किया है। अभियान के दौरान कई खट्टे-मीठे अनुभव हुए। लोगों से काफी बातें भी हुईं। कई जगहों में लोगों ने जहाँ बड़ी प्रसन्नता से सहयोग किया, वहीं कई जगहों में हमें गहरी उदासी और वितृष्णा मिली। कई जगहों में आक्रोश का भी सामना करना पड़ा।
अभी तक हम कई गाँव घूम चुके थे। बाकी था केवल अनतपुर का एक अन्य मोहल्ला। हम वहाँ भी जा पहुँचे। अनतपुर कोंडागाँव से उमरकोट के रास्ते पर कोंडागाँव से 38 किलोमीटर की दूरी पर स्थित छोटा सा गाँव है। यहाँ की प्राय: 90 प्रतिशत आबादी मुरिया जन-जाति के लोगों की है। उमरकोट से मात्र 26 किलोमीटर इधर ओड़िसा प्रान्त से लगा क्षेत्र होने के कारण यहाँ की बोली "भतरी" है। संस्कृति पर भी ओड़िसा का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है। शहरी सभ्यता के प्रतीक रूप में चंद शासकीय कर्मचारी, जैसे शिक्षक, वनपाल, वन रक्षक, ग्राम सहायक और चिकित्सक आदि, यहाँ पदस्थ हैं। यहीं से लगभग 5-7 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व की ओर बड़े सोहंगा और वहाँ से कुल 3 किलोमीटर दक्षिण में बसा है, छिनारी गाँव। बड़े सोहंगा और छिनारी गाँवों की बोली "हल्बी" है। बड़े सोहंगा में पाठशाला है। छिनारी में प्राथमिक पाठशाला के साथ ही एक छोटा-सा शासकीय चिकित्सालय भी है। बड़े सोहंगा के लोगों में शिक्षा के प्रति अधिक जागरुकता दिखलायी पड़ी, वहीं छिनारी के लोगों में इसके ठीक विपरीत उदासीनता का भाव दिखा।
अनतपुर के आदिवासियों से जब हमने चर्चा की कि हम सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ावा देने, लगातार लोप होती जा रही आदिवासी और लोक कला के विभिन्न रूपाकारों आदि के संग्रहण के सिलसिले में वहाँ तक पहुँचे हैं, युवक-युवतियों के साथ ही साथ बुजुर्गों ने भी एक स्वर में कहा, "हमारे नृत्य-गीत केवल हमारे लिये हैं। आपके लिये नहीं। हम न तो नृत्य का प्रदर्शन करेंगे और न गीत ही सुनाएँगे।" लोगों के स्वर में तीखापन स्पष्टत: उभर आया था। और जब हमने इसके महत्त्व के विषय में बोलना चाहा, तब तो उनका विरोध और भी अधिक मुखर हो उठा : ""हम शहरियों के कारनामों से अच्छी तरह वाकिफ हैं। नृत्य-गीत के बहाने हमारी बहू-बेटियों पर बुरी नजर डालना और उन्हें फुसला कर भगा ले जाना...., केवल यही ध्येय होता है आप शहरी बाबुओं का।""
अब हमारे चौंकने की बारी थी। हम सकते में आ गये । जरूर कहीं कुछ गड़बड़ है। हमने उन्हें कुरेदा तो वे फट पड़े, ""अभी तक जितने लोग शहरों से आये हैं, एक-दो को छोड़ कर बाकी सभी ने यही किया है।""
गाँव के मुखिया बैसाखू पुजारी, जो काफी रुष्ट और क्रुद्ध थे, ने ज़मीन पर थूकते हुए कहा, ""अब देखिए, अभी हाल की ही बात है। ये जो नलकूप वाले हैं.........इन्होंने जिस-जिस गाँव में नलकूप खोदना शुरु किया, वहीं से लड़कियाँ भगा ले गये। आखिर हम कब तक यह सब सहन करते रहेंगे? बहुत हो चुका। अब हम अपने गाँव के उत्सवों में कभी भी परदेसियों को शामिल होने नहीं देंगे।""
अपने चरित्र पर प्रश्न-चिन्ह लगते देख हम खामोश नहीं रह सके थे, ""लेकिन बाबा, हम लोग वैसे नहीं हैं। कलाकार हैं। और फिर मूलत: बस्तर के रहने वाले हैं।"" हमने सफाई दी थी।
""जरूर होंगे। हम कब कहते हैं कि आप कलाकार नहीं हैं, या कि बस्तर के नहीं हैं। लेकिन बाबू, हमने आपका पेट तो नहीं देखा है, न? और फिर यहाँ जो भी आता है, यही कहता है कि हम कलाकार हैं या सरकारी कर्मचारी हैं। तुम्हारी भलाई के लिये आये हैं। लेकिन अन्त में वही होता है। लोग अपना काला मन उजागर कर ही देते हैं। और फिर सवाल यह है कि हम आखिर किस-किस को और कब तक परखते रहें? परखते-परखते तो आज कितने बरस हो गये । लूट चुके हैं लोग हमें। तो क्या हम इस परखने की प्रक्रिया में सारी उमर और पीढ़ी-दर-पीढ़ी लुटते चले जाएँ?""
बात बड़ी ही सटीक थी। हम भारी मन से केवल यह कह कर कि हाँ बाबा, बात तो सौ फीसदी सही कह रहे हैं। लेकिन हमें अफ़सोस है कि अपने आक्रोश का पात्र आपने गलत व्यक्तियों को बनाया; उठ आये थे अपने डेरे पर। हमारे तथाकथित सभ्य समाज ने इन लोगों को इस हद तक छला है कि अब सही व्यक्ति भी गलत की पंक्ति में गिना जाए तो दोष उनका नहीं, हमारा है। और फिर क्या इनका इस तरह सोचना सही नहीं है? भला बताइये, किस-किस को और कब तक परखते रहें ये........?
बहरहाल, यह बात केवल अनतपुर गाँव की नहीं है, बल्कि बस्तर जैसे प्रत्येक पिछड़े इलाके के साथ यह दुर्भाग्य जुड़ा हुआ है। जब हम गढ़बेंगाल पहुँचे तो वहाँ की सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बने हुए बेलगुर और स्वीडिश फिल्म "ए जंगल टेल" के नायक चेंदरु से मुलाकात हुई। बेलगुर वैसे तो बड़ा प्रसन्न है कि उसके यहाँ कई देशी-विदेशी लोग अक्सर आते रहते हैं और बख्शीश के रूप में उसे और उसके दल को कुछ रुपये मिल जाते हैं। लेकिन बातचीत के दौरान उसके दल के कुछेक सदस्यों के मन की वितृष्णा स्पष्टत: उभर कर सामने आयी। आभास हुआ कि शोषण का यह चक्र यहाँ भी उसी तरह चलता आ रहा है। चंद रुपयों के प्रलोभन से हम उनकी अक्षुण्ण संस्कृति की खरीद-फरोख्त करने में मसरूफ हैं; पूरी तरह से किसी पूर्व नियोजित षड्यंत्र के तहत।
चेंदरु वैसे तो बहुत कम बोलने वाला और प्राय: गुमसुम-सा रहने वाला है, किन्तु उसने बहुत थोड़े से शब्दों में ही सही, अपने क्षोभ को प्रगट कर ही दिया, ""इतने दिनों तक हम लोगों ने अपनी रोजी तक को ताक पर रख कर उस फिल्म के लिये काम किया, लेकिन हमें मेहनताना केवल दो रुपये प्रतिदिन के हिसाब से दिया गया। हाँ, इतना जरूर है कि मुझे उन लोगों ने कुछेक खिलौने (दूरबीन, अलबम आदि) जरूर दिये थे, जो कम से कम हमारे काम के तो थे ही नहीं। उन्हें भी आपके कोंडागाँव के एक ठेकेदार ने, जिसका काम गढ़बेंगाल के पास चल रहा था; हथिया लिया।""
हमने उत्सुकता से पूछा, ""नाम जानते हो, उस ठेकेदार का?""
जी नहीं, नाम तो नहीं जानता।"" चेंदरु बोला। हमने गौर किया, वह जानते हुए भी अनजान बन रहा था। क्यों? पता नहीं।
""तुमने तो उन्हें बेचा होगा न?""
""नहीं साहब। बेचा नहीं। पता नहीं उन्हें कैसे मालूम हुआ कि ये चीजें मेरे पास हैं। वे एक दिन मेरे पास आये और उन चीजों को देखने की इच्छा व्यक्त की। देखने के बाद बोले, "मैं इन्हें अपने साथ ले जा रहा हूँ। बाद में तुम्हें वापस कर दूँगा।" मैंने विश्वास कर हामी भर दी। आज कई बरस हो गये किन्तु उन्होंने वापस नहीं किया। एक-दो बार मेरे कहने पर यह कह कर डाँट दिया कि तुम्हारे पास क्या सबूत है कि ये सामान तुम्हारे हैं? मैंने कभी कोई चीज तुमसे नहीं ली है। मैं क्या करता साहब, चुप रह गया।""
अभी हाल ही में, मध्यप्रदेश शासन, संस्कृति विभाग के अधीन स्थापित भारत-भवन के अन्तर्गत आधुनिक कला संग्रहालय रूपंकर के निदेशक और प्रख्यात चित्रकार जे. स्वामीनाथन अपने सहयोगियों सुरेन्द्र राजन, अकबर पदमसी तथा प्रयाग शुक्ल के साथ आदिवासी एवं लोक कलाओं के संग्रहण के सिलसिले में बस्तर-भ्रमण पर आये थे। इस दौरान गढ़बेंगाल में उन्होंने काफी समय व्यतीत किया। तभी उनकी मुलाकात चेंदरु से भी हुई थी। मुझे याद आया, बातचीत के दौरान स्वामी जी ने बड़ी ही आत्मीयता से चेंदरु को आश्वस्त किया था। चेंदरु आगे बताने लगा, ""हाल ही में, पाँच-सात माह पहले एक आदमी आया था। अपने-आप को नागपुर के किसी समाचार-पत्र का संवाददाता बता रहा था। उसने गाँव के लोगों के बीच कुछ कपड़े बाँटे थे। फिर एक दिन मेरी किताब ("ए जंगल टेल") कुछ दिनों में वापस करुँगा, कह कर ले गया। किन्तु आज तक वापस नहीं किया है।"" वह फिर थोड़ी देर रुका, फिर बताने लगा, ""फटे नोट भी बदलवा कर नए नोट ला दूँगा, कह कर ले गया है।""
जे. स्वामीनाथन आदि के आने के पूर्व रूपंकर के लिये आदिवासी एवं लोक कला-कृतियों, जिनमें धातु, लकड़ी, लोहा, मिट्टी तथा बाँस आदि से बनी कलाकृतियों का समावेश किया गया था, के संग्रहण के लिये मध्यप्रदेश के कोने-कोने में रूपंकर की ओर से संग्राहक-दल भेजे गये थे। इन्हीं में से एक दल बस्तर को भी कृतार्थ करने आया था। इस दल के सदस्य थे आट्र्स कालेज ग्वालियर, भोपाल आदि में पढ़ने वाले अनिल कुमार, अभय जैन, ऊषा शर्मा और जया टेंभे। जया टेंभे इस दल का नेतृत्व कर रही थीं। जयदेव भाई के माध्यम से इस दल से हमारा परिचय हुआ। बस्तर की माटी के लिये कोई भी कार्य करने की अदम्य लालसा वाले यशवंत गौतम ने लगातार पन्द्रह दिनों तक इस दल के साथ काफी भीतरी इलाक़ों का दौरा किया और कई कलाकृतियाँ इन्हें दिलवाने में मदद की।
इसी दौरान यह दल अनतपुर पहुँचा। यहाँ एक शिक्षक बन्धु की सहायता से ये लोग स्थानीय कलाकार रामसिंह से मिले। रामसिंह देवगुड़ी के किवाड़ों, खम्भों आदि में आदिवासी देवी-देवताओं के सुन्दर चित्र उत्कीर्ण करने में अपना सानी नहीं रखते। दल ने देवगुड़ी के किवाड़ों और खम्भों में उनके द्वारा उत्कीर्ण चित्र देख कर रूपंकर के लिये भी वैसा ही किवाड़ बना देने का आग्रह किया तथा अगले माह यानी नवम्बर 1981 में मोल चुका कर ले जाने की बात कही। उनके कहे अनुसार रामसिंह अपने काम में जुट गये और दो महीने के अथक परिश्रम के बाद एक शानदार कलात्मक किवाड़ तैयार कर दिया। किन्तु अफ़सोस! संस्कृति के उन प्रहरियों का आज तक कोई अता-पता नहीं है। चूँकि मध्यस्थ यशवंत गौतम और अनतपुर के शिक्षक श्री पंडोले थे, अत: उन्हें ही रामसिंह के तानों और गुहारों से दो-चार होना पड़ रहा है। बेचारे दोनों शिक्षक हैं। भला एक हजार रुपये की कलाकृति खरीद कर वे क्या करेंगे.......? सबसे बड़ी बात, रामसिंह के दो महीने की मजदूरी का क्या होगा.......? अब बताइए, इन स्थितियों में यदि कोई कहे कि हमारी संस्कृति, हमारी कला केवल और केवल अपने लिये है, तो क्या वे सही नहीं हैं?
इन पंक्तियों के माध्यम से रूपंकर के निदेशक जे. स्वामीनाथन से और संस्कृति विभाग के विशेष सचिव अशोक वाजपेयी से रामसिंह अपनी मजदूरी माँग रहा है। क्योंकि वह बेचारा क्या जाने, कला और कलाकार किस चिड़िया का नाम है। वह तो यह जानता है कि किवाड़ों पर चित्र उत्कीर्ण करना उसे न जाने कैसे आ गया। बस वह उत्कीर्ण किए जा रहा है। मेहनत किया है दो महीने तक। उसकी मजदूरी उसे चाहिये। अब उसे आप कलाकृति मान लें या कलाकार, आप जानें। वह तो अब उस अशुभ घड़ी को कोस रहा है, जब वह दल यहाँ आया था। खामखा दो महीने तक आँखें गड़ा-गड़ा कर उस किवाड़ के पीछे खपता रहा है। इतने दिनों और कुछ काम करता तो मेले का खर्चा भी निकल ही आता। पंडोले जी की स्थिति काफी खराब हो गयी है। आते-जाते वह उन्हें कोसता है और पंडोलेजी मुझे। क्योंकि पंडोलेजी के नाम उस दल को चिट्ठी मैंने ही दी थी, उनकी सहायता के लिये।
बड़ा महँगा पड़ता है भोपाल-दिल्ली वालों की मदद करना। यहाँ यह उल्लेख करना असंगत न होगा कि भाई जयदेव बघेल का इस मामले में चुप्पी साध लेना कम से कम आदिवासी और लोक कलाकारों के लिये हितकर नहीं है। जयदेव भाई बस्तर के भाग्य से मध्यप्रदेश आदिवासी एवं लोक कला परिषद् की कार्यकारिणी समिति के सदस्य होने के साथ ही साथ भारत के शीर्षस्थ कलाकारों में से हैं। इस नाते उनका कत्र्तव्य था कि वे इस मामले में हस्तक्षेप कर रामसिंह की कलाकृति को रूपंकर के हवाले कर उसे उसका मेहनताना दिलवाते। परन्तु अफ़सोस! अपने-आप को लोक कलाकारों का सबसे बड़ा हितैषी बताने वाला यह समर्थ कलाकार भी केवल इसलिये चुप्पी साध गया क्योंकि उक्त संग्राहक दल के एक सदस्य को कलाकृति की कीमत बारह सौ रुपये बहुत अधिक लग रही थी। भाई जयदेव मेरे मित्र हैं, घनिष्ठ मित्रों में से हैं; किन्तु क्या केवल इसी बात से मैं उनसे यह नहीं पूछ सकता कि क्या वे माटी के वो पुतले हैं जिन पर कोई भी आकर कोई सा भी रंग डाल देगा तो ये उस रंग को अपना लेंगे? कमोबेश शायद यही बात सच हो।
इन्हीं सब बातों को देखते हुए अब बस्तर के "बस्तर जिला आदिवासी-हरिजन नवयुवक संघ" ने आदिवासी कलाओं के सार्वजिक प्रदर्शन पर रोक लगा दी है। प्रदर्शन के लिये इस संघ से अनुमति लेना आवश्यक है। संघ यदि पाता है कि प्रदर्शन से किसी प्रकार का कोई आक्षेप आदिवासी-हरिजनों की संस्कृति पर नहीं आता, तभी वह अनुमति देगा। इस बात की जानकारी हमें शासकीय उपाधि महाविद्यालय, जगदलपुर में एम. ए. अन्तिम वर्ष की छात्रा सीमा सोरी ने दी। उन्होंने बड़े ही आक्रोश से कहा, ""माफ कीजिएगा, हमें ज्यादा खो कर कम पाना नहीं है। लोगों ने बस्तर की संस्कृति के प्रदर्शन को व्यापार बना लिया है। और इसे प्रश्रय दिया है हमारे अपने राजनेताओं ने अपने स्वार्थ के लिये। ये लोग जान-बूझ कर अनजान बने अपने व्यक्तिगत स्वार्थों में लिप्त हैं। वरना आज किसी में हिम्मत होती कि वह हमारी माँ-बहिनों के अद्र्धनग्न चित्र पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कर पाता? कोई यदि अपने समाज और संस्कृति की बात करता है, तो उस पर राजनीतिक दलों आदि का लेबल लगा कर उसे बदनाम कर दिया जाता है। उसके रास्ते बन्द कर दिए जाते हैं। जहाँ समाज-संस्कृति और अधिकारों की बात आती है, वहाँ व्यक्ति चाहे वह विद्यार्थी हो या राजनेता, कृषक अथवा मजदूर, स्त्री हो या पुरुष; समाज का सदस्य होने के नाते अपने समाज के संदर्भ में चिंतन उसका कत्र्तव्य है। और फिर संस्कृति तो प्रत्येक समाज की अमूल्य निधि है। उसे जीवित रखना और उसकी सुरक्षा करना प्रत्येक सदस्य का महत्त्वपूर्ण दायित्व है।"
नारायणपुर में एक लोक कलाकार रहा करते थे, बलदाऊ प्रसाद पात्र। फिल्म्स डिवीज़न वालों ने अपने एक वृत्त चित्र में उनसे नायक की भूमिका करवा कर महज दस-बारह रुपये दैनिक मजदूरी दी। जब उनसे तंग आकर श्री पात्र यहाँ-वहाँ छिप जाते तो उन्हें येन-केन-प्रकारेण खोज निकाला जाता और फिर वृत्त चित्र के निर्देशक को पुरस्कार दिलाने के लिये बेचारे पात्र को खटना पड़ता। जबकि जहाँ वे अस्थायी तौर पर काम कर रहे थे, वहाँ उन्हें आठ-दस रुपये दैनिक मजदूरी मिल जाती थी। इसी तरह हल्बी के वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामसिंह ठाकुर (नारायणपुर) ने अपनी व्यथा बतायी। हल्बी रामचरितमानस का पुस्तकाकार प्रकाशन मानस चतुश्शताब्दी समारोह समिति द्वारा तय कर लिया गया था। वे समारोह में भी आमन्त्रित थे। किन्तु आज नौ-दस बरस से ऊपर हो गये, प्रकाशन नहीं हो पाया है। आकाशवाणी से कुछ दिनों तक उसका सस्वर पाठ होता रहा। फिर पता नहीं कैसे वह भी रुक गया। आकाशवाणी को पाण्डुलिपि भेजने की पहल उन्होंने नहीं की थी। केन्द्र निदेशक स्वत: उनके पास गये थे और ससम्मान उन्होंने हल्बी मानस की पाण्डुलिपि उनसे माँगी थी। इस बात का आश्वासन पा लेने के बाद कि मानस को उचित सम्मान दिया जाएगा, उन्होंने आकाशवाणी को पाण्डुलिपि दे दी थी। और मजेदार बात यह कि उनके लिखे मानस और बनाए हल्बी व्याकरण की प्रतियाँ उन्हीं से दोस्ती गाँठ कर प्राप्त करने वाले एक सज्जन ने घर बैठे अपनी पत्नी को "हल्बी" में डॉक्टरेट दिलवा दी। बस्तर के सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठतम साहित्यकार श्री लाला जगदलपुरी के अभिनन्दन का प्रस्ताव था मध्यप्रदेश साहित्य परिषद् में आज से कई साल पहले। बेचारे लालाजी तो जहाँ के तहाँ रह गये, बाजी मार ले गया कोई और। इनका भी कोई गुट होता या साहित्य की राजनीति के दाँव-पेंच इन्हें मालूम होते तो शायद अभिनन्दन हो जाता। किन्तु धन्य है बस्तर की माटी! जिसने अपने लाल को यह सब प्रपंच नहीं सिखाया। अभी हाल ही में पता लगा, उनके हल्बी पंचतन्त्र का प्रकाशन दूसरे प्रान्त के किसी सज्जन ने अपने शुभ नाम से कर लिया है। क्षेत्रीय बोलियों को लोक-भाषा का दर्जा दिये जाने के संदर्भ में भी हल्बी को ठगा गया है। बेचारी हल्बी, जो बस्तर सम्भाग की सम्पर्क भाषा है, जिसका लोक एवं लिखित साहित्य-भण्डार भरा-पूरा है; साहित्य की राजनीति की मार से आज तक लोक-भाषा का दर्जा हासिल नहीं कर सकी है।
(नवभारत, 29 अक्टूबर 1982 अंक में प्रकाशित।)
टीप : बाद में हल्बी रामचरित मानस का प्रकाशन वर्ष 1991 में मानस चतुश्शताब्दी समारोह समिति, भोपाल द्वारा किया गया।